Saturday, February 13, 2016

क्या पाकिस्तान सिर्फ टैरर ही नहीं फेल स्टेट भी है ?????

अगर हेडली सही है तो पाकिस्तानी सत्ता के लिये लश्कर भारत के खिलाफ जेहाद का सबसे मजबूत ढाल भी है और विदेश कूटनीति का सबसे धारदार हथियार भी । अगर हेडली सही है तो पाकिस्तानी सेना की ट्रेनिंग , विदेश मंत्रालय की मदद और खुफिया एजेंसी आईएसआई के बनाये रास्ते ही भारत के खिलाफ पाकिस्तानी सिस्टम है । जिसके आसरे पाकिस्तानी सत्ता एक तरफ आतंक को कानूनी जामा पहनाता है यानी भारत के खिलाफ आतंकी संगठनों को बेखौफ बनाता है तो दूसरी तरफ आंतकवाद पर नकेल कसने के लिये भारत के साथ खडे होने की दुहाई देता है ।


याद कीजिये 20 जून 2001 में जनरल मुशर्ऱफ सत्ता पलट के बाद पाकिस्तान के सीईओ से होते हुये राष्ट्रपति बनते हैं । 13 दिसंबर 2001 को भारत की संसद पर लश्कर-जैश मिलकर हमला करते है । हमले के बाद प्रधानमंत्री वाजपेयी आर पार की लडाई का एलान करते हैं । और मुशर्ऱफ एक तरफ आतंकवादियों पर कार्रवाई का जिक्र करते है । लेकिन अगर हेडली सही है तो 2002 में लश्कर मुखिया हाफिज सईद पर कोई रोक नहीं लगी । क्योंकि पीओके के मुज्जफराबाद में हाफिज सईद की तकरीर सुनकर ही हेडली लश्कर का दीवाना होता है । यानी हाफिज सईद की खुली तकरीर पाकिस्तना में जारी रही । अगर ह  ली सही है तो पाकिस्तानी सत्ता ने ही हाफिज सईद को बचाने के लिये लशकर की जगह जमात-उल-दावा बनवाया । क्योकि जिस दौर में जमात बनती है उसी दौर में लश्कर के पीओके के ट्रनिंग कैप में हेडली ट्रेनिंग भी लेता है ।

अगर हेडली सही है भारत के खिलाफ पाकिसातनी सेना और आईएसआई के विंग के तौर पर ही लश्कर काम करता है । क्योंकि हेडली को लश्कर के साथ जो़डने से लेकर भारत में मुंबई हमले की बिसात बिछाने में पाकिसातनी सेना के रिटायर मेजर अब्दुर रहमान पाशा ,मेजर साबिर अली ,मेजर इकबाल सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । अगर हेडली सही है तो पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को भी पाकिस्तानी सत्ता हेडली के लिये काम पर लगाती है । क्योकि इसी दौर में अमेरिका में पाकिस्तानी एंबेसडर की नियुक्ती सेना के रिटायर फौजियों की होती है । 2004-06 में जनरल जहांगीर करामत तो , 2006-08 में मेजर जनरल महमूद अली दुर्रानी अंबेसडर बनते हैं । इसी वक्त दाउद गिलानी से डेविड कोलमैन हेडली का जन्म होता है। और फर्जी पासपोर्ट बनवाने से लेकर भारत भिजवाने के काम में पाकिस्तानी सत्ता का सिस्टम काम करता है । और इसी दौर में हेडली अमेरिका से भारत कई बार रेकी के लिये आता है । और महफू  लौटता है । अगर हेडली सही है तो फिर पाकिस्तान में मुशर्रफ के बाद भी चुनी हुई सरकार के लिये भी भारत के खिलाफ आतंकी हमला कूटनीति और रणनीति दोनो का हिस्सा था। क्योंकि मार्च 2008 में ही पीपीपी के युसुफ रजा गिलानी प्रधानमंत्री बनते है तो सितंबर में जरदारी राष्ट्रपति बनते है । और हेडली के मुताबिक सितंबर 2008 में भी लश्कर के आंतकवादी भारत में घुसने का प्रयास करते है ।

और अक्टूबर 2008 में भी समुद्र के रास्ते भारत में घुसना चाहते है । यानी 26 नवंबर 2008 को हमले
से पहले पाकिस्तानी सेना बार बार आतंकी हमले का प्रयास करवाती है । तो हमले के बाद पाकिसातन की सत्ता भारत के हर सबूत को खारिज कर देता है । तो सवाल यही है अगर हेडली सच बोल रहा है तो हेडली पाकिसतान का मुखौटा बना रहा । और अब अगर नवाज शरीफ कहते है कि हालात बदल गये है तो लगता यही है कि मुखौटा बदला है रणनीति या कूटनीति नहीं । क्योंकि याद कीजिये मुबंई हमलों के तुरंत बाद नवंबर 2008 में ही पाकिस्तान के सूचना मंत्री रहमान मलिक खुले तौर पर कहते है कि वह आतंक पर नकेल कस रहे है । भारत के सबूत बगैर अपनी जांच को तेज कर रहे है । कई गिरफ्तारियां भी की है . और आठ बरस बाद पठानकोट हमले के बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता काजी खलीउल्लाह भी खुले तौर पर कहते है वह आतंक पर नकेल कस रहे हैं। सबूत के बगैर भी जैश के कैडर की घर पकड कर रहे है । जैश के तीन आंतकवादियो को गिरफ्तार भी किया है ।

यानी पाकिस्तान को लेकर भारत कैसे चक्रव्यूह में फंस रहा है यह डेविड कोलमैन हेडली की गवाही के बाद नये सिरे से पैदा हो रहा है । क्योंकि मुंबई पर हमला करने वाला फिदायिन कसाब जिन्दा पकड़ में आया । उसने लश्कर से ट्रनिंग लेने और लश्कर के कमांडर जकीउर्र रहमान लखवी का नाम लिया । मुंबई हमले के लिये रास्ता बनाने वाला डेविड कोलमैन हेडली ने गवाही में लश्कर की ट्रेनिंग और लश्कर के चीफ हाफिज सईद का नाम लिया । और हाफिज सईद फिलहाल पाकिस्तान में आजाद नागरिक है । लखवी को अदालत से जमानत
मिल चुकी है । यानी वह भी आजाद है । तो अगला सवाल यही है कि पाकिसान अगर पहले फिदायीन कसाब को अपना नहीं मानता । और अब हेडली के कबूलनामे को सच नहीं मानता । तो पाकिस्तन को लेकर भारत का रास्ता जाता किधर है । क्योकि हेडली से तो कल भी पूछताछ होनी है और तब अगर 26/11 के जरीये आतंकवाद पाकिस्तान की स्टेट पालेसी के तौर पर सामने आती है । तब भारत क्या करेगा। क्योंकि कश्मीर के जरीये आंतक को आजादी का संघर्ष एक वक्त मुशर्ऱफ ने भी कहा और याद किजिये तो पिछले दिनों नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र में भी कहा । यानी कश्मीर नीति पाकिस्तान की स्टेट पालेसी है । और कश्मीर नीति का मतलब आंतकवादी संगठनो को पनाह देना है । यानी भारत पर होने वाले हर आतंकी हमलो से पाकिस्तानी सत्ता खुद को अलग बतायेगी । और आतंक का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाकर भारत को अपने साथ खड़े होने का दबाब बनाती है । यानी शिमला समझौते से लेकर लाहैौर घोषणापत्र और अब पठानकोट हमले के बाद जैश-ए मोहम्मद पर कार्रवाई का भरोसा । हर हालात में पाकिस्तान ने अगर आंतक पर नकेल कसने के लिये सिवाय खुद को आतंक से हटकर बताने के अलावे कुछ नहीं किया और डेविड कोलमैन हेडली अगर आंतकी संगठनो और पाकिसातन के हर पावर सेंट के तार को अपनी गवाही में जोड रहा है तो फिर अगला सवाल यह भी हो सकता है कि बातचीत कभी मुश्रऱफ से हुई या अब नवाज शरीफ से हो रही है । भारत के हाथ में आयेगा क्या । क्योकि हेडली की गवाही ने भारत के सामने दोहरा संकट पैदा किया है । पहला पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार की राजनीतिक जरुरत आंतकी संगठन है । दूसरा आतंकी संगठन बेफिक्र ह  र अपने काम को अंजाम दे यह सत्ता की जरुरत है ।तो नया सवाल भारत के सामने यह नहीं है कि पाकिस्तान एक टैरर स्टेट है बल्कि नया सवाल यह है कि पाकिस्तान अगर एक फेल स्टेट है तो भारत क्या करें । और शायद मौजूदा वक्त में यही सबसे बडी चुनौती मोदी सरकार के सामने भी है ।

