Tuesday, November 29, 2016

काश ! मोदी जी के समाजवाद का सपना सच हो जाए...??

देश के शहर दर शहर घूम लीजिये। बाजारों में चकाचौंध है। दुनिया भर के ब्रांडेड उत्पाद से भरी दुकान\मॉल हैं। देखते देखते बीते 20 बरस में भारत का बाजार इतना ब़डा हो गया कि दुनिया के बाजार में भारत के बाजार की चकाचौंध की धूम तले हिन्दुस्तान का वह अंधेरा ही छुप गया जो बाजार में बदलते भारत से कई गुना ज्यादा बड़ा था। लेकिन सच यही है हिन्दुस्तान के अंधेरे की तस्वीर कभी संसद को डरा नहीं सकी। नेताओं के ऐश में खलल डाल नहीं सकी। अंधेरे में समाया हिन्दुस्तान अपनी मौत लगातार मरता रहा। और इनकम और कैलोरी की लकीर पर खड़ा होकर गरीबी की रेखा को पार करने के लिये ही छटपटाता रहा। तो हिन्दुस्तान की इस दो तस्वीरों को पाटने के लिये ही क्या नोटबंदी का जुआ प्रदानमंत्री मोदी ने चला है। या फिर उस राजनीति को साधने के लिये यह जुआ खेला, जिसमें वोटबैक जाति-धर्म की लकीर को छोड़ दें। यानी एक तरफ 45 करोड उपभोक्ता। जो दुनिया के किसी भी विकसित देश से कहीं ज्यादा। दूसरी तरफ 80 करोड भूख से बिलबिलाते नागरिक। जो दुनिया के कई देशो को खुद में समा लें। तो पहली बार खरीदारों या कन्ज्यूमर के हाथ बंध गये हैं। चकाचौंध बाजार की रईसी थम गई है। खरीद कम हो गई है ।

तो हर जहन में सवाल है कि क्या बाजार अर्थव्यस्था के दिन पूरे हो गये। यानी फिक्की और पीड्ल्यूसी की सितहबंर की रिपोर्ट जो भारत के बाजार को 2020 तक 3.6 ट्रिलियन डॉलर यानी 240 खरब रुपये की देख रहे थे । वह अब ढहढहाकर गिर जायेगी। क्योंकि भारत के उपभोक्ताओ की ताकत को दुनिया के बाजार में कंजमशन की हिस्सेदारी 5.8 फीसदी तक देखी जा रही थी । तो क्या वाकई भारत 80 करोड की गरीबी को ढोने के लिये बाजार अर्थव्यस्था की कमाई को उठाये हुआ था। या फिर भारत को बाजार में बदलने की जो सोच 1991 से चल रही थी, उसे बदलना पलटना इसलिये जरुरी था क्योंकि भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत पश्चिमी इकनॉमी को अपनाने की इजाजत देती नहीं है। इसीलिये संसद के सरोकार तक देश से मेल नहीं खाते है। कानूनी व्यवस्था तक में 80 करोड नागरिकों के लिये कोई जगह नहीं है। शिक्षा-स्वास्थ्य। बिजली -पानी। तक कन्जूयमर के लिये है लेकिन 80 करोड़ नागरिकों के लिये कुछ भी नहीं है। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का कदम सफल हो या असफल देश हमेशा के लिये एक ऐसे चक्र में जा खड़ा हुआ है, जहां से आगे का रास्ता अब मौजूदा हिन्दुस्तान में व्यापक बदलाव लायेगा ही। तो आइए देखते हैं अगर हिन्दुस्तान बदलेगा तो आने वाला हिन्दुस्तान होगा कैसा। लोकतंत्र का मंदिर ही माना जाता है संसद को। लेकिन ये भी अजीब बिडंबना है कि देश की ये एकमात्र इमारत है जो वोट लेने के लिये समूचे देश की नुमाइन्दगी करती है लेकिन उसके अपने सरोकार हिन्दुस्तान के नागरिकों से ही मैच नहीं करते। इतनी ही नहीं लोकतंत्र के इस मंदिर में बैठे सांसदों की आय किसी भी कारपोरेट या किसी भी जनहित वाली इमारत से कहीं ज्यादा महंगी है।

तो दो सवाल आपके जहन में आयेंगे। पहला, कैसे जनता के दर्द को ये बांट सकते है और अगर जनता के दर्द को ये आजादी के बाद से ही बांट नहीं पाये तो फिर दूसरा सवाल-क्या वक्त आ गया है कि उनकी जरुरतों की सीमायें बांध दी जाये। यानी नोटबंदी के बाद अगर उपभोक्ताओं की राशनिंग हो गई। तो नेताओं और सांसदो की राशनिंग क्यों नहीं होनी चाहिये । सांसदों को भी देशहित में सेवक की तर्ज पर क्यों नहीं रहना चाहिये । यानी लुटियन्स की दिल्ली जो सबसे महंगी है वहां रहने वाले मंत्री या संवैधानिक संस्थानों के प्रमुखों के लिये देश का इतना पैसा क्यो व्यर्थ हो। मसलन -पीएम का घर यानी 7 रेसकोर्स ही छह घरो को मिलकर बनाया गया है। बंगला नं 1,3,5,7, 9 और 11 को मिलकर बनाये गये पीएम निवास करीब सौ एकड़ में फैला हुआ है । जबकि घर की इमारत सिर्फ 12 एकड़ में है । वहीं राष्ट्र्पति का निवास 4 हजार एकड़ में फैला हुआ है । जबकि तीन सौ कमरे का राष्ट्रपति के घर का फ्लोर एरिया 2 लाख स्कॉयर फीट है । इसी तर्ज पर दुनिया का सबसे महंगा इलाका लुटियन्स की दिल्ली में मंत्रियों और संवैधानिक सस्थानों के प्रमुखों के घर भी औसतम 12 एकड़ में फैले हुये हैं। जाहिर है रहने के तौर तरीके अंग्रेजों के दौर के ही हैं। तो फिर आजादी के बाद जब भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्टा खोलने का जिक्र हो रहा है और देश में गरीबों का जिक्र हो रहा है तो फिर ये क्यों ना मान लिया जाये कि सत्ता और राजनेताओं की रईसी भी अब खत्म होगी। जो कि जनता और देश के पैसे की खुली लूट है। और इस दायरे को अगर बड़ा करें तो फिर करोड़पति सांसद और करोड़पति विधायकों की जो लंबी फौज है, क्या वह राजनीति में आने से पहले भी करोड़पति थे। एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 72 फिसदी नेता का करोड़पति होना सत्ता में आने के बाद हो पाता है। 44 फिसदी लोग नेतागिरी शुरु करने के बाद करोड़पति हो जाते हैं। देश के 34 फिसदी नेताओं के अपने धंधे होते हैं। तो क्या नोटबंदी का मंथन अब देश में बराबरी ककहरा सुना पायेगा। क्योकि देश बदलेगा तो फिर करोडों स्वाहा कर होने वाले चुनाव के तौर तरीके भी बदल जायेंगे। क्योंकि याद कीजिये 2014 के लोकसभा चुनाव को। चुनाव आयोग ने 38 अरब 70 करोड खर्च किये तो राजनीतिक दलों ने पैंतिस अरब रुपये। इसके अलावा करोडों- अरबों रुपया कालाधन कैसे चुनाव के वक्त फूंका जाता है ये 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में खुले तौर पर कह दिया गया था कि कैसे ब्लैक मनी . करप्शन का पैसा और अपराधियो का मनी पावर भी चुनाव में जुड जाता है । तो क्या 2019 तक आते आते चुनाव के तौर तरीके बदल जायेंगे। यानी जब बाजार अर्थव्यवस्था ही ढह जायेगी तो फिर कारपोरेट और उद्योगपति राजनीतिक दल को चंदा क्यों देंगे। और जब कैशलैस समाज बनाने की दिशा में मोदी सरकार बढ़ चुकी है । तो फिर चुनाव के लिये एवीएम मशीन की जरुरत क्यों होगी। एप के जरीये या अलग अलग तरह के कार्ड के जरीये लोग घरों में बैठकर ही वोट क्यों नहीं पायेंगे। यानी चुनाव आयोग को चुनाव ने 2014 के चुनाव में जिस तरह 3870 करोड रुपये खर्च किये और उसके अलावा सुरक्षा बंदोबस्त, रेलवे का खर्चा, राज्यों में सुरक्षा का बाकि खर्चा । ये सभी खत्म हो जायेगा। क्योंकि चुनावी खर्च भी बढ़ रहा है और चुनाव लड़ने में जितना खर्चा उम्मीदवार करते है उससे लगता यही है कि अगर आप करोड़पति नहीं है तो चुनाव लड ही नहीं सकते है । क्योकि हर चुनाव इतना महंगा हो चला है कि अगर वह कालाधन ना हो या क्रोनी कैपटलिज्म का हिस्सा ना हो तो भारत अमेरिका से ज्यादा रईस लगेगा । लेकिन सच तो यही है कि चुनाव ही वह तंत्र है जब कालाधन बाहर निकलता है । अपराधी, कारपोरेट सभी अपने भ्रष्टाचार का बंदरबांट राजनीतिक दलों के साथ करते हैं। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2006 से 2016 के दौरान 8163 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति एक करोड़ 57 लाख रुपये थी। चुने गये 596 सासंद विधायकों की औसत संपत्ति 5 करोड 45 लाख रुपये थी । यहीं से सवाल पैदा होता है कि क्या कैशलैस समाज की कोशिशों का एक सिरा वर्चुअल इलेक्शन से भी जुड़ता है। क्योंकि-इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशन के आसरे मोदी जिस तरह कैशलैस समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं, और प्रधानमंत्री कार्यालय के कर्मचारियों तक को तकनीक की ट्रेनिंग देकर बताने की कोशिश की जा रही है कि भविष्य मोबाइल एप्लीकेशंस का ही है तो क्या मोदी का नया मंत्र वर्चुअल इलेक्शन भी होगा। 

