Tuesday, August 22, 2017

"क्या तीन तलाक़ से तलाक़ हो पायेगा"? - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

ना जाने किसकी प्रेरणा मुस्लिम महिलाओं को मिली , तीन तलाक़ से पीड़ित कई महिलाएं न्यायालय की शरण में चली गयीं !पीड़ित तो वे कई  समस्याओं से भी वर्षों से थीं लेकिन इस विषय को उन्होंने सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना और बजा दिया बिगुल मुस्लिम धर्म के नक़ली और नाज़ायज़ ठेकेदारों के खिलाफ जिन्होंने कुरान व शरीयत के नाम पर ना केवल मुस्लिम महिलाओं बल्कि मुस्लिम पुरषों को भी अपना गुलाम बना रख्खा था !ये गुलामी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती ही आ रही थी !कोई भी "मर्द"अपनी मर्दानगी दिखने को तैयार ही नहीं हो सका !बल्कि मुस्लिम मर्द अपने मुल्लाओं,मौलवियों और मुफ्तियों की षड्यंत्र भरी बातों को पवित्र क़ुरान की बात ही मानने लगे थे !जिसके पीछे शिक्षा का ना होना भी एक बड़ा कारण बना !एक और बड़ा कारण है इस सबके पीछे ,वो ये कि मुस्लिम समाज के वो बड़े लोग जो रोज़ नयी औरत का स्वाद चखना चाहते हैं और थे,वो इन मौलवियों द्वारा षड्यंत्र रचकर औरतों के साथ अन्याय करते रहते हैं ! पहले ब्याह करना फिर तलाक़ देना फिर हलाला करना और फिर निकाह करवाना ,ताकि वो औरत ज्यादा मर्दों की आदि हो जाए ! औरतों को विदेश लेजाना और बेच देना तो आम बात है मुस्लिम समाज में !ऐसे सभी कुकर्मों के पीछे धर्म के नक़ली क़ानून बताये जाना,डर दिखाना भी एक कारण बना !
                              आज लगभग सभी धर्मों और जातियों के लोग अपनी कुरीतियों को समाप्त करना चाहते हैं !इसी चाहत में अगर मुस्लिम औरतों ने इतना साहसी कदम उठाया है तो कइयों ने इसका स्वागत किया ,लेकिन जिनके हाथ से कंट्रोल निकल रहा है , जो लोग इससे बेरोजगार हो जाएंगे ,केवल वही लोग इसकी खिलाफत करते दिखाई दे रहे हैं !माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जो आज निर्णय सुनाया है वो एक ऐतिहासिक निर्णय है ! लेकिन कई लोग इसको भी तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं !पहले तो 5 जजों ने क्या कहा इसका ज़िक्र नहीं होकरके अंतिम संयुक्त निर्णय का ही प्रसारण किया जाता था ,लेकिन अब 3 /2 में बाँट कर बताया जा रहा है !
                             राजनीतिक पार्टियां पहले तो देश के लिए महत्वपूर्ण विषयों पर बहस करते समय गंदी राजनीति नहीं किया करतीं थीं ,लेकिन आजकल बड़ी बेशर्मी से संवेदनशील मुद्दों पर भी गंदे एवं हानिकारक वक्तव्य बड़ी शान से दिए जाते हैं ! अभी लड़ाई बहुत बाकी है ! ये इस लड़ाई की पहली जीत है !इस जीत  के पीछे कुछ हाथ मोदी सरकार का भी है !लेकिन चुनोतियाँ अभी बड़ी बड़ी सामने आने वाली हैं !मुस्लिम समाज के मर्द पुरुषों को अपने फ़िरक़े की महिलाओं का खुलकर साथ देना होगा ,तभी उनका धर्म-समाज और हमारा देश तरक्की कर पायेगा !!
                     सोशल मीडिया के सिपाहियों से मेरा एक अनुरोध है कि हम गंभीर विषयों का मजाक ना उड़ाएं तो ठीक रहेगा !हमें सभी बुराइयों से जल्द तलाक़ मिले यही मेरी कामना है ! आमीन !! सबको शुभकामनाएं !
                                         



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Friday, August 18, 2017

2014 की कॉरपोरेट फंडिग ने बदल दी है देश की सियासत !!

