Friday, January 16, 2015

आंदोलन क्यों हारा सियासत क्यों जीती ?


जेपी के बाद अन्ना आंदोलन ने ही सत्ता की धड़कनें बढ़ायी। और दो बरस में ही सत्ता के दरवाजे पर जेपी के आंदोलनकारी रेंगते और आपस में झगड़ते दिखायी दिये थे। वहीं दो बरस के भीतर ही अन्ना के सिपहसलार राजनीतिक सत्ता की दो धाराओं में बंट भी गये। तो क्या देश में वैकल्पिक राजनीति की सोच अब भी एक सपना है और सियासत की बिसात पर आंदोलन को आज नहीं तो कल प्यादा होना ही है। तो रास्ता है क्या। यह सवाल इसलिये अब जरुरी है और दिल्ली चुनाव तले आंदोलन को याद करना भी इसलिये जरुरी है क्योंकि भविष्य के रास्ते की मौत ना हो सके। याद कीजिये जनलोकपाल। भ्रष्टाचार के खिलाफ इस आवाज में इतना दम तो था ही कि तिरंगे के आसरे देश में यह एहसास जागे कि भ्रष्ट होती व्यवस्था को बदलना जरुरी है। तभी तो जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान में जहा आम लोगो का रेला तिरंगे की घुन पर नाचता धिरकता तो सांसदों की धड़कनें बढ़ जाती। सड़क पर भारत माता की जय र वंदे मातरम के नारे लगते तो संसद के भीतर अन्ना हजारे के अनशन को खत्म कराने के लिये सरकार समेत हर राजनीतिक नतमस्तक दिखायी देते। लेकिन जिस जनलोकपाल के नारे तले समूचा देश एकजूट हुआ उसी जनलोकपाल का नारा लगाने वाले ही कैसे अलग हो गये यह पहली बार अगर केजरीवाल के राजनीति में कूदने और अन्ना हजारे का वापस रालेगन सिद्दी लौटने से पहली बार उभरा। तो कभी साथ साथ तिरंगा लहराते हुये भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सूर में आवाज लगाने वाले केजरीवाल के खिलाफ सियासी मैदान में किरण बेदी के कूदने से दूसरी बार उभरा है। दोनों दौर ने उसी राजनीतिक सत्ता को महत्ता दे दी जिस सत्ता को आंदोलन के दौर में नकारा जा रहा था। तो पहला सवाल यही है कि क्या साख खोती राजनीति के खिलाफ आंदोलन करने वालो की साख राजनीतिक मैदान में ही साबित होती है। या फिर दूसरा सवाल कि क्या राजनीतिक सत्ता के आगे आंदोलन कोई वैकल्पिक राजनीति खड़ा कर नहीं सकती। और आखिर में आंदोलन को उसी राजनीति की चौखट पर दस्तक देनी ही पड़ती है जिसके खिलाफ वह खड़ी होती है या फिर जिस राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ वह हुंकार भरती है। क्योंकि केजरीवाल राजनीति में कूदे तब का सवाल और आज किरण बेदी राजनीति के मैदान में कूदी तब के सवाल में इतना ही फर्क आया है कि जनलोकपाल का सवाल हाशिये पर है और जनलोकपाल का सवाल उठाने वाले चेहरे आमने-सामने आ खड़े हुये है। और अब दोनो ही लुटियन्स की दिल्ली में रालेगन सिद्दी के सपनों को पूरा करने का
सपना अपने अपने तरीके से जगायेंगे।

