Wednesday, May 18, 2016

कांग्रेस के प्रिय " रघुराम राजन " क्या देश के प्रिय नहीं ?- पीतांबर दत्त शर्मा - +9414657511

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी के टारगेट पर हैं। हर किसी के मन में यह सवाल आ रहा है कि आखिर क्या वजह है कि स्वामी ने राजन के खिलाफ इतने सख्त कमेंट्स किए हैं। हम आपको बताते हैं रघुराम राजन पर स्वामी का शक सही होने की 5 बड़ी वजहें।
1. वर्ल्ड बैंक की पसंद हैं रघुराम राजन
कुछ दिन पहले ही वर्ल्ड बैंक ने यह कहा कि अगर राजन को आरबीआई के गवर्नर पद से हटाया गया तो इसका रुपये की कीमत पर बुरा असर पड़ेगा। इसे एक तरह से विश्व बैंक की धमकी की तरह माना जा रहा है। यहां तक कहा जाता है कि विश्व बैंक की सलाह पर ही मनमोहन सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने रघुराम राजन को आरबीआई का गवर्नर बनाया था। इससे पहले वो विश्व बैंक और अमेरिका के फेडरल रिजर्व बैंक के बड़े पदों पर रह चुके थे।
2. ‘मेक इन इंडिया’ का विरोध किया था
जब ‘मेक इन इंडिया’ को लेकर देश भर में चर्चा थी, तो राजन ने कहा कि हमें मेक फॉर इंडिया पर ज्यादा जोर देना चाहिए। इसका मतलब हुआ कि कंपनियां भारत में सामान न बनाएं, बल्कि वो दूसरे देशों से बनाकर भारत को बेचें। बस इतना ध्यान रखें कि वो सामान भारत के लोगों की जरूरत के हिसाब से डिजाइन किया गया हो।
3. आर्थिक विकास दर पर फब्ती कसी
आर्थिक विकास दर अधिक होने पर दुनिया का कोई भी देश गर्व करता है। लेकिन जब जीडीपी ग्रोथ के मामले में चीन को पछाड़ते हुए भारत नंबर-1 देश बन गया तो रघुराम राजन ने कहा कि इसे लेकर इतना खुश होने की जरूरत नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत अंधों में काने राजा जैसी है। यह बयान उन्होंने ब्रिटेन दौरे में दिया था। जिससे पूरी दुनिया में देश की किरकिरी हुई थी। अर्थशास्त्र के हर जानकार इस बात पर हैरत करते हैं कि विकास दर ज्यादा होने से रघुराम राजन आखिर खुश क्यों नहीं हैं?
4. भारत की साख को धक्का पहुंचाने की कोशिश की
ब्रिटेन दौरे में ही आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि विदेशी बैंक भारत में अपनी शाखाएं नहीं खोल रहे हैं, क्योंकि भारत की क्रेडिट रेटिंग कम है। इससे उन्हें ज्यादा रकम की जरूरत पड़ती है। यह ऐसा बयान था, जिसने बहुतों के कान खड़े कर दिए थे। शायद ऐसा पहली बार था कि देश का प्रमुख अर्थशास्त्री सीधे-सीधे देश की साख को चोट पहुंचाने की कोशिश कर रहा था।
5. राजन ने ब्याज दरें कम नहीं होने दीं
वित्त मंत्रालय की बार-बार अपील के बावजूद रघुराम राजन ने ब्याज दरें कम नहीं होने दीं। उनकी दलील थी कि ऐसा वो इसलिए कर रहे हैं ताकि महंगाई न बढ़ने पाए। जबकि सच्चाई यह थी कि अधिक ब्याज दरों से आर्थिक गतिविधियों और निवेश पर बेहद खराब असर पड़ा। इसकी वजह से नए उद्योग-धंधे नहीं लगे और बेरोजगारी में बढ़ोतरी हुई। राजन के आलोचकों का कहना है कि वो जानबूझ कर ऐसा कर रहे थे ताकि देश की जीडीपी ज्यादा बढ़ने न पाए और भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के नीचे ही रहे।
