जोश-हंगामा, खामोशी-सन्नाटा और उम्मीद । दिल्ली के 11 अशोक रोड पर मौजूद बीजेपी हेडक्वार्टर का यह ऐसा रंग है जो बीते दो बरस से भी कम वक्त में कुछ इस तरह बदलता हुआ नजर आया । जिसने मोदी की चमक तले अमित शाह की ताकत देखी । तो जोश-हंगामा दिखा । फिर सरकार की धूमिल होती चमक तले अमित शाह की अग्निपरीक्षा के वक्त खामोशी और सन्नाटा देखा । और अब एक उम्मीद के आसरे फिर से अमित शाह को ही प्रधानमंत्री मोदी का सबसे भरोसेमंद-जरुरतमंद अध्यक्ष के तौर पर नया कार्यकाल मिलते देखा । तो क्या सबसे बडी सफलता से जो उड़ान बीजेपी को भरनी चाहिये थी वह अमित शाह के दौर में जमीन पर आते आते एक बार फिर बीजेपी को उड़ान देने की उम्मीद में बीजेपी की लगाम उसी जोडी के हवाले कर दी गई है । जिसके आसरे बीजेपी ने 16 मई 2014 को इतिहास रचा था । इतिहास रचने के पीछे मनमोहन सिंह की सत्ता का वह काला दौर थाि जिससे जनता नाखुश थी । लेकिन अब इतिहास संभालने का दौर है जब सत्ता भी
है । सबसे बडा संगठन भी है । सबसे बडी तादाद में पार्टी सदस्य भी है । फिर भी उम्मीद की आस तले भविष्य की हार का भय है। क्योंकि जीत के दौर में चुनावी जीत ही अमित शाह ने पहचान बनायी । और हार के दौर में कौन सी पहचान के साथ अगले तीन बरस तक अमित शाह बीजेपी को हांकेंगे यह सबसे बड़ा सवाल है । क्योंकि अगले तीन बरस तक मोदी का मुखौटा पहन कर ना तो बीजेपी को हांका जा सकता है और ना ही मुखौटे को ढाल बनाकर निशाने पर आने से बचा जा सकता है । तो असल परिक्षा अमित शाह की शुरु हो रही है । जहा संगठन को मथना है । नीचे से उपर तक कार्यकर्ताओं को उसकी ताकत का एहसास करना है और ताकत भी देनी है। दिल्ली की डोर ढीली छोड़ कर क्षेत्रीय नेताओं को उभारना भी है ।
स्वयंसेवकों में आस भी जगानी है और अनुभवी प्रचारकों को उम्र के लिहाज से खारिज भी नहीं करना है । और पहली बार मोदी की ताकत का इस्तेमाल करने की जगह मोदी को सरकार चलाने में ताकत देना है । तो क्या 2015 में दिल्ली और बिहार चुनाव में हार के बाद क्या वाकई अमित शाह के पास कोई ऐसा मंत्र है जो 2016 में बंगाल, असम,तमिलनाडु,केरल तो 2017 में यूपी, पंजाब और गुजरात तक को बचा लें या जीत लें । यह मुश्किल काम इसलिये है क्योंकि देश में पहली बार गुजरात माडल की धूम गुजरात से दिल्ली के क्षितिज पर छाये नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने ही गुनगुनाये । और मोदी के दिल्ली पहुंचते ही गुजरात में ही गुजरात के पाटीदार समाज ने गुजरात माडल को जमीन सूंघा दी । फिर दिल्ली की नई राजनीति और बिहार की पारंपरिक राजनीति के आगे वही बीजेपी हारी ही नहीं बल्कि नतमस्तक दिखी जो वैकल्पिक सपनों के साथ 2014 में इतिहास रच कर जनता की इस उम्मीद को हवा दे चुकी थी कि जाति-धर्म से इतर विकास की राजनीति अब देश में फलेगी-फुलेगी । लेकिन गरीब-पिछडों को ताकत देने के बदले इनकी कमोजरी-बेबसी को ही चुनावी ताकत बनाने की कोशिश इस स्तर पर हुई कि देश को प्रधानमंत्री की जाति के आसरे बीजेपी की चुनावी रणनीति देखने समझने का मौका मिला । लेकिन मुश्किल जीत के इतिहास को सहेजने भर की नहीं है । मुश्किल तो यह है कि उत्तर भारत के राजनीतिक मिजाज की जटिलता और पूर्वी भारत की सासंकृतिक पहचान