चुनाव की चकाचौंध भरी रंगत 2014 के लोकसभा चुनाव की है। और क्या चुनाव के इस हंगामे के पीछे कारपोरेट का ही पैसा रहा। क्योंकि पहली बार एडीआर ने कारपोरेट फंडिग के जो तथ्य जुगाड़े हैं, उसके मुताबिक 2014 के आम चुनाव में राजनीतिक दलो को जितना पैसा कारपोरेट फंडिंग से हुआ उतना पैसा उससे पहले के 10 बरस में नहीं हुआ। एडीआर के मुताबिक 2004 से 2013 तक कारपोरेट ने 460 करोड 83 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंड किया। वहीं 2013 से 2015 तक के बीच में कारपोरेट ने 797 करोड़ 79 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंड किया। 

ये आंकडे सिर्फ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हैं। यानी बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी और वामपंथी दलो को दिये गये फंड । यानी 2014 के चुनाव में कारपोरेट ने दिल खोल कर फंडिंग की। तो चुनाव प्रचार के आधुनिकतम तरीके जब 2014 के चुनाव में बीजेपी ने आजमाये। तो उसके पीछे का क सच एडीआर की इस रिपोर्ट से भी निकलता है कि 80 फिसदी से ज्यादाकारपोरेट फंडिंग बीजेपी को मिल रही थी। क्योंकि याद किजिये मनमोहन सिंह सरकार जब घोटाले दर घोटाले के दायरे में फंस रही थी तब 20 कारपोरेट घरानों में 2011-12 के बीच मनमोहन सरकार की गवर्नेंस, पर सवाल उठाते हुये पत्र लिखे। और उसी के बाद देश में बनते चुनावी माहौल में कारपोरेट फंडिंग में कितनी तेजी आई ये एडीआर की रिपोर्ट से पता चलता है। अप्रैल 2012 से अप्रैल 2016 के बीच 956 करोड 77 लाख रुपये की कारपोरेट फंडिग हुई। इसमें से 705 करोड़ 81 लाख रुपये बीजेपी के पास गये । तो 198 करोड़ 16 लाख रुपये कांग्रेस के पास गये। महत्वपूर्ण ये भी है कि बीजेपी को दिये जाने वाली फंडिग में ही इजाफा नहीं हुआ। बल्कि कारपोरेट फंडिंग के इतिहास में ये पहला मौका आया जब पॉलिटिकल फंड देने वालो की तादाद तीन हजार से ज्यादा हुआ जिसमें 99   दी दाताओ ने फंड बीजेपी को दिया। 

यानी 2014 की चुनावी हवा कारपोरेट के लिये बीजेपी के अनुकूल हो चुकी थी। लेकिन फंडिंग के इस खेल में काला धन कौन दे रहा है। या कालाधन ना लें, इस दिशा से राजनीतिक दलो ने आखे भी मूंद ली। और एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 1933 दाताओं ने बिना पैन नंबर दिये ही 384 करोड रुपये पॉलिटिकल दानपेटी में डाल दिया। वहीं 1546 दाताओं ने पैन तो दिया लेकिन कोई पचा नहीं दिया और 355 करोड दान कर दिये। और खास बात ये है कि 160 करोड रुपये बिना पैन, बिना पते के पॉलिटिकल फंड में आये । इसमें 99 फिसदी दान बीजेपी के खाते में गये । तो 2014 में कांग्रेस हार रही थी। बीजेपी जीत रही थी । तब कारपोरेट पॉलिटिकल फंडिंग अगर 80 फिसदी बीजेपी के खाते में जा रही थी तो फिर 2019 के लिये देश में बनते राजनीतिक माहौल में अगर विपक्ष की राजनीतिक शून्यता अभी से बीजेपी को जीता रही है तो फिर आखरी सवाल यही होगा कि कारपोरेट फंड के भरोसे जो राजनीतिक दल राजनीति करते है उनके दफ्तरों में ताला लग जायेगा । क्योंकि बीजेपी ही सरकार होगी तो बीजेपी की ही दान पेटी हर किसी को दिखायीदेगी। यानी वैकल्पिक राजनीति को साधे बगैर कारपोरेट फंड पर टिकी राजनीति बीजेपी के सामने किसी की चल नहीं पायेगी। ये आखिरी सच है। तो क्या बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद राजनीति की उस बिसात को ही नीतियों के आसरे देश में बिछा दिया है, जहां कारपोरेट अब 2014 की तर्ज पर सत्ता बदलने की दिशा में ना आ जाये। या फिर कारपोरेट को इसका एहसास हो कि अगर उसने विपक्ष के झोली भरनी चाही तो उसे सरकारी एजेंसियों के जरीये ही नहीं बल्कि जिस क्षेत्र में कारपोरेट का धंधा है, उसके दायरे में ही उसे लपेटा जा सकता है। 