Friday, February 12, 2016

आपकी नज़रों ने समझा , देशभक्त इन्हें !!- पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो.न. - +91-9414657511

  मित्रो!कहते हैं इंसान की आँखें इतनी समझदार होती हैं कि देखने मात्र से सामने वाले इंसान का एक्सरे कर देती हैं ! मनुष्य को एहसास करा देती हैं की जो आदमी हमारे सामने खड़ा है वो "किस" प्रकार का है ? उसके बाद में हमें उसकी बोली से और विविध तरह का ज्ञान प्राप्त होता है !तब हम अपने दिमाग में ये निश्चय कर पाते हैं की हमें सामने वाले पर कितना विश्वास करना है और कितनी उसकी आव-भगत करनी है ?आदि-आदि !!
                       हमारे मुल्क में मुसलमान हमलावर आ गए तो हमने उन पर भी विश्वास कर लिया तो वो हमारे ऊपर सेंक्डों साल शासन कर गए ! जब वो हमारे धन-बल पर "ऐय्याश"बन गए तो अंग्रेजों ने हमारे देश में व्यापार करने के बहाने से कदम रख्खा तो हमने उन पर भी विश्वास कर लिया ! इसीका फायदा उठाकर उन्होंने भी सौ साल तक हमारे ऊपर राज किया !लेकिन जाते-जाते वो ऐसे लोगों को भारत की सत्ता सौंप गए जो उन्ही की तरह से "कलाकार" थे !यानी जनता को बहलाने की कला के कलाकार !
                          हमने उनपर भी विश्वास किया ! तो उन्होंने भी हमारे ऊपर 57 वर्षों तलक शासन किया और हमें मुर्ख बनाया !हालांकि हम मुगलों,अंग्रेजों और इन काले अंग्रेजों के खिलाफ लड़े भी लेकिन हम उनकी रंग-बिरंगी चालों से हार गए !जिन लोगों को उन्होंने अपने "प्यार के काबिल" मान लिया केवल वो लोग ही अपने जन्म को "धन्य"बना पाये , वरना बाकी सब ज़िंदगी भर भटकते ही रह गए !जो थोड़ा बहुत दूसरी विचार धारा के लोग भारत पर शासन कर पाये ,वो सब इनसे डरते-डरते ही बस समय ही निकाल पाये , कुछ करके दिखा नहीं पाये !
                क्योंकि देश में चलने वाला संविधान कहने को तो आंबेडकर साहिब ने बनाया है लेकिन वास्तव में उसमे इतने लूपोल  छोड़ दिए गए कि राजनितिक दलों ने अपनी मनमर्ज़ी ही चलायी क़ानून सिर्फ गरीबों के लिए ही रह गया !उसके बाद भी समयसमय पर जो संशोधन उसमे किये गए वो भी इनकी सुविधा को बढ़ने हेतु ही किये गए ! लेकिन साथ-साथ बड़ी चालाकी से ये कुछ ऐसे काम भी करते रहे जिससे जनता उहापोह की स्थिति में उलझी रहे !सारा सिस्टम भी इन चतुर नेताओं के इशारों पर च;लने को मजबूर हो गया !
                    पहली बार देश में कोई ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री बना ही जो इस मायाजाल को तोडना चाहता है !लेकिन काले अंग्रेजों के "सिपाही"सब जगहों पर विराज़मान हैं !यहां तलक की भाजपा में भी !राजयसभा में तो अभी वो ही लोग बहुमत में हैं !इसलिए या तो तानाशाह बन कर एक साथ सब काम कर दिए जाएँ ! आज के लोकतांत्रिक तरीकों से तो इन  दोषों को बदलना 5 वर्षों में तो संभव नहीं है !हद तो ये है की भारत के कई प्रदेशों में तो काले अंग्रेज आज भी जीत जाते हैं !देश की जनता आज भी कितनी भोली है मित्रो !!भारत के कितने लोग अपने दिलों में काले अंग्रेजों को धन्यवाद ही देते फिरते हैं !और मन में सोचते रहते हैं कि "आपकी नज़रों ने समझा , प्यार के काबिल मुझे ! दिल की ऐ धड़कन ठहर जा , मिल गयी मंज़िल मुझे !इस देश का कुछ नहीं हो सकता !मित्रो !! बस " रब ही राखा है "जी !!जय हिन्द !  " आकर्षक - समाचार ,लुभावने समाचार " आप भी पढ़िए और मित्रों को भी पढ़ाइये .....!!!
BY :- " 5TH PILLAR CORRUPTION KILLER " THE BLOG .  प्रिय मित्रो , सादर नमस्कार !! आपका इतना प्रेम मुझे मिल रहा है , जिसका मैं शुक्रगुजार हूँ !! आप मेरे ब्लॉग, पेज़ , गूगल+ और फेसबुक पर विजिट करते हो , मेरे द्वारा पोस्ट की गयीं आकर्षक फोटो , मजाकिया लेकिन गंभीर विषयों पर कार्टून , सम-सामायिक विषयों पर लेखों आदि को देखते पढ़ते हो , जो मेरे और मेरे प्रिय मित्रों द्वारा लिखे-भेजे गये होते हैं !! उन पर आप अपने अनमोल कोमेंट्स भी देते हो !! मैं तो गदगद हो जाता हूँ !! आपका बहुत आभारी हूँ की आप मुझे इतना स्नेह प्रदान करते हैं !!नए मित्र सादर आमंत्रित हैं ! the link is - www.pitamberduttsharma.blogspot.com. , गूगल+,पेज़ और ग्रुप पर भी !!ज्यादा से ज्यादा संख्या में आप हमारे मित्र बने अपनी फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज कर !! आपके जीवन में ढेर सारी खुशियाँ आयें इसी मनोकामना के साथ !! हमेशां जागरूक बने रहें !! बस आपका सहयोग इसी तरह बना रहे !!