को भी सिर्फ संगठन के आसरे मथा जा सकता है । क्योंकि पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ र जनीतिक तौर पर सक्रिय होने में गर्व महसूस करने लगा है। पहली बार राजनीतिक सत्ता के करीब स्वयसेवकों में आने की होड़ है क्योंकि सारी ताकत राजनीतिक सत्ता में ही सिमट रही है । पहली बार जनसंघ के दौर से भारतीय राजनीतिक मिजाज के समझने वाले स्वयंसेवक हो या प्रचारक या फिर संघ से निकल कर बीजेपी में आ चुके नेताओं की कतार वह महत्वहीन माने जा रहे हैं। और अनुभवों ने ही जिस तरह राष्ट्रीय स्वयसेवक को विस्तार दिया अब वही संघ सत्ता की अनुकूलता तले अपना विस्तार देख रहा है । यानी सत्ता पर निर्भरता और सत्ता में बने रहने जद्दोजहद के दौर में अमित शाह को दोबारा बीजेपी अध्यक्ष बनाया जा रहा है तो वह अध्य़क्ष की कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता और मोदी की कार्यशौली को समझने का हुनर है । तो सवाल यह भी होगा कि क्या वाकई गुजरात से दिल्ली पहुंचकर मोदी से तालमेल बैठाकर पार्टी चलाने वाले सबसे हुनरमंद अब भी गुजरात से दिल्ली आये अमित शाह ही हैं । और संघ परिवार मौजूदा वक्त सत्ता, सरकार , संगठन , पार्टी हर किसी
के केन्द्र में प्रदानमंत्री मोदी को ही मान रहा है । यानी विचारों के तौर पर जो संघ परिवार जनता से सरोकार बैठाने के लिये सरकार पर बाहर से दबाब बनाता था वह भी वैचारिक तौर पर सत्ता को ही महत्वपूर्ण मान रहा है । तो अगला सवाल है कि क्या विदेशी पूंजी के निवेश के आसरे विकास की सोच । किसानो की जरुरतो को पूरा करने के लिये बीमा और राहत पैकेज । दुनिया में भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार के तौर पर बताने की समझ । संवैधानिक संस्थानों से लेकर न्यायपालिका और राज्यसभा तक की व्याख्या सत्तानुकूल करने की सोच । पड़ोसियों के साथ दूरगामी असर के बदले चौकाने वाले तात्कालिक निर्णय । और इन सबपर आरएसएस की खामोशी और बीजेपी की भी चुप्पी । यानी समाज के भीतर चैक-एंड-बैलेस ही नहीं बल्कि वह तमाम संगठन जो अलग अलग क्षेत्र में काम भी कर रहे है तो फिर उनके होने का मतलब क्या है । और मतलब है तो फिर क्या सत्ता में रहते हुये स्वयंसेवक के पैसले और संघ के स्वयंसेवक के तौर पर स्वदेशी जागरण मंच , किसान संघ, आदिवासी कल्याण संघ , भारतीय मजदूर संघ की सोच भी एक सरीखी मान ली गई या सत्ता बनी रहे इसलिये दबायी जा रही है ।
असल में यह सवाल देश के लिये इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलो की समझ व्यापक होना देश के ही हित में होता है । और बीजेपी के पास संघ परिवार सरीखा ऐसा अनूठा सामाजिक संगठन है जिसके स्वयंसेवक हर मुद्दे पर देश की नब्ज पकडे रहते है । लेकिन सभी एक ही लकीर पर एक ही बिन्दु के इर्द-गिर्द घुमड़ने लगे तो फिर रास्ता चाहे अनचाहे उस मूल को पकड़ेगा जिसके आसरे संघ परिवार बना । यानी हिन्दू राष्ट्र की सोच हर निर्णय के बाद डगमगाते हुये राजनीतिक सत्ता के लिये भी ढाल का काम करेगी और पार्टी के लिये भी हथियार बनेगी । और संघ परिवार सामाजिक सासंकृतिक संगठन होते हुये भी हमेशा राजनीतिक नजर आयेगा या बीजेपी राजनीतिक पार्टी होते हुये भी आरएसएस के राजनीतिक संगठन के तौर पर ही काम कर पायेगी । ध्यान दें तो हो यही रहा है । बीजेपी का अध्यक्ष अमित शाह को दोबारा बनाना चाहिये की नहीं इसपर जलगांव में 6 से 8 जनवरी तक संघ परिवार के प्रमुख स्वयंसेवक ही चिंतन करते है । चिंतन के बाद 17 जनवरी को सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल प्रधानमंत्री मोदी को जानकारी देते है । उनकी राय लेते है । और प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति या इच्छा मान कर 18 जनवरी को कृष्णगोपाल बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से मिलते है , उन्हें खुशखबरी देते है । चुनौतियों का सामना करने में अमित शाह के साथ संघ परिवार भी खड़ा है , इसका भरोसा देते है ।फिर 19 जनवरी को अमित शाह से रुठे मुरली मनोहर जोशी
और लालकृष्ण आडवाणी से मिलते है । जोशी और आडवाणी की तंज भरी खामोशी को अनदेखा करते है । और अनुभवी पीढी को मोदी के सामने चुकी हुई पीढी करार दिये जाने पर संघ परिवार खामोशी बरतता है । और 20 जनवरी को 11 अशोक रोड पर यह सूचना चस्पा कर दी जाती है कि 24 जनवरी को सुबह 10 से दोपहर एक बजे तक अध्यक्ष पद के लिये नामांकन होगा । एक से डेढ बजे तक नाम वापस लेने और जांच का काम होगा । और
जरुरी हुआ तो 25 को चुनाव होगा । यानी समूची कवायद संघ परिवार के आसरे प्रधानमंत्री मोदी को केन्द्र में रखकर अगर बीजेपी अध्यक्ष की जरुरत समझी जाती है तो सवाल तीन है । क्या बीजेपी राजनीतिक दल नहीं बल्कि संघ परिवार का राजनीतिक संगठन मात्र है । क्या मौजूदा राजनीतिक शून्यता में संघ परिवार राजनीतिक हो रहा है ।
क्या राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ हो चुकी है । यानी जिसके पास सत्ता तक पहुंचने या सत्ता पर बने रहने के मंत्र है वहीं सबसे ताकतवर हो चुका है । और उसी अनुकुल समूची कवायद मौजूदा राजनीतिक सच है । अगर हा तो फिर चुनाव जीतने के तरीके अपराध, भ्र्ष्ट्रचार और कालाधन के नैक्सस से कैसे जुडे है इसपर तो नब्बे के दशक में ही वोहरा कमेटी की रिपोर्ट अंगुली उठा चुकी है । यानी देश का रास्ता उसी चुनावी व्यवस्था पर टिक रहा है जिसे ना तो स्टेट्समैन चाहिये । ना ही सामाजिक समानता । ना ही राजनीतिक शुद्दीकरण । और ना ही हिन्दु राष्ट्र । उसे सिर्फ सत्ता चाहिये । और सत्ता की इसी सोच में एक तरफ संघ है तो दूसरी तरफ सरकार और बीच में अमित शाह दुनिया की सबसे बडे राजनीतिक दल के अध्यक्ष । जिनसे निकलेगा क्या इसके लिये 2019 तक इंतजार करना होगा ।
स्वयंसेवकों में आस भी जगानी है और अनुभवी प्रचारकों को उम्र के लिहाज से खारिज भी नहीं करना है । और पहली बार मोदी की ताकत का इस्तेमाल करने की जगह मोदी को सरकार चलाने में ताकत देना है । तो क्या 2015 में दिल्ली और बिहार चुनाव में हार के बाद क्या वाकई अमित शाह के पास कोई ऐसा मंत्र है जो 2016 में बंगाल, असम,तमिलनाडु,केरल तो 2017 में यूपी, पंजाब और गुजरात तक को बचा लें या जीत लें । यह मुश्किल काम इसलिये है क्योंकि देश में पहली बार गुजरात माडल की धूम गुजरात से दिल्ली के क्षितिज पर छाये नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने ही गुनगुनाये । और मोदी के दिल्ली पहुंचते ही गुजरात में ही गुजरात के पाटीदार समाज ने गुजरात माडल को जमीन सूंघा