6. खेती को बर्बाद करने की साजिश का हिस्सा
यह आरोप अक्सर लगते रहते हैं कि भारतीय खेती को खत्म करने की एक अंतरराष्ट्रीय साजिश चल रही है। वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और अमेरिका की तमाम आर्थिक संस्थाएं यही चाहती हैं कि भारत सर्विस सेक्टर तक सिमट कर रह जाए। इस वजह से खेती और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बर्बाद करने की कोशिश चलती रही है। खुद रघुराम राजन खुलकर इस बात की वकालत करते रहे हैं कि भारत को खेती से निकलकर सर्विस सेक्टर पर फोकस करना चाहिए।
7. अमेरिका, यूरोप का बाजार बनाने की कोशिश
अमेरिका और यूरोपीय देशों की अपने प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए भारतीय बाजार पर पैनी नज़र है। चीन के बाजार से निराश होने के बाद उनके लिए भारत ही उम्मीद की एकमात्र किरण है। अगर किसी तरह भारत को पूरी तरह सर्विस प्रोवाइडर देश बना दिया जाए तो वो अपनी जरूरत के हर सामान को खरीदने के लिए विदेशी कंपनियों के भरोसे हो जाएगा। राजन की नीतियां भी इस साजिश की समर्थक मालूम होती हैं।
8. अमेरिकी नागरिक हैं रघुराम राजन!
यह आरोप भी लगते हैं कि रघुराम राजन अमेरिकी नागरिक हैं और उनके पास अमेरिकी पासपोर्ट भी है। ऐसे में सवाल उठता है कि वो भारतीय रिजर्व बैंक के सबसे ऊंचे पद पर कैसे पहुंच गए। करीब 2 साल पहले आरटीआई के तहत उनकी नागरिकता के बारे में जानकारी मांगी गई थी। लेकिन रिजर्व बैंक ने उसका जवाब देने से इनकार कर दिया था। बीजेपी के सीनियर लीडर मुरली मनोहर जोशी भी एक बार लोकसभा में राजन की नागरिकता पर सवाल पूछ चुके हैं।
9. मीडिया में बने रहने के शौकीन हैं रघुराम राजन
राजन देश के पहले ऐसे आरबीआई गवर्नर थे, जिनकी नियुक्ति के वक्त अखबारों और टीवी चैनलों पर उनका जोरदार महिमामंडन किया गया था। आर्थिक अखबारों ने तो उन्हें 007 जेम्स बॉन्ड तक कह डाला था। रिजर्व बैंक के गवर्नर जैसे लो-प्रोफाइल पद के लिए ऐसी मीडिया कवरेज भी कहीं न कही
हीं शक पैदा करती है।
10. राजन के पक्ष में जबर्दस्त लॉबिंग
एक आरबीआई गवर्नर को दूसरे कार्यकाल में जारी रखने के लिए मीडिया से लेकर देश और दुनिया की आर्थिक संस्थाओं का लॉबिंग करना भी थोड़ा शक पैदा करता है। कई अंग्रेजी अखबार अभी से रघुराम राजन के पक्ष में बड़े-बड़े फीचर्स छाप रहे हैं और बता रहे हैं सुब्रह्मण्यन स्वामी ने उनका विरोध करके क्यों बहुत बड़ी गलती की है। जाहिर है ऐसा जब भी होता है दाल में कुछ न कुछ काला जरूर होता है।
                         "5th पिल्लर करप्शन किल्लर"वो ब्लॉग जिसे आप रोज़ाना पढ़ना,बाँटना और अपने अमूल्य कॉमेंट्स देना चाहेंगे !लिंक- www.pitamberduttsharma.blogspot.com.!