वर्चुअल इलेक्शन यानी न लंबी कतारों का झंझट, न फर्जी वोटों का खतरा, न ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप, न पोलिंग स्टेशनों पर धमकाए जाने की खबरें और वोटरों को प्रभावित करने के लिए लाखों का पेट्रोल फूंकती उम्मीदवारों की गाड़ियां। क्योंकि-वर्चुअल इलेक्शन होंगे तो चुनाव इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशंस के जरिए ही होंगे। यानी आप अपने रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर या ईमेल या ऐसी ही किसी व्यवस्था से सीधे घर बैठे वोट कीजिए । अब सवाल ये कि क्या 2019 के चुनाव में वर्चुअल इलेक्शन का हाईटेक प्रयोग किया जा सकता है ? दरअसल,इंटरनेट से वोटिंग का सवाल कोई नया नहीं है। सवाल है बुनियादी ढांचे का। और जिस तरह कैशलैस सोसाइटी बनाने की कवायद की जा रही है-उसमें मोदी इवोल्यूशन के बजाय रिवोल्यूशन का रास्ता तो अपना ही चुके हैं। और रिवोल्यूशन का मतलब ही है बड़े बदलाव। और इस बड़े बदलाव में यह भी संभव है कि झटके में चुनावी प्रचार पर पाबंदी लगाकर उसे इंटरनेट एप्लीकेशंस से ही जोड़ दिया जाए। यानी -चुनावी पार्टियों से कहा जाए कि वो सिर्फ अपने चुनावी विज्ञापन अपनी वेबसाइट या सोशल साइट्स पर दिखा सकते हैं । देश में अभी 100 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन हैं, और करीब 46 करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूजर्स और ये संख्या तेजी से बढ़ रही है। अगर ये सब बदल रहा है तो फिर गांव भी बदलने चाहिये और राजनीति को गांव की जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहिये। क्योंकि जिस आदर्श ग्राम परियोजना के आसरे पीएम गांवो का हाल सुधारना चाहते थे-उसका दूसरा सच यह है कि 795 में से जिन 87 सांसदों ने दूसरा गांव गोद भी लिया उनके जरीये पहला गांव भी जर्जर ही है। तो फिर सांसदों को सांसद निधि का पैसा दिया ही क्यों जाये। यानी सांसद कोई जिम्मेदारी पूरी करते नहीं और गांवों के हालात को ठीक करना है तो सालाना 39 अरब 50 करोड रुपये जो प्रति सांसद को पांच करोड़ रुपये के हिसाब से बांटा जाता है उसे बंद कर दिया जाये। और किसी कंपनी या कारपोरेट को हर बरस 39 अरब रुपये देकर जर्जर गांवों को ठीक करने का जिम्मा सौप दिया जाये तो कही ज्यादा बेहतर होगा। क्योंकि राजनेताओं का सच तो ये हो चला है कि उनके भीतर के समाजसेवी और बिजनैसमैन का फर्क अब मिट चुका है। आलम ये है कि लोकसभा में 128 सांसद बिजनेस मैन भी है। राजयसभा में 125 सांसद बिजनेस मैन है । देश भर के 4228 विधायको में 1258 विधायक ऐसे है, जिनका अपना अलग धंधा भी है । तो कल्पना किजिये नोटबंदी के बाद किस धंधे या किस बिजनेस मैन पर कितना असर पड रहा होगा । और देश के चुने हुये नुमाइन्दों को क्या वाकई जनता से कुछ लेना देना भी है । और सांसदों या विधायको के बिजनेस मैन की कैटगरी में कारपोरेट इंडस्ट्रिस्ट से लेकर बिल्डर और कालेज स्कूल अस्पताल चलाने से लेकर होटल चलाने वाले राजनेता भी है। तो आने वाले वक्त में क्या धंधेबाजों की नेतागिरी बंद हो जायेगी। या पार्टियां उन्हें ही टिकट देगी जो वाकई समाजसेवी होगा । क्योंकि बिजनैसमैन समाजसेवी तो नहीं ही हो सकता है। तो क्या मोदी जी का समाजवाद वाकई कोई गुल खिलायेगा या उडन-छू हो जायेगा।

"5th पिल्लर करप्शन किल्लर" "लेखक-विश्लेषक पीताम्बर दत्त शर्मा "
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Monday, November 28, 2016

भ्रष्ट सिस्टम और ब्लैक मनी पर टिकी राजनीति से सफाई कैसे होगी ?

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुरुवार के दिन राज्यसभा मेंप्रधानमंत्री मोदी को नोटबंदी पर चेतावनी दी। और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी गंभीर हुये कभी मुस्कुराये। और भोजनावकाश के बाद विधान पर टिके राज्यसभा का ही डिब्बा गोल हो गया क्योंकि सदन में पीएम नहीं पहुंचे। तो ऐसे में पूर्व पीएम ने भी नहीं सोचा कि सदन में आलथी पालथी मारकर तबतक बैठ जाये जब तक संकट में आये देश के निकलने का रास्ता पीएम मोदी आकर ना बताये। एक ने कहा। दूसरे ने सुना। और संसद ठप हो गई । तो 62 करोड़ नागरिक जो गांव में रहते है और करीब 29 करोड नागरिक जो शहरों की मलिन बस्स्तियों और झोपडपट्टियों में रहते हैं, उनकी जिन्दगी से तो जीने के अधिकार शब्द तक को छीना जा रहा है उस पर कब कहां किसी पीएम ने बात की। और 90 करोड़ नागरिकों से ज्यादा के इस हिन्दुस्तान का सच तो यही है कि न्यूनतम की जिन्दगी भी करप्शन और नाजायज पैसे पर टिकी है। गांव में हैडपंप लगाना हो। घर खरीदना हो । रजिस्ट्री करानी हो। सरकार की ही कल्याणकारी योजनाओं का पैसा ही बाबुओं से निकलवाना हो। बैंकों के जरीये सरकार के पैसे को बांटना हो। यानी जहां तक जिसकी सोच जाती हो वह सोच सकता है और खुलकर कह सकता है कि बिना कुछ ले देकर क्या कोई काम वाकई इस सिस्टम में होता है। दिल्ली में ही लाल डोरा की जमीन हो या जायज जमीन पर मकानबनाने का काम शुरु करना। पुलिस से लेकर इलाके के नेता वसूली के लिये कैसे टूट पड़ते हैं। किससे छुपा है। हर विभाग का एनओसी कितने में बिकता है, रेट तक तय है। नोटबंदी के दौर में टोल फ्री चाहे हो लेकिन दिल्ली से लेकर हर राज्य में पुलिसिया वसूली जारी है। ये सिस्टम ना चेक पर चलता है । ना क्रेडिट या डेबिट कार्ड पर। और यह सिस्टम चलता भी क्यों है, इस पर भी कोई पीएम तो दूर कोई मंत्री या नेता बोलना नहीं चाहता। लेकिन नोटबंदी के सवाल ने हर किसी को आम आदमी के दर्द से ऐसे जोड दिया है कि हर का सुर एक है। चाहे दोनों खिलाफ क्यों ना हो। जैसे यूपी में मायावती और मुलायम । तो क्या मायावती नोटो के हार को भूल गई। क्या शानदार दृश्य था। और समाजवादी भूल गये कैसे साइकिल की सवारी से दो करोड़ की बस के सफर पर अखिलेश यादव चुनाव प्रचार में निकल पड़े। 2012 में साइकिल पर यूपी में घूमे तो सत्ता मिली। और सत्ता दुबारा चाहिये तो साइकिल की तस्वीर दो करोड़ की बस पर लगाकर बुंदेलखंड सरीखे इलाके में भी जाने में परहेज नहीं।

जहां दो जून की रोटी अब भी सवाल है। यानी एक तरफ नेताओ के लिये भरे पेट जनता के सरोकार से जुडने की ऐसी वकालत है, जिसमें जीडीपी पर संकट दिखायी दे रहा है। लड़खड़ाती बाजार व्यवस्था नजर आ रही है। व्यापार ठप होने से माथे के बल पड रहे हैं। लेकिन इस महीन लकीर का जिक्र करने से हर कोई बच रहा है कि देश में संकट संसाधनों के खत्म होने से ही ये हालात बने हैं। इसीलिये पीएम ने रिजर्व बैक के अधिकार तक को हड़प लिया। तो फिर ऐसा सिस्टम बनाया किसने जिसमें सुप्रीम कोर्ट के वकील अरबपति हो गये। प्राइवेट अस्पताल चलाने वाले खरबपति हो गये। प्राइवेट शिक्षा संसाधन चलाने वाले अरबो खरबो के मालिक हो गये। इन्हें पैसा देता कौन है। और जो देता है वह है कौन। ये कहां किसी से छिपा है। हर पीएम जानता है। हर सरकार को इसकी जानकारी है। इसीलिये तो सुप्रीम कोर्ट तो दूर हाईकोर्ट तक क्यों कोई आम आदमी अपना केस नहीं लड़ पाता। बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल में आम जनता इलाज नहीं करा पाती। निचली अदलत के चक्कर और बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल मे इलाज किसी आम जनता के लिये घर-बार बेचने सरीखा हो जाता है। और यह पूरा खेल नकदी का है। तो क्या ये खेल नोटबंदी के 50 दिन के दर्द-परेशानी को सहने के बाद खत्म हो जायेगा। अगर प्रधानमंत्री मोदी भरोसा दिलाते है । हां खत्म हो जायेगा तो शायद हर कोई देश बदलने को तैयार है । लेकिन खत्म होगा नहीं । और ईमानदार भारत बनाने की भावनाओं के उभार का ये खेल है तो फिर ये भी मान लीजिए अंधेरा वाकई घना है । क्योंकि याद कीजिये ठीक 25 बरस पहले वीपी सिंह स्वीस बैंक का नाम लेते तो सुनने वाले तालियां बजाते थे। और 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी ने जब स्विस बैंक में जमा कालेधन का जिक्र किया तो भी तालियां बजीं। नारे लगे । 25 बरस पहले स्विस बैंक की चुनावी हवा ने वीपी को 1989 में पीएम की कुर्सी तक पहुंचा दिया। और ध्यान दें तो 25 बरस बाद कालेधन और भ्रष्टाचार की इसी हवा ने नरेन्द्र मोदी को भी पीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। 25 बरस पहले पहली बार खुले तौर पर वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा स्विस बैंक में जमा होने का जिक्र अपनी हर चुनावी रैली में किया। हर मोहल्ले। हर गांव। हर शहर की चुनावी रैली में वीपी के यह कहने से ही सुनने वाले खुश हो जाते कि बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा कैसे स्विस बैंक में चला गया और वीपी पीएम बन गये तो पैसा भी वापस लायेंगे और कमीशन खाने वालो को जेल भी पहुंचायेंगे। तब वोटरों ने भरोसा किया। जनादेश वीपी सिंह के हक में गया। लेकिन वीपी के जनादेश के 25 बरस बाद भी बोफोर्स कमीशन की एक कौडी भी स्विस बैंक से भारत नहीं आयी। तो क्या 25 बरस बाद स्वीस बैक में जमा कालेधन से फिसल कर प्रधानमंत्री मोदी ने देश में जमा कालेधन का जिक्र कर जब नोटबंदी का शिकंजा कसा तो झटके में वही बाजार व्यवस्था आ गई जिसपर देश ही नहीं सियासत भी चल रही है । क्योंकि देश की इकनॉमी चलाने वाले राजनीति, कारपोरेट, औघोगिक घराने , बिल्डर से लेकर खेल और सिनेमा तक के घुरघंर है । इतना ही नहीं ड्रग, घोटाले, अवैध हथियार से लेकर आंतक और उग्रवाद तक की थ्योरी के पीछे बंधूक की नली से निकलने वाली सत्ता भी अगर कालेधन पर जा टिकी हो तो फिर नकेल कसने का तरीका नोटबंदी से कैसे निकलेगा । क्योंकि इनका कालाधन रुपये पर नहीं डॉलर पर टिका है। देश के नही दुनिया के बाजार में घुसा हुआ है। खनन से लेकर रियल इस्टेट का धंधा देश के बाहर कही ज्यादा आसान है। तो क्या कालेधन का सवाल राजनीतिक सत्ता के लिये किसी फिल्म के सुपर हिट होने सरीखा है। क्योंकि मोदी सरकार ने जिन 627 कालेधन के बैंक धारकों के नाम सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं। उन नामों को भी स्विस बैंक में काम करने वाले एक व्हीसिल ब्लोअर ने निकाले । जो फ्रांस होते हुये भारत पहुंचे। 