यह ऐसे सवाल है जो मौजूदा राजनीति की साख पर सवाल उठाने के बाद घबराने लगते है य़ या फिर साख खो चुकी राजनीतिक सत्ता को ही अपनी साख से कुछ ऑक्सीजन दे देते है और जनता के मुद्दे चुनावी नारों में खत्म हो जाते है। याद किजिये तो 2011 में जनलोकपाल। 2013 में जनलोकपाल से लोकपाल । और 2015 आते आते लोकपाल शब्द भी उसी दिल्ली के उसी सियासी गलियारे से गायब हो चुका है जिस सियासी गलियारे को कभी जनलोकपाल शब्द से डर लगता था। यानी फरवरी 2014 में जिस लोकपाल के लिये सत्ता को भी ताक पर रखने की हिम्मत हुआ करती थी। याद कीजिये तो लोकपाल के लिये सीएम की कुर्सी छोडने की हिम्मत साल भर पहले केजरीवाल में थी। लेकिन साल भर बाद का यानी अभी का सच यह है कि सीएम की कुर्सी के लिये केजरीवाल भी लोकपाल के सवाल से दूर है और आंदोलन के दौर में भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने की सोच से दूर है। मौजूदा दौर में दिल्ली के सीएम की कुर्सी के लिये सारे सवाल बिजली पानी सड़क या कानून व्यवस्था से आगे जा नहीं रहे हैं। इन हालातों ने बीजेपी को भी ताकत दी और किरण बेदी को भी बीजेपी के मंच पर ला खड़ा किया है क्योंकि दिल्ली चुनाव नैतिक बल के आसरे नहीं लड़ा जा रहा है। दिल्ली चुनाव व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर भी नहीं लड़ा जा रहा है। दिल्ली चुनाव भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई नारा भी नहीं दे पा रहा है। कह सकते हैं मौजूदा दिल्ली का चुनाव सिर्फ सीएम की कुर्सी की लड़ाई है। इसलिय किरण बेदी और केजरीवाल के चुनावी संघर्ष का यह मतलब कतई नहीं है आंदोलन के दौर को याद किया जाये। इस चुनावी संघर्ष का सीधा मतलब ईमानदार चेहरों के आसरे चुनाव को अपने हक में करने के आगे बात जाती नहीं है। और यहीं से बड़ा सवाल बीजेपी का निकलता है कि क्या अभी तक दिल्ली चुनाव जहां मोदी बनाम केजरीवाल के तौर पर देखा जा रहा है अब किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने के बाद यही दिल्ली का चुनाव केजरीवाल बनाम किरण बेदी हो जायेगा। यानी मोदी नहीं बेदी के लिये बीजेपी अब नारे लगायेगी और जनलोकपाल के जरीये ईमानदार व्यवस्था की जगह सीएम की कुर्सी की लड़ाई नये रंगत में सामने आयेगी। क्योंकि बीजेपी के जो नेता दिल्ली सीएम बनने की कतार में है उसमें हर्षवर्धन, जगदीश मुखी,सतीश उपाध्याय, विजय गोयल सरीखे दर्जन भर चेहरों पर किरण बेदी सबसे भारी क्यों लग रही है। यानी पहला बड़ा संकेत कि किरण बेदी ने झटके में एहसास करा दिया कि बीजेपी के भीतर दिल्ली के किसी भी प्रोफेशनल राजनेता से उनके प्रोफेशन का कद खासा बड़ा है। या फिर केजरीवाल का जबाब देने के लिये बीजेपी जिन अंधेरी गलियों में घुम रही थी और हर बार उसकी बत्ती गुल हो रही थी उस अंघेरे को अचानक बेदी ने नयी रौशनी दे दी है ।और बीजेपी के लिये किरण बेदी केजरीवाल के खिलाफ रोशनी है तो फिर नयी दिल्ली की सीट पर दोनो का आमना सामना होगा ही। क्योंकि केजरीवाल भी 2013 में दिल्ली के सीएम तब बने जब उन्होंने तब की सीएम शीला दीक्षित को हराया । ऐसे में केजरीवाल के खिलाफ मैदान में उतरने का जुआ तो किरण बेदी को खेलना ही होगा। क्योंकि केजरीवाल को हराते ही किरण बेदी का कद बीजेपी के तमाम कद्दवर नेताओं से बड़ा हो जायेगा। और अगर किरण बेदी केजरीवाल के
खिलाफ चुनाव लड़कर हार जाती है तो फिर बीजेपी अपने एजेंडे पर बरकरार रहेगी और बीजेपी की पार्टी की विचारधारा पर कोई असर भी नहीं पड़ेगा। क्योंकि तब यही कहा जायेगा कि केजरीवाल से किरण बेदी चुनाव हारी ना कि बीजेपी। यानी किरण बेजी को बीजेपी के मंच पर साथ लाना बीजेपी के लिये मास्टरस्ट्रोक इसीलिये है क्योंकि चित पट दोनों हालात में मोदी की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा। लगातार चुनाव जीतती बीजेपी की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा। सिर्फ इतना ही कहा जायेगा कि चाल ठीक नही चली। और झटके में मोदी सरकार की वह रफ्तार बरकरार भी रह जायेगी जिसके रुकने का भय तो लगातार बीजेपी को डरा रही है। लेकिन पहली बार किरण बेदी और केजरीवाल के आमने सामने खड़े होने से उस आम आदमी को मुश्किल तो होगी ही जिसने अन्ना के आंदोलन के दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यवस्था परिवार्तन तक के सपने देखे !



Wednesday, January 14, 2015

" 26 जनवरी 2015 देश में इस बार क्या कुछ नया लेकर आएगी ??- पीताम्बर दत्त शर्मा ( लेखक-विश्लेषक )

हमारे पूर्व प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह जी ना तो बोलते थे और ना ही कोई काम स्वयं करते थे ! जो फाइल सोनिया जी भेज देती थीं बस , उस पर हस्ताक्षर कर देते थे ! इसी लिए देश का तंत्र भी पंगु होगया था !देश में तरह-तरह के षड्यंत्र भी होने लगे ! हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने लगा !देश की जनता ने मोदी जी और भाजपा में विश्वास दिखाया !जो आज भी विद्यमान है ! लेकिन हमारा मीडिया और विपक्षी दल हर रोज़ नए-नए प्रश्न उठाकर तरह-तरह की आशंकाएं पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे !
          भाजपा के मित्र संगठनों के " भावुक " और अनजान वक्ता - नेता भी अपने बयानों से मीडिया और विपक्षी दलों को प्रश्न उठाने का रास्ता साफ़ करते रहते हैं !!भारत की जनता में से कुछ लोग भी इनके बहकावे में आ जाते हैं !!हर एक के सबर का पैमाना अलग-अलग होता है शायद इसलिए ऐसा होता होगा ! मेरे ख्याल से तो जितनी श्रद्धा-निष्ठा होती है उतनी देर वो उस को परखता है जिसे वो चाहता है ! श्रद्धा-निष्ठा समाप्त हो जाने पर ही हर व्यक्ति अन्य उपाय ढूंढता है !
           मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि मोदी जी के शासन में हर 26 जनवरी कुछ न कुछ नया लेकर ही आएगी !भाजपा के शासन को जब एक वर्ष पूरा हो जायेगा तो भारत की जनता स्वयं कहने लगेगी कि कांग्रेस और उनके सहयोगी जो 58 सैलून में नहीं कर पाये वो मोदी जी ने अपनी कार्य-कुशलता से एक वर्ष में ही कर दिया ! और कितने ही कार्यों की शुरुआत उन्होंने कर दी है !
           मीडिया-विपक्षी दल भी उनके कायल हो जायेंगे !

