Saturday, February 14, 2015

"सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी", - जो एलओसी पर नहीं हारा वह दिल्ली से हार गया...!!!-पुण्य प्रसून बाजपेयी

गुजरात के सीएम मोदी बदले तो लोकसभा की जीत ने इतिहास रच दिया और प्रधानमंत्री मोदी बदले तो दिल्ली ने बीजेपी को अर्स से फर्श पर ला दिया । दिल्ली की हार से कही ज्यादा हार की वजहों ने संघ परिवार को अंदर सी हिला दिया है । संघ उग्र हिन्दुत्व पर नकेल ना कस पाने से भी परेशान है और प्रधानमंत्री के दस लाख के कोट के पहनने से भी हैरान है। संघ के भीतर चुनाव के दौर में बीजेपी कार्यकर्ता और कैडर को अनदेखा कर लीडरशीप के अहंकार को भी सवाल उठ रहे हैं और नकारात्मक प्रचार के जरीये केजरीवाल को निशाना बनाने के तौर तरीके भी संघ बीजेपी के अनुकुल नहीं मान रहा है । वैसे असल क्लास तो मार्च में नागपुर में होने वाली संघ की प्रतिनिधिसभा में लगेगी जब डेढ हजार स्वयंसेवक खुले सत्र में बीजेपी को निशाने पर लेंगे । लेकिन उससे पहले ही बीजेपी को पटरी पर लाने की संघ की कवायद का असर यह हो चला है कि पहली बार संघ अपनी राजनीतिक सक्रियता को भी बीजेपी और सरकार के नकारात्मक रवैये से कमजोर मान रहा है। आलम यह हो चला है कि संघ के भीतर गुरुगोलवरकर के दौर का "एकचालक अनुवर्तित्व " को याद किया जा रहा है और मौजूदा बीजेपी लीडरशीप को कटघरे में यह कहकर खड़ा किया जा रहा है कि वह भी 1973 के दौर तक के "एकचालक अनुवर्तित्व " के रास्ते आ खडी हुई । जबकि देवरस के दौर से ही सामूहिक नेतृत्व का रास्ता संघ परिवार ने अपना लिया। यानी एक व्यक्ती ही सबकुछ की धारणा जब संघ ने तोड़ दी तो फिर मौजूदा लीडरशीप को कौन सा गुमान हो चला है कि वह खुद को ही सबकुछ मान कर निर्णय ले लें। संघ के भीतर बीजेपी को लेकर जो सवाल अब तेजी से घुमड रही है उसमें सबसे बड़ा सवाल बीजेपी के उस कैनवास को सिमटते हुये देखना है जो 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त बीजेपी को विस्तार दे रहा था। संघ के भीतर यह सवाल बड़ा हो चुका है कि बीजेपी नेताओं की पहचान सादगी से हटी है। मिस्टर क्लीन के तौर पर अन्ना और केजरीवाल की पहचान अभी भी है तो इनसे दूरी का मतलब इन पर नकारात्मक चोट करने का मतलब क्या है। 