और इन्हीं नामों को सामने लाया जाये इसपर पहले मनमोहन सरकार तो अब मोदी सरकार उलझी है। ध्यान दें तो वीपी सिंह के दौर में भी सीबीआई ने बोफोर्स जांच की पहल शुरु की और मौजूदा दौर में भी सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआई को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि कालाधन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियो में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी कालेधन का चेहरा है। जिसका जिक्र नोटबंदी के बाद से मोदी सरकार के मंत्री लगातार संसद के भीतर मनमोहन के दौर के घोटालो का जिक्र कर कह रहे है । ऐसे हालात में अगर कालेधन के इसी चेहरे को राजनीति से जोडे तो फिर 1993 की वोहरा कमेठी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी का इस्तेमाल उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खडा करती है जो सत्ता में आने

के लिये स्वीस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्वीस बैंक को एक मजबूरी करार देती है । यह सवाल इसलिये बडा है क्योकि कालाधन चुनावी मुद्दा हो और कालाधन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे तो फिर कालाधन जमा करने वालो के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन । दूसरा सवाल जब देश की आर्थिक नीतियां ही कालाधन बनाने वाली हो तो फिर व्यवस्था का सबसे बडा पाया तो राजनीति ही होगी।

Thursday, November 24, 2016

"प्रधानमंत्री जी हाज़िर हों "$$$$$ !!- लेखक-विश्लेषक-विचारक(पीताम्बर दत्त शर्मा)मो.न. +9414657511

भारतीय संसद की सभी रीतियों व परम्पराओं को तोड़ते हुए विपक्षी नेता शिकारी कुत्तों की तरह कल से संसद को चलने नहीं दे रहे !बारी-बारी से वे राज्यसभा और लोक सभा अध्यक्ष एवम अध्यक्षा की आज्ञा के बिना खड़े होकर अपने आदेश सदन की "चेयर"को सुनाने लग पड़ते हैं !एक चुप होता है तो दूसरा खड़ा हो जाता है और दूसरा चुप होता है तो तीसरा अपनी "काँव -काँव"शुरू कर देता है !बहाना तो ये है कि भारत की जनता परेशान है लेकिन कॉमरेडों और कोंग्रेसियों की यूनियनें सहकारी बैंकों में हड़ताल भी करवा रहीं हैं क्यों ?केवल एक ही रट लगाए बैठे हैं की दोनों सदन तब चलने देंगे अगर प्रधानमंत्री जी दोनों सदनों में दोनों जगह पूरी बहस में हाज़िर रहें !
                       कोई इन मूर्खों से पूछे कि एक प्रधानमंत्री एक ही समय में दोनों सदनों की बहस कैसे सुन सकता है ?सभी प्रकार के आश्वासन राज्यसभा के नेता और उपाध्यक्ष द्वारा दिए जा चुके हैं !फिर भी ये विपक्षी बहस नहीं चलने दे रहे हैं !इनकी एक और "चालाकी"  भी सामने आ रही है , वो ये कि विपक्षी लीडर तो अपना भाषण दे चुके लेकिन सत्तापक्ष के भाषण के समय व्यवधान डाल रहे हैं क्यों ?तृणमूल कोंग्रेस के एक सांसद बोल रहे थे कि मोदी जी ऐसे भाषण देते हैं जैसे हम विपक्षी लीडर आतंकवादी या काले धन रखने वाले हैं !लेकिन जनता जानती है की आपकी करनी की वजह से जनता आपको पहचान चुकी है , मोदी जी के भाषण की वजह से नहीं , ऐसा भारत की जनता का मानना है जी !
                               बहन मायावती जी ने तो मोदी जी के सर्वे को भी गलत था दिया है !वहीँ समाजवादी के श्री नरेश अग्रवाल तो मोदी जी को आश्वासन देते नज़र आये कि "मोदी जी आपको कोई नहीं मार सकता ,आप रोइये मत उत्तर-प्रदेश में आ जाइये , वहाँ "क़ानून-व्यवस्था" बड़ी बढ़िया है , हम आपको बचाएंगे "!! इतना सुनते ही सारा सदन ऐसे हंस पड़ा जैसे किसी ने कोई चुटकुला सुना दिया हो !
                           राज्य सभा का ये हाल है तो लोकसभा में राहुल गांधी जिसे " विद्वान् "क्या हाल करेंगे सदन के नियमों का ये भगवान् ही जानता है जी ! धन्य हैं ऐसे नेताओं को अपना "वोट" देकर जिताने वाले !जय हिन्द !जय भारत !राम-राम !

                                                                             सधन्यवाद !!




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Wednesday, November 23, 2016

पंडारा बॉक्स तो मोदी ने खोल ही दिया है....!!

प्रधानमंत्री मोदी चौतरफा घिरे हैं और यही उनकी सफलता है। क्योंकि जिस नेता को केन्द्र को रखकर समूची राजनीति सिमट गई है। वह नेता जनता की नजर में भारतीय राजनीति की खलनायकी में खलनायक होकर भी नायक ही दिखायी देगा। क्योंकि राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में जनतंत्र है नहीं और राजनीतिक लोकतंत्र अपने गीत गाने के लिये वक्त-दर वक्त नायक खोज कर खुद को पाक साफ दिखाने से चूका नहीं है। तो सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर मुलायम या मायावती, संसद में सभी की जुबां पर मोदी हैं तो सड़क पर ममता और केजरीवाल के निशाने पर भी मोदी हैं। तो मोदी का कद झटके में सियासी पायदान पर सबसे उपर है। और जो दबाव धंधे वालों से लेकर गांव-खेत में दिखायी दे रहा है, उसकी बदहाली के लिये वही राजनीति जिम्मेदार है, जिसे मोदी डिगाना चाहते हैं। तो क्या पहली बार सत्ता ही जनवादी सोच लिये भ्रष्ट पारंपरिक राजनीति को ही अंगूठा दिखा रही है। यानी इतिहास के पन्नों को पलटें तो जेपी चाहे संपूर्ण क्रांति का नारा देकर चूक गये। अन्ना हजारे चाहे जनलोकपाल की गीत गाकर चूक गये। लेकिन मोदी कालाधन का राग गाते हुये चूकेंगे नहीं क्योंकि सत्ता उनके पास है। और वह सीधे राजनीतिक सत्ताधारियों के तौर तरीकों के खिलाफ बोल ही रहे है। यानी राजनीतिक दलों की जिस कमाई पर पहले सत्ता खामोश रहती थी, अब मोदी ने उस डिब्बे को खोल दिया है। तो चिटफंड से लेकर दलाली और कैश चंदे से लेकर उघोगों को लाभ पहुंचा कर कमाई पर भी सीधे बोल है। तो क्या ये रास्ता राजनीतिक सफाई का साबित होगा। या फिर राजनीति के कटघरे में मोदी अभिमन्यु साबित होंगे। क्योंकि तीन सवाल नोटबंदी के बाद देश को डरा भी रहे हैं। पहला जब सिस्टम भ्रष्ट है तो वही सिस्टम भ्रष्टाचार को खत्म कैसे करेगा। दूसरा ,जब राजनीतिक सत्ताधारियों में लूट का समाजवाद रहा है तो मोदी का जनतंत्र कैसे काम करेगा। और तीसरा 1991 से कन्ज्यूमरइज्म यानी उपभोक्तावाद के आसरे ग्रोथ देखने वाले झटके में सोशल जस्टिस कैसे करेंगे । जाहिर है तीनों सवाल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये रेफरेन्डम यानी जनमत संग्रह वाले हो सकते हैं। और उससे पहले कमोवेश हर राज्य के चुनाव में मोदी इसी नोटबंदी के आसरे आसमानता का जिक्र कर चुनावी जमनत संग्रह वाले हालात बनाने की दिशा में जायेंगे भी। क्योंकि सत्ता संभालने के 30 महीने बाद मोदी जिस मुहाने पर खडे है, वहां से सत्ता बरकरार रखने की जोडतोड़ में फंसना मोदी का इतिहास के पन्नों में गुम हो जाना साबित होता। और मोदी इस सच को समझ रहे हैं कि उन्होंने जो जुआ खेला है वह है तो सही लेकिन है वह जुआ ही। जिसे अभी तक रईस खेलते रहे पहली बार आम जनता भी इस सियासी जुए में भगीदार हैं। 