यहां ये सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या वाकई लोकतंत्र का मापक आम चुनाव कारपोरेट पूंजी पर टिक गया है। यानी वोट तो आम जनता देती है। फिर कारपोरेट पूंजी से सत्ता कैसे उलटी पलटी जा सकती है। तो इसका जबाव सीधा है सत्ता के खिलाफ जन भावना राजनीतिक तौर पर अपने वोट से सत्ता परिवर्तन तो कर सकती है । लेकिन जन भावना को प्रभावित करने वाले जो भी औजार होते है अगर उसपर सत्ता कब्जा कर लें तो फिर विपक्ष की राजनीति टिकेगी कैसे। मौजूदा वक्त में ये सवाल इसलिये क्योंकि 1975-77 की तर्ज पर कोई आंदोलन तो देश में हो नहीं रहा है। उस वक्त इमरजेन्सी के खिलाफ आंदोलन मीडिया से बड़ा था। इसी तरह बोफोर्स को लेकर करप्शन के मुद्दा आंदोलन की तर्ज पर खड़ा हुआ। अयोध्या कांड भी कारसेवकों के जरीये देश में फैलता चला गया। और 2014 से ठीक पहले अन्ना आंदोलन ने मनमोहन सरकार की कब्र सामाजिक तौर पर बना दी थी। और कारपोरेट पूंजी ने अपना हित साधने के लिये बीजेपी को फंडिग की । लेकिन 2014 के बाद राजनीति के तौर तरीकों जिस तरह पूरी तरह चुनाव पर आ टिके हैं। यानी विपक्ष गठबंधन इसलिये हो रहा है कि चुनाव का हिसाब-किताब बदला जा सके। नीतीश सरीखे 2014 के विपक्ष इसलिये टूट रहे हैं, क्योंकि उन्हे लग रहा है कि 2019 में तो बीजेपी ही जीतेगी। यानी राजनीतिक जोड-तोड जब चुनाव जीतने पर आ टिकी हो और पूंजी की ताकत के बगैर चुनाव जीतने मुश्किल माना जाता रहा है और इसे ना सिर्फ वोटर बल्कि चुनाव आयोग भी महसूस करने लगा हो तो फिर अब कारपोरेट फंडिग कैसी होगी। क्योंकि 2014 ने चुनाव के तौर तरीके बदल दिये ये सच है । क्योंकि आजाद भारत में पहली बार 2014 का चुनाव ना सिर्फ सबसे महंगा हुआ बल्कि

1952 से 1991 तक के चुनाव में जितना खर्च हुआ। उतना ही खर्च 1996 से 2009 तक के चुनाव में हुआ। और अकेले 2014 के चुनाव में इतना ही खर्च हो गया। ये आंकड़ा 3870 करोड़ का है । तो ये कल्पना से परे है कि 2014 के बाद अब 2019 में कितना खर्च होगा। लेकिन आखिरी सच ये भी समझना होगा कि जिन कारपोरेट ने फंड किया उसमें खनन , रियल इस्टेट , उर्जा और न्यूजपेपर  इंडस्ट्री अव्वल रही। लेकिन मौजूदा वक्त में यही सारे क्षेत्रों को सरकार ने अपने हथेली पर नचाने शुरु किये हैं। यानी ये तबका अब विपक्ष को फंड ना करें व्यवस्था इसकी भी है और सरकार के इशारे पर कारपोरेट चले तो ही बचेगा निशानदेही इसकी भी है!










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Wednesday, August 16, 2017

"काश्मीर की फेविकोल,जादू की जफ्फी या गोली" ? - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)


  • लाल किले की प्राचीर से सम्बोधित करते हुए 15 

  • अगस्त 2017 को माननीय प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र 

  • मोदी जी ने अपने "मन की बात" कह दी !वो चाहते 

  • हैं कि सब देशवासी अपने देश को इतना प्रेम करें कि 

  • सबसे ऊपर अपने देश को रख्खें !वो चाहते हैं कि 

  • देश 

  • का हर नागरिक अपना काम ईमानदारी से करे ,देश 

  • को गलती से भी कोई नुकसान ना पंहुचाये !अगर 

  • कोई दुश्मन देश हमारे नागरिकों को बहलाकर 

  • फुसलाकर और बहकाकर अगर कोई गलत कार्य 

  • करवाता है तो वो देश की सरकार से बात करके 

  • अपनी जायज़ मांग मनवा सकता है !लेकिन कोई 

  • अगर चाहे कि उसे कोई उसे "चाँद "लाकर दे देगा 

  • ,ये तो मुमकिन नहीं है !काश्मीर के लिए 

  • ,नक्सलवादियों के लिए उन्होंने साफ़ कहा कि गोली 

  • और गाली से नहीं प्यार से बातचीत के रस्ते से जो 

  • भी भारत के संविधान के अंदर मुनासिब मांग है वो 

  • पूरी की जायेगी ! बस ! आप बन्दूक छोड़कर 

  • लोकतंत्र के तरीके से जनप्रतिनिधि बनकर आओ 

  • और अपनी सरकार बनाकर अपने मन मुताबिक 

  • निर्णय स्वयं लो !इस से बढ़िया और क्या प्रस्ताव 

  • हमारे प्रधानमंत्री जी दे सकते थे !उनके इस प्रस्ताव 

  • की प्रशंसा विपक्षी नेता भी कर रहे हैं !उन्होंने एक 

  • कमिटी भी बना दी है जो काश्मीर जाकर लोगों से 
बातचीत भी करेगी!रास्ता खोजेगी !