मेरा मोबाईल नंबर ये है :- 09414657511. 01509-222768. धन्यवाद !!
आपका प्रिय मित्र ,
पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE

Friday, February 5, 2016

आइये हम इन्टरनेट के माध्यमों को और ज्यादा रचनात्मक एवं समाज हित में काम आने वाला बनायें !!निर्धन परिवारों की कन्याओं की शादी करवाने में "5thpillar corruption killler"का धन से सहयोग करें ! - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक - मो.न. - +919414657511

  मेरे प्यारे धर्मप्रेमी सज्जन मित्रो !
                                             सादर  नमस्कार !!
कुशलता के आदान-प्रदान पश्चात समाचार ये है कि आज इंटरनेट का माध्यम मानव समाज  हेतु एक विशेष स्थान तो अवश्य रखता है , कई क्षेत्रों में तो इसने उल्लेखनीय कार्य किये हैं ,जो क्रांतिकारी हैं ,लेकिन इसके साथ-साथ ये भी एक कड़वा सच है कि ये 'माध्यम"अपनी विश्वसनीयता स्थापित नहीं कर पाया ! जिसके कई कारण गिनाये जा सकते हैं !
                          आइये !! आप और हम इसके विभिन्न माध्यमों जैसे - फेसबुक,ट्विटर ,गूगल+और ब्लॉग आदि के मित्रों के सहयोग से निर्धन परिवारों कि उन कन्याओं की शादियों में सहयोग करें जो शिक्षा में विशेष स्थान प्राप्त कर चुकी हैं ,या किसी और क्षेत्र में देश का नाम रोशन कर चुकी हैं ,लेकिन धन की कमी से उनकी धनाढ्य और संस्कारित परिवारो में शादियां नहीं हो पा रहीं !उनके निर्धन परिवार जातियों और सामाजिक बंधनों के कारण खुले रूप से मदद भी नहीं माँग सकते !
                       "5th पिल्लर करप्शन किल्लर "नामक ब्लॉग ने ये सोचा है कि इस क्षेत्र में आगे बढ़ा जाए और आप सब मित्रों से धन एकत्रित करके ऐसी प्रतिभावान कन्याओं की शादियाँ प्रतिष्ठित परिवारों में धूम-धाम से करवाई जाएँ ! अगर आप सब मित्र हमारे इन विचारों से सहमत हैं तो निम्नलिखित नाम पते और बैंक अकाउंट में जयादा से ज्यादा धन राशि जमा करवाएं जिससे हम ये पवित्र कार्य परमात्मा की अनुकम्पा से करवा सकें ! क्योंकि हर कार्य ईश्वर ही करवाता है , हम और आप तो सिर्फ एक माध्यम भर हैं !वैसे भी "कन्यादान "में सहयोग करना सबसे बड़ा पुण्य-कार्य होता है जी !हर कन्या की शादी में सभी सहयोगियों को भी निमन्त्ण भेजा जाएगा ! उनकी शादी उनके घर पर अलग से ही करवाई जायेगी , किसी संयुक्त कार्यक्रम में या एक ही दिन में नहीं करवाई जाएँगी! उनकी शादी में दिया गया सहयोग दर्शाया नहीं जाएगा !ऐसी शादियों में काम से काम पांच लाख और अधिकतम पन्द्रह लाख तक एक शादी में खर्च किया जाएगा !परस्थितियों के अनुसार निर्णय होगा !!इसलिए आप सब ज्यादा से ज्यादा धनराशि निम्न बैंक अकाउंट में जमा करवाएं ! सभी दानी सज्जनों के नाम और आशी का हिसाब-किताब इसी ब्लॉग पर समय-समय पर प्रदर्शित किया जाता रहेगा !! आइये एक नया कदम उठायें , मानवता को और महान बनाएं !आपके सुझाव भी सादर आमंत्रित हैं !
       सधन्यवाद !!
                                     आपका अपना 
                                 पीताम्बर दत्त शर्मा 
                              बैंक खाता न. - 65076153897 
                             स्टेट बैंक आफ पटियाला ,
                          ब्रांच सूरतगढ़  .राजस्थान भारत   

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Monday, February 1, 2016

"क्या छात्रसंघ,राजनितिक दल और सामाजिक संगठनों में देशद्रोही नहीं हो सकते"? - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो. न. - 9414657511

   माननीय अन्ना हज़ारे जी ने अपने "जन-लोकपाल"आंदोलन में कहा था कि "भारत के संविधान में राजनितिक दलों का कोई स्थान नहीं है ,"वैसे ही संविधान में "उग्र प्रदर्शनों"का भी कोई स्थान नहीं है !लेकिन 1947 के बाद कॉमरेडों-कांग्रेसियों ने आपसी रज़ामंदी से ऐसा "जुगाड़"बना लिया कि दोनों दल एक दुसरे के हितों की पूर्ती हेतु कामरेड धरने-प्रदर्शन  लगे और कोंग्रेसी उनकी जायज़-नाजायज़ मांगें मानने लगे !अपने स्वार्थों की पूर्ती हेतु हर स्तर पर छद्म संगठन भी बना लिए ! 
                    चाहे वो nsui.हो या fitta,aisa.abvp.हो या sfi. सब प्रदर्शनों में तोड़फोड़ करते हैं ! यहां तलक कि राजनितिक दल चाहे कोई भी हो अपने धरनो-प्रदर्शनों में देश की सम्पत्ति को नुक्सान पंहुचाते रहते हैं और बाद में मुकर भी जाते हैं !विदेशी पैसा भी इसमें जब लगता है, तो क्या गारंटी है कि इस प्रकार के प्रदर्शनों में विदेशी "हित"नहीं साधे जाते होंगे ?? मेरी तो देश की सुरक्षा एजेंसियों से गुज़ारिश है कि वो सभी राजनितिक दलों के धरने-प्रदर्शनों पर अपनी पैनी नज़र रख्खा ही करें ! सरकार को भी सभी राजनितिक धरने-प्रदर्शनों हेतु ऐसे सख्त क़ानून बना देने चाहियें ताकि देश का नुक्सान ना हो !!
                    आम जनता से भी मेरी ये अपील है कि किसी भी धरने-प्रदर्शन में शामिल होने से पहले उसके उद्देश्यों के बारे में अच्छी तरह से जानकारी प्राप्त करलें !ताकि आप गलती से "देश-द्रोही"कार्यवाही में शामिल ना हो जाएँ ! चाहे वो प्रदर्शन आरक्षण या जाती-धर्म से ही सम्बंधित क्यों ना हो ! समय बहुत बुरा चल रहा है जी ! "बचाव में ही बचाव है " जी !! 
                     पैसे लेकर कोई  कुछ भी बोल-कह और सुन !  जय-हिन्द !   " आकर्षक - समाचार ,लुभावने समाचार " आप भी पढ़िए और मित्रों को भी पढ़ाइये .....!!!


