Friday, March 21, 2014

फेसबुक पर " चालीस + साला औरतें .....-( साभार - अंजु शर्मा )


19 मार्च 2014 को मैंने अपनी वाल पर एक कविता 'फेसबुक पर चालीस साला औरतें' पोस्ट की थी! मेरे मन में इस कविता के कथ्य या शिल्प को लेकर कोई दुविधा नहीं थी क्योंकि ये कविता का पहला ही ड्राफ्ट था! इस कविता पर अभी काफी काम बाकी था पर कविता लिखने के बाद उसे पढ़ते हुए हर बार लगा ये कविता नहीं जाने कितनी ही स्त्रियॉं का जीवन है और मैं हो सकती हूँ, आप हो सकती हैं, ये या वे हो सकती हैं! पिछले कुछ दिनों से लगातार लेखन से जुड़ी तथाकथित 'फेसबुकिया' महिलाओं के विषय में बयानबाजी ज़ोर-शोर से चल रही थी! लेख लिखे जा रहे थे, लेखिकाओं और उनके शुभचिंतकों पर प्रायोजित और मिथ्या आरोपों-प्रत्यारोपों, छद्म-सर्वे, दुराग्रहपूर्ण लेखों की झड़ी के बीच, एक अजीब सी मनोस्थिति से गुजरते हुए, मैंने इसे एक पत्रिका को भेजने के बाद भी इसे फेसबुक पर पोस्ट कर दिया, जिसके लिए संपादक के सामने अपनी स्थिति को स्पष्ट करने की एक कोशिश भी कर चुकी हूँ! मेरी एक महिला मित्र जो खुद समर्थ कवयित्री हैं, एक कॉलेज में पढ़ाती हैं, ने कहा था मुझे कि चालीस साला महिलाओं पर बहुत कुछ लिखा है किन्तु पुरुषों ने, तुमने लिखा है तो एक स्त्री का पक्ष भी सामने आएगा, अच्छा किया!
कविता के पोस्ट होने कुछ देर बार ही मृदुला शुक्ला ने इसे साझा किया! साथ ही साथ लगातार शेयर और कमेंट होते रहे थे! फोन और मैसेज का सिलसिला भी चलता रहा! मेरे इस लेख के लिखे जाने तक 43 शेयर (काफी लोगों ने इसे कॉपी-पेस्ट भी करके पोस्ट किया या मित्रों को भेजा), 291 लाइक्स , 210 कमेंट्स हो चुके थे और करीब 96 मित्रों ने (जी हाँ मेरी वाल पर पब्लिक पोस्ट फोलोअर्स सिर्फ लाइक कर सकते हैं, कमेंट केवल मित्र सूची में शामिल लोग ही कर सकते हैं) इस पर अपने विचार व्यक्त किए! मुझे ये तो मालूम था कि बहुत सी महिला मित्र स्वयं को इस कविता से जोड़ पाएँगी पर ये प्रतिक्रियाएँ इस तरह आएंगी मैंने सोचा भी नहीं था! बहुत से प्रश्न पूछे गए, समीक्षाएं लिखी गईं! खास बात यह रही कि मेरी वाल पर किए गए कमेंट सिर्फ, 'नाइस', 'बहुत अच्छा लिखा' या 'अच्छी कविता है' तक सीमित नहीं रहे! मेरे बहुत से प्रबुद्ध मित्रों ने विस्तार से समीक्षात्मक कमेंट कर कविता को अपनी नज़र से देखने की कोशिशें की! मेरी वाल पर मौजूद इन कमेंट्स में, फोन पर और मुझे आए अनिगिनत संदेशों में कितनी ही महिलाओं ने इस कविता में अपना मन लिख दिये जाने की बात की और कितनी ही महिलाओं को अपने जीवन का अक्स इसमें दिखाई पड़ा! कुछ महिलाएं जो शायद पचास साल के आस-पास हैं उन्होने इस कविता में खुद को पाते हुए मांग रखी कि इसका शीर्षक 'पचास साला औरतें' होना चाहिए था जो यकीनन मेरे दिल को छू गया! इतने सार्थक कमेंट्स, इतनी सराहना और बेबाक समीक्षायेँ सामने आईं कि मैं सभी लोगों को व्यक्तिगत तौर पर आभार या उत्तर नहीं दे सकती थी न ही इस लेख में रख सकती हूँ इसीलिए अपनी एक मित्र के सुझाव पर इस नोट या लेख के माध्यम से अपनी बात रखना चाहती हूँ!
इस कविता को लोगों ने अपने दृष्टिकोण से देखने और परिभाषित करने की कई सार्थक कोशिशें की जो अभूतपूर्व है! मेरी इस कविता की नायिका कोई भी हो सकती है, उसका चालीस साला होना या पचास साला होना इतना महत्व नहीं रखता! दरअसल मेरी कविता की नायिका वे महिलाएं हैं जो बिना शिकवा-शिकायत लगभग 17-18 साल से अपनी गृहस्थी में मगन रही हैं! उनमें से काफी ऐसी भी हैं जिन्होने दोहरी भूमिकाएँ निभाते हुए अपनी रुचि-सुरुचि, अपने हुनर, अपने मन के कोने में दबी खुद को पहचानने की जाने कितनी ही इच्छाओं को सो जाने दिया ताकि अपने परिवार, बच्चों और गृहस्थी को भरपूर समय दे सकें! बहुत सी वे भी हो सकती हैं जिन्होने मेरी तरह एक लंबा समय कामकाजी महिला की सुपरवुमन की भूमिका निभाते हुए एक दिन गृहस्थ जीवन की जटिलताओं के सामने कैरियर को प्राथमिकता न देते हुए परिस्थितिनुसार अपने परिवार और बच्चों को सर्वोपरि माना! लेकिन ये सच है और मेरा निजी अनुभव है कि प्रसूतिगृह, रात-रात जागकर बच्चों का लालनपालन, सास-ससुर की बीमारी में सेवाएँ, मेहमानों का लगातार आना-जाना, पति की नौकरी-निजी जीवन संबंधी व्यस्तताओं से जब भी थोड़ा समय मिला, एक कसक, एक बेचैनी, एक अधूरेपन को हमेशा बगलगीर पाया! बच्चों के किशोर आयु में पहुँचते-पहुँचते जब मुड़कर देखना चाहा तो खुद को ढूँढना बहुत मुश्किल हो चला था! लेखन नियमित नहीं रह गया था और समकालीन साहित्य से दूरी की पीड़ा का दंश अलग था! उसके बाद रात-दिन की मेहनत और अपने लिए व्यस्त पति और बच्चों की दिनचर्या को सुचारु रूप से चलने देने की कोशिशों के बीच लम्हे चुराने की कवायद शुरू हुई! इन पंक्तियों को पढ़िये:
'इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गयी
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक़्त
तय हुआ होगा शायद

अभी नन्ही उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नयी दास्तान,
संभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आंचल
अब बनने को ही है परचम

कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर'