 मेरे प्यारे मित्रो ! सादर नमस्कार ! कुशलता के आदान-प्रदान पश्चात मेरा कथन ये है कि 
आपसे मित्रता करके मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है ! आपके जनम दिन की आपको हार्दिक बधाई और शुभ कामनाएं !! कृपया स्वीकार करें ! आपका जीवन सदा खुशियों से भरा रहे !! मेरा फेसबुक,गूगल+,ब्लॉग,पेज और विभिन्न ग्रुपों की सदस्य्ता ग्रहण करने का एक ख़ास उद्देश्य है ! मैं एक लेखक-विश्लेषक और एक समीक्षक हूँ ! राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय ज्वलंत विषयों पर लिखना -पढ़ना मेरा शौक है ! मैं एक साधारण पढ़ालिखा और साफ़ स्वभाव का आदमी हूँ ! भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म से प्यार करता हूँ ! भारत देश के लिए अगर मेरे प्राण काम आ सकें तो मैं इसे अपना सौभाग्य मानूंगा !परन्तु किसी संत-राजनितिक दल और नेता हेतु नहीं !मैं एक बिन्दास स्वभाव का आदमी हूँ ! मेरी मित्र मण्डली में मेरे बच्चे और रिश्तेदार भी शामिल हैं ! तो भी मैं सभी विषयों पर अपने खुले विचार रखता हूँ !! आप सब का हार्दिक स्वागत है मेरे जीवन में !! मैं आपकी यादों - बातों को संभल कर रखूँगा !!
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सधन्यवाद !!
आपका प्रिय मित्र,
पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Sunday, January 11, 2015

"आज तक " के दो बड़े पत्रकारों का हुनर देखिये !! कैसे स्वयं को सही कहा जा रहा है ?-पीताम्बर दत्त शर्मा


"पंडित जी, बीपीएल या बीएमडब्ल्यू...चुनना तो एक को ही पड़ेगा"

धारदार पत्रकारिता से मात तो मीडिया को ही देनी है दीपक शर्मा !
     बीपीएल या बीएमडब्ल्यू। रास्ता तो एक ही है। फिर यह सवाल पहले नहीं था। था लेकिन पहले मीडिया की धार न तो इतनी पैनी थी और न ही इतनी भोथरी। पैनी और भोथरी। दोनों एक साथ कैसे। पहले सोशल मीडिया नहीं था। पहले प्रतिक्रिया का विस्तार इतना नहीं था। पहले बेलगाम विचार नहीं थे। पहले सिर्फ मीडिया था। जो अपने कंचुल में ही खुद को सर्वव्यापी माने बैठा था। वही मुख्यधारा थी और वही नैतिकता के पैमाने तय करने वाला माध्यम। पहले सूचना का माध्यम भी वही था और सूचना से समाज को प्रभावित करने वाला माध्यम भी वही था। तो ईमानदारी के पैमाने में चौथा खम्भा पक़ड़े लोग ही खुद को ईमानदार कह सकते थे और किसी को भी बेईमानी का तमगा देकर खुद को बचाने के लिये अपने माध्यम का उपयोग खुले तौर पर करते ही रहते थे।

बंधु, लेकिन अंतर तो पहले भी नजर आता था। कौन पत्रकार बीपीएल होकर पत्रकारिता करने से नहीं हिचकता और किसकी प्राथमिकता बीमडब्ल्यू है। लेकिन पहले कोई विस्तार वाला सार्वजनिक माध्यम भी नहीं था जिसके आसरे बीएमडब्ल्यू वाली पत्रकारिता का कच्चा चिट्टा सामने लेकर आते।

यह ठीक है लेकिन हमारे समाज का भी तो कोई सोशल इंडेक्स नहीं है। जिसे जितना कमाना है वह कमाये। जिसे जितना बनाना है वह बनाये। कोई रोक-टोक नहीं है। दिल्ली में तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के प्रवक्ता, जो पेशे से वकील हैं या रहे हैं, एक पेशी के 20 से 40 लाख रुपये तक लेते हैं। संपादक की पहुंच पकड़ अगर सत्ताधारियों के बीच है तो उसका पैकेज करोड़ों में होता है। किसी भी धंधे में कोई कमाते-खाते हुये यह कहने से नहीं कतराता है कि अगर उसके पास करोड़ों है तो वह उसकी सफेद कमाई के हैं। अब आप करोगे क्या।

बंधु, एक चैनल पत्रकारों का हो इसके लिये तो आपको करोडपति होना होगा, उसके बाद आप पत्रकार हैं या चिट-फंड वाले या बिल्डर या दलाल। सरकार की नीतियों तक तो इसका असर पड़ता नहीं है। तो फिर इस बीपीएल और बीएमडब्ल्यू के रास्ते की बात करने का मतलब है क्या। हां अब हालात इस मायने में जरुर बदले है कि दलाल पत्रकारों को सत्ता अपने साथ सटने नहीं दे रही है। लेकिन इसका दूसरा सच यह भी है कि दलालों के तरीके और उसकी परिभाषा बदल रही हैं। काबिलियत की पूछ तो अब भी नहीं है। या यह कहें कि देश में सत्ता बदली है तो नये सिरे से नये पत्रकारों को सत्ता अपने कटघरे में ढाल रही है। तब तो यह बीच का दौर है और ऐसे मौके का लाभ पत्रकारिता की धार के साथ उठाना चाहिये। बिलकुल उठाना चाहिये।

लेकिन इसके लिये सिर्फ सोशल मीडिया को तो माध्यम बनाया नहीं जा सकता। सोशल मीडिया एक कपडे उघाडने का मंच है। कपडे पहनकर उसके अंदर बाहर के सच को बताने का माध्यम तो है नहीं। नहीं आप देख लो। मनमोहन सिंह के दौर के तुर्रम संपादक मोदी के आने के बाद सिवाय सोशल मीडिया के अलावा और कहां सक्रिय नजर आ रहे हैं। लेकिन वहां भी तो भक्तों की मंडली पत्रकारो की पेंट उतारने से नहीं चुकती। सही कह रहे हैं, लेकिन इस सच को भी तो समझें कि रईसी में डूबे सत्ता की चाशनी में खुद को सम्मानित किये इन पत्रकारो ने किया ही क्या है। तब तो सवाल सिर्फ मनमोहन सिंह के दौर के पत्रकारो भर का नहीं होना चाहिये। हमने देखा है कैसे वाजपेयी की सरकार के बाद बीजेपी कवर करने वाले पत्रकार ही कद पाने लगे । और लगा कि इनसे बेहतर पत्रकार कोई है ही नहीं। पत्रकारिता खबर ब्रेक करने पर टिकी। सत्ता ने खबर ब्रेक अपने पत्रकारों से करायी। और खबर का मतलब ही धीरे धीरे सत्ता की खबर ब्रेक करने वालों से होने लगी। सोनिया गांधी पीएम बनना नहीं चाहती हैं। या अंबानी बंधुओं में बंटवारा हो रहा है । वाजपेयी मुखौटा है। आडवानी संघ के चहते हैं। इन खबरो को ब्रेक करने वाला ज्यादा बड़ा पत्रकार है या साईंनाथ सरीखा पत्रकार, जो किसानो की बदहाली के बीच सत्ता की देशद्रोही नीतियों को बताना चाहता है। यह सवाल तो अब भी मौजूं है। खाता कोल कर सीधे गरीब के एकाउंट में पैसा पहुंचाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये या यूरिया बाजार में उचित दाम पर मिल जाये । पीएमओ की ताकत के सामने कैबिनेट भी नतमस्तक कैसे हो चली है, यह छुपाया जाये और सत्ता की नीतियों के एलान को ही मीडिया के भोपूं के जरीये दुनिया तो ज्यादा जोर सुनाया जाये। और इसे ही पत्रकारिता मान लिया जाये। यही सवाल तो महत्वपूर्ण है। तो फिर धार का पैमाना हो कैसा।