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Saturday, January 30, 2016

अकेला मोदी और दुश्मन हजार :- नरेन्द्र मोदी का नाम ही दुश्मनों के होश उड़ाने को काफी हैं | लेकिन जबसे मोदी जी देश के प्रधानमंत्री बने हैं | तब से दुश्मनों की संख्या दिन दुगनी बढती ही जा रही है.इन दुश्मनों की कतार में आप दुश्मन देश पाकिस्तान के साथ-साथ लश्कर, ISIS जैसे कई आतंकी संगठनों और भारत के अधिकांश राजीनीतिक दल जैसे कांग्रेस, राजद, जदयू, सपा, कजरी गैंग्स, वामपंथी दलों को भी रख सकते हैं |

मित्रों, नरेन्द्र मोदी एक एैसा व्यक्तित्व है, जिसकी सोच ही देश की शक्ति और विकास से शुरू होता है | यह व्यक्ति अपने परिवार को देश नहीं, बल्कि समूचे देश को ही अपना परिवार मान रहा है | देश की उन्नति के लिए दी रात एक कर देने वाला ये नेता आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की खो चुकी ख्याति को पुनः प्रतिष्ठित कर चुका है | हाँ, इस व्यक्ति से आतंकी सोच वाले मुसलमानो की जरुर सुलगने लगती है, क्यूकि आतंकी सोच के मुस्लिमों के लिए मोदी का नाम एक काल के समान है |

अगर बीते हुए एक वर्ष में मोदी के क्रिया कलापों को देखा जाए तो उसके दुश्मनों के शब्दों में मोदी ने खूब विदेश दौरा किया है, लेकिन आप भारत के औद्योगिक प्रगति के गति को देखिए | आज जगह-जगह नई-नई कंपनियों और कारखानों का निवेश, मोदी जी के विदेश दौरों की कहानियाँ सुनाता है |  इन कंपनियों और फैक्टरीयो में रोजगार प्राप्त करने वाले युवा वर्ग मोदी जी की गाथा बताते हैं | देश में जर्जर हो चुके अर्थव्यवस्था होते हुए भी वैश्विक मंदी की छाया से देश को उबार लेना उनकी सफलता बताता है | अभी तो तीन वर्ष और बचे हैं, जिस तरह मोदी जी के कार्य करने की गति है, एक वर्ष के बाद तो उनके विरोधियों को भी मोदी जी के विरोध के लिए कोई कारण ही नहीं मिलेगा | अब निकम्मे लोगो को ये कहते हुए आप जरुर सुनिएगा कि मेरे खाते में पंद्रह लाख क्यूँ नहीं आए ? तो निकम्मों, कभी पन्द्रह सौ रूपये तो मेहनत से कमा के देख लो, फ्री का देने के लिए केजरीवाल है न ?

आज हम सब ये देखते होंगे कि देश में ही मौजूद राजनितिक दल मोदी जी के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं | उनका मुख्य उद्देश्य मोदी जी को देश की विकासवादी सोच से भटकाना है | वो चाहते हैं कि देश सामाजिक उलझनों और आपसी लडाई में ही फंसा रह जाए | वो चाहते हैं कि देश में अस्थिरता का माहौल बना रहे ताकि वो अपनी राजनीती रोटिया सेंकते रहें | लेकिन मोदी जी भी आखिर मोदी जी ही हैं | जब उन्होंने 2002 में अपने हर तरह के दुश्मनों को छठी का दूध याद करा दिया तो अभी तो सारा देश उनके साथ है सिवाय आतंकी सोच के जमात को छोड़कर | अकेला मोदी इन सारे दुश्मनों के हर प्रहार को झेलने को हर पल तैयार है और साथ में तैयार है मोदी जी की हम राष्ट्रवादी नौजवानों की एक लम्बी चौड़ी फ़ौज, जिनकी सोच राष्ट्र से शुरू होकर राष्ट्र को ही समर्पित हो जाती है | हम भी मोदी जी के हर दुश्मनों को लतियाने को तैयार है | अब कोई ये न कहे की बिहार और दिल्ली में मोदी जी को जनता ने क्यू नकार दिया ? वहाँ हार का भाजपा का स्वयं का अनेक कारण है | मोदी एक, लेकिन दुश्मन अनेक पर सारा देश आज ही मोदी के साथ है और 2025 तक मोदीमय ही होगा अपना भारत |

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Saturday, January 23, 2016

पत्रकारिता करते हुये भी पत्रकार बने रहने की चुनौती..,......!!!!???

पत्रकारिता मीडिया में तब्दील हो जाये। मीडिया माध्यम माना जाने लगे। माध्यम सत्ता का सबसे बेहतरीन हथियार हो जाये। तो मीडिया का उपयोग करेगा कौन और सत्ता से सौदेबाजी के लिये मीडिया का प्रयोग होगा कैसे? जाहिर है 2016 में बहुत ही पारदर्शिता के साथ यह चुनौती पत्रकारिता करने वालेमीडियाकर्मियों के सामने आने वाली है। चुनौती इसलिये नहीं क्योकि पत्रकारिता अपने आप में चुनौतीपूर्ण कार्य है । बल्कि चुनौती इसलिये क्योंकि राजनीतिक सत्ता खुद को राज्य मानने लगी है। संस्थानों के राजनीतिकरण को राज्य की जरुरत करार देने लगी है। चुनावी जीत को संविधान से उपर मानने लगी है। यानी पहली बार संविधान के दायरे में लोकतंत्र का गीत राजनीतिक सत्ता के लोकतंत्रिक राग के सामने बेमानी साबित हो रहा है। जाहिर है ऐसे में हर वह प्रभावी खिलाडी मीडिया को अपने अनुकूल बनाने की मशक्कत करने लगा है जिसे अपने दायरे में सत्ता का सुकून चाहिये। और सत्ता को जहा लगे कि वह कमजोर हो रही है तो मीडिया से नहीं बल्कि मीडिया को माध्यम की तरह संभाले प्रभावी खिलाडियो से ही सीधे सौदा हो जाये। कह सकते है कि सबकुछ इतना सरल नहीं है। और जो खतरे पत्रकारिता को लेकर लगातार बढ़ रहे है उसमें बहुत कुछ मीडिया मीडियाकर्मियों की अपनी समझ पर भी निर्भर करता है। लेकिन 2016 में यह सवाल और छोटा हो जायेगा कि पत्रकारिता की किस लिये जा रही है। जो रिपोर्ट छापी जा रही है उसका महत्व क्या है। इसकी बारीकी को समझे तो जैसे खनिज संपदा की लूट के लिये आदिवासियों के साथ शहर के संवाद ही खत्म कर दिये गये और विकास की परिभाषा यह कहकर गढ़ी गई कि इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिये खनिज संपदा से लेकर आदिवासियों तक की सफाई जरुरी है। उसके बाद खेती की जमीन को भी निगलने के लिये पहले स्पेशल इक्नामी जोन, उसके बाद इक्नामिक कारीडोर और स्मार्ट शहर से लेकर अब आदर्श गांव तक की सोच ही इस तरह पैदा की जा रही है जहां खेती की जमीन पर खडे होते कंक्रीट को ही आदर्श हालात मान लिया जाये। यानी देश की उस सोच को ही माध्यमो के जरिये बदल दिया जाये जो अपने अपने दायरे में सत्ता है तो फिर देश की परिभाषा भी राजनीतिक सत्ता के अनुकूल