इस नए सफर में आत्मा ने जैसे नया चोला पहन लिया था, लेकिन शरीर पर उम्र के निशानात दस्तक देने लगे थे! पर इस नई पारी ने सबको दरकिनार कर दिया ....
'बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज़ की आहट के साइड एफ़ेक्ट्स से
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है खवाबों की लिपि
वे उठा चुकी हैं दबी हंसी से पहरे
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,

ये जो फैली हुई कमर का घेरा है न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में'

गृहस्थ जीवन में जाने कितने जटिलताओं से वाबस्ता उम्र का ये पड़ाव जाने कितने ही अनुभवों को समेटे था,
'ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं

जिनकी पदचापें अब नयी दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं '

कितनी ही कड़वी घूंटे अब भी इसके हलक में बसी कड़वाहट को उभार देती थीं! पारंपरिक भारतीय जीवन और परिवेश में एक स्त्री का जीवन जीते हुए जाने कितनी ही वर्जनाओं को तोड़ने के गर्व के तमगे इनकी छाती पर टंगे हैं! कितनी चुप्पियां, कितनी घुटन इनके सीनों में दफन है! गृहस्थी में आधारस्तंभ बनकर जीते हुए, पति और बच्चों के उत्तम कैरियर की चिंताओं में घुलते हुए जाने कितने ही राज, कितने ही अवसर, कितने ही मौकों को ये पाँव तले दबाते हुए घर को घर बनाए रहीं!

'ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूंटे है
जिसके कडवेपन से बंधी हैं कई अकेली रातें,

ये उपवास के दिनों का वक़्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है'


पर अब खुद के लिए जीना का वक़्त आया और फेसबुक ने भरपूर मौके दिये! एक हो ग्यारह और ग्यारह को ग्यारह सौ में बदलते देर नहीं लगी! अरमानों को पंख लगने लगे और दबी, दमित आकांक्षाएँ गुनगुनाने लगीं 'आज फिर जीने की तमन्ना है'! अपनी पूर्ववर्तियों के ठीक विपरीत वे न तो ईश्वर के भजन में मगन हुई और न पति की व्यस्तताओं का रोना रोते हुए अपनी उपेक्षा से जन्मे अवसाद को पनपने ही का मौका दिया! अपनी देह से जुड़ी कामनाओं और उससे जुड़े सारे बदलावों को महसूस करते हुए न ही वे पास-पड़ोस की गोसिप और किट्टी पार्टियों की शान बनीं! इन्होने पारिवारिक जिम्मेदारियों को घरेलू सहायकों के साथ मैनेज करना शुरू किया, इन्होने कलम से अपनी दोस्ती को वक़्त सौंपा और फेसबुक ने उन्हे वो स्पेस दिया जो इससे पहले उनके लिए कहीं नहीं था! बच्चों के बड़े होने, परिवार के सीमित होने ने उन्हे सक्रिय होने के लिए भी प्रेरित किया! घर से, परिवार से और कामकाजियों ने काम से वक़्त को चुराना सीखा और अपनी उम्मीदों को पंख लगाकर साहित्य के आकाश पर उड़ान भरते हुए अपने सपनों को छू लेने के प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़ी! उनके नीरस, सपाट जीवन में खुद के मायने बदलने लगे!
'अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूंढती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हंस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हे
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफ़ाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,

जी हाँ, वे फ़ेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं...............'

ये चालीस साला, पचास साला फेसबुकिया औरतें मैं, आप या हमारे आस-पास मौजूद हर वो औरत है जिसे आप मान्यता दी या न दें, जिसने अपने जीवन को अर्थ और आयाम देने की कोशिशें की, वे कितना सफल हुई इसके लिए हमारे सामने कई उदाहरण हैं जो न केवल अंशकालिक लेखिका हैं, साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय है, कई संस्थाओं से जुड़ी हैं, कई ग्रुप और ब्लोग्स से हजारों महिलाओं को जोड़े हुए रास्ता दिखा रही हैं बल्कि अपने परिवार और नौकरी को भी सुचारु रूप से चला रही हैं! फेसबुक पर मौजूद ये महिलाएं मात्र घरेलू या कामकाजी महिलाएं नहीं हैं बल्कि वे महिलाएं हैं जिनका नाम इतिहास में इन अर्थों में सम्मान से लिया जाएगा कि वे अपनी अपनी बगावतों का झण्डा थामे आगे की पंक्ति में खड़ी वे महिलाएं हैं जो सबके लिए जीते हुए भी खुद के लिए जीना सीख पाई और इनके पीछे खड़ी है महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी जिसके लिए रास्ते बनाते बनाते इन्होने कितनी ही बार अपने हाथ लहूलुहान किए!

अंजू शर्मा
                       आपका क्या कहना है साथियो !! अपने विचारों से तो हमें भी अवगत करवाओ !! ज़रा खुलकर बताने का कष्ट करें !! नए बने मित्रों का हार्दिक स्वागत-अभिनन्दन स्वीकार करें !
जिन मित्रों का आज जन्मदिन है उनको हार्दिक शुभकामनाएं और बधाइयाँ !!"इन्टरनेट सोशियल मीडिया ब्लॉग प्रेस "
" फिफ्थ पिल्लर - कारप्शन किल्लर "
की तरफ से आप सब पाठक मित्रों को आज के दिन की
हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं
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जो अभी तलक मेरे मित्र नहीं बन पाये हैं , कृपया वो जल्दी से अपनी फ्रेंड-रिक्वेस्ट भेजें , क्योंकि मेरी आई डी तो ब्लाक रहती है ! आप सबका मेरे ब्लॉग "5th pillar corruption killer " व इसी नाम से चल रहे पेज , गूगल+ और मेरी फेसबुक वाल पर हार्दिक स्वागत है !!
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मेरा मोबाईल नंबर ये है :- 09414657511. 01509-222768. धन्यवाद !!
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पीताम्बर दत्त शर्मा,
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BY :- " 5TH PILLAR CORRUPTION KILLER " THE BLOG . READ,SHARE AND GIVE YOUR VELUABEL COMMENTS DAILY . !!
Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh (RAJ.)

Thursday, March 20, 2014

" ये वोही" बरखा " है जो गुजरात में आग लगा कर आयी थी , अब वो बनारस में है अपने" फूल - गैंग " के साथ , इन्हे केरल , कोलकाता ,असम या चैनई क्यों दिखायी नहीं देता , वन्हाँ क्यों नहीं जाते ???

आजकल बनारस की पवित्र गलियों में " सेकुलर - पत्रकार " बड़े घूम-घूम कर ज़हर घुले प्रश्न पूछ रहे हैं और जनता का मूड भांपने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं !! सवयं को ये दिखा तो ऐसे रहे हैं कि जैसे ये देश की रक्षा हेतु जनता से प्रश्न पूछ रहे हैं लेकिन वास्तव में एक नौकर की तरह काम कर रहे हैं पत्रकार की तरह नहीं !!
                    