लेकिन मौजूदा वक्त में अगर पीएम मोदी को क्लीन चीट दे भी दी जाये तो क्या बीजेपी या बीजेपी के साथ जुडे किसी भी चेहरे को लेकर कोई कह सकता है कि कोई दागदार नहीं है। वह चेहरा चाहे मध्यप्रदेश सीएम शिवराज से लेकर छत्तीसगढ सीएम रमन सिंह या राजस्धान की सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया का हो। या फिर पंजाब के बादल। बिहार के पासवान , महाराष्ट्र के उद्दव ठाकरे या यूपी में बीएसपी छोड बीजेपी में शामिल हुये स्वामी प्रसाद मौर्य का। यानी चेहरे चाहे बीजेपी के हो या बीजेपी के साथ अगल अलग राज्यों में साथ खडे चेहरे। दागदार तो हर कोई है। कोई व्यापम तो कोई पीडीएस। कोई ललित मोदी। तो पंजाब, बिहार. महाराष्ट्र और यूपी में बीजेपी के साथियों  का दामन भी पाक साफ नहीं है। और मोदी की नोटबंदी के खिलाफ कतारों में खड़े

मुलायम हो या मायावती। ममता बनर्जी हो या करुणानिधि या जयललिता। जब देश में हर राजनेता का दामन दागदार है तो फिर राजनीतिक ईमानदारी का पाठ नोटबंदी के जरीये पढाया जा सकता है इसे सच माने कौन। क्योंकि मोदी खुद उस राजनीतिक तालाब में खड़े हैं, जहां कालाधन राजनीति की जरुरत है। इसीलिये बीते दस बरस में 3146 करोड़ से ज्यादा कैश राजनीतिक दलों ने चंदे के तौर पर लिया। और किसी भी राजनीतिक दल ने कैश की जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी । फिर चुनाव आयोग के मुताबिक 20 हजार से ज्यादा कैश लेने पर जानकारी देनी होती है। तो हर राजनीतिक दलों ने सारे कैश 20 हजार से कम बताये। यानी किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि कैश 20 हजार से ज्यादा लिया। मायावती ने तो नब्ब फिसदी चंदा कैश में लिया। और हर से सिर्फ 20 हजार रुपये से कम बतायें। को क्या राजनीतिक सफाई की दिशा में मोदी बढ़ रहे हैं। या फिर प्रधानमंत्री ने चाहे अनचाहे विपक्ष को ही एक ऐसा हथियार दे दिया है जो सरोकार का सवाल उठाकर अभी तक के अपने दाग को इसलिये धो सकते हैं क्योंकि जनता परेशान हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर है नहीं। निर्णय लागू कराने में सिस्टम सक्षम नहीं है। 

यानी जिस राजनीतिक व्यवस्था से लोगों का मन टूट रहा था वह मन फिर से समाधान के लिये उसी राजनीतिक व्यवस्था की तरफ देखने को मजबूर हो रहा है। जबकि जनता के पैसे पर सबसे ज्यादा रईसी राजनेता ही करते हैं। मसलन कुल 4120 विधायक और 426 एमएलसी है यानी कुल 4582 विधायक, जिन्हे औसत प्रतिमाह 2 लाख वेतन और भत्ता प्रतिमाह मिलता है  । जिसे जोड़ दें तो 91,640000 रुपये बनते हैं। यानी सालाना करीब 1100 करोड । इसी तर्ज पर अगर सांसदों का भी हाल देख लें । तो लोकसभा और राज्यसभा मिलाकार कुल 776 सांसदों को हर महीने औसतन 5 लाख रुपये वेचन और भत्ते केतौर पर मिलता है। जिसे जोड़े तो 38 करोड 80 लाख रुपये होते हैं। यानी लाना 465 करोड, 360 लाख रुपये। यानी विधायकों और सांसदों के वेतन भत्ते को मिला दे तो करीब 15 अरब 65 करोड 60 लाख रुपये होंगे। और इसमें आवास , यात्रा भत्ता, इलाज, विदेशी सैर सपाटा शामिल नहीं है। लेकिन सुविधाओं की पोटली यही खत्म नहीं होती बल्कि हर चुने हुये नुमाइन्दे को सुरक्षा चाहिये। सुरक्षा के लिहाज से हर विधायक को 2 बॉडीगार्ड और एक सेक्शन हाउस गार्ड यानी 5 पुलिस कर्मी। तो कुल 7 सुरक्षाकर्मी एक विधायक के पीछे रहते हैं। हर पुलिस कर्मी को औसतन 25 हजार रुपये के लिहाज से कुल एक लाख 75 हजार होते हैं। यानी कुल 4582 विधायकों पर 1 लाख 75 हजार के लिहाज से हर महीने 80 करोड 18 लाख रुपये होते हैं। और सालाना 9 अरब 62 करोड 22 लाख रुपये। इसी तर्ज पर अगर सांसदों की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों के खर्च को जोड़ लें तो सांसदों की सुरक्षा में हर बरस 164 करोड रुपये खर्च होते हैं। इसके अलवा पीएम सीएम कुछ मंत्री और कुछ राजनेताओं को जेड प्लस की सुरक्षा मिली हो होती है, उसके लिये 16 हजार सुरक्षाकर्मियों की तैनाती देश में होती है। जिनपर सालाना खर्चा 776 करोड़ के करीब होता है। यानी कुल 20 अरब का खर्चा चुने हुये नुमाइन्दो की सुरक्षा पर होता है। यानी हर साल चुने हुये नेताओ पर 50 अरब खर्च हो जाता है। और इस फेहरिस्त में राज्यपाल, पूर्व नेताओं की पेंशन, पार्टी अध्यक्ष या पार्टी नेता या फिर जिन नेताओं को सरकारें मंत्रियो का दर्जा दे देती है, अगर उन पर खर्च होने वाला देश या कहे जनता का पैसा जोड़ दिया जाये तो करीब 100 अरब रुपया खर्च हो जाता है। अब ये ना पूछिएगा गरीबों को या जनता को ही इससे मिलता क्या है।