दी । फिर दिल्ली की नई राजनीति और बिहार की पारंपरिक राजनीति के आगे वही बीजेपी हारी ही नहीं बल्कि नतमस्तक दिखी जो वैकल्पिक सपनों के साथ 2014 में इतिहास रच कर जनता की इस उम्मीद को हवा दे चुकी थी कि जाति-धर्म से इतर विकास की राजनीति अब देश में फलेगी-फुलेगी । लेकिन गरीब-पिछडों को ताकत देने के बदले इनकी कमोजरी-बेबसी को ही चुनावी ताकत बनाने की कोशिश इस स्तर पर हुई कि देश को प्रधानमंत्री की जाति के आसरे बीजेपी की चुनावी रणनीति देखने समझने का मौका मिला । लेकिन मुश्किल जीत के इतिहास को सहेजने भर की नहीं है । मुश्किल तो यह है कि उत्तर भारत के राजनीतिक मिजाज की जटिलता और पूर्वी भारत की सासंकृतिक पहचान को भी सिर्फ संगठन के आसरे मथा जा सकता है । क्योंकि पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ र जनीतिक तौर पर सक्रिय होने में गर्व महसूस करने लगा है। पहली बार राजनीतिक सत्ता के करीब स्वयसेवकों में आने की होड़ है क्योंकि सारी ताकत राजनीतिक सत्ता में ही सिमट रही है । पहली बार जनसंघ के दौर से भारतीय राजनीतिक मिजाज के समझने वाले स्वयंसेवक हो या प्रचारक या फिर संघ से निकल कर बीजेपी में आ चुके नेताओं की कतार वह महत्वहीन माने जा रहे हैं। और अनुभवों ने ही जिस तरह राष्ट्रीय स्वयसेवक को विस्तार दिया अब वही संघ सत्ता की अनुकूलता तले अपना विस्तार देख रहा है । यानी सत्ता पर निर्भरता और सत्ता में बने रहने जद्दोजहद के दौर में अमित शाह को दोबारा बीजेपी अध्यक्ष बनाया जा रहा है तो वह अध्य़क्ष की कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता और मोदी की कार्यशौली को समझने का हुनर है । तो सवाल यह भी होगा कि क्या वाकई गुजरात से दिल्ली पहुंचकर मोदी से तालमेल बैठाकर पार्टी चलाने वाले सबसे हुनरमंद अब भी गुजरात से दिल्ली आये अमित शाह ही हैं । और संघ परिवार मौजूदा वक्त सत्ता, सरकार , संगठन , पार्टी हर किसी
के केन्द्र में प्रदानमंत्री मोदी को ही मान रहा है । यानी विचारों के तौर पर जो संघ परिवार जनता से सरोकार बैठाने के लिये सरकार पर बाहर से दबाब बनाता था वह भी वैचारिक तौर पर सत्ता को ही महत्वपूर्ण मान रहा है । तो अगला सवाल है कि क्या विदेशी पूंजी के निवेश के आसरे विकास की सोच । किसानो की जरुरतो को पूरा करने के लिये बीमा और राहत पैकेज । दुनिया में भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार के तौर पर बताने की समझ । संवैधानिक संस्थानों से लेकर न्यायपालिका और राज्यसभा तक की व्याख्या सत्तानुकूल करने की सोच । पड़ोसियों के साथ दूरगामी असर के बदले चौकाने वाले तात्कालिक निर्णय । और इन सबपर आरएसएस की खामोशी और बीजेपी की भी चुप्पी । यानी समाज के भीतर चैक-एंड-बैलेस ही नहीं बल्कि वह तमाम संगठन जो अलग अलग क्षेत्र में काम भी कर रहे है तो फिर उनके होने का मतलब क्या है । और मतलब है तो फिर क्या सत्ता में रहते हुये स्वयंसेवक के पैसले और संघ के स्वयंसेवक के तौर पर स्वदेशी जागरण मंच , किसान संघ, आदिवासी कल्याण संघ , भारतीय मजदूर संघ की सोच भी एक सरीखी मान ली गई या सत्ता बनी रहे इसलिये दबायी जा रही है ।