 बिकाऊ चेनलों के सभी एंकर उत्तर-प्रदेश को ही अपना निशाना बनाये हुए हैं ! क्या लोकसभा के चुनाव केवल यंही हो रहे हैं ??? जम्मू-काश्मीर में नहीं ??? दंगों से पीड़ित क्या गुजरात में ही हैं जम्मू में नहीं ?? उड़ीसा , महाराष्ट्र, छतीसगढ़ तामिलनाडु  क्यों नहीं अपनी दूकान लगाते हैदराबाद में जाकर ये क्यों कम गिनती के लोगों के बारे में अपने प्रोग्राम बनाते ???
                
       वन्हां ये नहीं जायेंगे ! क्योंकि इनके मालिकों ने इन्हें उधर जाने का आर्डर नहीं दिया ना इसलिए !! चार्ट का चुनाव - आयोग भी इस तरफ अपना ध्यान नहीं दे रहा क्योंकि उसके पास भी इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर नज़र डालने का समय ही नहीं है !! राष्ट्रपति महोदय भी चुप हैं क्योंकि वो भी तो इसी भ्रष्ट सिस्टम से ही तो आये हैं !! हां हम जरूर बोल रहे हैं , वो भी इसलिए क्योंकि एक हमारे बोलने से कोई देश में क्रान्ति तो फ़ैल नहीं जायेगी , इसलिए हमें बोलने दिया जाता है !!

                            कुछ बढ़िया लोग भी बनारस पंहुचे हुए हैं ! पुराने अभिनेता श्री मान टॉम आल्टर साहिब ! जो फिल्मो में अँगरेज़ बना करते थे ! उनकी हिंदी इतनी बढ़िया है कि दिल बाग़-बाग़ हो जाता है ! उनका एक प्रोग्राम आ रहा है " चाय की चुस्कियाँ " मित्रो बड़ा ही आनंद आया ये कार्यक्रम देखकर ! बड़े ही नपे तुले प्रश्न वो कर रहे थे ,और उत्तर में काशी वासियों की शायरी और छन्द सुनने को मिल रहे थे ! एक हंसी और ख़ुशी का माहोल था !! मेरे हिसाब से आज के तथाकथित " विद्वान - पत्रकारों " को उनसे सीखकर आना चाहिए !! बने फिरते हैं मनोरंजन भारती , रवीश कुमार , बरखा दत्त और ना जाने क्या-क्या ??? हमेशा झगड़ा ही झगड़ा नज़र आता है इनके कार्यक्रमों में !!
                      
एक तरफ की बात करेंगे , एक तरफ की वीडिओ शूट करेंगे और फिर दिल्ली आकर अपने आकाओं को दिखाएंगे और बोलेंगे " ये बड़ा ही क्रांतिकारी होगा , हम इसे बार-बार दिखाएंगे और पैसे बटोरेंगे " ऐसा काम करने वाले पत्रकारों का और उनके चेनलों का लाइसेंस केंसिल होना चाहिए !               सभी मेरे साथ कहिये - धर्म की जय हो !! अधर्म का नाश हो !!प्राणियों में सदभावना हो !! विश्व का कल्याण हो !! हर-हर-हर-महादेव .......!!!
                  
आपका क्या कहना है साथियो !! अपने विचारों से तो हमें भी अवगत करवाओ !! ज़रा खुलकर बताने का कष्ट करें !! नए बने मित्रों का हार्दिक स्वागत-अभिनन्दन स्वीकार करें !
जिन मित्रों का आज जन्मदिन है उनको हार्दिक शुभकामनाएं और बधाइयाँ !!"इन्टरनेट सोशियल मीडिया ब्लॉग प्रेस "
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की तरफ से आप सब पाठक मित्रों को आज के दिन की
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Wednesday, March 19, 2014

अगर मीडिया नेताओं का ढिंढोरची बन गया तो लोकशाही खतरे में पड़ जायेगी......!!!