संघ का मानना है कि दिल्ली में ही अन्ना और केजरीवाल का आंदोलन और आंदोलन के वक्त संघ के स्वयसेवक भी साथ खडे हुये थे लेकिन आज संघ इनसे दूर है लेकिन मौजूदा राजनीति में किसे किस तरह घेरना है क्या इसे भी बीजेपी समझ नहीं पा रही है । संघ विचारक दिलिप देवधर की मानें तो संघ के भीतर यह सवाल जरुर है कि उग्र हिन्दुत्व के नाम पर जो उंट-पटाग बोला जा रहा है उसपर लगाम कैसे लगे । और कैसे उन्हें बांधा जा सके। प्रधानमंत्री मोदी की मुश्किल यह है कि वह सीधे हिन्दुत्व के उग्र बोल बोलने वालो को खिलाफ सीधे कुछ बोल नहीं सकते क्योंकि संघ की ट्रेनिंग या कहे अनुशासन इसकी इजाजत नहीं देता है। अगर प्रधानमंत्री मोदी कुछ बोलेंगे तो विहिप के तोगडिया भी कल कुछ बोल सकते है । यानी नकेल सरसंघचालक को लगानी है और संघ उनपर नकेल कसने में इस दौर में असफल रहा है इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन दिल्ली को लेकर संघ का यह आंकलन दिल्चस्प है कि दिल्ली चुनाव में संघ की सक्रियता ना होती तो बीजेपी के वोट और कम हो जाते। यानी 2013 के दिल्ली चुनाव हो या 2014 के लोकसबा चुनाव या फिर 2015 के दिल्ली चुनाव। संघ यह मानता है कि तीनो चुनाव के वक्त संघ के स्वयंसेवक राजनीतिक तौर पर सक्रिय थे । और दिल्ली में 32-33 फिसदी वोट जो बीजेपी को मिले है वह स्वयंसेवकों की सक्रियता की वजह से ही मिले हैं। और उसके उलट केजरीवाल के हक में वोट इसलिये ज्यादा पड़ते चले गये क्योकि हिन्दुत्व को लेकर बिखराव नजर आया। साथ ही बीजेपी लीडरशीप हर निर्णय थोपती नजर आयी । यानी सामूहिक निर्णय लेना तो दूर सामूहिकता का अहसास चुनाव प्रचार के वक्त भी नहीं था । जाहिर है संघ की निगाहो में अर्से बाद वाजपेयी, आडवाणी,कुशाभाउ ठाकरे, गोविन्दाचार्य की सामूहिकता का बोध है तो दूसरी तरफ बीजेपी अध्यक्ष की मौजूदा कार्यकर्तातओ पर थोपे जाने वाले निर्णय है। खास बात यह है कि
केजरीवाल की जीत से संघ परिवार दुखी भी नहीं है । उल्टे वह खुश है कि कांग्रेस का सूपडा साफ हो गया और दिल्ली के जनादेश ने मौजूदा राजनीति में ममता,मुलायम , लालू सरीखे नेताओ से आगे की राजनीतिक लकीर खिंच दी । 

और चूंकि नरेन्द्र मोदी भी केजरीवाल की तर्ज पर सूचना क्रांति के युग से राजनीतिक तौर पर जोडे हुये है और केजरीवाल की पहुंच या पकड राष्ट्रीय तौर पर नही है तो बीजेपी के पास मौका है कि वह अपनी गलती सुधार ले । संघ की नजर दिल्ली चुनाव के बाद केजरीवाल को लेकर इतनी पैनी हो चली है कि वह बीजेपी को यह भी सीख देने को तैयार है कि मनीष सिसोदिया को उप-मुख्यमंत्री बनाकर अगर केजरीवाल आम आदमी पार्टी