यार आप बात देश की कर रहे हो और हर दिन जिस वातावरण में नौकरी करनी पड़ती है, उसमे चापलूसी , अपने प्यारे को ही आगे बढ़ाने की सोच, अपनी कुर्सी को ही सबसे विद्दतापूर्ण बताने जताने का खुला खेल। खुद को बचाते हुये हर दिन अपने ही इर्द-दिर्द ऐसी खबरो को तरजीह देना जो आपकी समझ में आती हों। जो आपके अपनों की हो। और स्क्रीन पर वही चेहरा-चेहरे, जिससे आपको प्यार है उस वातावरण में आपका पूरा दिन तो सिवाय जहर का घूंट पीने के अलावे और किसमें गुजरेगा। इतना ही नहीं, आपकी लायी बेहतरीन खबर की भी हत्या करने में कितना वक्त लगेगा। डाक्यूमेंट पूरे नहीं हैं। प्रतिक्रिया हर किसी की चाहिये। फायदा क्या है दिखाने का। कौन देखना चाहता है यह सब। टीआरपी मुश्किल है। हुजुर हजारों हथियार है नाकाबिल एडिटर के पास।

फिर भी यार भीतर रह कर लड़ा जा सकता है। बाहर निकलकर हम आप तो कहीं भी काम कर लेंगे । लेकिन जिन संस्थानों में जो नयी पीढी आ रही है, उनका भी सोचिये। या नाकाबिलों के विरोध करने की हिम्मत कहां बच रही है। नाकाबिल होकर मीडिया में काम आसानी से मिल सकता है। बंधु सवाल सिर्फ मीडिया का नहीं है। सत्तादारी भी तो नहीं चाहते है कि कोई उनसे सवाल करे। तो वह भी भ्रष्ट्र या चार लाइन ना लिख पाने या ना बोल पाने वाले पत्रकारों को ज्यादा तरजीह देते हैं। जिससे उनकी ताकत, उनकी नीतियां या उनकी समझ पर कोई उंगुली उठाता ना दिखे। यह ऐसे सवाल हैं, जिन पर बीते दस बरस से कई कई बार कई तरीको से बात हुई।

जी, यह उस बातचीत का हिस्सा है जो 2004 में पहली बार मुलाकात के वक्त मीडिया को लेकर सवाल हों या पत्रकारिता करने के तरीकों को जिन्दा रखने की कुलबुलाहट होती थी और जब सांप-छछुंदर की खबरों ने
पत्रकारीय पेशे को ही दिन भर चाय की चुस्की या हवाखोरी में तब्दील करते हुए दिल्ली से दूर निकल जाने के लिये खूब वक्त मुहैया कराया था। या फिर जैसे ही देश में मनमोहन सरकार की बत्ती गुल होने की खुशी के वक्त चर्चा में मोदी सरकार को लेकर कुछ आस जगाने की सोच हो। या फिर अंबानी-अडानी की छाया में दिल्ली की सत्ता तले सियासी बहस के दौर में मीडिया की भूमिका को लेकर उठते सवालों के बीच धारदार पत्रकारिता कैसे हो, इसका सवाल हो। आपसी चर्चा तो राडिया टेप पर पत्रकारों की भूमिका को लेकर भी खूब की और पत्रकार से मालिक बनते संपादकों की भी की और मालिको का पत्रकार बनने के तौर तरीको पर खूब की।लेकिन हर चर्चा के मर्म में हमेशा पत्रकारिता और जीने के जज्बे की बात हुई। इसलिये राबर्ट वाड्रा पर पहले कौन राजनेता अंगुली उठायेगा और जब नरेन्द्र मोदी ने पहली बार खुले तौर पर वाड्रा को कठघरे में खड़ा किया तो भी विश्लेषण किया कि कैसे बीजेपी का भी दिल्ली में कांग्रेसीकरण हो गया था और मोदी क्यो अलग है। चर्चा मनमोहन सिंह के दौर के क्रोनी कैपटिलिज्म के दायरे में पत्रकारों के खड़े होने पर भी बात हुई। फिर मुज्जफरनगर दंगों में सैफई के नाच गानों के बीच यूपी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का जज्बा
हो। या मोदी सरकार के महज एलानिया सरकार बनने की दिशा में बढते कदम। हर बार ईमानदार-धारदार पत्रकारिता को ही लेकर बैचेनी दिखायी दी। लेकिन जैसे ही यह जानकारी मिली की बारह बरस बाद दीपक शर्मा आजतक छोड़ रहे हैं और यह कहकर छोड़ रहे हैं कि कुछ नया,कुछ धारदार करने की इच्छा है तो पहली बार लगा कि मीडिया संस्थान हार रहे हैं। जी दीपक शर्मा की अपनी पत्रकारिता है या पत्रकारिता को जीने के हर सपने को बीते बारह बरस में बेहद करीब से या कहें साझीदार होकर जीने के बीच में यह सवाल बार बार परेशान कर रहा है कि जिसके लिये पत्रकारिता जीने का अंदाज है। जिसके लिये ईमानदार पत्रकारिता जीने का नजरिया हो। जिसके लिये तलवार की नोंक पर चलते हुये पत्रकारिता करना जिन्दगी का सुकुन हो, वही ऐसे वक्त पर यह क्यों कह रहा है कि दिल्ली आया था तो अकबर रोड भी नहीं जानता था। आजतक में काम करते हुये आजतक ने अकबर बना दिया। अब दुबारा रोड पर जा रहा हूं। यह बेचैनी दीपक से पत्रकारिता के लिये कोई वैकल्पिक रास्ता निकलवा ले तो ही अच्छा है । क्योंकि दिल्ली में अब सवाल अकबर रोड का नहीं रायसीना हिल्स पर खड़े होकर बहादुरशाह जफर मार्ग को देखने समझने का भी है। और शायद भटकते देश को पटरी पर लाने का जिम्मा उठाने का वक्त भी है। इसलिये दीपक सरीखे पत्रकारों को सोशल मीडिया की गलियों में खोना नहीं है और हारे हुये मीडिया से शह पाकर मात भी उसी मीडिया को देनी है जो धंधे में बदल चुका है।