लोकसभा चुनाव २०१४ में राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का भविष्य दांव पर लगा हुआ है इसके साथ साथ बहुत कुछ कसौटी पर है , बहुत सारे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की परीक्षा हो रही है. इस चुनाव में सबसे ज़्यादा कठिन परीक्षा से मीडिया को गुजरना पड़ रहा है.सभी पार्टियां मीडिया पर उनके विरोधी का पस्ख लेने के आरोप लगा रही हैं. इस बार राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय कई राजनीतिक पार्टियों के बारे में कहा जा रहा है कि वे मीडिया की देन हैं. आम आदमी पार्टी के बारे में तो सभी एकमत हैं कि उसे मीडिया ने ही बनाया है. लेकिन अब मीडिया से सबसे ज्यादा नाराज़ भी आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो ही हैं. वे कई बार कह चुके हैं कि मीडिया बिक चुका है. बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी की हवा बनाने में भी मीडिया की खासी भूमिका है. उनकी पार्टी के नेता आम तौर पार मीडिया को अपना मित्र मानते हैं. लेकिन अगर कहीं किसी बहस में कोई पत्रकार उनकी पार्टी के स्थापित मानदंडों का विरोध कर दे तो उसका विरोध तो करते ही हैं ,कई बार फटकारने भी लगते हैं. कांग्रेस के नेता आम तौर पर मीडिया के खिलाफ बोलते रहते हैं. उनका आरोप रहता है कि मीडिया के ज़्यादातर लोग उनके खिलाफ लामबंद हो गए हैं और कांग्रेस की मौजूदा स्थति में मीडिया के विरोध की खासी भूमिका है. हालांकि ऊपर लिखी बातों में पूरी तरह से कुछ भी सच नहीं है लेकिन सारी ही बातें आंशिक रूप से सच हैं. इस बात में दो राय नहीं है कि इस चुनाव में मीडिया भी कसौटी पर है और यह लगभग तय है कि इन चुनावों के बाद सभी पार्टियों की शक्ल बदली हुयी होगी और मीडिया की हालत भी निश्चित रूप से बदल जायेगी.
5431993
आज से करीब बीस साल पहले जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो वह हर क्षेत्र में देखा गया. मीडिया भी उस से अछूता नहीं रह गया. मीडिया संस्थाओं के नए मालिकों का प्रादुर्भाव हुआ , पुराने मालिकों ने नए नए तरीके से काम करना शुरू कर दिया. देश की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी के मालिक ने तो साफ़ कह दिया कि वे तो विज्ञापन के लिए अखबार निकालते हैं ,उसमें ख़बरें भी डाल दी जाती हैं. बहुत सारे मालिकों ने यह कहा नहीं लेकिन सभी कहने लगे कि धंधा तो करना ही है. इस दौर में बहुत सारे ऐसे पत्रकार भी पैदा हो गए जो निष्पक्षता को भुलाकर कर निजी एजेंडा की पैरवी में लग गए. एक बहुत बड़े चैनल के मुख्य सम्पादक और अब एक पार्टी के उम्मीदवार हर सेमीनार में टेलिविज़न चलाने के लिए लगने वाले पैसे का ज़िक्र करते थे और उसको इकट्ठा करने के लिए पत्रकारों की भूमिका में बदलाव के पैरोकारों में सबसे आगे खड़े नज़र आते थे. इस अभियान में उनको कई बार सही पत्रकारों के गुस्से का सामना भी करना पडा.जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला शो हुआ तो उन पत्रकार महोदय की अजीब दशा थी. उनकी पूरी कायनात अन्नामय हो गयी थी. अब जाकर पता चला है कि वे एक निश्चित योजना के अनुसार काम कर रहे थे. आज वे उस दौर में अन्ना हजारे के मुख्य शिष्य रहे व्यक्ति की पार्टी के नेता हैं. इस तरह की घटनाओं से पत्रकारिता की निष्पक्षता की संस्था के रूप में पहचान को नुक्सान होता है.मौजूदा चुनाव में यह ख़तरा सबसे ज़्यादा है और इससे बचना पत्राकारिता की सबसे बड़ी चुनौती है.
टेलिविज़न आज पत्रकारिता का सबसे प्रमुख माध्यम है. चुनावों के दौरान वह और भी ख़ास हो जाता है.वहीं पत्रकार की सबसे कठिन परीक्षा होती है. आजकल टेलिविज़न में पत्रकारों के कई रूप देखने को मिल रहे हैं. एक तो रिपोर्टर का है जिसमें उसको उन बातों को भी पूरी ईमानदारी , निष्पक्षता और निष्ठुरता से बताना होता है जो सच हैं , उसे सच के प्रति प्रतिबद्ध रहना होता है ठीक उसी तरह जैसे भीष्म पितामह हस्तिनापुर के सिंहासन के साथ प्रतिबद्ध थे. उसको ऐसी बातों को भी रिपोर्ट करना होता है जिनको वह पसंद नहीं करता. दूसरा रूप विश्लेषक का होता है जहां उसको स्थिति की स्पष्ट व्याख्या करनी होती है. इस व्यख्या में भी उसको अपनी प्रतिबद्धताओं से बचना होता है.और अंतिम रूप टिप्पणीकार का है जहा पत्रकार अपने दृष्टिकोण को भी रख सकता है और उसकी तार्किक व्याख्या कर सकता है.. यह सारे काम बहुत ही कठिन हैं और इनका पालन करना इस चुनाव में मीडिया के लोगों का सबसे कठिन लक्ष्य है , अब तक के संकेतों से साफ़ है कि मीडिया घरानों के मालिक अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से ही काम करने वाले है. पत्रकार की अपनी निष्पक्षता कहाँ तक पब्लिक डोमेन में आ पाती है यह देखना दिलचस्प होगा.
मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती पेड न्यूज का संकट है. पेड न्यूज़ के ज़्यादातर मामलों में मालिक लोग खुद ही शामिल रहते हैं लेकिन काम तो पत्रकार के ज़रिये होता है इसलिए असली अग्निपरीक्षा पत्रकारिता के पेशे में लगे हुए लोगों की है.पेड न्यूज़ के कारण आज मीडिया की विश्वसनीयता पर संकट आ गया है। मीडिया पैसे लेकर खबर छापकर अपने पाठकों के विश्वास के साथ खेल रहा है और पेड न्यूज के कारण मीडियाकर्मियों की चारों तरफ आलोचना हो रही है। २००९ के लोकसभा चुनावों के दौरान यह संकट बहुत मुखर रूप से सामने आया था .अखबारों के मालिक पैसे लेकर विज्ञापनों को समाचार की शक्ल में छापने लगे.. प्रभाष जोशी, पी.साईंनाथ , परंजय गुहा ठाकुरता और विपुल मुद्गल ने इसकी आलोचना का अभियान चलाया . प्रेस काउन्सिल ने भी पेड न्यूज की विवेचना करने के लिये पराजंय गुहा ठाकुरता और के.श्रीनिवास रेड्डी की कमेटी बनाकर एक रिपोर्ट तैयार की जिसको आज के संदर्भ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जा सकता है. सरकारी तौर पर भी इस पर चिंता प्रकट की गयी और प्रेस कौंसिल ने पेड न्यूज को रोकने के उपाय किये. प्रेस कौंसिल ने बताया कि “कोई समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और तरफादारी के बदले किसी भी मीडिया में जगह पाता है तो उसे पेड न्यूज की श्रेणी में रखा जाएगा ।”प्रेस कौंसिल के इस विवेचन के बाद पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर तरह तरह के सवाल उठने लगे. सरकार भी सक्रिय हो गयी.और पेड न्यूज़ पर चुनाव आयोग की नज़र भी पड़ गयी. चुनाव आयोग ने पेड न्यूज के केस में २०११ में पहली कार्रवाई की और उत्तर प्रदेश से विधायक रहीं उमलेश यादव को तीन साल के लिए अयोग्य करार दिया। आयोग ने महिला विधायक उमलेश यादव के खिलाफ यह कार्रवाई दो हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों पर हुए चुनाव खर्च के बारे में गलत बयान देने के लिए की. उमलेश यादव ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 के तहत अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश में बिसौली के लिए हुए विधानसभा चुनाव के दौरान हुए चुनावी खर्च में अनियमितता की थी और अखबारों को धन देकर अपने पक्ष में ख़बरें छपवाई थीं. उत्तर प्रदेश की इस घटना के बाद और भी घटनाएं हुईं. लोगों को सज़ा भी मिली लेकिन समस्या बद से बदतर होती जा रही है. आज मीडियाकर्मी के ऊपर चारों तरफ से दबाव है और मीडिया और संचार माध्यामों की कृपा से ही पूरी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है.मार्शल मैक्लुहान ने कहा था कि एक दिन आएगा जब सारी दुनिया एक गाँव हो जायेगी , वह होता दिख रहा है लेकिन यह भी ज़रूरी है कि उस गाँव के लिए आचरण के नए मानदंड तय किये जाएँ. यह काम मीडिया वालों को ही करना है लेकिन उदारीकरण के चलते सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है.इसके चलते आम आदमी की भावनाओं को कंट्रोल किया जा रहा है.सब कुछ एक बाज़ार की शक्ल में देखा जा रहा है.यह बाज़ार पूंजी के ,मालिकों और मीडिया संस्थानों को विचारधारा की शक्ति को काबू करने की ताकत देता है.पश्चिमी दुनिया में बाजार की ताक़त को विचारधारा की स्वतंत्रता के बराबर माना जाता है लेकिन बाजार का गुप्त हाथ नियंत्रण के औजार के रुप में भी इस्तेमाल किया जाता है.
आज भारत में यही पूंजी काम कर रही है और मीडिया पार उसके कंट्रोल के चलते ऐसे ऐसे राजनीतिक अजूबे पैदा हो रहे हैं जिनका भारत के भविष्य पर क्या असर पडेगा कहना मुश्किल है. राजनीतिक आचरण का उद्देश्य हमेशा से ज्यादा से ज़्यादा लोगों की नैतिक और सामूहिक इच्छाओं को पूरा करना माना जाता रहा है. दुनिया भर में जितने भी इतिहास को दिशा देने वाले आन्दोलन हुए हैं उनमें आम आदमी सडकों पर उतर कर शामिल हुआ है. महात्मा गांधी का भारत की आज़ादी के लिए हुआ आन्दोलन इसका सबसे अहम उदाहारण है. अमरीका का महान मार्च हो या फ्रांसीसी क्रान्ति ,, माओ का चीन की आज़ादी के लिए हुआ मार्च हो या लेनिन की बोल्शेविक क्रान्ति ,हर ऐतिहासिक परिवर्तन के दौर में जनता सडकों पर जाकर शामिल हई है. लेकिन अजीब बात है कि इस बार जनता कहीं शामिल नहीं है , मीडिया के ज़रिये भारत में एक ऐसे परिवर्तन की शुरुआत करने की कोशिश की जा रही है जिसके बाद सारी व्यवस्था बदल जायेगी. व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर किया जा रहा यह वायदा कभी कार्यक्रम की तरह लगता है और कभी यह धमकी के रूप में प्रयोग होता है. यहाँ सब अब सार्वजनिक डोमेन में है. भारत की आज़ादी की मूल मान्यताओं , लिबरल डेमोक्रेसी को भी बदल डालने की कोशिश की जा रही है , मीडिया के दत्तक पुत्र की हैसियत रखने वाले आम आदमी पार्टी के नेता व्यवस्था पारिवर्तन के नाम पर संविधान को ही बेकार साबित करने के चक्कर में हैं. उनकी प्रतिद्वंदी पार्टी बीजेपी है जो संसदीय लोकतंत्र के नेहरू माडल को बदल कर गुजरात माडल लगाने की सोच रही है. पता नहीं क्या होने वाला है. देश का राजनीतिक भविष्य कसौटी पर है लेकिन उसके साथ साथ मीडिया का भविष्य भी कसौटी पर है. लगता है कि इस चुनाव के बाद यह तय हो जाएगा की मीडिया सामाजिक बदलाव की ताक़तों का निगहबान दस्ता रहेगा या वह सत्ता पर काबिज़ राजनीतिक ताक़तों का ढिंढोरा पीटने वालों में शामिल होने का खतरा तो नहीं उठा रहा है.                                                    - साभार -
- श्री मान शेष नारायण सिंह जी ||
                                                            