के विस्तार में लगते हो तो फिर दिल्ली को लेकर केजरीवाल को गेरा भी जा सकता है। यानी केजरीवाल को दिल्ली में बांध कर बीजेपी को राष्ट्रीय विस्तार में कैसे आना है और दिल्ली वाली गलती नहीं करनी है यह पाठ भी संघ पढाने को तैयार है । यानी बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढाने का सिलसिला गुरुवार से जो झंडेवालान में शुरु हुआ है वह रविवार और सोमवार को सरसंघचालक मोहन भागवत और दूसरे नंबर के स्वयसेवक भैयाजी जोशी समेत उस पूरी टीम के साथ पढ़ाया जायेगा जो मार्च के बाद कमान हाथ में लेगा। यानी अभी तक यह माना जा रहा था कि मोदी सरकार के बाद संघ हिन्दु राष्ट्र को सामाजिक तौर पर विस्तार देने में लगेगी लेकिन दिल्ली की हार ने बीजेपी और सरकार को संभालने में ही अब संघ को अपनी उर्जा लगाने को मजबूर कर दिया है। और बीजेपी लीडरशीप को साफ बोलने को तैयार है कि सुधर जाओ नहीं तो मुश्किल होगी ।
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                       लाइन आफ कन्ट्रोल पर खड़े होकर दुश्मनों का सामना भी किया। तब भी कोई परेशानी नहीं हुई। क्योंकि खुद तय करना था दुश्मनों से दो-दो हाथ करने कैसे हैं। 26/11 हमले के वक्त बतौर कमांडो मैदान में थे।आतंकियों को ठिकाने लगाने में भी कोई परेशानी नहीं थी  हर वक्त जान हथेली पर रखकर ही जिन्दगी जीने वाले सेना का यह कमांडो कभी थका नहीं। रुका नहीं। लेकिन दो दिन पहले दिल्ली में अस्पतालों के हाल ने इसकी रुह कंपा दी। स्वाइन फ्लू का नाम सुनकर मरीज से पहले अस्पताल में कैसी अफरा थफरी मच जाती है और मरीज के इलाज की जगह मरीज को अस्पताल से निकालने में ही अस्पताल का प्रशासन कैसे लग जाता है। उसके बाद दिल्ली के टॉप मोस्ट अस्पतालों की कतार में चाहे निजी अस्पताल हो या सरकारी। स्वाइन फ्लू के इलाज के लिये किसी के पास आईसीयू का बेड तो दूर सुरक्षा हेतु एन 95 किट तक नहीं हैं। और इन हालातों में सेना की वर्दी पहने कमांडो दिल्ली की सड़कों पर छह घंटे तक सिर्फ इसलिये भटकता है कि कही स्वाइऩ फ्लू से प्रभावित उसकी चाची का इलाज हो। सिर्फ एक बेड का इंतजाम कराने के लिये दिल्ली में किस किस के फोन कराने पड़ते हैं और जब बेड मिल जाता है तो इलाज नहीं मिलता। डाक्टर खुद बीमार है। नर्स भी मरीज है। और स्वाइन फ्लू के मरीज के लिये आईसीयू में वेंटिलेटर तक नहीं है। सबकुछ उसी दिल्ली में जिसे डिजिटल से लेकर स्मार्ट बनाने के सियासी नारे लग चुके हैं। दुनिया के नक्शे पर चमकता हुआ दिखाने का एलान हो चुका है। ऐसे में जो जवान कभी सीमा पर नहीं डिगा वह दिल्ली की बदहाली पर डिग गया।