गढने की कवायद आसानी से हो सकती है ।

और बहस की गुंजाइश ही नहीं बचती कि कोई रास्ता गांव का भी था । देश में आदिवासी भी रहते थे । रिपोर्ट शहरों के बढने पर तैयार होगी ना कि बढते शहरी गरीबों की वजहो को लेकर । यानी झटके में विकल्प की वह सोच ही मीडिया से गायब हो रही है जो सत्ता ही नहीं बल्कि संसद और विकास की नीतियो को लेकर कारपोरेट फार्मूले पर भी सवाल खड़ा करती रही है। इसमें और तेजी आ रही है क्योंकि बहुसंख्यक तबके के लिये नीति का मतलब नीति लागू कराने वालो की एक सोच हो चली है। ना कि जिनके लिये नीतियां बनायी जाती है उनकी कोई जरुरत या उनकी कोई सोच कोई मायने भी रखती हो। इतना ही नहीं राजनीतिक सत्ता जिस तरह हर संस्थान को अपनी गिरफ्त में ले रही है, उसका असर कैसे मीडिया के माध्यम में तब्दील होने पर हो रहा है उसका बेहतरीन उदाहरण बिहार चुनाव के परिणाम के बाद लालू यादव की राजनीतिक ताकत से बने नीतिश मंत्रिमंडल का चेहरा है। सवाल यह नहीं है कि कानून के जरीये राजनीतिक तौर पर खारिज लालू यादव उस सामाजिक समीकरण को जीवित कर देते है जो दिल्ली की सत्ता के विकास मॉडल को खारिज कर दें। बल्कि सवाल यह है कि जिस मॉडल को राजनीतिक सत्ता तले दिल्ली सही बताती है और 2014 का जनादेश किसी सपने की तरह पांरपरिक राजनीति को हाशिये पर ढकेल देता है वही मॉडल उसी बिहार में 2015 के जनादेश तले हाशिये पर चला जाता है और वहीं पारपरिक राजनीति फिर से ना बदलने वाली हकीकत की तरह सामने आ जाती है। और झटके में यह सवाल बडा हो जाता कि इस दौर में पत्रकारिता किस समझ को जी रही थी। या मीडिया की भूमिका रही क्या । यानी 2014-15 का पाठ तो यही निकला कि राजनीतिक सत्ता की जो दिशा होगी उसी हवा में मीडिया बहेगी। राजनीतिक सत्ता का सामाजिक मतलब चुनावी जीत-हार होगी। मीडिया का विश्लेषण भी उसी दिशा में होगा। यानी पत्रकारिता अगर 2015 में उन सवालो से बचती रही कि आखिर जो सीबीआई चार बरस तक अमित शाह को अपराधी मान कर फाइले तैयार करती रही तो फाइले मोदी की पीएम बनते ही बंद ही नहीं हुई बल्कि उसमें लिखा भी बदल गया ।