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Sunday, March 16, 2014

" होली की शुभ कामनाएं और बधाईयां " आप सब परिवार सहित प्रसन्न रहें !! - पीताम्बर दत्त शर्मा ( समीक्षक )

चित्रों  आनन्द ढूँढिये ....... ! ! !

                   

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Friday, March 14, 2014

" आप जैसों को ," आग भी लगेगी और मकान मालिक " भी हम थे - हैं और रहेंगे , किरायेदारों को केवल हम ही अपने परिवार की तरह रख सकते हैं, " आप " नहीं योगेन्द्र यादव जी " ! ! - पीताम्बर दत्त शर्मा ( समीक्षक )

आजकल आप के फ़र्ज़ी नेताओं को अल्पसंख्यक भाईयों की बड़ी ही अनावश्यक रूप से चिंता हो रही है !! जिन विषयों को लेकर इन्होने अन्ना जी के साथ मिलकर आंदोलन किये थे , वो सब तो ये भूल गए , बस !! ये सब एक विशेष प्रकार की जल्दी में  हैं और चाहते हैं कि जनता भी इनके पीछे-पीछे अपनी आँखें बंद करके " अंध-भक्तों " की तरह भागे चले आयें !! जैसा ये कहें सब लोग वैसा ही करते जाएँ !!
                      एक देश भक्त वोटर को ये जानने में बड़ी मुश्किल हो रही है कि कौन सा राजनितिक दल और उसके नेता वास्तव में देश हित में राजनीति कर रहे हैं और कौन दुश्मनों की कठपुतलियां मात्र हैं !! देश की सुरक्षा एजेंसियों को अपनी जिम्मेदारी समझ कर स्व्यं इनकी जांच करनी चाहिए और जो दल और नेता देश द्रोही हरकतें कर रहा हो उसको सत्ता में आने से पहले ही रोका जाना चाहिए अन्यथा देश बर्बाद हो जाएगा !! सभी राजनितिक दल , कोई कम और कोई ज्यादा इस हालात के लिए दोषी हैं !! भाजपा भी आज अपने आपको दुसरे राजनितिक दलों से अलग नहीं दिखा पा रही , ये हमारा दुर्भाग्य है ! भारत की जनता अपना माथा पीट कर रह गयी है !! वो करे भी तो क्या ????
                       मिडिया को भी सारे दोषी बता रहे हैं , लेकिन मेरा ये मानना है कि सभी बिकाऊ और देश द्रोही नहीं हो सकते !! लेकिन उन ईमानदार पत्रकारों को बोलना चाहिए कि ये वो लोग हैं जो देश द्रोह का काम कर रहे हैं !! मैं जानता हूँ कि ये आसान नहीं है लेकिन हमें ये कुर्बानियां देनी ही होंगी !! 
                    हिंदुओं को चाहे आप जितना मर्ज़ी मुसलमान,सिख्ख,जैन,बोद्ध,आर्य समाज और पारसी धर्मं में बाँट दो या फिर " आरक्षण का झुनझुना " देकर हमें जातियों में क्यों ना बाँट दो लेकिन भारत माता की जब भी कभी शान पर कोई कमी लाना चाहेगा उसे तुरंत मौत के घाट उतार दिया जाएगा !! ये हमारे भारत का इतिहास रहा है !!  
" आप जैसों को ," आग भी लगेगी और मकान मालिक " भी हम थे - हैं और रहेंगे , किरायेदारों को केवल हम ही अपने परिवार की तरह रख सकते हैं, " आप " नहीं योगेन्द्र यादव जी " ! !
                              इसलिए सुधर जाओ तथाकथित " सेकुलरो " !! नहीं तो इतनी मार पड़ेगी कि " नानी " याद आ जायेगी !! समझे !! तुम जैसे कुच्छ गद्दार हिन्दू ही होते हैं जो " जयचंद " की औलादें होती हैं !! आज के आप जैसे कई नेता जनता से " थप्पड़-जूते खा " हैं और कई अपना " मुंह काला " भी करवा चुके हैं लेकिन फिर भी " आप "को  अक्ल नहीं आ रही है !! भारत के दुश्मनो से लिए हुए पैसे का तभी आनंद उठा पाओगे अगर ज़िंदा रहोगे !! ओर  कंही आपकी हरकतें देख सुन कर " बोर्रा " गया तो किसी काम नहीं आएगा ये देश के दुश्मनो का पैसा यंही रह जाएगा !!


                         इसलिए सच्चा देशभक्ति का पाठ पढ़ो और पढ़ाओ !! चाहे अपना घर चलाओ या बहुमत मिलजाए तो देश चलाओ लेकिन आग लगाने वाली हरकतें मत करो ये हमारी आपको " चेतावनी है !!
             बोलिये भारत माता की जय !! वंदे मातरम् !! अल्लाह -  निगेहबान !!
                              