Saturday, November 19, 2016

संसद से नहीं बैंक से निकलेगा लोकतंत्र का नया रागsaabhaar

जब संसद सड़क के सामने छोटी लगने लगे तो फिर नेताओं का रास्ता जाता किधर है। सड़क के हालात बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश के करीब 55 करोड़ लोगों ने वोट डाले लेकिन आज की तारीख में शहर दर शहर गांव दर गांव 55 करोड़ से ज्यादा लोग सड़क पर उस नोट को पाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं जिसका मूल्य ना तो अनाज से ज्यादा है और ना ही दुनिया के बाजार में डॉलर या पौंड के सामने कहीं टिकता है। फिर भी पहले वोट और अब नोट के लिये अगर सड़क पर ही जनता को जद्दोजहद करनी है तो क्या वोट की तर्ज पर नोट की कीमत भी अब प्रोडक्ट नहीं सरकार तय करेगी। क्योंकि मोदी सरकार को 31 फिसदी वोट मिले। यानी खिलाफ के 69 फिसदी वोट का कोई मूल्य संसदीय राजनीति में कोई मायने रखता ही नहीं है। ठीक इसी तरह 84 फीसदी मूल्य के नोट के खत्म होने के बाद 16 फिसदी मूल्य की रकम महत्वपूर्ण हो गई। यानी रोजाना चार हजार रकम के खर्च करने का समाजवाद सड़क पर आ गया। तो क्या समाजवाद के इस चेहरे के लिये देश तैयार हो चुका है या फिर जिस संसद की पीठ पर सवार होकर लोकतंत्र का राग देश में गाया जा रहा है, पहली बार संसदीय लोकतंत्र को ही सडक का जनतंत्र ठेंगा दिखाने की स्थिति में आ गया है। और यहीं से बड़ा सवाल निकल रहा है कि आखिर बुधवार की सुबह जब संसद शुरु होगी तब राजनीतिक सत्ता के कर्णधारों का रास्ता जायेगा किस तरफ। क्योंकि संसद का महत्व तो तभी है जब संसद में जनता के हित में कोई निर्णय है। या फिर संसद के सरोकार जनता से जुड़े। और सच यही है कि पहली बार राजनीतिक सत्ता ने संसदीय राजनीति की धारा के खिलाफ निर्णय लिया है। और नया संकट उस पारंपरिक राजनीति के सामने है जो अभी तक ये सोचती रही कि संसद के दायरे से सड़क को संभाला जा सकता है। तो सवाल तीन हैं। पहला क्या संसद छोड़ सड़क की राजनीति को थामना ही अब हर राजनीतिक दल की जरुरत है। दूसरा ,क्या संसदीय राजनीति के भीतर का भ्रष्टाचार नई परिभाषा गढ रहा है। तीसरा , क्या संसदीय राजनीति का चेहरा इतना विकृत हो चला है कि पीएम ने खुद को ही जनता के साथ जोड़ लिया है। यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का मंदिर यानी संसद ही जब सड़क के जनतंत्र को संभालने की स्थिति में नही होगा तो क्या ये कहा जा सकता है कि भारत बदल रहा है । या फिर फेल भारत सफल होने के लिये छटपटा रहा है । क्योकि बीते 70 बरस की सियासत ने दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश को बाजार में बदल दिया है। नागरिकों को कन्ज्यूमर बना दिया है। उत्पादन से बड़ा नोट हो गया है। खेती से ज्यादा कमाई सेवा क्षेत्र ने समेट ली। और संसद की नुमाइन्दगी भी रईसों के इर्द -गिर्द घुमड़ने लगी। नीतियां पैसेवालों के लिये बनने लगी। योजनाओं के दायरे में 80 फीसदी नागरिक पैकेज पर टिक गया। 20 फीसदी उपभोक्ता के लिये बजट बनाया जाने लगा तो ऐसा फैसला चाहे अनचाहे देश को ऐसे मुहाने पर खड़ा तो कर ही गया है, जहां से हर राजनेता का रास्ता अब संसद की तरफ नहीं सडक की तरफ जाता है। क्योंकि सडक की सियासत का रास्ता अभी भी एक रुपये को महत्व देता है और संसद के भीतर 500 या दो हजार के नोट मायने रखते है। और कभी नोट को ध्यान से देखिये तो सिर्फ एक रुपये की जिम्मेदारी भारत सरकार लेती है। बाकि हर नोट पर रिजर्व बैक धारक को नोट देने का वायदा करता है। ये ठीक उसी तरह है जैसे खेत खलिहानों में किसानों को बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर मिल सके इस जिम्मेदारी की बात तो भारत सरकार करती है। लेकिन उपजाये गया अनाज की कीमत बाजार में होगी क्या ये भारत सरकार नहीं बल्कि मंडी चलाने वाले दलाल तय करते हैं। तो सोचना शुरु कीजिये आखिर क्यों देश की इकनॉमी नोटों की अर्थव्यवस्था पर चलायी जा रही है। ना कि उत्पादन। खेती और मानव संसाधन पर। आखिर ऐसे हालात क्यों बनाये जा रहे है, जहां किसान की फसल नोट के सामने बेबस है। उच्च शिक्षा हासिल करने वाले युवा छात्र अनपढ़ करोड़पति के सामने बेबस हैं। और अपनी ही कमाई को लेने के लिये हर नागरिक बैंक के सामने बेबस हैं। तो क्या भारत की इकनामी धीरे धीरे व्यवसायिक बैंकों की खाली खातों में रकम लिखकर और भरकर आगे बढ़ कर रही है। यानी देश को बाजार में बदलने के बाद उपभोक्ता संस्कृति का असल चेहरा अब सामने आ रहा है जब बाजारों की चकाचौंध भी दुनिया के सबसे ज्यादा उपभोक्ता वाले देश में इसलिये थम गई है क्योंकि ना दिखाई देने वाली इक्नामी यानी नोट की कीमत सोना, चादी, जमीन, घर , अनाज से भी ज्यादा कीमती हो गई है और नोट के जरीये राजनीतिक सत्ता ही जनता से सिर्फ वायदा कर रही है कि अच्छे दिन आ जायेंगे। ठीक उसी तरह जैसे नोट पर रिजर्व बैक धारक को वायदा करता है। यानी सच पर अभासी सच हावी हो चला है । और अभासी सच का हथियार है बैंकिंग सर्विस । यानी बैंकिंग सर्विस ही अब देश की इकनॉमिक सर्विस होगी, ये संकेत तो साफ हो चले हैं। तो जिस बैंक की टकटकी लगाये हर आदमी आज देश में देख रहा है उस बैंकिंग सर्विस का सच भी समझ लीजिये। क्योंकि यही वह बैंक हैं, जिनसे विजय माल्या कर्ज लेकर बिना चुकाये लंदन भाग सकते है। और यही वो बैंक है, जिनसे कर्ज लेकर ना चुकता पाने पर किसान को खुदकुशी करता है। और देश के 20-30 औघोगिक घरानों के पास बैंक का सवा लाख करोड़ से ज्यादा पड़ा है लेकिन वह बैंक को लौटा नहीं रहे और बैंक ले नहीं पा रहा। तो दो सवालो को समझना होगा। पहला, बैंकों में पैसा देश के नागरिकों का ही है। दूसरा,बैंक का 90 फिसदी पैसा सरकार या उघोगपति कर्ज पर लेते हैं। यानी आज जिस तरह जनता अपने ही रुपयों को पाने के लिये नोट बदल रही हैं। अगर देश का नागरिक सोच लें कि वह बैंकों से सारा पैसा निकाल लेगा तो क्या बैक उसे सारा पैसा देने की स्थिति में होगा। यकीनन नहीं। तो जरा बैंकिंग सर्विस के जरीये उन हालातों को समझें जहा आप एक लाख रुपये बैक में जमा कराते है । बैक उघोगो से ब्याज लेकर 90 हजार रुपये कर्ज में दे देता है। 90 हजार लौटने पर बैक 81 हजार फिर ब्याज लेकर कर्जपर दे देता है। यानी जनता के पैसे से बैक ब्याज लेकर जनता के पैसे को ही उघोगों या कारपोरेट को कर्ज देता है। बैंक की अपनी लागत कुछ नहीं होती। लेकिन बैंक का टर्न ओवर बढता जाता है। औऱ इस प्रक्रिया में रुपये की कीमत गिरती जाती है। यानी अगर लोग ये सोच लें कि कि बैंक से रुपया निकाल कर वह जमीन, सोना या अनाज ही खरीद लें तो बैक के पास इतनी रकम होगी ही नहीं। यानी जो बड़े बुजुर्ग आज बैंक की लाइन में खडे होकर अपने ही पैसों के लिये तरस रहे है अगर वह ये सोच रहे होंगे कि पहले की ठीक था। जब सामान बदलकर जिन्दगी चलती थी। तो समझना होगा कि 1933 में बैंकों ने गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म इसीलिये किया। जिससे रुपये की ताकत खत्म हो जाये। यानी पहले जितना रुपया लेकर बैक में व्यक्ति जाता था उतने का सोना-चांदी मिल जाता था। अब ये संभव नहीं है कि जितना रुपया आपने बैंकों में जमा किया उस कीमत में एक बरस बाद उतना ही सामान मिल जाये जो जमा करते वक्त था। और अगर किसी देश को रुपये की जरुरत होगी तो वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ देशों को कर्ज देते हैं। देश कर्ज ना चुका पाने की स्थिति में नोट छापते हैं। और फिर महंगाई बढती है। समाज में असमानता बढ़ती है। और माना यही जाता है कि बैंकिंग सर्विस के जरीये ही सत्ता अपने नागरिको पर और ताकतवर देश कमजोर देशों पर राजकर अपनी नीतियों को लागू कराते है । तो लोकतंत्र का नया राग संसद से नहीं बैंक से मिलने वाले नोट पर जा टिका है।

साभार सधन्यवाद !!

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Monday, November 14, 2016

मोदी जी की "कड़क चाय"का स्वाद !? - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक-विचारक) मो.न. +9414657511

मित्रो ! जैसे ही मोदी जी ने उस दिन रात आठ बजे राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में देश भक्तों और  दुश्मनों  को बताया कि "भारत में 500 और 1000 रूपये के नोट आज से बन्द हो गए हैं तो सारा देश सहम सा गया !लोग कई देर तलक अचंभित से एक दुसरे से पूछते रहे कि क्या सच में ऐसा हो ही गया है ? जब भारत के छोटे से छोटे भ्रष्ट नागरिक को ये पता चला कि ये सच्च है तो उसने तभी से अपना दिमाग केवल इसी बात पर लगाना चालु कर दिया कि मैं कैसे अपना "काला -धन"खपाऊँ या बदलवाऊँ ?क्योंकि "कोंग्रेस के शासन चलाने की एक विशेष संस्कृति"है इसलिए हर आदमी इस देश का " भ्रष्ट व्यवस्था "का हिस्सा बन चुका है !केवल स्तर का ही अंतर है !कोई छोटा है तो कोई बड़ा है !
                           देश के सभी राजनितिक दलों के नेता 24 घण्टे तो अपनी और अपने मित्रों की व्यवस्था बिठाने में लगे रहे , फिर हमारे देश के "तथाकथित युवा नेता राहुल गांधी"केवल एक दिन 4000/-रूपये बदलवाने हेतु बैंक की लाईन में लगे और सारी ,उनके मुताबिक दुःखी जनता का दुःख "दूर"कर गए ! क्या उनके पास केवल इतने ही रूपये थे ?उनके बाद तो क्या केजरीवाल , क्या ममता-मुलायम ,मायावती,लालू,और येचुरी जैसे "काले- कौओं"की तरह काँव -काँव करने लगे !इनको ऐसा करते देख इनके कारिंदे भी गली गली जाकर बैंकों के आगे लगी लाइनों में खड़े लोगों को भड़काने लगे !जब उन्होंने देखा की जनता भड़क ही नहीं रही है तो इनके  कारिंदे स्वयम ही लाइनों में खड़े होकर लड़ने लगे !और बिकाऊ पत्रकार -टीवी चेनेल वाले 3 दिनों तलक यही दिखा-पढ़ा और चला रहे हैं कि यहां झगड़ा हो गया वहाँ नोट खत्म हो गए वगैरह-वगेरह !केवल कुछ चेनेल और अखबार वाले ये जनता को बता रहे हैं कि अब सरकार ने ये सुविधा दे दी है और अब ये सहूलियत हो गयी है !अब आप ही बताइये कौन सी ख़बरें सकरात्मक हैं जी !
                         मोदी जी भी हमारे नहीं हैं ! वो भी  भाषणों से नकरात्मक प्रचार करने वाले "बिकाऊ"लोगों को करार जवाब भी दे रहे हैं और जनता को सांत्वना भी दे रहे हैं !जनता भी आगे बढ़कर तालियों से उनको भरपूर समर्थन दे रही है !मित्रो !अगर मैंने थोड़ा भी काला-धन अपने पास रख्खा हुआ है तो मुझे भी कुछ दिन अगर लाइन में लग्न पड़े तो क्या ? कुछ जुरमाना भी देना पड़े तो क्या ??? " बॉर्डर पर जो जवान मर रहा है इस काले धन के माध्यम से उस से तो मैं ज्यादा भाग्यवान हूँ "!और अगर उनका भी मरना थम जाए मोदी जी  कठोर-कदम से तो अगर मैं जेल भी चला जाऊं तो मुझे कोई गम नहीं है ! मैं मोदी जी को अपना पूर्ण समर्थन  देता हूँ ! और आप ?? 
                        मोदी जी ने हम सबको जो ये कड़क चाय पिलाई है वो स्वादिष्ट भी है और गुणकारी भी , लेकिन सिर्फ उन लोगों के लिए जिनके अंदर देश-प्रेम की भावना है !मगर वो अवश्य परेशान हैं जो बिकाऊ और भ्रष्ट होने के साथ साथ जाने-अनजाने गद्दारों के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं !जो समझकसर समर्पण कर देगा वो बच जाएगा और जो चालाक  चाहेगा वो फंस जाएगा !अब आपकी मर्ज़ी !!!!!!!!!!
      



Friday, November 11, 2016



चकाचौंध की व्यवस्था से अब तो सचेत हो जायें !