और 2015 के बिहार जनादेश ने बाद पत्रकारिता इस सवाल पर भी खामोश हो गई कि आखिर वह कौन से सामाजिक समीकरण रहे जो विकास के नाम पर गरीबी को विस्तार भी देते रहे और सामाजिक न्याय का नारा लगाते हुये विकास को दरकिनार भी करते रहे । यह सवाल भी गौण हो गया कि गांव खेत में शिक्षा का नायाब प्रयोग 25 बरस पहले चरवाहा विघालय के नाम पर विधानसभा से निकला। 25 बरस बाद वही चरवाहा विघालय विधानसभा के भीतर नजर आने लगा। यहा सवाल यह उठ सकता है कि क्या राजनीतिक सत्ता के दायरे में ही मीडिया की महत्ता है । जाहिर है यह सवाल वाकई बडा है कि राजनीतिक सत्ता से इतर मीडिया कैसे काम करें । पत्रकारिता कैसी हो । क्योकि पत्रकारिता अगर देश के हर तबके को देख समझ रही है । यानी सत्ता के वोट बैंक से इतर विपक्ष की सोच को भी अगर आंक रही है तो यह सवाल व्यापक दायरे में देखा समझा जा सकता है कि क्या देश में हर सत्ता का दायरा अल्पसंख्यक सरीका ही है । राजनीतिक सत्ता के पक्ष में 50 फिसदी वोट नहीं है तो कारपोरेट पूंजी के मुनाफा बनाने के तौर तरीको के पक्ष में देश का बहुसंख्यक तबका नहीं है ।औघोगिक घरानो की जीने के अंदाज या उनके जरीये देश के संसाधनों के उपयोग से देश की नब्बे फिसदी आबादी का कोई वास्ता नहीं है। फिर ऐसा भी नहीं है कि संवैधानिक संस्थाओं के दायरे में देश के बहुसंख्यक तबके के हित साधे जा रहे हो । निचली अदालत से निकल कर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक तो देश का वही तबका पहुंच पाता है जिसकी आय देश की 80 फिसदी आबादी से उपर हो। स्वास्थय सेवा हो या शिक्षा देने के संस्थान। देश के 80 करोड वोटरो के लिये वह आज भी नहीं है । और इसी दायरे को अगर मीडिया घरानो में समेटा जाये तो उसके सरोकार भी देश के अस्सी फिसद आबादी से इतर ही नजर आयेंगे। यानी पहली बार लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी लोकतंत्र के बाकि तीन खम्मो की कतार में उसी तरह खड़ा किया जा रहा है जिसमें लोकतंत्र का राग सत्ता की आवाज में सुनायी दे। और मीडिया लोकतंत्र के राग को सत्ता के दायरे से बाहर होकर कैसे सुन सकता है। पत्रकारिता राज्यसत्ता के प्रभाव से कैसे मुक्त हो सकती है । भारत जैसे देश को चलाने के लिये पूंजी से ज्यादा मानव संसाधन को तरजीह दी जानी चाहिये यह सवाल कैसे कोई रिपोर्ट उठा सकती है। जबकि खुद मीडिया घरानों का विकास पूंजी पर जा टिका है। और बतौर माध्यम अगर सत्ता अपना प्यादा मीडिया को बना रही है तो मीडिया घरानो के लिये भी पूंजी ही माध्यम को मजबूत बनाने का माध्यम बन चुका है । यानी 2014 के चुनाव के बाद से हर चुनाव ही कैसे सत्ता और लोकतंत्र का एसिड टेस्ट बनाया गया या बनाया जा रहा है उसे मीडिया क्या समझ नहीं पा रहा है। यकीनन पत्रकारिता उन हालातों को देख रही है कि कैसे सारी ताकत राजनीतिक सत्ता में सिमट रही है। लेकिन राजनीतिक सत्ता ही लोकतंत्र हो और वहीं पूंजी का माध्यम बन जाये तो फिर मीडिया के सामने कैसे चुनौती होगी इसे महसूस करना भी आने वाले बरसों में
मुश्किल होगा । मसलन सलमान खान की गाड़ी तले फुटपाथ पर सोये शख्स को किसने मारा । इसका जबाब हाईकोर्ट के फैसले में दिखायी नहीं देता बल्कि सलमान खान की रिहाई के जश्न में मीडिया को जाता है। क्योंकि सलमान खान के फैन्स ही फैसले के बाद जनता के किरदार में नजर आते हैं। यानी पहली बार मीडिया के सामने यह भी चुनौती उभर रही है कि सूचना तकनीक के माध्यम से बनते और व्यापक होते समाज को वह कैसे सही या गलत माने। मसलन एक वक्त इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को अपनी जेबी पार्टी बनाने के लिये कांग्रेस के संगठन के बाहर से ही इतना दबाव बना दिया कि काग्रेस संगठन भी समझ नहीं पाया कि वह सही है या बाहर से दिरा के पक्ष में खड़ा होता समूह सही है । कमोवेश यही प्रयोग नरेन्द्र मोदी ने भी किया। बीजेपी संगठन के बाहर से मोदी फैन्स का दबाब ही कुछ ऐसा बना कि बीजेपी संगठन को भी सारे निर्णय मोदी के अनुकूल लेने पड़े। ध्यान दे तो पारंपरिक मीडिया भी कुछ इसी तर्ज पर सोशल मीडिया के दबाब में है। दादरी से लेकर मालदा की घटना को लेकर सोशल मीडिया के दबाब में यह सवाल भी खडे होने लगे कि जिम्मेदारी मुक्त सोशल मीडिया कही ज्यादा जिम्मेदार है। यानी समाचार पत्र या न्यूज चैनलों की पत्रकारिता संदेह के घेरे में आ गई। हर किसी पर राजनीतिक प्यादा बनकर काम करने का आरोप सोशल मीडिया में लगने लगा। यानी पहली बार पत्रकारों के
सामने चुनौती उस खुलेपन की सूचना को लेकर भी है, जो झटके में किसी भी पत्रकार, किसी भी मीडिया घराने या किसी भी रिपोर्ट को लेकर राजनीतिक सत्ता से जोड़ कर एक सामानांतर पत्रकारिता की लकीर खींच देती है । यानी पत्रकारिता करते हुये साख बनाने के संघर्ष पर साख पर बट्टा लगाने के
तरीकों से जूझना कही ज्यादा मुश्किल हो चला है । और इसकी बारिकी को समझने के लिये लौटना उसी राजनीतिक गलियारे में पड़ रहा है, जिसकी जरुरत ने ही मीडिया को माध्यम में तब्दील कर अपना हित साधना शुरु किया है । यानी पहली बार मीडिया के सामने तीन चुनौती बेहद साफ है। पहला , चुनावी राजनीति के
दबाब से मुक्त होना। दूसरा, पूंजी के दबाब से मुक्त होना। तीसरा, जन भागेदारी से मीडिया संस्थान को खडा करने की कोशिश करना। यानी यह तीन चुनौती मौजूदा पत्रकारिता के उस संकट को उभारती है, जिसमें मीडिया का घालमेल राजनीति और कारपोरेट पूंजी से कुछ इस तरह हो रहा है जिसमें
पत्रकार राजनीति करने लगा है। राजनेता पत्रकारीय मापदंडों को तय करने लगा है और पूंजी राजनीति और मीडिया दोनो का आधार बन चुकी है । वजह भी यही है कि मौजूदा मीडिया राजनेताओं और उघोगपतियों से इतर कुछ कार्य करता नजर नहीं
आता। और राजनीतिक सत्ता पाने के बाद मीडिया की जरुरत राजनेताओं के लिये किस रुप में रहती है यह इससे भी समझा जा सकता है कि पीएम बनने के बाद से नरेन्द्र मोदी ने कत्र कोई पत्रकार वार्ता नहीं की। नीतीश कुमार ने सीएम बनने के बाद किसी पत्रकार को कोई इंटरव्यू नहीं दिया। वसुधरा राजे
सिंधिया ने सीएम बनने के बाद से कोई प्रेस कान्फ्रेस नहीं की। केजरीवाल ने अपनी राजनीति को ही मीडिया के खिलाफ बनाकर जनता के पैसे पर एक न्यूज चैनल के खिलाफ उन्ही अखबारो पर पन्ने भर का विज्ञापन देने में कोताही नहीं बरती जिन अखबारों को वह कारपोरेट की काली कारतूत की उपज बताते रहे।
यानी मीडिया के अंतर्विरोध। राजनीति सत्ता की अपनी कमजोरी को ताकत में बदलने के लिये मीडिया का उपयोग। और कारपोरेट पूंजी का धंधे के लिये मीडिया का प्रयोग। इन हालातों को बदले के लिये कौन सा तरीका कैसे और किस रुप में उठाया जाये। यह समझ पैदा करनी होगी । अन्यथा पत्रकारीय विश्लेषण का दायरा 2016 में बंगाल-असम चुनाव की जीत हार पर टिकेगा। 2017 में यूपी
चुनाव को मोदी का सेमीफाइनल मान लिया जायेगा। और चुनावी जीत हार के दायरे में ही विदेशी निवेश या स्वदेशी पर चर्चा होगी। मंदिर तले हिन्दू राष्ट्र तो विकास तले आर्थिक सुधार पर बहस होगी। और देश के वह सवाल हाशिये पर चले जायेंगे जिसे चुनावी दौर में भावनाओ के उभार के लिये उठाये
तो जाते है लेकिन सत्ता में आने के बाद भुला दिये जाते हैं। शायद मीडिया के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह देश में राजनीतिक सत्ता की बिसात के तरीके बदल दें। क्योंकि तमाम मुद्दो के बीच देश के हर क्षेत्र में सवाल न्याय ना मिलने का हो चला है। और इंसाफ का सवाल देश के उस अस्सी
फिसद लोगों से जुड़ा है जिनके लिये इंसाफ का मतलब भी रोटी ही है । यानी हर दिन रोटी चाहिये तो हर क्षेत्र में इंसाफ भी चाहिये। हर पल चाहिये । हर दिन चाहिये । और यह सरोकार मीडियाकर्मियों के नहीं रहे । पत्रकार की द्दश्टी पत्रकारिता को तकनीक के आसरे मापने लगी है । इसलिये उसके जहन में
बदलती पत्रकारिता का मतलब 3 जी के बाद 4 जी आना भी हो सकता है । न्यूज चैनलो को अखबार सरीखा बनाना और समाचार पत्र को न्यूज चैनल से सरीखा बना देना भी हो सकता है । लगातार सोशल मीडिया पर खुलती अलग अलग न्यूज पोर्टल
भी हो सकते है । इंटरनेट की तेजी से सूचनाओ के जल्दी पहुंचने या पहुंचाने से भी हो सकता है । इंटरएक्टिविटी के जरीये दर्शक-पाठक के बीच संवाद में तेजी भी ला सकती है और इसे भी पत्रकारिता के नये आयाम से जोडा जा सकता है यह सोच भी पैदा होगी । लेकिन समझना यह भी होगा कि तकनीक पत्रकारिता नहीं
होती । सूचना की तेजी का मतलब मीडिया के सरोकार नहीं होते । और सरोकार या देश की जमीन से संवाद की कमी ने ही पत्रकारिता के माप-दंड बदलने शुरु किये । मनमोहन सिंह के दौर में बडी तादाद में पत्रकार कारपोरेट सेक्टर के लिये काम करने लगे। और उन्होंने भी माना कि जब मीडिया घराने ही कारपोरेट
के कब्जे में जा रहे हैं। या फिर पत्रकारिता का मतलब ही अलग मुनाफा साधना हो चला है तो सीधे कारपोरेट के हित साधने के लिये उसी से क्यों ना जुड़ जाया जाये। वहीं अब यानी मोदी के दौर में सोशल मीडिया की पत्रकारिता ही
महत्वपूर्ण बना दी गई। तो हर नेता को फेसबुक चलाने से लेकर सोशल मीडिया में छा जाने के लिये पत्रकारो की एक फौज चाहिये। सत्ता चलाने वाले हो या सत्ता पाने के लिये संघर्ष करने वाले नेता कमोवेश हर किसी की अपनी अपनी
सोशल साइट्स चल पड़ी हैं। और 2016 बीतते बीतते हर विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लिहाज से नेता अपने काम को दिखाने बताने के लिये पोर्टल या साइट्स शुरु कर चुके होंगे। यानी एक तरफ पत्रकारिता का वह मिशन जो सत्ता
पर निगरानी रखते हुये देश के मुद्दों को सतह पर लाये। जिससे अपराध-भ्रष्टाचार या विकास के नाम पर खुद को लाभ पहुंचाने की सत्तधारियों की पहल के खिलाफ सामाजिक दबाब बनाया जा सके। वही दूसरी तरफ सत्ता के
अनुकुल , मुनाफा बनाने की सोच और विकास तले अपराध-भ्रष्ट्रचार को गौण मानकर सत्ताधारियो को देश करार देने की सोच । तो लकीर कही मोटी होगी तो कही इतनी महीन जिसे परखना भी पत्रकारिता हो जायेगी यह किसने सोचा होगा ।
शायद इसीलिये सबसे बडी चुनौती तो यही है मीडिया संस्थानों से जुडकर पत्रकारिता करते हुये भी पत्रकार रहा जाये।