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भटकते राहुल गांधी क्या खोज रहे हैं ? ? ? " साभार "


देश के हर रंग को साथ जोड़कर ही कांग्रेस बनी थी और आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को कांग्रेस को गढ़ने के लिये देश के हर रंग के पास जाना पड़ रहा है। दिल्ली में कुलियों के बीच। झारखंड में आदिवासियों के बीच,बनारस में रिक्शा, खोमचे वालों के साथ तो गुजरात में नमक बनाने वालों के बीच। और संयोग देखिये कि 1930 में जिस नमक सत्याग्रह को महात्मा गांधी ने शुरु किया उसके 84 बरस बाद जब राहुल गांधी ने नमक से आजादी का सवाल टटोला तो नमक की गुलामी की त्रासदी ही गुजरात के सुरेन्द्रनगर में हर मजदूर ने जतला दी। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी के दौर में नमक बनाने वालों का दर्द वहीं है जो महात्मा गांधी के दौर में था। अंतर सिर्फ इतना है कि महात्मा गांधी के वक्त संघर्ष अंग्रेजों की सत्ता से थी और राहुल गांधी के वक्त में हक की गुहार केन्द्र और राज्य सरकार से की जा रही है। तो हर किसी के जहन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या देश के सामाजिक आर्थिक हालातों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। तो जरा हालात को परखें और नरेन्द्र मोदी के राज्य में राहुल गांधी की राजनीतिक बिसात पर प्यादे बनते वोटरों के दर्द को समझें कि कैसे संसदीय राजनीति के लोकतंत्र तले नागरिकों को वोटर से आगे देखा नहीं जाता और आर्थिक नीतियां हर दौर में सिर्फ और सिर्फ देश के दो फीसदी के लिये बनती रही।

इतना ही नहीं पहले एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी अब कंपनियों की भरमार है और नागरिकों के पेट पीठ से सटे जा रहे हैं। तो पहले बात नमक के मजदूरो की ही। जहां नमक का दारोगा बनकर राहुल गांधी गुजरात पहुंचे थे। गुजरात में एक किलोग्राम नमक बनाने पर मजदूरों को दस पैसा मिलता है। सीधे समझे तो बाजार में 15 से 20 रुपये प्रति किलो नमक हो तो मजदूरों को 10 पैसे मिलते हैं। इतना ही नहीं जब से आयोडिन नमक बाजार में आना शुरु हुआ है और नमक का धंधा निजी कंपनियों के हवाले कर दिया गया है उसके बाद से नमक बनाने का समूचा काम ही ठेके पर होता है। चूंकि चंद कंपनियों का वरहस्त नमक बनाने पर है तो ठेके के नीचे सब-ठेके भी बन चुके है लेकिन बीते दस बरस में मजदूरो को कंपनियो के जरिए दिये जाने वाली रकम में दो पैसे की ही बढोतरी हुई है। यानी 8 पैसे प्रति किलो से 10 पैसे प्रति किलो। लेकिन काम ठेके और सब ठेके पर हो रहा है तो मजदूरो तक यह रकम 4 से 6 पैसे प्रति किलोग्राम नमक बनाने की ही मिल रही है।

वैसे महात्मा गांधी ने जब नमक सत्याग्रह शुरु किया था तो साबरमती से दांडी तक की यात्रा के दौरान गांधी ने अक्सर नमक बनाने के दौरान मजदरो के शरीर पर पडते बुरे असर की तरफ सभी का ध्यान खींचा था। खासकर हाथ और पैर गलाने वाले हालात। इसके साथ ही नमक बनाने के काम से बच्चे ना जुडे इस पर महात्मा गांधी ने खासतौर से जोर दिया था। लेकिन किसे पता था कि महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के ठीक 84 बरस बाद जब राहुल गांधी नमक बनाने वालो के बीच पहुंचेंगे तो वहां बच्चे ही जानकारी देंगे कि उनकी पढ़ाई सीजन में होती है। यानी जिस वक्त बरसात होती है उसी दौर में नमक बनाने वालों के बच्चे स्कूल जाते हैं। यानी नमक बनाने में जिन्दगी बच्चे भी गला रहे हैं और राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी दोनों को यह सच अंदर से हिलाता नहीं है।

दरअसल, संकट मोदी या राहुल गांधी भर का नहीं है। या फिर कांग्रेस या बीजेपी भर का भी नहीं है। संकट तो उन नीतियों का है, जिसे कांग्रेस ट्रैक वन मानती है सत्ता में आने के बाद बीजेपी ट्रैक-टू कहकर अपना लेती है। फिर भी डा मनमोहन सिंह के दौर की आर्थिक नीतियों तले राहुल गांधी की जन से जुड़ने की यात्रा को समझे तो देश की त्रासदी कही ज्यादा वीभत्स होकर उभरती है। जिन आर्थिक नीतियों के आसरे देश चल रहा है, असर उसी का कि बीते दशक में 40 लाख से ज्यादा आदिवासी परिवारों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी। 2 करोड़ ग्रामीण परिवारों का पलायन मजदूरी के लिये किसानी छोड़कर शहर में हो गया। ऐसे में झरखंड के आदिवासी हो या बनारस के रिक्शा-खोमचे वाले। इनके बीच राहुल गांधी क्या समझने जाते हैं। इनका दर्द इनकी त्रासदी तो फिर मौजूदा वक्त में देश के शहरो में तीन करोड से ज्यादा रिक्शावाले और खोमचे वाले हैं। जिनकी जिन्दगी 1991 से पहले गांव से जुड़ी थी। खेती जीने का बड़ा आधार था। लेकिन बीते दो दशक में देश की नौ फीसदी खेती की जमीन को निर्माण या परियोजनाओं के हवाले कर दिया गया। जिसकी वजह से दो करोड़ से ज्यादा ग्रामीण झटके में शहरी मजदूर बन गये। ध्यान दें तो राहुल गांधी गुजरात जाकर या झारखंड जाकर किसान या आदिवासियों को रोजगार का विकल्प देने की बीत जिस तरह करते हैं, उसके सामानांतर मोदी भी गुजरात का विकास मॉडल खेती खत्म कर जमीन खोने वाले लोगों को रोजगार का लॉलीपाप थमा कर बता रहे हैं। कोई भी कह सकता है कि अगर रोजगार मिल रहा है तो फिर किसानी छोड़ने में घाटा क्या है। तो देश के आंकडों को समझें। जिन दो करोड़ किसानों को बीते दस बरस में किसानी छोड़कर रोजगार पाये हुये थे, मौजूदा वक्त में उनकी कमाई में डेढ सौ फीसदी तक की गिरावट आयी। रोजगार दिहाड़ी पर टिका। मुआवजे की रकम खत्म हो गयी।