जब जिन्दगी पर बन आई तो हंगामा मच गया। हवा जहरीली हुई तो सांसें थमने लगीं। आंखों में जलन शुरु हुई तो गैस चेंबर की याद आ गई। लेकिन क्या वाकई जिन्दगी की परवाह किसी को है। मौजूदा वक्त में जो सवाल देश के है उन्हीं के आसरे जिन्दगी को टोटल लें तब हवा में जहर क्यों और दूर हो कैसे इसपर भी बात होगी। क्योंकि जिस दौर में देशभक्ति जवानों की शहादत पर जा टिकी है, उस दौर में इसी बरस 93 जवान सीमा पर शहीद हो गये। जिस वक्त फसल की जड़ यानी खूंटी के जलने से फैलते जहरीले धुयें में मौत दिखायी दे रही है, तब इसी बरस 1950 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। जब दिल्ली की सडक पर जेएनयू के छात्र नजीब के गायब होने पर हंगामा मचा है। तब देश में 26 हजार से ज्यादा बच्चे इसी बरस लापता हो चुके हैं। जिस दौर में सफाई और विकास पर जोर है उसी दौर में फैंके जाते कचरे में लगती आग। कच्चे उघोगों से निकलता धुआं और सडक निर्माण के लिये सीमेंट,लोहा, ईंट, कोलतार से निकलने वाला धुआं 22 फीसदी बढ़ चुका है। और इस कतार में डिजल के ट्रक-एसयूवी का इस्तेमाल 12 फिसदी बढ़ गया। लकडी-कोयले से निकलने वाले धुये में 3 फीसदी की बढोतरी हो गई। बिजली उत्पादन बढाने के प्रोजेक्ट ने 4 फिस जहर हवा में घोल दिया । तो क्या जिन्दगी धुआं धुआं है और विकास की रफ्तार बेफिक्र है। या फिर सरकारी नीतियां जिस रास्ते जिन्दगी जीने को मजबूर कर रही हैं, उस दिशा में अब भारत ने सोचना बंद कर दिया है।

ये सवाल इसलिये क्योंकि वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में एक उपभोक्ता के बराबर 89 लोग हैं। यानी देश में विकास की समूची थ्योरी ही जब बाजार या कहें उपभोक्तावाद पर टिकी है तब जिस रास्ते कमाई या विकसित होने की नीतियां लाई जा रही हैं। उसमें डेढ़ करोड़ कन्जूमर के हत्थे देश के सौ करोड लोगों के जीवन से खिलवाड़ तो नहीं किया जा रहा है। क्योंकि गांव से औसत दो करोड़
लोगो का पलायन बीते 5 बरस में हर बरस हुआ। दिल्ली में ही 80 लाख रिहाइश बस्तियों में सिमटी है। कचरे से खाद बनाने की तकनीक जो दिल्ली में लगी है उसकी सीमा 10 फिसदी है। यानी दिल्ली की हवा में घुले जहर के साये में हर सवाल मौत से ज्यादा डरावना है। लेकिन अर्से बाद महानगर ही नहीं देश की राजधानी और उपभोक्ताओं की जिन्दगी पर बन आई है तो रास्ता किसी को नहीं सूझ रहा है। और सरकारें भी जिस डिहे पर खडी होकर खतरे की इस घंटी से निजात पाना चाहती है वह है कितना खोखला। उसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि सूखी जड़ों में लगी ये आग उतनी घातक नहीं है जितना मशरुम की तरह फैली देश झुग्गी-झोपडिया और बस्तियां है। जो असमानता का प्रतीक भी है और अंधेरे की जमीन पर चकाचौंध की शहरी सम्यता खड़ा करने की सोच भी है। क्योंकि जिस तरह कंक्रीट के मकान है। गाडियों का हुजूम है। और अव्यवस्थित-असमान समाज के विकास की सोच है। उसके भीतर का सच यही है कि खेती की सवा लाख हेक्ट्यर जमीन हर बरस शहरी कंक्रीट के लिये हड़पी जा रही है। 9 फिसदी नदियों की जमीन हथिया ली गई । 10 फीसदी जंगल काट लिये गये। 19 फिसदी गाडियां बढ़ गईं। 17 फिसदी कचरा बढ बीते पांच बरस में बढ़ चुका है। तो क्या वाकई देश जिस रास्ता निकल पडा है उसमें आने वाले वक्त में हर शहर को आगे बनने के लिये दिल्ली के रास्ते आना ही विकसित होना पडेगा । क्योंकि किसानों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर हो क्या सरकार के पास कोई नीति नहीं है । शहरों हो कैसे , इसकी कोई योजना सरकारों के पास है नहीं । शहर या महानगर ही नहीं देश की राजधानी में भी पब्लिक ट्रासपोर्ट को कोई विजन है नहीं। निर्माण क्षेत्र कैसे पर्यावरण को प्रभावित ना करें कभी किसी ने सोचा ही नहीं। दिल्ली में तो हर वक्त निर्माण कार्य ने बिमारी फैलाने में इतनी सहूलियत पैदा कर दी है कि डेंगू हो या चिकनगुनिया या फिर अब बर्ड फ्लू । आदमी से ज्यादा मच्छर इसमें रहने और विकसित होने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हालात है कितने बुरे इसका अंदाज इसी से लग सकता है सिर्फ दिल्ली को अगर हवा में जहर से निजात दिलाना है तो खेतो में बडी गली फसल की जड यानी खूंटी ना जले इसके लिये 4 राज्यो के किसानो के लिये 3 लाख करोड चाहिये।

 पब्लिक ट्रासपोर्ट के लिये 9 हजार करोड तुरंत चाहिये। औघोगिक घुआं रोकने के लिये सवा लाख करोड तुरंत चाहिये। निर्माण कार्य का असर वातावरण पर ना पड़े तुरंत 80 हजार करोड चाहिये। यानी 6-7 लाख करोड का असर दिल्ली के वातावरण को तभी ठीक कर पायेगा जब दिल्ली को देश के हालात से काट कर कही और ले जाया जाये। जो संभव है नहीं तो फिर सवाल दिल्ली का नहीं देश का है। और देश मदमस्त है। तो भारत सरकार को कम से कम पर्यावरण पर बनी सबसे चर्चित फिल्म " वॉल.ई " देखनी चाहिये, जिसमें पृथ्वी डंपिग यार्ड में बदल जाती है। मनुष्य दूसरे ग्रह पर चले जाते हैं। गगनचुंबी इमारते कूडे के ढेर में बदल जाती है । रोबोट के जरीये पृथ्वी पर कूडे को व्यवस्थित रुप से रखा जाता है । और बाजार हो या बैक या फिर विकास की चकाचौध के सारे प्रतीक,सबकुछ कूड़ा रखने में ही काम आते है।





Friday, November 4, 2016

सिर्फ सियासत की...कोई चोरी नहीं की..........!!"5th पिल्लर करप्शन किल्लर" "लेखक-विश्लेषक पीताम्बर दत्त शर्मा " वो ब्लॉग जिसे आप रोजाना पढना,शेयर करना और कोमेंट करना चाहेंगे ! link -www.pitamberduttsharma.blogspot.com मोबाईल न. + 9414657511


दिल्ली से एलओसी तक हवा में घुलता जहर

दो सौ करोड़ । ये बच्चों का आंकडा है। दुनियाभर के बच्चो की तादाद। जिनकी सांसों में जहर समा रहा है ।  हवा में घुलते जहर को दुनिया में कहीं सबसे ज्यादा बच्चे प्रभावित हो रहे हैं तो वह उत्तर भारत ही है । तो जो सवाल दीपावली के बाद सुबह सुबह उठा कि दिल्ली में घुंध की चादर में जहर घुला हुआ है और बच्चों की सांसों में 90 गुना ज्यादा जहर समा रहा है । तो ये महज दीपावली की अगली सुबह का अंधेरा नहीं है। बल्कि यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली समेत उत्तर भारत में 8 करोड़ बच्चों की सांसो में लगातार जहर जा रहा है । और दीपावली का मौका इसलिये बच्चो के लिये जानलेवा है क्योंकि खुले वातावरण में बच्चे जब सांस लेते है तो प्रदूषित हवा में सांस लेने की रफ्तार सामान्य से दुगुनी हो जाती है । जिससे बच्चों के ब्रेन और इम्युन सिसंटम पर सीधा असर पडता है । ये कितना घातक रहा होगा क्योंकि दीपावली की रात से ही 30 गुना ज्यादा जहर बच्चों की सांसों में गया । लंग्स, ब्रेन और दूसरे आरगन्स पर सीधा असर पड़ा । तो क्या दीपावली की रात से ही दिल्ली जहर के गैस चैबंर में बदलने लगी । क्योंकि यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चो के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक क्षेत्र साउथ एशिया है । जहा एक छोटे तबके के जीवन में बदलाव आया है और उससे गाडियों की तादाद , इन्फ्रास्ट्रक्चर का काम , एसी का उपयोग , लकडी-कोयले की आग । फैक्ट्रियों का धुंआ । सबकुछ जिस तरह हवा में घुल रहा है उसका असर ये है कि 62 करोड बच्चे सांस की बीमारी से जुझ रहे हैं। और इनमें से सबसे ज्यादा बच्चे भारत के ही है । भारत के 30 करोड़ बच्चे जहरीली हवा से प्रभावित हैं । और साउथ एशिया के बाद -अफ्रिका के 52 करोड़ बच्चे तो चीन समेत पूर्वी एशिया के 42 करोड बच्चे सांस लेते वक्त जहर ले रहे हैं। यानी जो सवाल दीपालवी की अगली सुबह दिल्ली की सडको पर धुंध के आसरे नजर आया । वह हालात कैसे किस तरह हर दिन 5 लाख बच्चो की जान ले रहा है। 2 करोड़ बच्चों को सांस की बीमारी दे चुका है। तीन करोड से ज्यादा बच्चों के ब्रेन पर असर पड़ चुका है ।12 करोड से ज्यादा बच्चो के इम्यून सिसंटम कमजोर हो चुका है । लेकिन हवा में घुलते जहर का असर सिर्फ दिल्ली तक नहीं सिमटा है । पहली बार लाइन आफ कन्ट्रोल यानी भारत पाकिस्तान सीमा पर जो हालात है उसने प्रवासी पक्षियो को भी रास्ता बदलने के लिये मजबूर कर दिया है ।