            शुभ- मंगल !
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Friday, January 9, 2015

मकर-संक्रांति और लोहड़ी पर्व की खुशियाँ आओ हम सब मनाएं !!-पीताम्बर दत्त शर्मा

 कहाँ गए वो ......लोहड़ी के लोकगीत !!!
लोहड़ी का त्योहार मकर संक्रान्ति से एक दिन पहले १३ जनवरी को मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के आसपास लोहड़ी की ज़्यादा धूम रहती है। १३ जनवरी की शाम आग जला कर कड़कती सर्दी की छुट्टी कर दी जाती है। मूँगफली, रेवड़ी और फुल्ले याने पापकोर्न बाँटे जाते हैं। साथ ही ढोल की धुन पर गीतों और भंगड़े का आनंद लिया जाता है। लोहड़ी पर गाए जाने वाले लोकगीतों में से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।
हुल्ले नी माईये हुल्ले
दो बेरी पत्ते झुल्ले
दो झुल्ल पईयां खजूरां
खजूरां सट्टया मेवा
एस मुँडे दे घर मंगेवां
एस मुंडे दी वोटी निकड़ी
ओ खांदी चूरी कुटड़ी
कुट कुट भरया थाल
वोटी बवे ननांणा नाल
नंनाण ते वड्डी परजाई
मैं कुड़मां दे घर आई
मैं लोहड़ी लैण आई !
******************************************************
सुन्दर मुंदरिये - होय !
तेरा कौन विचारा - होय !
दुल्ला भट्टी वाला - होय !
दुल्ले धी व्याई - होय !
सेर शक्कर पाई - होय !
कुड़ी दा लाल पटाका - होय !
कुड़ी दा सल्लू पाटा - होय !
सल्लू कौन समेटे - होय !
चाचे चूरी कुट्टी - होय !
ओ जिमीदारां लुट्टी - होय !
जिमीदार सुधाए - होय !
गिन गिन भोले आए - होय !
इक भोला रै गया - होय !
सिपाई फड़ के लै गया - होय !
सिपाई ने मारी इट्ट - होय !
भांवे रो ते भांवे पिट्ट - होय !
सानू दे दे लोड़ी, ते जीवे तेरी जोड़ी
******************************************************
असी गंगा चल्ले - शावा !
सस सौरा चल्ले - शावा !
जेठ जेठाणी चल्ले - शावा !
देयोर दराणी चल्ले - शावा !
पियारी शौक़ण चल्ली - शावा !
असी गंगा न्हाते - शावा !
सस सौरा न्हाते - शावा !
जेठ जठाणी न्हाते - शावा !
देयोर दराणी न्हाते - शावा !
पियारी शौक़ण न्हाती - शावा !
शौक़ण पैली पौड़ी - शावा !
शौक़ण दूजी पौड़ी - शावा !
शौक़ण तीजी पौड़ी - शावा !
मैं ते धिक्का दित्ता - शावा !
शौक़ण विच्चे रूड़ गई - शावा !
सस सौरा रोण - शावा !
जेठ जठाणी रोण - शावा !
देयोर दराणी रोण - शावा !
पियारा ओ वी रोवे - शावा !
मैं क्या तुस्सी क्यूँ रोंदे
त्वाडे जोगी मैं बथेरी
मैंनू द्यो वधाइयां
त्वाडे जोगी मैं बथेरी - शावा शावा !
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Monday, January 5, 2015

संघ की उड़ान को थामना सोनिया-राहुल के बस में नहीं.........!!


जिस सियासी राजनीतिक का राग नरेन्द्र मोदी ने छेड़ा है और जिस हिन्दुत्व की ढपली आरएसएस बजा रही है, कांग्रेस ना तो उसे समझ पायेगी और ना ही कांग्रेस के पास मौजूदा वक्त में मोदी के राग और संघ की ढपली का कोई काट  है। दरअसल, पहली बार सोनिया गांधी और राहुल गांधी की राजनीतिक समझ नरेन्द्र मोदी की सियासत के जादू को समझ पाने में नाकाम साबित हो रही है  तो इसकी बडी वजह मोदी नहीं आरएसएस है। और इसे ना तो सोनिया-राहुल समझ पा  रहे है और ना ही कांग्रेस का कोई धुरंधर। अहमद पटेल से लेकर जनार्दन  द्विवेदी और एंटनी से लेकर चिदबरंम तक सत्ता में रहते हुये हिन्दु इथोस  को समझ नहीं पाये। और ना ही संघ की उस ताकत को समझ पाये जिसे इंदिरा  गांधी से लेकर राजीव गांधी ने बाखूबी समझा। इसलिये सोनिया गांधी और  राहुल गांधी की सियासत सिवाय मोदी सरकार के फेल होने के इंतजार से आगे बढ़  भी नहीं पायेगी। इसलिये कांग्रेस ना तो मोदी सरकार के लिये कोई चुनौती है  ना ही संघ परिवार के लिये कोई मुश्किल। और यह चिंतन कांग्रेस में नहीं  बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हो रहा है। संघ के चितंन-मनन का दायरा  कितना बड़ा है या कांग्रेस संघ की उस थाह को क्यों नहीं ले पा रही है, जिसे  इंदिरा ने ७० के दशक में ही समझ लिया और राजीव गांधी ने अयोध्या आंदोलन  के वक्त समझा। असल में संघ परिवार के भीतर भविष्य के भारत के जो सपने पल  रहे है वह पहली बार नेहरु-गांधी परिवार के साथ अतित में रहे संघ परिवार  के संबंधों से आगे देखने वाले हैं। हिन्दु राष्ट्रवाद को अध्यात्मिक तौर  पर आत्मसात कराने वाले हैं।यानी हिन्दु धर्म का नाम लिये बगैर एकनाथ  राणाडे की उस सोच का अमलीकरण कराना हो जो विवेकानंद को लेकर राणाडे ने  १९७० में करा लिया था। लेकिन उस वक्त इंदिरा गांधी ने इस सोच की थाह को  पकड़ लिया था।