यह सच दो दिन पहले 11 फरवरी का है। रोहतक में रहने वाली प्रेमा देवी की तबियत बिगड़ी। बेटे ने दिल्ली में अपने चचरे भाई को फोन किया। दिल्ली में तैनात सेना के इस कमांडो ने तुरंत पंजाबी बाद में महाराजा अग्रसेन अस्पताल में भर्ती की व्यवस्था की। प्रेमा देवी को आईसीयू में भर्ती कराया गया। इलाज शुरु हुआ। जांच में जैसे ही एच 1एन1 पाजिटिव पाया गया वैसे ही अस्पताल में अफरा तफरी मच गई। अस्पाताल वालों ने तुरंत प्रेमा देवी को कही और शिफ्ट करने को कहा। दोपहर के दो बजे बकायदा अस्पताल ने अल्टीमेटम दे दिया कि आप मरीज को ले जायें। अन्यथा मुश्किल हो जायेगी । और फिर शुरु हुआ अस्पताल दर असपताल भटकने का सिलसिला। दिल्ली के टॉप मोस्ट निजी अस्पतालों का दरवाजा खटखटाया गया। एक्शन बालाजी। मूलचंद अस्पताल । सेंट स्टीफेन्स अस्पताल। अपोलो और सर गंगाराम अस्पताल। हर जगह से एक ही जबाब मिला कि आईसीयू में बेड खाली नहीं है। हर तरह से कोशिश शुरु हुई। कहीं किसी के कहने से कोई बेड मिल जाये। लेकिन नहीं मिला। फिर सरकारी अस्पतालो के भी चक्कर लगने शुरु हुये। सफदरजंग अस्पताल। सुचेता कृपलानी अस्पताल। एयरपोर्ट अस्पताल। हिन्दुराव अस्पताल। जीटीबी । लोकनायक अस्पताल। 