कमोवेश 80 फीसदी किसान, जिन्होंने किसानी छोड शहरों में रोजगार शुरु किया उनकी औसत आय 2004 में 22 हजार रुपये सालाना थी। वह 2014 में घटकर 18 हजार सालाना हो गयी। यानी प्रति दिन 50 रुपये। जबकि उसी दौर में मनरेगा के तहत बांटा जाने वाला काम सौ से 120 रुपये प्रतिदिन का हो गया। और इन्ही परिस्थितियों का दर्द जानने के लिये राहुल गांधी शहर दर शहर भटक रहे हैं। और देश के हर रंग को समझने के सियासी रंग में वही त्रासदी दरकिनार हो गयी है, जिसने देश के करीब बीस करोड लोगों को दिहाड़ी पर जिन्दगी चलाने को मजबूर कर दिया है। और दिहाडी की त्रासदी यही है कि ईस्ट इडिया कंपनी के तर्ज पर देसी कंपनियां काम करने लगी हैं। और नमक के टीलों के बीच नमक बनाने वाले मजदूर भी हाथ गला कर सिर्फ पेट भरने भर ही कमा पाते हैं। तो 12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी साबरमती के आश्रम से नमक सत्याग्रह के लिये थे तो अंग्रेजों का कानून टूटा और 11 मार्च 2014 में जब राहुल गांधी गुजरात के सुरेन्द्रनगर पहुंचे तो कांग्रेस के चुनावी मैनिफेस्टो में एक पैरा नमक के दारोगा के नाम पर जुड़ गया। तो सियासत के इस सच को जानना त्रासदी है या इस त्रासदी को विस्तार देना सियासत हो चला है। और संयोग यही है कि 2014 का चुनाव इसी दर्द और त्रासदी को समेटे हुये हैं। जिसमें हम आप दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का तमगा बरकरार रखने के लिये महज वोटर हैं।

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Wednesday, March 12, 2014

संघ परिवार के पास हिंदू राष्ट्र का एजंडा है तो इसके जवाब में बाकी लोगों के पास क्या है? पलाश विश्वास ( साभार )


साठ के दशक के सिंडिकेट जमाने की राजनीति को याद कीजिये, देशभर में जबर्दस्त आंदोलन था,इंदिरा हटाओ।

जवाब में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाो का नारा दिया। महज हवाई नारा नहीं था वह।

एक सुनियोजित कार्यक्रम और उसे अमल में लाने की युद्धक राणनीति इंदिराजी के पास थी।

उन्होंने हक्सर से लेकर अर्थशास्त्री अशोक मित्र जैसे विशेषज्ञों की टीम की मदद से सुनियोजित तरीके से प्रिवी पर्स खत्म किया,राष्ट्रीयकरण की नीतियां लागू की और जब तक राज करती रही अप्रतिद्वंद्वी रहीं।


नेहरु वंश के उत्तराधिकार उनकी पूंजी हर्गिज नहीं थी। वे हालांकि नेहरु की लाइन पर ही भारत में सोवियत विकास माडल को लागू कर रहीं थीं।

तब चूंकि सोवियत संघ महाशक्ति बतौर वैश्विक घटनाओं और विश्व अर्थव्यवस्था में राजनीतिक,राजनयिक और आर्तिक विकल्प देने की स्थिति में था,इंदिरा जी को सोवियत माडल लागू करने में खास दिक्कत नहीं हुई।

उन्हें अमेरिकी खेमे की दखलांदाजी के जरिये अस्थिर किया जाने लगा तो उन्होंने लोकतांत्रिक तौर तरीके को तिलांजलि देकर तानाशाह बनने का विकल्प जो उनके और कांग्रेसी सियासत के अवसान का कारण भी बना।

फिर विश्वानाथ प्रताप सिंह ने भारतीय राजनीति को मंडल रपट लागू करके सत्ता समीकरण बदलने की क्रांतिकारी पहल जो की तो उसके मुकाबले कमंडल वाहिनी को हिंदुत्व के पुनरुत्थान की पृष्ठभूमि मिल गयी।

हिंदू राष्ट्र का एजंडा तब से लेकर अबतक एक निर्णायक एजंडा है,जिसे ग्लोबीकरण के एजंडा से जोड़कर संघ परिवार ने एक बेहद मारक प्रक्षेपास्त्र बना दिया।

हम भले ही हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ हों, हम भले ही मुक्त बाजार के खिलाफ हों,लेकिन न इंदिरा गांधी की तरह और न संघ परिवार की तरह हमारे पास कोई वैकल्पिक एजंडा,सुनियोजित रणनीति और मिशन को समर्पित विशेषज्ञ टीम है।

आगामी लोकसभा के परिप्रेक्ष्य में कारपोरेट इंडिया,वैश्विक ताकतों और मीडिया के तूफानी करिश्मे के बावजूद हकीकत यही है कि भारतीय राजनीति मे अपने एजंडे और विचारधारा के प्रति संघी कार्यकर्ता सौ फीसद खरा प्रतिबद्ध टीम है।

अब चाहे आप मोदी को हिटलर बता दें या हिंदुत्व के एजंडे को फासीवादी नाजीवादी साबित कर दें,भारत की मौजूदा परिस्थितियों में किसी परिवर्तन की उम्मीद नहीं है।

केसरिया सुनामी से महाविध्वंस से बचने का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है, न कोई एजंडा है और न कोई रणनीति जिससे हम व्यापक जनता को गोलबंद करके जनादेश को जनमुखी जनप्रतिबद्ध बना सकें।

पहले इस सत्य और सामाजिक राजनीतिक यथार्थ को आत्मसात कर सकें तो शायद कुछ बात बनें।

मसलन ममता बनर्जी जो रामलीली मैदान में कुर्सियों को संबोधित करती अकेली महाशून्य को संबोधित करती देखी गयीं,उसका मुख्य कारण वे चली तो थीं देश का प्रधानमंत्री लेकिन न उनके पास विचारधारा है,न कार्यक्रम, न युद्धक रणनीति और न ऐसी विशेषज्ञ विशेषज्ञ टीम जो विकल्प का निर्माण कर सकें।

इसी व्यक्तिकेंद्रित राजनीति के कारण ही सामाजिक और उत्पादक ताकतों के व्यापक गोलबंदी,छात्र युवाओं की विपुल गोलबंदी के बावजूद आम आदमी पार्टी अब भी हवा हवाई है और संघियों की बुलेट ट्रेन को रोकने लायक हिंदू राष्ट्र के एजंडे का मुकाबला करने लायक कोई एजंडा उनके पास नहीं है।

भारत का लोकतांत्रिक ढांचा एक व्यक्ति एक वोट के नागरिक अधिकार की नींव पर तो खड़ा है,लेकिन नागरिकों के सामाजिक आर्थिक राजनीतिक सशक्तीकरण का काम हुआ ही नहीं।

भारवर्ष में नागरिक सिर्फ वोट हैं और वोट के अलावा नागरिकता का न कोई वजूद है, न अभिव्यक्ति है।