असल में एकनाथ राणाडे की सौवी जंयती के मौजूदा बरस में वह  सारे सवाल संघ के भीतर हिलोरे मार रहे है जिनपर अयोध्या आंदोलन के वक्त  से ही चुप्पी मार ली गई और संघ की समूची समझ ही राम मंदिर के दायरे में सिमटा दी गयी। मुश्किल यह है कि काग्रेस की राजनीति बिना इतिहास को समझे भविष्य की लकीर खिंचने वाली है और संघ अपने ही अतित के पन्नो को खंगाल  कर भविष्य का सपना संजो रहा है। जो कांग्रेस और तमाम राजनीतिक दल आज संघ परिवार के हिन्दु शब्द सुनते ही बैचेन हो जाते है उस हिन्दु शब्द का महत्व आरएसएस के लिये क्या है और इंदिरा गांधी ने इस शब्द को कैसे पकड़ा इसके लिये इतिहास के पन्नो को खंगालना जरुरी है। पन्नों को उलटे तो १९७०  में स्वयंसेवक एकनाथ राणाडे ने जब विवेकानंद शिला स्मारक का कार्य पूरा  किया तो इंदिरा गांधी ने राणाडे को समझाया कि स्वामी विवेकानंद के विचार  को दुनियाभर में फैलाने और भारत को दुनिया का केन्द्र बनाने में उनकी  सरकार राणाडे की मदद करने को तैयार है। बशर्ते स्वामी विवेकानंद को  हिन्दू संत की जगह भारतीय संत कहा जाये। राणाडे इसपर सहमत हो गये ।  लेकिन तब के सरसंघचाल गुरुगोलवरकर इसपर सहमत नहीं हुये कि इंदिरा सरकार के साथ मिलकर हिन्दू संत विवेकानेद की जगह भारतीय संत विवेकानंद के लिये  एकनाथ राणाडे काम करें। असर इसी का हुआ कि १९७१ की आरएसएस की प्रतिनिधि  सभा में विवेकानंद शिला स्मारक की रिपोर्ट एकनाथ राणाडे ने नहीं रखी।
 संघ के जानकार दिलिप देवघर के मुताबिक संघ की प्रतिनिधी सभा में विवेकानंद स्मारक शिला पर रिपोर्ट ना रखने पर स्वयसंवकों ने जब वजह जानना चाहा तो गुरु गोलवरकर की टिप्पणी थी, इनका संघ के साथ क्या संबंध।

तो पहली बार इंदिरा गांधी ने संघ की उस ताकत में सेंध लगायी जिसे मौजूदा वक्त में कांग्रेस के धुरंधर समझ पाने में नाकाम हैं। इंदिरा गांधी की सफलता इतनी भर ही नहीं थी बल्कि इसके बाद विवेकानंद केन्द्र को लेकर जो  काम एकनाथ राणाडे ने शुरु किया वह इस मजबूती से उभरा कि रामकृष्ण मिशन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामानांतर एक बडी ताकत का केन्द्र विवेकानंद केन्द्र बनकर उभरा। यानी १९२६ में महज १२ बरस की उम्र में जो एकनाथ  राणाडे आरएसएस के साथ जुड गये और जिन्होंने १९४८ में संघ पर लगे प्रतिबंध के दौर में गुरु गोलवरकर के जेल में रहने पर सरदार पटेल के साथ मिलकर तमाम समझौते किये। बालासाहेब देवरस और पी बी दाणी के साथ मिलकर आरएसएस  का संविधान लिखा। जिसके बाद संघ पर से प्रतिबंध उठा। उस एकनाथ राणाडे को अपनी राजनीति से इंदिरा गांधी ने साधा। हालांकि गुर गोलवरकर की मृत्यु के बाद बालासाहेब देवरस ने बैगलोर में संघ की सभा में एकनाथ राणाडे को हाथ पकड़कर साथ बैठाया और उसके बाद से विवेकानंद केन्द्र पर रिपोर्ट देने का सिलसिला शुरु हुआ। लेकिन यहा समझना यह जरुरी है कि राणाडे के शताब्दी वर्ष में ९ नवंबर २०१४ को अगर प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली के विज्ञान भवन के कार्यक्रम में शिरकत करते है और तीन दिन पहले नागपुर के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में सरसंघचालक मोहन भागवत भी एकनाथ राणाडे को याद कर स्वामी विवेकानंद के विचारों को ही देश में फैलाने के जिक्र कर हिन्दुत्व का सवाल
 उठाते हैं तो फिर इसके दो मतलब साफ है। पहला, संघ परिवार अब हिन्दू इथोस की उस सोच को देश मे पैदा करना चाहता है जिक्र जिक्र विवेकानंद ने किया और जिस सोच को राणाडे विवेकानंद के जरीये देश में फैलाना चाह रहे थे। और  दूसरा कांग्रेस आज इस हिन्दू इथोस को समझ नहीं पा रही है कि आखिर नेहरु गांधी परिवार हमेशा हिन्दुत्व को लेकर नरम रुख क्यों अपनाये रहा।