कहीं आईसीयू में बेड नहीं मिला। रात के आठ बजे तो जवान ने राष्ट्रपति भवन में तैनात अपने सहयोगी को सारी जानकारी बतायी। तो किसी तरह व्यवस्था कर कहा गया कि आरएमएल अस्पताल में जानकारी दे दी गई है। वहा बेड मिल जायेगा। बेड कैसे मिलेगा । इसकी जानकारी अस्पताल के भीतर किसी को नहीं थी। बेड का मतलब था खुद ही खाली बेड देख कर मरीज को लेटा दें। वर्दी में जवान को देखकर अस्पताल में एक नर्स ने बताया कि रिसेप्शन पर जाकर कहां पर्ची भरनी है और मरीज को लाकर बेड पर लेटा देना है। स्वाइन फ्लू से तड़पती प्रेमा देवी अस्पताल के पार्किग में खडी एंबुलेन्स में थी । उन्हें खुद ही उठा कर लाया गया। लिटाया गया । लेकिन आईसीयू में बिना एम95 किट के जायें कैसे। तो जबाब मिला । रुमाल बांध कर चले जाईये । अंदर कई बेड खाली थे। लेकिन इलाज नादारद था। स्वाइन फ्लू वार्ड में तैनात एक डॉक्टर और दो नर्स बीमार थीं। तो कोई देखने वाला नहीं था। स्वाइन फ्लू का सीधा असर सांस लेने पर पड़ता है। लेकिन आईसीयू में वेंटिलेटर तक नहीं था। इस बीच तीन मरीज और पहुंचे । लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने कहा बेड खाली नहीं है । चाहिये तो ऊपर से कहला दीजिये। जवान यह सुन अंदर से हिल गया । देश के लिये अपनी जान पर खेलने वाले जवान को समझ नहीं आया कि बेड है लेकिन इलाज नहीं। और बिना इलाज के बेड मिल जाये इसका सुकून भी उपर से कोई फोन कर देगा। उसने सवाल करने शुरु किये । तो वर्दी देखकर जबाब तो किसी ने नहीं दिया लेकिन मरीजों को जगह भी नहीं दी। सिर्फ बेड पर लिटा कर आईसीयू का असर यह हुआ कि दो घंटे बाद करीब साढे दस बजे कार्डिक अरेस्ट हुआ। उसे बाद लंग्स फेल हुये। फिर लीवर फेल हुआ । और इस दौर में जांच के लिये इधर उधर भागते-हाफ्ते में रात के एक बज गये। डेढ़ बजे नर्स ने डाक्टर से जानकारी हासिल कर परिजनों को बताया कि प्रेमा देवी नहीं रहीं। लेकिन उनकी मौत स्वाइन फ्लू से हुई है तो वायरस इनके शरीर में है इसलिये खुली बॉडी ले जाना ठीक नहीं है। और तुरंत अंतिम संस्कार करना ही होगा। नही तो शरीऱ के नजदीक आने वाले किसी के भी शरीर में वायरस जा सकते हैं। रोहतक से चली प्रेमा देवी को जिसने भी 10 फरवरी की रात या कहें 11 फरवरी की सुबह देखा और एंबुलेंस में लेट कर दिल्ली ठीक होने के लिये पहुंची प्रेमा देवी का शरीऱ गठरी की तरह एयर टाइट कर 12 फरवरी की तड़के जब रोहतक पहुंचा तो किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि चौबीस घंटे के भीतर दिल्ली ने इलाज की जगह मौत कैसे दे दी। और तड़के ही अंतिम संस्कार की तैयारी करनी पड़ी। उसी तरह जैसे अस्पताल से बॉडी बांध कर दी गई थी। यानी स्वाइन फ्लू से मरे मरीज को जिसने भी सुना वह स्वाइन फ्लू का नाम सुनकर ही खौफजदा हो गया। दिल्ली में इलाज के नाम पर कैसे क्या हुआ इसे ना बेटे ने ना ही भतीजे ने गांव में किसी को बताया। दिल्ली को लेकर मोह भंग अभी भी किसी का हुआ नहीं है। रोहतक के दो और जिंद के तीन स्वाइन फ्लू के मरीज कल और आज भी दिल्ली पहुंचे। सेना का जवान अब एक ही सवाल कर रहा है कि जब दिल्ली का यह हाल है तो देश का क्या होगा। जहां मरने के लिये वातावरण तैयार किया जा रहा है। इस बीच देश भर में स्वाइन फ्लू से मरने वालों की संख्या चार सौ दस पार कर चुकी है। और प्रधानमंत्री ने विश्व कप क्रिकेट खेलने वाले देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बधाई दी है।


जय श्री राम !!!!