जी जिस कश्मीर घाटी में हर बरस अब तक साइबेरिया, पूर्वी यूरोप, चीन , जापान  फिलिपिन्स से दसियो हजार प्रवासी पक्षी पहुंच जाते थे । इस बार सीमा पर लगातार फायरिंग और पाकिसातनी की सीमा से जिस तरह बार बार सीजफायर उल्लघन हो रहा है । मोर्टार से लेकर तमाम तरह से बारुद फेका जा रहा है उसका असर यही है कि सीमा पर पहाडो से निकलती झिले भी सूने पडे है । पहाडो की झीले गंगाबल, बिश्हेनसर,गडसार में इसबार प्रवासी पंक्षी पहुचे ही नहीं । इतना ही नहीं कश्मीर घाटी में हर बरस सितंबर के आखरी में दुनियाभर से सबसे विशिषट पक्षियो झंड में करीब 15 हजार की तादाद में अबतक पहुंच जाते थे । इस बार हालात ऐसे है कि घाटी के हरकाहार, सिरगुंड,हायगाम और शलालाबाग सूने पडे है । तो कया पहली बार कश्मीर घाटी की हवा में भी बारुद कही ज्यादा है । क्योकि पक्षी विशेषज्ञो की भी माने तो जो प्रवासी पक्षी कश्मीर घाटी पहुंचते है वह अति संवेदनशील होते है और अगर पहली बार घाटी के बदले कोई दूसरा रास्ता प्रवासी पक्षियो के पकडा है तो ये हालात काफी खतरनाक है । और असर इसी का है कि वादी के प्रसिद रिजरवायर बुल्लर , मानसबल और डल लेकर भी सूने पडे है । लेकिन घाटी के हालात में तो प्रवासी पक्षी ही नहीं बल्कि पहली बार बच्चो के भविष्य पर अंघेरा कही ज्यादा घना है । क्योकि स्कूल के ब्लैक बोर्ड पर लिखे जिन शब्दो के आसरे बच्चे देश दुनिया को पहचानने निकलते है अगर उन्हे ही आग के हवाले कर दिया गया तो इससे बडा अंधेरा और क्या हो सकता है । तो पहली बार कश्मीर घाटी में अंधेरा इतना घना है कि बीते साढे तीन महीनो से 2 लाख बच्चे स्कूल जा नहीं पाये है । और बीते दो महीनो में 12 हजार 700 बच्चो के 25 स्कूलो में आग लगा दी गई । घाटी की सियासत और संघर्ष के दौर में ये सवाल बडा हो चला है कि बच्चो के स्कूलो में आग किसने और क्यो लगायी लेकिन ये सवाल पिछे छूट चला है कि आखिर बच्चो का क्या दोष । जो उनके स्कूल खुल नहीं पा रहे है ।

कल्पना किजिये आंतकवादी सैयद सलाउद्दीन से लेकर अलगाववादी नेता यासिन मलिक और सियासत करने वाले उमर अब्दुल्ला से लेकर सीएम महबूबा मुफ्ती हक कोई सवाल कर रहा है कि स्कूलो में आग क्यो लगायी जा रही है । एक दूसरे पर आरोप प्रतायारोप भी लगाये जा रहे है लेकिन इस सच से हर कोई बेफ्रिपक्र है कि आखिर वादी के शहर में बिखरे 11192 स्कूल और वादी के ग्रमीण इलाको में सिमटे 3280 स्कूल बीते एक सौ 115 दिन से बंद क्यो है । ऐसे में सवाल यही कि क्या पत्थर फेंकने से आगे के हालात कश्मीर के भविष्य को ही अंधेरे में समेट रहे है । क्योकि आंतक की हिसा और संघर्ष के दौर में करीब 80 कश्मीरी युवक मारे गये ये सच है । लेकिन इस सच से हर कोई आंख चुरा रहा है कि बीते साढे तीन महीनो से घरो में कैद 2 लाख बच्चे कर क्या रहे है । जिन 25 सरकारी स्कूलो में आग लगायी गई उसमें 6 प्रईमरी , 7 अपर प्रईमरी , 12 हाई स्कूल व हायर सेकेंडरी स्कूल है । और अंनतनाग और कुलगाम के इन 25 स्कूलो में पढने वाले 12 हजार बच्चो का द्रद यही है कि कल तक वह किताब और बैग देख कर पढने का खवाब संजोये रखते थे । इनरके मां-बाप स्कूल घुमा कर ले आते थे । लेकिन बीते दो महीने से जो सिलसिला स्कूलो में आग लगाने का शुरु हुआ है उसका असर बच्चो के दिमाग पर पड रहा है । और ये सवाल घाटी के अंधेरे से कही ज्यादा घना हो चला है कि अगर बच्चो को कागज पेसिंल किताब की जगह महज कोरा ब्लैक बोर्ड मिला तो वह उसपर आने वाले वक्त में क्या लिखेगें ।
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सिर्फ सियासत की...कोई चोरी नहीं की

कश्मीर 109 दिनों से कैद, यूपी में सत्ता सड़क पर, महाराष्ट्र में शिक्षा-रोजगार के लिये आरक्षण, मुंबई में देशभक्ति बंधक, बिहार में कानून ताक पर, पंजाब नशे की गिरफ्त में, गुजरात में पाटीदारों का आंदोलन ,दलितों का उत्पीडन, तो हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, तमिलनाडु-कर्नाटक में कावेरी पानी पर टकराव, झारखंड में आदिवासी मूल का सवाल तो असम में अवैध प्रवासी का सवाल और दिल्ली बे-सरकार। जरा सोचिये ये देश का हाल है । कमोवेश हर राज्य के नागरिकों को वहां का कोई ना कोई मुद्दा सत्ता का बंधक बना लेता है। हर मुद्दा बानगी है संस्थायें खत्म हो चली हैं। संविधानिक संस्थायें भी सत्ता के आगे नतमस्तक लगती है। वजह भी यही है कि कश्मीर अगर बीते 109 दिनों से अपने घर में कैद है। तो सीएम महबूबा हो या राज्यपाल
वोहरा। सेना की बढ़ती हरकत हो या आतंक का साया। कोई ये सवाल कहने-पूछने को तैयार नहीं है कि घाटी ठप है। स्कूल--कालेज-दुकान-प्रतिष्ठान अगर सबकुछ बंद है तो फिर राज्य हैं कहां। और ऐसे में कोई संवाद बनाने भी पहुंचे तो पहला सवाल यही होता है कि क्या मोदी सरकार का मैंडेट है आपके पास । यूपी में जब सत्ता ही सत्ता के लिये सड़क पर है । तो राज्यपाल भी क्या करें। सीएम -राज्यपाल की मुलाकात हो सकती है । लेकिन कोई ये सवाल करने की हालात में नहीं कि सत्ताधारियों की गुडंगर्दी पर कानून का राज गायब क्यों हो जाता है। मुंबई में तो देशभक्ति को ही सियासी बंधक बनाकर सियासत साधने का अनूठा खेल ऐसा निकाला जाता है। जहां पेज थ्री के नायक चूहों की जमात में बदल जाते हैं। सीएम फडनवीस संविधान को हाथ में लेने
वाले पिद्दी भर के राजनीतिक दल के नेता को अपनी राजनीतिक बिसात पर हाथी बना देते हैं। और झटके में कानून व्यवस्था राजनेताओ की चौखट पर रेंगती दिखती है। बिहार में कानून व्यवस्था ताक पर रखकर सत्ता मनमाफिक ठहाका लगाने से नहीं चूकती। मुज्जफरपुर में महिला इंजीनियर को जिन्दा जलाया जाता है। तो सत्ताधारी जाति की दबंगई खुले तौर पर कानून व्यवस्था अपने हाथ लेने से नहीं कतराती। हत्या-अपहरण-वसूली धंधे में सिमटते दिखायी देते है तो सत्ता हेमा मालनी की खूबसूरती में खोयी से लगती है। बिहार ही क्यों दिल्ली तो बेहतरीन नमूने के तौर पर उभरता है। जहां सत्ता है किसकी जनता पीएम, सीएम और उपराज्यापाल के त्रिकोण में जा फंसा है । और देश की राजनधानी दिल्ली डेंगू, चिकनगुनिया से मर मर कर निकलती है तो अब बर्ड फ्लू की चपेटे में आ जाती है।

तो क्या देश को राजनीतिक सत्ता की घुन लग गई है। जो अपने आप में मदमस्त है। क्योंकि वर्ल्ड बैंक के नजरिये को मोदी सरकार मानती है। उसी रास्ते चल निकली है लेकिन जब रिपोर्ट आती है तो पता चलता है कि दुनिया के 190 देशों की कतार में कारोबार शुरु करने में भारत का नंबर 155 हैं। कर प्रदान करने में नंबर 172 है। निर्माण क्षेत्र में परमिट के लिये नंबर 185 है। तो ऐसे में क्या बीते ढाई बरस के दौर में प्रदानमंत्री मोदी जिस तरह 50 से ज्यादा देशों का दौरा कर चुके है और वहां जो भी सब्जबाग दिखाये । क्या ये सिर्फ कहने भर के लिये था । क्योंकि अमेरिका से ब्रिटेन तक और मॉरिशस से सऊदी अरब तक और जापान -फ्रास से लेकर आस्ट्रेलिया तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते ढाई साल में जहां भी गए-उन्होंने विदेशी निवेशकों से यही कहा कि भारत में निवेश कीजिए क्योंकि अब सरकार उन्हें हर सुविधा देने के लिए जी-जान से लगी है। और नतीजा सिफर
क्योंकि विश्व बैंक ने बिजनेस की सहूलियत देने वाले देशों की जो सूची जारी की है-उसमें भारत बीते एक साल में सिर्फ एक पायदान ऊपर चढ़ पाया है। यानी भारत 131 से 130 वें नंबर पर आया तो पाकिस्तान 148 से 144 वें नंबर पर आ गया । और चीन 80 से 78 वें पायदान पर पहुंच गया । और नंबर एक परन्यूजीलैंड तो नंबर दो पर सिंगापुर है । तो क्या भारत महज बाजार बनकर रहजा रहा है जहा कन्जूमर है । और दुनिया के बाजार का माल है । क्योंकि-जिन कसौटियों पर देशों को परखा गया है-उनमें सिर्फ बिजली की उपलब्धता का इकलौता कारक ऐसा है,जिसमें भारत को अच्छी रैंकिंग मिली है। वरना आर्थिक क्षेत्र से जुडे हर मुद्दे पर भारत औततन 130 वी पायदान के पार ही है । तो सवाल है कि -क्या मोदी सरकार निवेशकों का भरोसा जीतने में नाकाम साबित हुई है? या फिर इल्पसंख्यको की सुरक्षा । बीफ का सवाल । ट्रिपल तलाक . और देशभक्ति के मुद्दे में ही देश को सियासत जिस तरह उलझा रही है उसमें दुनिया की रुची है नहीं । ऐसे में निवेश के आसरे विकास का ककहरा पढ़ाने वाली मोदी सरकार के दौर में अगर कारोबारियों को ही रास्ता नहीं मिल रहा तो फिर विकास का रास्ता जाता कहां है। क्योकि एक तरफ नौकरी में राजनीतिक आरक्षण के लिये गुजरात में पाटिदार तो हरियाणा में जाट और महाराष्ट् में मराठा सडक पर संघर्ष कर रहा है । और दूसरी तरफ खबर है कि आईटी इंडस्ट्री में हो रहे आटोमेशन से रोजगार का संकट बढने वाला है ।