दरअसल इंदिरा गांधी ने इमरजेन्सी के दौर में जेपी के साथ आरएसएस के जुड़ने को भी खतरे की घंटी माना । यह वजह है कि १९८० में सत्ता वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने खुले तौर पर हिन्दुत्व को लेकर साफ्ट रुख अपनाया । सत्ता संबालने के बाद विदर्भ जाकर इंदिरा गांधी ने विनोबा भावे के पांव छुये। उस दौर में उन्होने संघ की ताकत को लेकर विनोभा भावे से जिक्र किया । संघ के सामाजिक संगठनों को ही आरएसएस के भीतर संघर्ष कराने के हालात भी पैदा किये। असल में संघ परिवार के भीतर अब इस सवाल को लेकर मंथन चल रहा है कि विश्व हिन्दु परिषद को तो अध्यात्मिक रुख अदा करना था लेकिन अयोध्या आंदोलन को लेकर विहिप का रुख राजनीतिक कैसे हो गया। सच यह भी है कि विहिप के राजनीतिकरण में भी इंदिरा गांधी की बड़ी भूमिका रही। जिन्होंने धीरे धीरे विहिप के आंदोलन को राजनीति के केन्द्र में ला खड़ा किया। जिसे राजीव गांधी ने अयोध्या आंदोलन के दौर में शिला पूजन पर विहिप के साथ समझौता कर आगे भी बढाया और रज्जू भैया के साथ समझौते की दिशा में कदम भी बढाये। ध्यान दें तो राजीव गांधी ने एक साथ दो-तरफा सियासी बिसात बिछायी । एक तरफ सैम पित्रोदा के जरीये तकनीकी आधुनिकीकरण तो दूसरी तरफ बहुकेन्र्दीय सांप्रदायिकता । शाहबानो मामला, अयोध्या में शिला पूजन और नार्थइस्ट में मिशनरी। ध्यान दें तो मौजूदा कांग्रेस में ना तो सोनिया गांधी हिन्दु इथोस को समझ पायी है और ना ही राहुल गांधी काग्रेस के नरम हिन्दुत्व रुख के कारणो को समझ पाये। इसलिये जिस स्वामी विवेकानंद की धारा को इंदिरा गांधी ने संघ के ही स्वयसेवक एकनाथ राणाडे के जरीये की संघ के हिन्दुत्व पर चोट कर सामानांतर तौर पर खड़ा किया आज वही विवेकानंद केन्द्र मोदी सरकार की थिंक टैक हैं। और कांग्रेस की समझ से यह सियासत कोसो दूर है। असल में कांग्रेस की दूसरी मुश्किल तकनीक के विकास के जरीये विचारधारा और समाज में परिवर्तन की समझ भी है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के संबंध एल्विन टोफलर से भी रहे। दोनों ही भविष्य की राजनीति में तकनीक और टेकनाक्रेट दोनो की जरुरत को समझते थे। और आरएसएस के भीतर भी यह समझ खासी पुरानी रही है। १९९८ में संघ के चिंतन बैठक में बकायदा एचवी शेषार्दी ने बाल आप्टे और केरल के वरिष्ठ स्वयंसेवक परमेशवरन के जरीये एल्विन टॉफलर की किताब वार एंड एंटी वार और हेलिग्टन की क्लैशस आफ सिविललाइजेशन पर एक पूरा सत्र किया। यानी सोलह बरस पहले ही भविष्य के बारत को लेकर जो सपना भी संघ के भीतर चिंतन के तौर पर उपज रहा था वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कैसे लागू होगी या कैसे लागू की जा सकती है इस दिशा में काम लगातार चल रहा है। न्यूयार्क, सिडनी के बाद अब लंदन में भी प्रदानमंत्री मोदी की सार्वजनिक सभा के आयोजन में संघ का कोर ग्रूप लगा हुआ है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आज की तारीख में बकायदा हर एनआरआई स्वयंसेवक की पूरी जानकारी संघ-बीजेपी के कम्प्यूटर में मौजूद है, जिनसे संपर्क कर मोदी सरकार का साथ और संघ के हिन्दू राष्ट्र के सपने को जगाने में एक मेल यानी कंप्यूटर की चिट्टी ही काफी है । जो विदेशी स्वयंसेवकों में राष्ट्रप्रेम जगा देती है। इसी तर्ज पर अब दुनिया के हर हिस्से में में मौजूद भारतीयो की सूची भी अब संघ-बीजेपी तैयार कर रही है।

जाहिर है अगर तकनीक के आसरे संवाद बन सकता है और विदेश में रह रहे भारतीयो पर एक मेल से राष्ट्रप्रेम
जाग सकता है तो संकेत साफ है कि डिजिटल क्रांति,संचार क्रांति और तकनीकी संबंध के आसरे भविष्य के भारत को  बनाने की दिशा में संघ की पहल मोदी सरकार के आसरे जिस रफ्तार पर चल पड़ी है उसमें कांग्रेस कहां टिकेगी और बाकि राजनीतिक दलो की सोच कैसे असर डालेगी। क्योंकि कांग्रेस के भीतर भारतीय संस्कृति के उन सवालो को समझने वाला और सोनिया-राहुल गांधी को समझाने वाले कितने कांग्रेसी हैं, जो बता पाये कि नेहरु ने पारसी दामाद होने के बावजूद इंदिरा को हिन्दु रखकर भारत के सियासत के मर्म को समझा। इंदिरा गांधी ने ईसाई बहू होने के बावजूद राजीव गांधी को हिन्दू रखकर भारत के हिन्दू इथोस को समझा। और  सोनिया-राहुल के दौर में संघ परिवार को आंतक के कटघरे में खडा कर हिन्दू शब्द पर ही सवालिया निशान लगाया गया। तो संकेत साफ है हिन्दू शब्द पर ही राजनीति बंटेगी तो कांग्रेस की हथेली खाली रहेगी।