लेकिन काश्मीर में जो आम आदमी है ,उस बेचारे की 

आवाज़ को कुछ मुठ्ठी भर लोगों ने बन्दूक से दबा कर 

रख्खा हुआ है !जिन्होंने बन्दूक उठा रख्खी है ,उनकी 

मदद पाकिस्तान और चीन जैसे अन्य कई देश मदद 

कर रहे हैं !पैसा असला और नशा ऐसे लोगों को बर्बाद 

कर रहा है !बेमौत मारे जा रहे हैं काश्मीर के नौजवान !

जो ऐसे लोग समझते हैं कि ये रास्ता गलत है ,उन्हें ही 

हमारे प्रधानमंत्री जी मुख्यधारा से दोबारा जोड़ना 

चाहते 

हैं !लेकिन जो बन्दूक नहीं छोड़ना चाहते उनका इलाज 

सिर्फ गोली से ही हो सकता है !उनके साथ साथ देश में 

ऐसे लोग भी हैं जो दुश्मन देशों की भाषा ही बोलते हैं 

,उनको पहले पढ़ाया जाए या "सुलाया"जाए !

                 बात करने वालों के साथ बात और गोली 

चलने वालों के साथ गोली की ही भाषा बोली जाए !ऐसे 

लोगों को कोई "फेविकोल"भारत के साथ नहीं जोड़ 

सकती !ये लोग विश्वास के काबिल भी नहीं हैं !



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Friday, August 11, 2017

"आजादी के दीवाने और उनके व्यापारी"!! - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

हर चीज़ आज हमारे लिए एक व्यपार बन गयी है !हमारे रिश्ते-नाते,हमारे कर्तव्य,हमारा धर्म-कर्म,हमारी निष्ठा-भक्ति और देश भक्ति आदि आदि ! सब को आज हम केवल दौलत की तराजू पर तोलते हैं !स्वार्थ ने हम सबको इतना अँधा कर दिया है कि हमें ना कुछ दिखाई देता है और ना ही कुछ सुनाई ही पड़ता है !जिन लोगों ने अपनी शहादत देकर देश आजाद करवाया ,उनको तो कोई ढंग से याद भी नहीं करता !लेकिन जो आस-पास घूम रहे थे "अमीर -लोग" वो इतिहास में अपना नाम लिखवाने में भी कामयाब हो गए और सत्ता का सुख भी भोग गए ! ना केवल वो ,बल्कि उनकी पीढ़ियां भी आज तलक सत्ता सुख भोग रही हैं !भारत की कुछ जनता उन्हें आज भी अपनी पलकों पर उठाये घूमती हैं !आज संसद में नए उपराष्ट्रपति जी के पद ग्रहण करते वक़्त जहां माननीय प्रधानमंत्री जी ने देश के उन गरीब परिवारों को याद किया जिन्होंने देश को आजाद करवाने में अपना योगदान दिया या निचले स्तर से देश के बड़े पदों पर पंहुचे !तो बिना देर किये विपक्ष के नेता श्री गुलाम नबीआजाद ने देश के उन अमीर परिवारों के नाम भी गिना दिए जो स्वतन्त्रता संग्राम में सहयोगी थे !जब से देश आजाद हुआ है ,उन्हीं अमीर परिवारों को ही याद किया जाता है ,आज अगर गुलाम नबी आजाद ना बोलते तो क्या फ़र्क़ पड़ना था !बेचारे गरीबों को कुछ हौसला हो जाता कि उनका भी कोई नाम लेने वाला  है !
                    आइये हम कुछ स्वतन्त्रता सेनानियों को याद  करते हैं !

भारत के स्वातन्त्र्य समर में हजारों निरपराध मारे गये, और यदि सच कहा जाये तो सारे निरपराध ही मारे गये, आखिर अपनी आजादी की मांग करना कोई अपराध तो नहीं है। ऐसे ही निरपराधियों में थे, 13 वर्षीय अमर शहीद फ़कीरचंद जैन। फ़कीरचंद जी लाला हुकुमचंद जी जैन के भतीजे थे। हुकुमचंद जैन ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हुकुमचंद जैन हांसी के कानूनगो थे, बहादुरशाह जफ़र से उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे, उनके दरबार में श्री जैन सात साल रहे फ़िर हांसी (हरियाणा) के कानूनगो होकर ये गृहनगर हांसी लौट आये। इन्होंने मिर्जा मुनीर बेग के साथ एक पत्र बहादुरशाह जफ़र को लिखा, जिसमें ब्रितानियों के प्रति घृणा और उनके प्रति संघर्ष में पूर्ण सहायता का विश्‍वास बहादुरशाह जफ़र को दिलाया था। जब दिल्ली पर ब्रितानियों ने अधिकार कर लिया तब बहादुरशाह जफ़र की फ़ाइलों में यह पत्र ब्रितानियों के हाथ लग गया। तत्काल हुकुमचंद जी को गिरफ़्तार कर लिया गया, साथ में उनके भतीजे फ़कीरचंद को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था। 18 जनवरी 1858 को हिसार के मजिस्ट्रेट ने लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को फ़ांसी की सजा सुना दी। फ़कीरचंद जी को मुक्त कर दिया गया। 19 जनवरी 1858 को हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को हांसी में लाला हुकुमचंद के मकान के सामने फ़ांसी दे दी गई। 13 वर्षीय फ़कीरचंद इस दृश्य को भारी जनता के साथ ही खडे़-खडे़ देख रहे थे, पर अचानक गोराशाही ने बिना किसी अपराध के, बिना किसी वारंट के उन्हे पकड़ा और वहीं फ़ांसी पर लटका दिया। इस तरह आजादी के दीवाने फ़कीरचंद जी शहीद हो गये