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पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Thursday, February 12, 2015

"क्या प्रदेश भाजपा के बड़े नेता ,सन्गठन का एक्सरे कर पाएंगे"?? - पीताम्बर दत्त शर्मा ( लेखक-विश्लेषक )09414657511

भारत के प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंदर मोदी जी 19 फ़रवरी 2015 को "कॉटन-सिटी सूरतगढ़ " में पधार रहे हैं ! इस कार्यक्रम में क्या होगा ये तो आपसब पाठकों को समाचार-पत्रों से ज्ञात हो गया होगा या हो जायेगा ! मैं अपने लेख में भाजपा की कुछ कड़वी सच्चाइयाँ बताना चाहूंगा ! क्यों कि भाजपा के सदस्य्ता अभियान को भी ये बड़े नेता देखेंगे !ये सब सच्चाई जानना चाहेंगे याफिर वो देखेंगे जो इनको यहां के नेता दिखाना चाहेंगे ! श्रीगंगानगर जिले में श्रीमान अरुण चतुर्वेदी,राजेंदर सिंह राठोड, सरदार महेंदर सिंह सोढ़ी और डॉक्टर राम प्रताप आदि भाजपा कार्यकर्ताओं की बैठकें लेंगे! मुझे इनमे से किसी की कार्यक्षमता पर कोई सन्देह नहीं है ! अगर ये चाहें तो कार्यकर्ताओं से चर्चा करके असलियत बाहर निकाल सकते हैं !
       जनसँख्या बढ़ने के कारण सदस्य्ता अभियान का लक्ष्य तो नवागुन्तकों से ही पूरा हो जायेगा इसमें कोई शक नहीं है ! लेकिन वो कार्यकर्त्ता जो पुराने हैं ,लेकिन कोई किसी नेता का मारा हुआ है तो कोई किसी के !कइयों ने तो प्रण भी ले लिया है कि सन 2015 से राजनीति से सन्यास लेना बेहतर होगा ! ऐसा इसलिए है ,क्योंकि अगर कोई कार्यकर्त्ता किसी नेता की बैठक में कमियाँ गीता है तो लगता है कि ये सब कोई दूसरा बड़ा नेता करवा रहा है !और अगर तारीफ़ कर दी जाए तो वो करतकर्ता तारीफ़ करने वाले नेता का चमचा कहलाने लगता है !इस लिए मैं यहां ना तो किसी नेता की तारीफ़ करूँगा और ना ही किसी का विरोध !मैं तो केवल सच ही लिखूंगा !
          अगर माननीय नेता गण वास्तव में पार्टी और संगठन को मजबूत बनाना चाहते हैं , और ये दिल्ली चुनावों परिपेक्ष्य में आवश्यक भी है !तो उन्हें पार्टी की बैठकों में निम्न जांच करनी चाहिए !
1. 1985 से लेकर 2013 तक के कितने सदस्य विराजमान हैं ?
2. सालाना 1000 /- रु. से ज्यादा का पार्टी सहायता कूपन लेने वाले कितने सदस्य मौजूद हैं ?
3. पुराने पार्षद कितने बैठक में हाज़िर हैं ?
4. पूर्व पदाधिकारी कितने आये हैं ?
5. जो नहीं आये , उनको संपर्क कर बुलाया जाये तथा अलग से उनके विचारों को सुना जाये ! 
6. उनमेसे जो दोबारा सक्रिय होना चाहे उसे पार्टी में उचित स्थान देकर पार्टी हिट में वापिस लाया जाए !
7. नगर पालिकाओं, पंचायतो और जिला परिशदों की बैठकों का एजेंडा पार्टी की मीटिंग में ही तय होना चाहिए !नगर मंडल,देहातमण्डल और जिलाध्यक्ष की निगरानी में ही पार्षद और डाइरेक्टर अपनी रणनीति तैयार करें !
           अगर इन बिंदुओं के साथ-साथ और भी सुझावों को लेकर सदस्य्ता अभियान पूरा किया जायेगा , नए मंडलाध्यक्ष - जिलाध्यक्ष नियुक्त किये जायेंगे तो आने वाले चुनावों में भाजपा को जीत मिल पाएगी , अन्यथा जो जिले में मौजूदा विधायक और संसद सदस्य हैं या फिर आगामी दावेदार हैं , वो जीत नहीं पाएंगे !सूरतगढ़ में तो अभी से ही जागरूक नागरिकों द्वारा किसी नए प्रतिभावान शख्सियत की तलाश की जाने लगी है विधायक पद हेतु !क्योंकि जिला श्रीगंगानगर में पिछले 15 वर्षों से जितना पार्टी को नुक्सान पार्टी पदाधिकारियों ने पंहुचाया है उतना विपक्षी दलों ने भी नहीं पंहुचाया होगा !
          मेरा एक पुराने कार्यकर्ता होने के कारण बड़े नेताओं से अपील है की माननीय मोदी जी और माननीय मुख्यमंत्री जी के स्वागत सत्कार में भी कोई कमी नहीं आनी चाहिए !और पार्टी को मजबूत बनाने हेतु भी मन लगाकर बैठकें लेवें !! एक-दो- नहीं बल्कि किसी बड़े मंत्री या संगठन पदाधिकारी को हर मंडल की हर माह बैठक बुलानी चाहिए ! उन बैठकों में नेता बोलें कम और सुने ज्यादा , तो कुछ सुधार हो सकता है ! इसी में आम जनता की भी भलाई छुपी है !नहीं तो ये बैठकें भी केवल मात्र औपचारिकताएं भर ही रह जाएँगी ! फिर मत कहना कि बताया नहीं था !!पार्टी का संगठन I.C.U.में चला गया है ! शल्य-चिकित्सा आवश्यक है !
              