संघ-सरकार के बीच अमित शाह फिर अध्यक्ष ..........!!!!???

जोश-हंगामा, खामोशी-सन्नाटा और उम्मीद । दिल्ली के 11 अशोक रोड पर मौजूद बीजेपी हेडक्वार्टर का यह ऐसा रंग है जो बीते दो बरस से भी कम वक्त में कुछ इस तरह बदलता हुआ नजर आया । जिसने मोदी की चमक तले अमित शाह की ताकत देखी । तो जोश-हंगामा दिखा । फिर सरकार की धूमिल होती चमक तले अमित शाह की अग्निपरीक्षा के वक्त खामोशी और सन्नाटा देखा । और अब एक उम्मीद के आसरे फिर से अमित शाह को ही प्रधानमंत्री मोदी का सबसे भरोसेमंद-जरुरतमंद अध्यक्ष के तौर पर नया कार्यकाल मिलते देखा । तो क्या सबसे बडी सफलता से जो उड़ान बीजेपी को भरनी चाहिये थी वह अमित शाह के दौर में जमीन पर आते आते एक बार फिर बीजेपी को उड़ान देने की उम्मीद में बीजेपी की लगाम उसी जोडी के हवाले कर दी गई है । जिसके आसरे बीजेपी ने 16 मई 2014 को इतिहास रचा था । इतिहास रचने के पीछे मनमोहन सिंह की सत्ता का वह काला दौर थाि जिससे जनता नाखुश थी । लेकिन अब इतिहास संभालने का दौर है जब सत्ता भी

है । सबसे बडा संगठन भी है । सबसे बडी तादाद में पार्टी सदस्य भी है । फिर भी उम्मीद की आस तले भविष्य की हार का भय है। क्योंकि जीत के दौर में चुनावी जीत ही अमित शाह ने पहचान बनायी । और हार के दौर में कौन सी पहचान के साथ अगले तीन बरस तक अमित शाह बीजेपी को हांकेंगे यह सबसे बड़ा सवाल है । क्योंकि अगले तीन बरस तक मोदी का मुखौटा पहन कर ना तो बीजेपी को हांका जा सकता है और ना ही मुखौटे को ढाल बनाकर निशाने पर आने से बचा जा सकता है । तो असल परिक्षा अमित शाह की शुरु हो रही है । जहा संगठन को मथना है । नीचे से उपर तक कार्यकर्ताओं को उसकी ताकत का एहसास करना है और ताकत भी देनी है। दिल्ली की डोर ढीली छोड़ कर क्षेत्रीय नेताओं को उभारना भी है ।