                                                   
भारत की स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन दो प्रकार का था - एक अहिंसक आन्दोलन एवं दूसरा सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन। भारत की आज़ादी के लिए 1757 से 1947 के बीच जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें स्वतंत्रता का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों की उपस्थित सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई।
वस्तुतः भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग है। भारत की धरती के प्रति जितनी भक्ति और मातृ-भावना उस युग में थी, उतनी कभी नहीं रही। मातृभूमि की सेवा और उसके लिए मर-मिटने की जो भावना उस समय थी, आज उसका नितांत अभाव हो गया है।
क्रांतिकारी आंदोलन का समय सामान्यतः लोगों ने सन् 1857 से 1942 तक माना है। श्रीकृष्ण सरल का मत है कि इसका समय सन् 1757 अर्थात् प्लासी के युद्ध से सन् 1961 अर्थात् गोवा मुक्ति तक मानना चाहिए। सन् 1961 में गोवा मुक्ति के साथ ही भारतवर्ष पूर्ण रूप से स्वाधीन हो सका है।
जिस प्रकार एक विशाल नदी अपने उद्गम स्थान से निकलकर अपने गंतव्य अर्थात् सागर मिलन तक अबाध रूप से बहती जाती है और बीच-बीच में उसमें अन्य छोटी-छोटी धाराएँ भी मिलती रहती हैं, उसी प्रकार हमारी मुक्ति गंगा का प्रवाह भी सन् 1757 से सन् 1961 तक अजस्र रहा है और उसमें मुक्ति यत्न की अन्य धाराएँ भी मिलती रही हैं।
भारतीय स्वतंत्रता के सशस्त्र संग्राम की विशेषता यह रही है कि क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास कभी शिथिल नहीं हुए।
भारत की स्वतंत्रता के बाद आधुनिक नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन को प्रायः दबाते हुए उसे इतिहास में कम महत्व दिया गया और कई स्थानों पर उसे विकृत भी किया गया। स्वराज्य उपरांत यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है। इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।






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Saturday, August 5, 2017

"कोई पत्थर से ना मारे ,मेरे राहुल जी को"!! - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

मुसलमानों में पत्थर मारना एक धार्मिक प्रक्रिया है , हिन्दुओं में इसे घृणात्मक दृष्टि से देखा जाता है ! मुस्लिम मानते हैं कि " शैतान" है ,इसलिए उसे पत्थर मार मार कर मार दो ! हिन्दुओं में कहते हैं कि जो पत्थर मार रहा है ,उसके अंदर शैतान घर कर गया है !हमारे फिल्म जगत में भी पत्थर बाज़ी को उपयुक्त स्थान दिया जाता है !"रोटी"फिल्म में एक रोटी-चोर महिला को एक गाँव वाले पत्थर मारते हैं तो उस फिल्म के हीरो साहिब श्रीमान राजेश खन्ना आकर उसे बचते हैं !वो किशोर कुमार जी की आवाज़ में गाते हुए कहते हैं कि इसे पत्थर वो मारे जिसने कोई पाप ना किया हो ,जो पापी ना हो !वहीँ लैला-मजनूं नामक फिल्म में लैला बनीं रंजीता जी ने भीड़ से गुहार लगायी कि "मेहरबानों ! अल्लाह के लिए मेरे दीवाने को कोई पत्थर से ना मारे !"मोब-लिंचिंग" ना करे !
                              कल राहुल  गुजरात गए राजस्थान गए !बाढ़-पीड़ितों से बोले कि "भाइयो-बहनों ! हमारी कहीं पर सरकार नहीं है ,इसलिए हम आपको कुछ नहीं दे सकते !न सरकारी धन से और नाही घोटालों में से "! तो मित्रो आप ही बताइये कि  नेता को क्या रसगुल्ले खिलाये ?जो उनके विधायक थे उनको तो पकड़ क्र कर्नाटक के होटल में ले गए ! वो तो अपने कोटे में से मदद  कर सकते थे !उन्हें तो भेजा नहीं और स्वयं आ गए अपनी फोटो खिंचवाने को ! तो जनता ने विरोध कर दिया !जिसे कांग्रेस प्रवक्ताओं ने और उनके मातहत पत्रकारों चेनेल एंकरों ने और ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बता दिया ! यही राजनीति का कमाल है जी ! आम आदमी जुटे पड़ने की घटना को जहां छुपाता है,वहीँ राजनीती में ऐसी दुखद घटनाओं का प्रचार कर सिम्पथी पायी जाती है !लेकिन कोंग्रेसियों को वो भी नहीं मिलती नज़र आ रही !
                   विपक्ष के नेताओं और भाजपा के चंद नेताओं को छोड़ कर बाकि सभी की "चुंबकीय-शक्ति"समाप्त होती जा रही है !आकर्षण समाप्त हो रहा है !जो सिर्फ "मौन-व्रत"करने से ही वापिस आ सकती है ! लेकिन नेताओं को चुप कौन कराये ???इस लिए भुगतो !! आप भी और हम भी !! इन बेकार हो चुके नेताओं को !
                        