            जय श्री राम !!!!

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Wednesday, February 11, 2015

मार्केटिंग तकनीक से खड़े किए गए जन-आंदोलन !!- (आनंद राजाध्यक्ष जी का एक और अदभुत विवेचन)


मुझे यकीन है कि आप इस पोस्ट को  पूरा पढेंगे,  लेकिन आप को पहले ही बता दूँ कि यह पोस्ट लम्बी है. पढ़ने में ५ मिनट लेगी और सोचने में १० . इसीलिए अगर आप इसे न पढ़ना चाहें तो आप से अनुरोध है कि इसे SHARE करते जाएँ, औरों को भी काम आ सकता है . 
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आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता के विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान है और कठिन भी. कठिन इसलिए है कि आप को बहुत सारा पैसा लगेगा.  ये काम में सहयोगी लगेंगे और वे भी फुल टाइमर. हज़ारों की संख्या में कार्यकर्ता भी लगेंगे, फुल टाइमर.  उनकेpayment का प्रबंध आप को करना होगा.


मान लेते हैं कि यह हो गया. कैसे, ये बताया जायेगा, लेकिन फिलहाल देखते हैं कि आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान क्यूँ है.  यह जन आन्दोलन कैसे चलाया जाए, अन्य देशों में कैसे चलाया गया, यह सब विस्तृत स्टेप by स्टेप जानकारी उपलब्ध है ही और वो भी बाकायदा “course module” के तर्ज पर ! तो चलें देखते हैं कि ये कैसे हो सकता है.
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लेकिन उस से भी पहले PG Wodehouse का एक चुटकुला सुनिए. सम्बन्ध अपनेआप समझ में आ ही जाएगा. होता यूँ है कि एक रौबदार व्यक्तिमत्ववाला पुख्ता उम्र का सजा संवरा व्यक्ति, जहाँ भी जाता है, खुद पहल कर जो भी मिले उस से बात छेड़ता है. उसकी opening line एक ही होती है, “How are you keeping, my dear? And how's the old complaint?" इस आदमी  के साथ किस्सा बयान करनेवाला अपना नायक खड़ा है, और अचंभित है कि किस कदर अनजान लोग इस आदमी के सामने अपने दिल के राज खोल देते हैं. ये पांच दस मिनिट के लिए सुन लेता है, सांत्वना देता है और फिर बहुत ही आराम से अपना काम उनसे करवा लेता है. काम वैसे बहुत मुश्किल नहीं होते, लेकिन जाहिर है कि ऐसे ही किसी अनजान व्यक्ति के लिए यूँही नहीं किये जाते. अंत में ये व्यक्ति अपनी कामयाबी का राज बता देता है... हर किसी को कोई न कोई तकलीफ होती है, और उस से भी बड़ी तकलीफ ये होती है कि कोई सुननेवाला नहीं होता.... बस, काम ऐसे ही होते हैं, समझे?
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तो भाई, आप के पास दो लडके और एक लड़की भी आती है. स्मार्ट से हैं, अच्छी इंग्लिश बोल लेते हैं लेकिन आप से तो बिलकुल शालीनता से हिंदी में बात करते हैं. आप से एरिया की समस्याएं के बारे में पूछते है.  क्या समस्याएं हैं, कोई इलाज होता भी है या नहीं, कोई आप की सुनता भी है या नहीं, इत्यादि.
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आप को बता दूँ, हर कोई सरकार से हमेशा नाराज ही रहता है. सरकार को गाली देना लोगों के लिए रोज का  टाइमपास  है. लेकिन सोचिये, यही लोग अगर चार महीने में आप को दस बार मिले, तो एक सम्बन्ध बन जाता है. और अगर आप को अपने प्रॉब्लम को हल करने के लिए कोई ख़ास तकलीफ नहीं, बस इनके सुझाये लोगों को वोट देना है, तो बात मन में उतर जाती है, क्योंकि बहुतही लॉजिकल तरीकेसे समझाई जाती है, वो भी हंसते हंसते शालीनता से और मिठास से. और साथ साथ और भी ऐसे रोजमर्रा के प्रोब्लेम्स का जिक्र होता है और आप का वोट इन सब मर्ज की दवा बताई जाती है.... अब आप ही बताएं, जो पक्ष की टोपी पहनकर बतौर कार्यकर्ता आप के घर आये – क्या  आप उनकी इतनी सुनेंगे?


चलिए, अब लेते हैं दूसरे मुख्य मुद्दे को, कि यह सब करने के लिए जो संसाधन जुटाने होंगे, उसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे?  इसका भी उत्तर है अगर आप राजनीति से हट कर marketing के  ढंग से सोचें. निवेश के लिए उद्योगपति अपनी योजना ले कर ऐसी संस्थाओं के पास जाता है जिन्हें उस योजना में अपना लाभ दिखाई दे, तो वे निवेश करें. आप उन्हें पूरा प्रोजेक्ट रिपोर्ट दें, आप क्या करेंगे, कैसे करेंगे, सब समझा दें. कुछ सुझाव वे भी देंगे, जो आप मानेंगे अगर उतने बड़े निवेश करनेवाले दूसरे आप के पास न हों.  और एक बात है. उद्योजक के अक्ल पर निवेशक को विश्वास है तो खुद भी चले आते हैं कि उसके काम में वे अपने लाभ के लिए पैसे लगायें.
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अब ये योजना है सरकार बदलने की तो आप सोचिये इसके लाभार्थी कौन हो सकते हैं?

१ बाहरी देश जो टार्गेट देश का महत्व कम करना चाहते है, उसकी प्रगति रोकना चाहते हैं वे चाहेंगे कि अगर सरकार पलट दी गई या उसको करारा धक्का दिया गया तो उसके विकास में अवरोधना पैदा होगी. वैसे वे तो सामने नहीं आयेंगे तो बात और अच्छी है. सरकारी तौर पर सम्बन्ध भी नहीं बिगड़ेंगे और डायरेक्टली involve भी नहीं होंगे. दामन बेदाग़ ! सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे ....

२  वे सभी संस्था जिन्हें विद्यमान सरकार की नीतियों से तक़लीफ़ हो रही हो. यहाँ ये बात नहीं कि संस्था का कार्य राष्ट्रहित में है या नहीं. सरकार का हस्तक्षेप अगर संस्था हित में खलल पैदा करता है तो वो संस्था सहकार्य करेगी. Money power , man power, जो बन पड़े.

३  अन्य राजनीतिक दल जिनका भी विद्यमान सरकार को बदलनेका अजेंडा हो. उनकी सहाय्यता विविध रूप ले सकती है; जैसे कि सिर्फ सरकार पक्ष के वोट काटने के लिए दुर्बल प्रत्याशी खड़े करें, कोई जगह न ही करें और अपने निष्ठावान मतदाताओं को समझाये कि किसे वोट देना है.