स्वयंसेवकों में आस भी जगानी है और अनुभवी प्रचारकों को उम्र के लिहाज से खारिज भी नहीं करना है । और पहली बार मोदी की ताकत का इस्तेमाल करने की जगह मोदी को सरकार चलाने में ताकत देना है । तो क्या 2015 में दिल्ली और बिहार चुनाव में हार के बाद क्या वाकई अमित शाह के पास कोई ऐसा मंत्र है जो 2016 में बंगाल, असम,तमिलनाडु,केरल तो 2017 में यूपी, पंजाब और गुजरात तक को बचा लें या जीत लें । यह मुश्किल काम इसलिये है क्योंकि देश में पहली बार गुजरात माडल की धूम गुजरात से दिल्ली के क्षितिज पर छाये नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने ही गुनगुनाये । और मोदी के दिल्ली पहुंचते ही गुजरात में ही गुजरात के पाटीदार समाज ने गुजरात माडल को जमीन सूंघा दी । फिर दिल्ली की नई राजनीति और बिहार की पारंपरिक राजनीति के आगे वही बीजेपी हारी ही नहीं बल्कि नतमस्तक दिखी जो वैकल्पिक सपनों के साथ 2014 में इतिहास रच कर जनता की इस उम्मीद को हवा दे चुकी थी कि जाति-धर्म से इतर विकास की राजनीति अब देश में फलेगी-फुलेगी । लेकिन गरीब-पिछडों को ताकत देने के बदले इनकी कमोजरी-बेबसी को ही चुनावी ताकत बनाने की कोशिश इस स्तर पर हुई कि देश को प्रधानमंत्री की जाति के आसरे बीजेपी की चुनावी रणनीति देखने समझने का मौका मिला । लेकिन मुश्किल जीत के इतिहास को सहेजने भर की नहीं है । मुश्किल तो यह है कि उत्तर भारत के राजनीतिक मिजाज की जटिलता और पूर्वी भारत की सासंकृतिक पहचान को भी सिर्फ संगठन के आसरे मथा जा सकता है । क्योंकि पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ र जनीतिक तौर पर सक्रिय होने में गर्व महसूस करने लगा है। पहली बार राजनीतिक सत्ता के करीब स्वयसेवकों में आने की होड़ है क्योंकि सारी ताकत राजनीतिक सत्ता में ही सिमट रही है । पहली बार जनसंघ के दौर से भारतीय राजनीतिक मिजाज के समझने वाले स्वयंसेवक हो या प्रचारक या फिर संघ से निकल कर बीजेपी में आ चुके नेताओं की कतार वह महत्वहीन माने जा रहे हैं। और अनुभवों ने ही जिस तरह राष्ट्रीय स्वयसेवक को विस्तार दिया अब वही संघ सत्ता की अनुकूलता तले अपना विस्तार देख रहा है । यानी सत्ता पर निर्भरता और सत्ता में बने रहने जद्दोजहद के दौर में अमित शाह को दोबारा बीजेपी अध्यक्ष बनाया जा रहा है तो वह अध्य़क्ष की कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता और मोदी की कार्यशौली को समझने का हुनर है । तो सवाल यह भी होगा कि क्या वाकई गुजरात से दिल्ली पहुंचकर मोदी से तालमेल बैठाकर पार्टी चलाने वाले सबसे हुनरमंद अब भी गुजरात से दिल्ली आये अमित शाह ही हैं । और संघ परिवार मौजूदा वक्त सत्ता, सरकार , संगठन , पार्टी हर किसी
के केन्द्र में प्रदानमंत्री मोदी को ही मान रहा है । यानी विचारों के तौर पर जो संघ परिवार जनता से सरोकार बैठाने के लिये सरकार पर बाहर से दबाब बनाता था वह भी वैचारिक तौर पर सत्ता को ही महत्वपूर्ण मान रहा है । तो अगला सवाल है कि क्या विदेशी पूंजी के निवेश के आसरे विकास की सोच । किसानो की जरुरतो को पूरा करने के लिये बीमा और राहत पैकेज । दुनिया में भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार के तौर पर बताने की समझ । संवैधानिक संस्थानों से लेकर न्यायपालिका और राज्यसभा तक की व्याख्या सत्तानुकूल करने की सोच । पड़ोसियों के साथ दूरगामी असर के बदले चौकाने वाले तात्कालिक निर्णय । और इन सबपर आरएसएस की खामोशी और बीजेपी की भी चुप्पी । यानी समाज के भीतर चैक-एंड-बैलेस ही नहीं बल्कि वह तमाम संगठन जो अलग अलग क्षेत्र में काम भी कर रहे है तो फिर उनके होने का मतलब क्या है । और मतलब है तो फिर क्या सत्ता में रहते हुये स्वयंसेवक के पैसले और संघ के स्वयंसेवक के तौर पर स्वदेशी जागरण मंच , किसान संघ, आदिवासी कल्याण संघ , भारतीय मजदूर संघ की सोच भी एक सरीखी मान ली गई या सत्ता बनी रहे इसलिये दबायी जा रही है ।

असल में यह सवाल देश के लिये इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलो की समझ व्यापक होना देश के ही हित में होता है । और बीजेपी के पास संघ परिवार सरीखा ऐसा अनूठा सामाजिक संगठन है जिसके स्वयंसेवक हर मुद्दे पर देश की नब्ज पकडे रहते है । लेकिन सभी एक ही लकीर पर एक ही बिन्दु के इर्द-गिर्द घुमड़ने लगे तो फिर रास्ता चाहे अनचाहे उस मूल को पकड़ेगा जिसके आसरे संघ परिवार बना । यानी हिन्दू राष्ट्र की सोच हर निर्णय के बाद डगमगाते हुये राजनीतिक सत्ता के लिये भी ढाल का काम करेगी और पार्टी के लिये भी हथियार बनेगी । और संघ परिवार सामाजिक सासंकृतिक संगठन होते हुये भी हमेशा राजनीतिक नजर आयेगा या बीजेपी राजनीतिक पार्टी होते हुये भी आरएसएस के राजनीतिक संगठन के तौर पर ही काम कर पायेगी । ध्यान दें तो हो यही रहा है । बीजेपी का अध्यक्ष अमित शाह को दोबारा बनाना चाहिये की नहीं इसपर जलगांव में 6 से 8 जनवरी तक संघ परिवार के प्रमुख स्वयंसेवक ही चिंतन करते है । चिंतन के बाद 17 जनवरी को सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल प्रधानमंत्री मोदी को जानकारी देते है । उनकी राय लेते है । और प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति या इच्छा  मान कर 18 जनवरी को कृष्णगोपाल बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से मिलते है , उन्हें खुशखबरी देते है । चुनौतियों का सामना करने में अमित शाह के साथ संघ परिवार भी खड़ा है , इसका भरोसा देते है ।फिर 19 जनवरी को अमित शाह से रुठे मुरली मनोहर जोशी
और लालकृष्ण आडवाणी से मिलते है । जोशी और आडवाणी की तंज भरी खामोशी को अनदेखा करते है । और अनुभवी पीढी को मोदी के सामने चुकी हुई पीढी करार दिये जाने पर संघ परिवार खामोशी बरतता है । और 20 जनवरी को 11 अशोक रोड पर यह सूचना चस्पा कर दी जाती है कि 24 जनवरी को सुबह 10 से दोपहर एक बजे तक अध्यक्ष पद के लिये नामांकन होगा । एक से डेढ बजे तक नाम वापस लेने और जांच का काम होगा । और
जरुरी हुआ तो 25 को चुनाव होगा । यानी समूची कवायद संघ परिवार के आसरे प्रधानमंत्री मोदी को केन्द्र में रखकर अगर बीजेपी अध्यक्ष की जरुरत समझी जाती है तो सवाल तीन है । क्या बीजेपी राजनीतिक दल नहीं बल्कि संघ परिवार का राजनीतिक संगठन मात्र है । क्या मौजूदा राजनीतिक शून्यता में संघ परिवार राजनीतिक हो रहा है ।

क्या राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ हो चुकी है । यानी जिसके पास सत्ता तक पहुंचने या सत्ता पर बने रहने के मंत्र है वहीं सबसे ताकतवर हो चुका है । और उसी अनुकुल समूची कवायद मौजूदा राजनीतिक सच है । अगर हा तो फिर चुनाव जीतने के तरीके अपराध, भ्र्ष्ट्रचार और कालाधन के नैक्सस से कैसे जुडे है इसपर तो नब्बे के दशक में ही वोहरा कमेटी की रिपोर्ट अंगुली उठा चुकी है । यानी देश का रास्ता उसी चुनावी व्यवस्था पर टिक रहा है जिसे ना तो स्टेट्समैन चाहिये । ना ही सामाजिक समानता । ना ही राजनीतिक शुद्दीकरण । और ना ही हिन्दु राष्ट्र । उसे सिर्फ सत्ता चाहिये । और सत्ता की इसी सोच में एक तरफ संघ है तो दूसरी तरफ सरकार और बीच में अमित शाह दुनिया की सबसे बडे राजनीतिक दल के अध्यक्ष । जिनसे निकलेगा क्या इसके लिये 2019 तक इंतजार करना होगा ।

"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...