जनगणना है,लेकिन जनगण नहीं हैं।

वियतनाम युद्ध हो या इराक अफगानिस्तान से वापसी का मामला हो,यह ध्यान देने लायक बात है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद को वैश्विक परिस्थितियों और चुनौतिों के मद्देनजर नहीं,अमेरिकी नागरिकों के प्रतिरोध आंदोलन की वजह से पीछे हटना पड़ा।

अमेरिका ने परमणु संधि पर दस्तखत किया,लेकिन उसे अमल में लाने के लिए संसद से पास कराना अनिवार्य था।

जबकि हमारे यह किसी शासकीय आदेश, केबिनेट के फैसले या राजनयिक कारोबारी समझौते का संसदीय अनुमोदन जरुरी नही है।

बायोमेट्रिक नागरिकता के सवाल पर इंग्लेंड में सरकार बदल गयी,लेकिन हमारे यहां बिना किसी संसदीय अनुमोदन के गैरकानूनी असंवैधानिक कारपोरेट आधार योजना बिना प्रतिरोध चालू रहा।

अब चुपके से आधार पुरुष भारतीय राजनीति के ईश्वर बनने की तैयारी में है।

नागरिकता और नागरिक आंदोलनों की अनुपस्थिति पर बहुत सारे उदाहरण सिलसिलेवार पेस किये जा सकते हैं। उसकी जरुरत फिलहाल नहीं है।

हम जिसे नागरिक समाज मानते हैं, उसमें,इलिट अभिजन उस आयोजन में  हाशिये के लोग,बहिस्कृत समुदायों के लोग और क्रयशक्ति हीन आम शहरी लोग कहीं नही हैं।

वे दरअसल जनांदोलन हैं ही नहीं, वैश्विक आर्थिक सस्थानों के प्रोजेक्ट मात्र हैं जो नख से सिख तक व्यक्ति केंद्रित हैं।

व्यक्ति केंद्रित राजनीति, व्यक्ति केंद्रित आंदोलन और व्यक्तिकेंद्रित विमर्श और एजंडा से बहुसंखय जनता के धर्मोन्माद का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

अगर हम कहीं मुकाबले में हैं,तो हमें सबसे पहले इस जमीनी हकीकत को समझ ही लेना चाहिए,जिसकी वजह से संघ परिवार इतना अपराजेय है और उसे चुनौती देनी वाली कोई ताकत मैदान में है ही नहीं।

अब तो रमलीला मैदान के फ्लाप शो से साबित हो गया कि संघ परिवार ने अपने एक्सन प्लान बी को समेट लिया है। संघ रिमोटित अन्ना फिर अराजनीतिक मोड में वापस।

दीदी बंगाल के अपने मजबूत जनाधार पर खड़ी होकर अपना जख्म चाटने के लिए और बंगाल में कांग्रेस और वामदलों पर भूखी शेरनी की तरह झपटने के लिए कोलकाता वापस।

दो मौकापरस्त लोगों के गठजोड़ की संघ परिवा र को जबतक जरुरत थी, उसका गुब्बारा खूब उड़ाया गया और फिर राष्ट्रीय मंच पर गुब्बारा में पिन।

संघी बर्ह्मास्त्र फिर तूण में वापस अगले वार के लिए। इस युद्ध नीति को समझिये।

संघ परिवार निजी और अस्मिता एजंडे के सारे चमकदार चेहरों और मसीहों को अपने में समाहित करने के लिए कामयाब इसलिए है कि उसको चुनौती देनेवाल कोई एजंडा है ही नहीं।

भारत में वर्ग और  जाति के घटाटोप में दरअसल निजी कारोबार ही चलाया जाता रहा है।

अंबेडकर ने अपने समूचे लेकन में जाति विमर्श से कोसों दूर रहे हैं। शिड्युल कास्ठ फेडरेशन की राजनीति के बावजूद वे डिप्रेस्ड क्लास की बात कर रहे थे और जाति को भी जन्मजात अपरिवर्तनीय वर्ग बता रहे थे।

इसके बावजूद जाति पहचान के आधार पर अंबेडकर विचारधारा और उनकी विरासत आत्मकेंद्रित वंशवादी,नस्ली, जाति अस्मिताओं के बहाने सत्ता चाबी बतौर इस्तेमाल हो रही है।

अंबेडकर  के जाति उन्मूलन एजंडे का कहीं कोई चिन्ह नहीं है।

इसी तरह वाम आंदोलन भी वर्चस्ववादी विचलन में भटक बिखर गया और कुछ कोनों को छोड़कर सही मायने में उसका कोई राष्ट्रीय वजूद है ही नहीं।

न वर्ग चेतना का विस्तार हुआ और न कहीं वर्ग संघर्ष के हालात बने।

फिर जाति को वर्ग बताने वाले समाजवादी लोग भी व्यक्ति केंद्रित पहचान ,अस्मिता और सत्ता में भागेदारी में निष्णात।

चूहे हमने ही पैदा किये हैं तो चूहादौड़ की इस नियति से क्षण प्रतिक्षण बदल रहे राजनीतिक समीकरण को आम जनता के बुनियादी मुद्दों से जोड़ने की हमारी आकांक्षा भी बेबुनियाद है।

हिंदू राष्ट्र का एजंडा सीधे बहुसंख्य जनता के धर्मोन्माद के आवाहन के सिद्धांत पर आधारित है जिसे अल्पसंख्यकों की कोई परवाह नहीं है।

वर्णवर्चस्वी नस्ली इस विचारधारा की खूबी यह है कि वह न जाति विमर्श में कैद है और न कोई वर्ग चेतना उसकी अवरोधक है।

इस संघी समरसता और डायवर्सिटी के मकाबले हम जाति,धर्म, क्षेत्र,वर्ग,भाषा जैसी हजारों अस्मिताओं में कैद उसके अश्वमेधी घोड़ों को रोकने का ख्वाब ही देख सकते हैं या कागद कारे ही कर सकते हैं,और फिलहाल कुछ भी संभव नहीं है।

बैलेंस जीरो है।

लेकिन शुरुआत कहीं न कहीं से तो करनी ही होगी।


इस जनादेश को हम बदलने की हालत में नहीं है।
ममता की दुर्गति से जाहिर है कि तमाम व्यक्ति विकल्पों की रेतीली बाड़ केसरिया सुनामी को रोकने में कामयाब होगी,ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।

तो आइये ,अभी से तय करे कि इस निरंकुश पुनरुत्थान के खिलाफ हमारा वैकल्पिक एजंडा क्या होगा और अस्मिताओं के तिलिस्म और आत्मघाती धर्मोन्माद के शिकार भारतीय जनगण को हम कैसे इस अशनिसंकेत के विरुद्ध मोर्चाबंद करेंगे।

जाति और वर्ग विमर्श में  हमारे लोग एक दूसर के दुश्मन हो गये हैं।
पूरे देश को एक सूत्र में बांधे बिना तमाम अस्मितओं को तोड़कर देश समाज जोड़े बिना फिलाहाल हिंदू राष्ट्र के अमोघ एजंडा से लड़ने के लिए कोई हथियार हमारे पास है ही नहीं।

                   
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...