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Tuesday, August 1, 2017

क्या प्रभाष जोशी होने के लिये रामनाथ गोयनका चाहिए? - साभार - : श्री पुण्य प्रसन्न वाजपेयी जी !

मालवा के पठार की काली मिट्टी और लुटियन्स की  दिल्ली के राजपथ की  लाल बजरी के बीच प्रभाष जोशी की पत्रकारिता । ये प्रभाष जोशी का सफर नहीं है । ये पत्रकारिता की वह सुरंग है, जिसमें से निकलकर मौजूदा वक्त की पत्रकारिता को समझने के लिये कई आंखों, कई कान मिल सकते है तो कई सच, कई अनकही सियासत समझ में आ सकती है । और पत्रकारिता की इस सुरंग को वही ताड़ सकता है जो मौजूदा वक्त में पत्रकारिता कर रहा हो । जिसने प्रभाष जोशी को पत्रकारिता करते हुये देखा होऔर जिसके हाथ में रामबहादुर राय और सुरेश सर्मा के संपादन में लेखक रामाशंकर कुशवाहा की किताब "लोक का प्रभाष " हो । यूं " लोक का प्रभाष "  जीवनी है । प्रभाष जोशी की जीवनी । लेकिन ये पुस्तक जीवनी कम पत्रकारीय समझ पैदा करते हुये अभी के हालात को समझने की चाहे अनचाहे एक ऐसी जमीन दे देती है, जिस पर अभी प्रतिबंध है । प्रतिबंध का मतलब इमरजेन्सी नहीं है । लेकिन प्रतिबंध का मतलब प्रभाष जोशी की पत्रकारिता को सत्ता के लिये खतरनाक मानना तो है ही । और उस हालात में ना तो रामनाथ गोयनका है ना इंडियन एक्सप्रेस। और ना ही प्रभाष जोशी हैं। तो फिर बात कहीं से भी शुरु कि जा सकती है । बस शर्त इतनी है कि अतीत के पन्नों को पढ़ते वक्त मौजूदा सियासी धड़कन के साथ ना जोडें । नहीं तो प्रतिबंध लग जायेगा । तो टुकड़ों में समझें। रामनाथ गोयनका ने जब पास बैठे धीरुभाई अंबानी से ये सुना कि उनके एक हाथ में सोने की तो दूसरे हाथ में चांदी की चप्पल होती है । और किस चप्पल से किस अधिकारी को मारा जाये ये अधिकारी को ही तय करना है  तो गोयनका समझ गये कि हर कोई बिकाऊ है, इसे मानकर धीरुभाई चल रहे हैं । और उस मीटिंग के बाद एक्सप्रेस में अरुण शौऱी की रिपोर्ट और जनसत्ता में प्रभाष जोशी का संपादकपन । नजर आयेगा कैसी पत्रकारिता की जरुरत तब हुई । अखबार सत्ता के खिलाफ तो खड़े होते रहे हैं । लेकिन अखबार विपक्ष की भूमिका में आ जाये ऐसा होता नहीं । लेकिन ऐसा हुआ । यूं "लोक का प्रभाष " में कई संदर्भों के आसरे भी हालात नत्थी किये गये है। 

मसलन वीपी सिंह से रामबहादुर राय के इंटरव्यू से बनी किताब "मंजिल से ज्यादा सफर" के अंश का जिक्र। किताब का सवाल - जवाब का जिक्र । सवाल-कहा जाता है हर सरकार से रिलायंस ने मनमाफिक काम करवा लिये। वाजपेयी सरकार तक से । जवाब-ऐसा होता रहा होगा । क्योंकि धीरुभाई ने चाणक्य सूत्र को आत्मसात कर लिया । राज करने की कोशिश कभी मत करो, राजा को खरीद लो।