४  अगर सरकार पक्ष को किसी विशिष्ट विचारधारा या धर्म से जोड़ दिया जाए तो बाकी सारे संप्रदायोँ से उनके विरोध में समर्थन की मांग की जा सकती है ये तो आप समझ ही गए होंगे...

५   प्रवासी जन समुदायों को उनके मूल स्थानों से संदेसे आने की व्यवस्था की जा सकती है, विशेषकर अगर उन स्थानों के शासक भी इस सत्ता परिवर्तन में अपना लाभ देखते हों. Money power , man power, जो बन पड़े वाला नियम यहाँ भी पुरजोश लागू होता है.


ये तो हुई मार्केटिंग बाहरवाले निवेशकों को. याने पैसो का इंतजाम हो जाता है, man power का भी. लेकिन इस योजना में स्थानिक जनता का ही मुख्य रोल है तो जनता को अपने तरफ मोड़ना है. इसमें भी अलग अलग तरीके काम आते हैं.

अ) अगर उन्हें लगे कि उनके तकलीफों का इलाज आप कर सकते हैं 

ब)  सरकार प्रति रोष – जायज / नाजायज से मतलब नहीं, जो वोट दे सकता है  वो अपना है . नाराज सरकारी कर्मचारी इसमें गिने जा सकते हैं. अवैध निवासी, अवैध हॉकर इत्यादि भी आपके पास आयेंगे अगर आप में  उन्हें एक  तगडा पर्याय दिखें.

क)  सीधा प्रलोभन – मुफ्त , या साथ में वोट के लिए कॅश / वस्तू, दारु....
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हो गया मार्केटिंग पूरा . पहले संस्थात्मक निवेशकों को issue बेच दिया, बाकी public को ...हो गया over subscribe ! आसान नहीं है  ये सब पापड बेलना , लेकिन जिन्हें कुछ करने की जिद होती है वे कुछ भी कर जाते हैं. कुछ भी .... इमानदारी, राष्ट्रहित, कोई मायने नहीं रखता ....
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तो ये एक अनदेखा पहलू . ख़ास कर के लम्बे समय तक सर्वे से सेल्समन से कार्यकर्ता तक का, उसके लिए लगनेवाले हजारों ट्रेंड लोगों का जिनका कहीं रिकॉर्ड ही नहीं क्यूंकि वो सब जिम्मा आप के इन्वेस्टर उठाते है.  जहाँ से आये, चले गए... सम्प्रदायिक वोटरों को संभालने उनके रहनुमाँ, राहबर और shepherds, उनके ही खर्चे से ... वे भी इन्वेस्टर... प्रवासी वोटरों को आप के साथ जोड़ने के लिए उनके मूल राज्यों से भेजे गए लोग –सब बतौर इन्वेस्टमेंट !  न आपको  खर्चा उठाना है, न आपको कोई रिकॉर्ड रखना, और ना ही कहीं रिकॉर्ड  दिखेगा ....


इन सब ऑफ द रिकॉर्ड ताकतों का प्रभाव तो दिखाई देगा ,  लेकिन अस्तित्व नहीं.  नतीजा ये कि ये आभास सफलता से बनाया जा सकता है  कि ये  दीये की  तूफ़ान से लड़ाई हैये दिया नहीं, मुल्क को राख कर देनेवाला दावानल है ये अंदाजा शायद बहुतों को आता  ही नहीं, और जिन्हें समझ आता है  वे बताते नहीं हालांकि बताना ही उनका धर्म और कर्म है. शायद वे मुद्दा क्र. २ में अंतर्भूत हैं...
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बाकी काफी बातें तो आप पढ़ ही रहे हैं.  और आप ने अगर देखा होगा तो इस आलेख में कोई भी नामनिर्देश नहीं है.  आप चाहें तो इसे परिकल्पना समझ सकते हैं.
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इतनी लम्बी पोस्ट पढ़ने का शुक्रिया, शेयर करने का अनुरोध तो है.... 



जय श्री राम !!!!

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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...