असल में यह सवाल देश के लिये इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलो की समझ व्यापक होना देश के ही हित में होता है । और बीजेपी के पास संघ परिवार सरीखा ऐसा अनूठा सामाजिक संगठन है जिसके स्वयंसेवक हर मुद्दे पर देश की नब्ज पकडे रहते है । लेकिन सभी एक ही लकीर पर एक ही बिन्दु के इर्द-गिर्द घुमड़ने लगे तो फिर रास्ता चाहे अनचाहे उस मूल को पकड़ेगा जिसके आसरे संघ परिवार बना । यानी हिन्दू राष्ट्र की सोच हर निर्णय के बाद डगमगाते हुये राजनीतिक सत्ता के लिये भी ढाल का काम करेगी और पार्टी के लिये भी हथियार बनेगी । और संघ परिवार सामाजिक सासंकृतिक संगठन होते हुये भी हमेशा राजनीतिक नजर आयेगा या बीजेपी राजनीतिक पार्टी होते हुये भी आरएसएस के राजनीतिक संगठन के तौर पर ही काम कर पायेगी । ध्यान दें तो हो यही रहा है । बीजेपी का अध्यक्ष अमित शाह को दोबारा बनाना चाहिये की नहीं इसपर जलगांव में 6 से 8 जनवरी तक संघ परिवार के प्रमुख स्वयंसेवक ही चिंतन करते है । चिंतन के बाद 17 जनवरी को सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल प्रधानमंत्री मोदी को जानकारी देते है । उनकी राय लेते है । और प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति या इच्छा मान कर 18 जनवरी को कृष्णगोपाल बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से मिलते है , उन्हें खुशखबरी देते है । चुनौतियों का सामना करने में अमित शाह के साथ संघ परिवार भी खड़ा है , इसका भरोसा देते है ।फिर 19 जनवरी को अमित शाह से रुठे मुरली मनोहर जोशी
और लालकृष्ण आडवाणी से मिलते है । जोशी और आडवाणी की तंज भरी खामोशी को अनदेखा करते है । और अनुभवी पीढी को मोदी के सामने चुकी हुई पीढी करार दिये जाने पर संघ परिवार खामोशी बरतता है । और 20 जनवरी को 11 अशोक रोड पर यह सूचना चस्पा कर दी जाती है कि 24 जनवरी को सुबह 10 से दोपहर एक बजे तक अध्यक्ष पद के लिये नामांकन होगा । एक से डेढ बजे तक नाम वापस लेने और जांच का काम होगा । और
जरुरी हुआ तो 25 को चुनाव होगा । यानी समूची कवायद संघ परिवार के आसरे प्रधानमंत्री मोदी को केन्द्र में रखकर अगर बीजेपी अध्यक्ष की जरुरत समझी जाती है तो सवाल तीन है । क्या बीजेपी राजनीतिक दल नहीं बल्कि संघ परिवार का राजनीतिक संगठन मात्र है । क्या मौजूदा राजनीतिक शून्यता में संघ परिवार राजनीतिक हो रहा है ।
क्या राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ हो चुकी है । यानी जिसके पास सत्ता तक पहुंचने या सत्ता पर बने रहने के मंत्र है वहीं सबसे ताकतवर हो चुका है । और उसी अनुकुल समूची कवायद मौजूदा राजनीतिक सच है । अगर हा तो फिर चुनाव जीतने के तरीके अपराध, भ्र्ष्ट्रचार और कालाधन के नैक्सस से कैसे जुडे है इसपर तो नब्बे के दशक में ही वोहरा कमेटी की रिपोर्ट अंगुली उठा चुकी है । यानी देश का रास्ता उसी चुनावी व्यवस्था पर टिक रहा है जिसे ना तो स्टेट्समैन चाहिये । ना ही सामाजिक समानता । ना ही राजनीतिक शुद्दीकरण । और ना ही हिन्दु राष्ट्र । उसे सिर्फ सत्ता चाहिये । और सत्ता की इसी सोच में एक तरफ संघ है तो दूसरी तरफ सरकार और बीच में अमित शाह दुनिया की सबसे बडे राजनीतिक दल के अध्यक्ष । जिनसे निकलेगा क्या इसके लिये 2019 तक इंतजार करना होगा ।
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