तो क्या देश में  बेरोजगारी का सवाल सबसे बडा हो जायेगा । और इसकी जद में पहली बार शहरी प्रोपेशनल्स भी आ जायेगें । ये सवाल इसलिये क्योकि देश की तीन बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों की विकास दर पहली बार 10 फीसदी के नीचे पहुंच गई है। और अमेरिकन रिसर्च फर्म एचएफएस का आकलन है कि अगले पांच साल में आईटी सेक्टर में लो स्किल वाली करीब 6 लाख 40 हजार नौकरियां जा सकती हैं । और अगले 10 साल में मिडिल स्केल के आईटी प्रफेशनल्स की नौकरियो पर भी खतरे की घंटी बजने लगेगी । तो क्या जिस आईटी सेक्टर को लेकर ख्वाब संजोय गये उसपर खतरा है । और इसकी सबसे बडी वजह आटोमेशन है । यानी ऑटोमेशन की गाज लो स्किल कर्मचारियों पर सबसे ज्यादा पड़ेगी। और मिडिल लेवल के कर्मचारियों पर कम होते मुनाफे की मार पड़ना तय है। जिसके संकेत दिसंबर 2014 में उस वक्त मिल गए थे, जब टीसीएस ने 2700 से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी कर दी थी। इतना ही नहीं बैंगलुरु में बीते दो साल में 30 हजार से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी हुई है । तो क्या जिस स्टार्टअप और डिजिटल इंडिया के आसरे आईटी इंडस्ट्री में रोजगार पैदा करने का जिक्र हो रहा है वह भी ख्वाब रह जायेगा । क्योकि आईटी सेक्टर का विकास भी दूसरे क्षेत्रों
के विकास पर निर्भर है। और दुनिया के हालात बताते है कि रोबोटिक टेक्नोलॉजी ने मैन्यूफैक्चरिंग में पश्चिम के दरवाजे फिर खोल दिए हैं । यानी लोगो की जरुरत कम हो चली है । भारत के लिये ये खतरे की घंटी कही ज्यादा बडी इसलिये है क्योंकि -आईटी सेक्टर में बदलाव उस वक्त हो रहा है,जब भारत में बेरोजगारी संकट बढ़ रहा है।

Tuesday, November 1, 2016

"मुर्दा बोले !! कफ़न फाड़े"!!- पीताम्बर दत्त शर्मा !(लेखक-विश्लेषक-विचारक)मो.न.+9414657511

क्या कोंग्रेस राज में कभी कोई कैदी जेलों से नहीं भागे ? क्या कोंग्रस राज में कभी कोई एनकाउंटर नहीं हुआ ?क्या यू.पी.ऐ.के राज में प्रशासन से कोई गलती नहीं हुई?क्या कभी कोई उपकरण बन्द नहीं हुए ? अगर हुए तो जनता ने उन्हें भी तो सहा ना ! तो फिर आज अगर जेल से कोई कैदी भागते हुए एक सिपाही का कत्ल करते हुए भाग जाते हैं और मध्य प्रदेश की जागरूक पोलिस उनका पीछा करते हुए उनका "एनकाउंटर"कर देती है तो,कॉमरेडों-कोंग्रेसियों और upa के नेताओं की "माँ"क्यों मर जाती है ?बड़ी अजीब बात नहीं लगती आपको कि ये सब शहीदों की मृत्यु पर  आंसू भी नहीं बहाते ? क्यों उनके घरों में जाकर अपनी संवेदनाएं प्रकट नहीं करते ?
          "मुर्दा बोले !! कफ़न फाड़े"!!वाली कहावत ऐसे नेताओं पर एकदम सटीक बैठती है !ना जाने क्यों जनता ऐसे "कमीनों"को चुनावों में अपना "अनमोल-वोट"दे देती है ?बहिष्कार करना ही इनका एकमात्र इलाज है !ये जनता को कब समझ में आएगा ?जितनी जल्दी जांच कराने की बात माननीय शिवराज सिंह जी ने कह दी उतनी जल्दी तो कोंग्रेस के नेता उठते ही नहीं है किसी घटना पर बात करने हेतु !धिक्कार है उन मीडिया घरानों पर जो इन "फेल-नेताओं"के बयानों को बार चलाती है और उनसे मिलते जुलते अपने "व्यूज़"भी प्रकट करते हैं !क्या जरूरत है फेल पार्टियों के फेल नेताओं की बाइट्स लेने की ?
       इन नेताओं के बारे में मेरे परम् मित्र श्रीमान पुण्य प्रसुन वाजपेयी जी ने क्या खूब लिखा है ! आप भी पढ़िए !आप की आँखें खुल जाएंगी !ऐसे नेताओं को सबक सीखना बहुत आवश्यक है !

जनता के पैसे पर सत्ता की रईसी

13 लाख 77 हजार करोड़। ये जनता के टैक्स देने वालों का रुपया है। केन्द्र सरकार इसका 40 फिसदी हिस्सा राज्यों को बांट देती है। और अलग अलग राज्यों में सत्ता के पास जनता का जो टैक्स पहुंचता है, वो 30 लाख करोड से ज्यादा का है। मसलन यूपी में टैक्स पेयर 340120 करोड रुपये तो पंजाब में 85595 करोड रुपये। और इसी तर्ज पर जम्मू-कश्मीर में 61681 करोड रुपये तो झारखंड में 55492 करोड। असम में 77422 करोड रुपये तो गुजरात में 116366 करोड रुपये। यानी देश में केन्द्र से लेकर तमाम राज्य सरकारों के पास टैक्स पेयर का करीब 43 लाख 77 हजार करोड रुपया पहुंचता है। और ये सवाल हमेशा अनसुलझा सा रहा जाता है कि आखिर जनता का पैसा खर्च जनता के लिये होता है कि नहीं। और जनता के पैसे के खर्च पर सत्ता की कोई जिम्मेदारी है या नहीं। क्योंकि एक तरफ गरीब जनता की त्रासदी और दूसरी तरफ सत्ताधारियों की रईसी जिस तरह सार्वजनिक तौर पर दिखायी देती है। उसने ये सवाल तो खड़ा कर ही दिया है कि क्या सत्ताधारी जनता के पैसे पर रईसी करते है। लंबी लंबी गाडियों से लेकर दुनिया भर की यात्रा से सीधा जनता का क्या जुड़ाव होता है। और एक बार सत्ता मिलने के बाद हर राजनेता करोडपति कैसे हो जाता है। सरकारी कर्मचारियो के वेतन में सालाना 2 फीसदी से ज्यादा की बढोतरी होती नहीं है। राजनेताओं की संपत्ति में औसतन 50 फिसदी की बढोतरी कैसे हो जाती है। और असंगठित क्षेत्र के कामगार-मजदूरो की कमाई सालाना दशमलव में भी नहीं बढ़ पाती है। तो ये सवाल है कि क्या राजनेताओं का जुड़ाव  जनता की जरुरतों से ना होकर सत्ता बनाये रखने और संपत्ति बढ़ाने से ही जुड़ी रहती है। ये सवाल इसलिये क्योंकि मौजूदा वक्त में लोकसभा के 81 फिसदी सांसद करोडपति है। तो राज्यसभा के 99 फिसदी सांसद करोडपति है। और ज्य विधानसभा के 83 फिसदी विधायक करोड़पति है। तो ये सवाल हर जहन में उठ सकता है कि आखिर जो जनता अपने वोट से अपने नुमाइन्दों को चुनती है उनकी संपत्ति में सबसे तेज रफ्तार से बढोतरी क्यों है।

और अगर सामाजिक आर्थिक तौर पर सत्ताधारियो की क्लास जनता से दूर होगी। असमानता जनता और सत्ता के बीच होगी तो किसी भी सरकार की कोई भी नीति जनहित को कैसे साधेगी। इसके तीन उदाहरण को समझे तो खेती में पौने दो लाख करोड की सब्सिडी का जिक्र सरकार बार बार करती है। उसे ये बोझ लगता है। और कारपोरेट को सालाना साढे पांच लाख करोड की टैक्स सब्सिडी दी जाती है। जिसका कोई जिक्र तक नही होता। कमोवेश यही हालात शिक्षा, हेल्थ , पीने के पानी और सिचाई या इन्फ्रास्ट्रक्चर तक में है। शायद इसीलिये देश के सामने हर सरकार के वक्त संकट यही होता है कि देश को स्टेट्समैन क्यों नहीं मिलता। ौर विकास के नाम पर हर सरकार वक्त पूंजी या विदेशी निवेश ही क्यों देखती है। क्योंकि नेहरु से लेकर मोदी तक के दौर को परखें तो तमाम पीएम ने अपने अपने दौर में अपनी एक पहचान दी । और सभी ने जनता से अपने अपने दौर में किसी ना किसी मुद्दे पर कोई ना कोई आदर्श रास्ता बताया। जनता से उसपर चलने को कहा और ये सवाल बार बार उठता रहा कि क्या वाकई जनता अपने नेता के कहने पर उनके रास्ते चल पड़ती है या फिर हर प्रदानमंत्री को किसी भी काम को पूरा करने के लिये एक बजट चाहिये होता है। तो ऐसे मौके पर मौजूदा वक्त के आईने लाल बहादुर शास्त्री को याद करना चाहिये। क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने देश में अन्न के संकट के वक्त देशवालों से जब एक वक्त उपवास रखने को कहा तो देश के कमोवेश हर घर में शाम का चूल्हा जलना बंद हो गया।

और ये इसलिये क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने खुद को कभी जनता के आर्थिक हालात से अलग नहीं माना। विदेश यात्रा के वक्त पीएम होते हुये भी जब लाल बहादुर शास्त्री के परिवार वालों ने एक ओवर कोट सिलवाने को कहा। तो उन्होंने देश और खुद की हालात का जिक्र कर नेहरु के कोट की बांह छोटी करवाकर उसे ही पहन कर मास्को चले गये। वहीं मौजूदा पीएम मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत का एलान कर जनता को जोड़ने का एलान किया। और जुडाव के लिये भी एक बरस में महज प्रचार में 94 करोड़ खर्च हो गये। लेकिन देश की हालात है क्या ये कहा किसी से छिपा है। और इससे पहले मनमोहन सिंह ने भी स्व्च्छ और निर्मल भारत का स्लोगन लगा कर 2009 से 2014 के बीच 744 करोड प्रचार में खर्च कर दिये और हालाता जस के तस रहे।
 साभार !!           "5th पिल्लर करप्शन किल्लर" "लेखक-विश्लेषक पीताम्बर दत्त शर्मा "
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देश विरोधी गैंग है ये !


"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...