तो क्या राजनीतिक शून्यता में पत्रकारिता राजनीति करती है । या फिर पत्रकारिता राजनीतिक शून्यता को भर देती है । ये दोनो सवाल हर दौर में उठ सकते है । और ऐसा नहीं है कि प्रभाष जोशी ने इसे ना समझा हो । पत्रकारिता कभी एक पत्रकार के आसरे नहीं मथी जा सकती । हां, चक्रव्यूह  को हर कोई तोड़ नहीं पाता। और तोड कर हर कोई निकल भी नहीं पाता । तभी तो प्रभाष जोशी को लिखा रामनाथ गोयनका के उस पत्र से शुरुआत की जाये जो युद्द के लिये ललकारता है। जनसत्ता शुरु करने से पहले रामनाथ अगर गीता के अध्याय दो का 38 वां श्लोक का जिक्र अपने दो पेजी पत्र में करते हैं, जो उन्होंने प्रभाष जोशी को लिखा, " जय पराजय, लाभ-हानी तथा सुख-दुख को समान मानकर युद्द के लिये तत्पर हो जाओ - इस सोच के साथ कि युद्द करने पर पाप के भागी नहीं बनोगे। " और कल्पना कीजिये प्रभाष जोशी ने भी दो पेज के जवाबी पत्र में रामनाथ गोयनका को गीता के श्लोक से पत्र खत्म किया , " समदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्दाय युज्यस्व नैंव पापमवायस्यसि ।।" और इसके बाद जनसत्ता की उड़ान जिसके सवा लाख प्रतियां छपने और खरीदे जाने पर लिखना पड़ा- बांच कर पढे । ना ना बांट कर पढ़ें का जिक्र था। लेकिन बांटना तो बांचने के ही समान होता है। यानी लिखा गया दीवारों के कान होते है लेकिन अखबारो को पंख । तो प्रभाष जोशी की पत्रकारीय उड़ान हवा में नहीं थी। कल्पना कीजिये राकेश कोहरवाल को इसलिये निकाला गया क्योंकि वह सीएम देवीलाल के साथ बिना दफ्तर की इजाजत लिये यात्रा पर निकल गये । और देवीलाल की खबरें भेजते रहें। तो देवीलाल ने भी रामनाथ गोयनका को चेताया कि खबर क्यों नहीं छपती । और जब यह सवाल रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से पूछा तो संपादक प्रभाष जोशी का जवाब था । देवीलाल खुद को मालिक संपादक मान रहे हैं। बस रिपोर्टर राकेश कोहरवाल की नौकरी चली गई। लेकिन रामभक्त पत्रकार हेमंत शर्मा की नौकरी नहीं गई। सिर्फ उन्हें रामभक्त का नाम मिला। और हेमंत शर्मा " लोक का प्रभाष " में उस दौर को याद कर कहने से नहीं चूकते कि प्रभाष जी ने रिपोर्टिंग की पूरी स्वतंत्रता दी । रिपोर्टर की रिपोर्ट के साथ खडे होने वाले संपादकों की कतार खासी लंबी हो सकती है । या आप सोचे अब तो कोई बचा नहीं तो रिपोर्टर भी कितने बचे हैं ये भी सोचना चाहिये । लेकिन प्रभाष जोशी असहमति के साथ रिपोर्टर के साथ खड़े होते। तो उस वक्त रामभक्त होना और जब खुद संपादक की भूमिका में हो तब प्रभाष जोशी की जगह रामभक्त संपादक हो जाना। ये कोई संदर्भ नहीं है । लेकिन ध्यान देने वाली बात जरुर है कि चाहे प्रभाष जोशी हो या सुरेन्द्र प्रताप सिंह । कतार वाकई लंबी है इनके साथ काम करते हुये आज भी इनके गुणगान करने वाले संपादको की । लेकिन उनमें कोई भी अंश क्यो अपने गुरु या कहे संपादक का आ नहीं पाया । यो सोचने की बात तो है । मेरे ख्याल से विश्लेषण संपादक रहे प्रभाष जोशी का होना चाहिये । विश्लेषण हर उस संपादक का होना चाहिये जो जनोन्मुखी पत्रकारिता करता रहा। आखिर क्यों उनकी हथेली तले से निकले पत्रकार रेंगते देखायी देते है। क्यों उनमें संघर्ष का माद्दा नहीं होता। क्यों वे आज भी प्रभाष जोशी या एसपी सिंह या राजेन्द्र माथुर को याद कर अपने कद में अपने संपादकों के नाम नत्थी करनाचाहते है। खुद की पहचान से वह खुद ही क्यों बचना चाहते है। रामबहादुरराय में वह क्षमता रही कि उन्होंने किसी को दबाया नहीं। हर लेखन को जगह दी। आज भी देते है।  चाहे उनके खिलाफ भी कलम क्यों न चली। लेकिन राम बहादुर राय का कैनवास उनसे उन संपादकों से कहीं ज्यादा मांगता है जो रेग रहे है। ये इसलिये क्योंकि ये वाकई अपने आप में अविश्वसनिय सा लगता है कि जब प्रभाष जी ने एक्सप्रेस में बदली सत्ता के कामकाज से नाखुश हो कर जनसत्ता से छोड़ने का मन बनाया तो रामबहादुर राय ने ना सिर्फ मुंबई में विवेक गोयनका से बात की बल्कि 17 नवंबर 1975 को पहली बार अखबार के मालिक विवेक गोयनका को पत्र लिखकर कहा गया कि प्रभाष जोशी को रोके। बकायदा बनवारी से लेकर जवाहर लाल कौल । मंगलेश डबराल से लेकर रामबहादुर राय । कुमार आंनद से लेकर प्रताप सिंह। अंबरिश से लेकर राजेश जोशी । ज्योतिर्मय से लेकर राजेन्द्र धोड़पकर तक ने तमाम तर्क रखते हुये साफ लिखा । "हमें लगता है कि आपको प्रभाषजी को रोकने की हर संभव कोशिश करनी चाहिये ।" जिन दो दर्जन पत्रकारों ने तब प्रभाष जोशी के लिये आवाज उठायी । वह सभी आज के तारिख में जिन्दा है । सभी की धारायें बंटी हुई है। आप कह सकते है कि प्रभाष जोशी की खासियत यही थी कि वह हर धारा को अपने साथ लेकर चलते। और यही मिजाज आज संपादकों की कतार से गायब है। क्योंकि संपादकों ने खुद को संपादक भी एक खास धारा के साथ जोड़कर बनाया है।
दरअसल, प्रभाष जोशी के जिन्दगी के सफर में आष्ठा यानी जन्मस्थान । सुनवानी महाकाल यानी जिन्दगी के प्रयोग । इंदौर यानी लेखन की पहचान । चडीगढ़ यानी संपादकत्व का निखार । दिल्ली यानी अखबार के जरीये संवाद । और इस दौर में गरीबी । मुफ्लिसी । सत्ता की दरिद्रगी । जनता का संघर्ष । सबकुछ प्रभाष जोशी ने जिया । और इसीलिये सत्ता से हमेशा सम्मानजनक दूरी बनाये रखते हुये उसी जमीन पर पत्रकारिता करते रहे जिसे कोई भी सत्ता में आने के बाद भूल जाता है । सत्ता का मतलब सिर्फ सियासी पद नहीं होता चुनाव में जीत नहीं होती । संपादक की भी अपनी सत्ता होती है । और रिपोर्टर की भी ।

लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद कोई भी चखने लगता है वैसे ही पत्रकारिता कैसे पीछे छूटती है इसका एहसास हो सकता है प्रभाष जोशी ने हर किसी को कराया हो । लेकिन खुद सत्ता के आसरे देश के राजनीतिक समाधान की दिशा में कई मौको पर प्रभाष जोशी इतने आगे बढे कि वह भी इस हकीकत को भूले कि राजनीति हर मौके पर मात देगी । अयोध्या आंदोलन उसमें सबसे अग्रणी कह सकते है । क्योंकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ तो प्रभाष जोशी ये लिखने से नहीं चूके , '  राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसको ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रधुकुल की रिती पर कालिख पोत दी...... "। सवाल इस लेखन का नहीं सवाल है कि उस वक्त संघ के खिलाफ डंडा लेकर कूद पडे प्रभाष जोशी के डंडे को भी रामभक्तों ने अपनी पत्रकारिता से लेकर अपनी राजनीति का हथियार बनाया । कहीं ढाल तो कही तलवार ।  और प्रभाष जी की जीवनी पढ़ते वक्त कई पन्नो में आप ये सोच कर अटक जायेंगे कि क्या वाकई जो लिखा गया वही प्रभाष जोशी है।

लेकिन सोचिये मत । वक्त बदल रहा है । उस वक्त तो पत्रकार-साहित्यकारों की कतार थी । यार दोस्तो में भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर कुमार गंधर्व तक का साथ था । लेखन की विधा को जीने वालो में रेणु से लेकर रधुवीर सहाय थे। वक्त को उर्जावान हर किसी ने बनाया हुआ था । कही विनोबा भावे अपनी सरलता से आंदोलन को भूदान की शक्ल दे देते । तो कही जेपी राजनीतिक डुगडुगी बजाकर सोने वालो को सचेत कर देते । अब तो वह बिहार भी सूना है । चार लाइन न्यूज चैनलों की पीटीसी तो छोड़ दें कोई अखबारी रपट भी दिखायी ना दी जिसने बिहार की खदबदाती जमीन को पकड़ा और बताय़ा कि आखिर क्यो कैसे पटना में भी लुटिसन्स का गलियारा बन गया । इस सन्नाटे को भेदने के लिये अब किसी नेता का इंतजार अगर पत्रकारिता कर रही है तो फिर ये विरासत को ढोते पत्रकारो का मर्सिया है । क्योकि बदलते हालात में  प्रभाष जोशी की तरह सोचना भी ठीक नहीं कि गैलिलियो को फिर पढे और सोचे " वह सबसे दूर जायेगा जिसे मालूम नहीं कि कहा जा रहा है " । हा नौकरी की जगह पत्रकारिता कर लें चाहे घर के टूटे सोफे पर किसी गोयनका को बैठाने की हैसियत ना बन पाये । लेकिन पत्रकार होगा तो गोयनका भी पैदा हो जायेगा, ये मान कर चलें।


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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

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