             शुभ- मंगल !
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पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Saturday, January 3, 2015

"सेकुलर की आड़ में छिपे सनातन के दुश्मनों की चतुराई से भरी चालें कैसी होती हैं आप भी देखिये "!!-पीताम्बर दत्त शर्मा


जर्जर होती सनातन "हवेली"


गाँव में एक बहुत बड़ी हवेली थी , या यूं कहें हवेली बसी उसके बाद ही पूरा गाँव बसा , हवेली के दूरदृष्टा पूर्वजों ने पूरे गाँव में महान परम्पराएँ बसाई , भाषाएँ विकसित की , इंसानों जैसा जीना सिखाया , वैज्ञानिक सोच दी , पर जैसे हर गाँव में होता है , दो चार घर काले धंधे कर बढे हो गए , मंजिलें चढ़ गयीं , मोटर साइकल आई , ट्रेक्टर आया , फ़ोन आ गया , पर पैसे से कभी अकल आते देखि है ? वो वहीँ की वहीँ रही, सोच वही दकियानूसी कबीलाई , हवेली अब इन "नवधनाढ्यों" को आँखों में चुभने लगी , "जब तक ये हवेली रहेगी तब तक गाँव हमारा इतिहास याद रखेगा " , ऐसी भावना घर करने लगी , गाँव में वर्चस्व स्थापित करने का एक ही रास्ता है , हवेली को ख़त्म करो , बर्बाद करो !!




अब साजिशें शुरू हुईं , बच्चों के खेलने के नाम पर पहले हवेली की बाउंड्री वाल तोड़ी गयी , हवेली में थोड़ी बहस हुई तो बड़ों ने कहा "हम इतने दकियानूस हो गए हैं की बच्चों को खेलने की जगह भी ना दे सकें ? जब बाउंड्री वॉल टूट गयी तो आहिस्ता से मनचलों ने हवेली का पिछला चबूतरा जुआ खेलने का अड्डा बना लिया , बहस हुई तो निष्कर्ष ये निकला की  " हमारे बच्चों के संस्कार क्या इतने कमज़ोर हैं की जुए खेलते देख बिगड़ जाएँ , बाहर जो करता है करने दो , अपना ध्यान खुद  रखो " , हवेली का एक कमरा जो बरसों पहले परदादा ने एक असहाय की मदद के लिए किराये से दिया था उसपर उसके एहसान फरामोश बच्चों ने कब्ज़ा कर लिया, घर में खूब कलह हुई तो बाबूजी ने शांति और अहिंसा का सन्देश देकर चुप करा दिया , कहा "एक कमरे के जाने से हवेली बर्बाद नहीं हो जाएगी" !! हवेली के बुजुर्गों में एक अजीब सा नशा था हवेली के रुद्बे को लेकर , उसके इतिहास को लेकर , अपने पुरखों की जंग लगी बन्दूक रोज़ देखते पर अपने बच्चों को कभी उसे छूने ना देते , हम बहुत महान थे पर क्यों थे और आगे कैसे बने रह सकते हैं ये कभी नहीं बताते , शायद उन्हें ही ना पता हो , इधर चौराहे पर हवेली की हंसी उड़ती , चुटकुले सुनाये जाते , इन्ही बुजुर्गों की खिल्ली उड़ाई जाती !! यही क्रम चलता रहा और हवेली चारों और से बर्बाद होती रही !!


आज हालत ये है की हवेली की चारों दीवारों पर आजकल पूरा गाँव पेशाब करता है , दीवार गाँव की पेशाब से सिलसिलकर "ऐतिहासिक" हो गयी है , अमोनिया की "सहिष्णुता" से भरी खुशबु पूरी हवेली को सुगन्धित कर रही हैं पर घर के बड़े बूढ़े मानने को तैयार नहीं है , बार बार किसी मानसिक विक्षिप्त की तरह "सनातन हवेली" "सनातन हवेली" जैसा शब्द रटते रहते हैं , कहते हैं कुछ नहीं बिगड़ेगा , अजीबोगरीब बहाने ढूंढ लियें हैं अपनी कायरता को छुपाने के , कह रहे हैं अमोनिया की खुशबु सूंघने से बाल काले रहेंगे , ये तो हमारे भले के लिए ही है !! कल वहीँ असलम मियां अपनी कलात्मकता का प्रदर्शन करते हुए जलेबिनुमा पेशाब कर रहे थे तो हवेली के बच्चे ने पत्थर फेंक दिया , असलम मियां ने बाबूजी से शिकायत की और उस बच्चे के कट्टरपंथी हो जाने का खतरा बताया , तब से बाबूजी ने बड़े भैया को दीवार के पास ही तैनात कर दिया है ताकि कोई पेशाब करे तो उसे कोई रोके टोके ना , बेइज्जती ना हो ,  उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन ना हो !! 

किसी को पान की पीक करते , किसी को पेशाब करते , किसी को मैदान में तम्बू गाड़ते , किसी को पीछे की शीशम की खिड़की उखाड़ते बच्चे रोज़ देखते हैं , हवेली रोज़ बिक रही है , खुद रही हैं , नेस्तनाबूत हो रही है , आँखों से खून आता है , मुट्टीयाँ भींच कर चुप रहना पड़ता है , सहिष्णु बाबूजी हैं , कायर भाई हैं , सेक्युलर भाभियाँ हैं , हवेली महान है , हवेली सनातन है !! 

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(झकझोरने वाला यह शानदार लेख फेसबुक पर लिखा है श्री गौरव शर्मा जी ने... मैंने यहाँ साभार ग्रहण किया है... उनके प्रोफाईल पर जाकर कुछ ऐसे ही अन्य "आँखें खोलने वाले" लेखों का आनंद भी उठाएँ... लिंक यह है... https://www.facebook.com/gaurav.bindasbol?fref=ufi )
शुभ- मंगल !
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पीताम्बर दत्त शर्मा,
हेल्प-लाईन-बिग-बाज़ार,
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जिला-श्री गंगानगर।
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Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh. (raj)INDIA.
             
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...