Wednesday, May 11, 2016

फर्जी पढ़ाई को रोकें तो बात हो !!!!!

तो प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री फर्जी नहीं है इस पर दिल्ली यूनिवर्सिटी ने भी मुहर लगा दी । लेकिन फर्जी डिग्री के सवाल ने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि जब देश के डीम्ड यूनिवर्सिटी की डिग्री को लेकर फर्जी का सवाल

दिल्ली के सीएम उठाने लगे तो फिर फर्जी शब्द डिग्री के साथ कहे अनकहे देश में चस्पा तो है ही । क्योंकि फर्जी डिग्री का खेल खासा बड़ा है । क्योंकि देश में पढाई नौकरी के लिये होती है । नौकरी पढाई पर नहीं डिग्री पर मिलती है । और इसी का असर है कि एसोचैम की रिपोर्ट कहती है मैनेजमेंट की डिग्री ले चुके 93 फिसदी नौकरी लायक नहीं है । और नैसकाम की रिपोर्ट कहती है कि 90 फिसदी ग्रेजुएट और 70 फिसदी इंजीनियर प्रशिक्षण के लायक नहीं है । और देश में फर्जी डिर्गी बांटना ही कैसे सबसे बडा बिजनेस या नौकरी हो चली है इसका आंकड़ा 2012 के सरकारी रिपोर्ट से समझा जा सकता है । जिसके मुताबिक देश में 21 यूनिवर्सिटी फर्जी डिग्री बांटते हैं । दस लाख से ज्यादा छात्र बिना कालेज गये डिग्रीधारी बन जाते है। और शायद यही वजह है कि हर राज्य में नौकरी के लिए डिग्री पढाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है। और जब सवाल डिग्री की जांच का होता है को क्या क्या होता है । 2015 में बिहार में फर्जी डिग्री पर जांच के डर से 1400 टीचरों ने नौकरी से इस्तीफा दिया । राजस्थान में बीते साल 1872 सरपंच चुने गए, जिनमें 746 के खिलाफ फ़र्ज़ी डिग्री और मार्कशीट लगाने के आरोप हैं। इनमें 479 के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुई ।

पिछले साल ही एयर इंडिया ने एक पायलट की डिग्री फर्जी होने के आरोप में उसे निलंबित किया गया । मई 2015 में लखीमपुर खीरी में 29 फर्जी डिग्री धारक शारीरिक शिक्षा प्रशिक्षकों को पकड़ा गया । इन्हीं पदों के लिए 47 अभ्यर्थी फिजिकल ट्रेनिग की फर्जी मार्क शीट तथा 45 फर्जी बीए की डिग्री के साथ पकड़े गए। और पिछले साल ही दक्षिण कश्मीर के एक स्कूल टीचर मोहम्मद इमरान खान से खुली अदालत में जज ने गाय पर निबंध लिखने को कहा तो वो लिख नहीं पाया क्योंकि पढ़ाई कभी की नहीं थी और फर्जी डिग्री के आधार पर टीचर बना था । तो नौकरी पाने के लिए देश में पढाई नहीं डिग्री चाहिए ।

इसीलिये डिग्री पाने के लिए पढ़ाई जरुरी नहीं है। और पढ़ाई के लिए पैसा भी चाहिए-वक्त भी। तो जिन्हें इस झंझट से बचना है उनके लिए फर्जी डिग्री ही आसरा है। और मानव संसाधन मंत्रालय ने भी 21 यूनिवर्सिटी को ब्लैक लिस्ट किया था। बावजूद इसके न फर्जी डिग्री का खेल रुका और न फर्जी डिग्री देकर नौकरी की चाह। क्योंकि एप्लायमेंट बैकग्राउंड चैक सर्विस प्रदान करने वाली फर्म राइट की नयी रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2014 से अप्रैल 2015 तक भारत में कुल 2 लाख लोगों की डिग्री का निरीक्षण किया गया,जिसमें 52 हजार डिग्री फर्जी पायी गई । ऐसे में समझना यह भी जरुरी है कि सरकारो का नजरिया कभी शिक्षा पर रहा ही नहीं तो फर्जी डिग्री से किसी का क्या लेना देना । क्योंकि देश का सच यही है कि सरकार पाइमरी से लेकर उच्च सिक्षा तक पर हर बरस 70 हजार करोड़ खर्च करती है । और प्राईवेट क्षेत्र में हर बरस सरकारी खर्च से दुगने यानी करीब डेढ लाख करोड़ का खेल होता है। और हर बरस उच्च सिक्षा के लिये देश छोड़कर बाहर जाने वाले लाखों
छात्रो के जरीये देश का 90 हजार करोड रुपया भी बाहर ही चला जाता है । यानी जब देश में पीएम की डिग्री को लेकर सवाल उठ रहे हो तब देश में शिक्षा का स्तर कैसे बढायें । शिक्षा के लिये वातावरण कैसे बनाये। अरबो रुपये देश के बाहर शिक्षा के लिये जा रहे हो । तो इसे कैसे रोका जाये । इसके बदले अगर देश इसी में खुश है कि भारत जवान है । और 65 फिसदी आबादी 35 बरस से कम है तो अगला सवाल यह भी होगा कि इस युवा भारत को कौन सी शिक्षा मिल रही है यह भी देख-समझ लें । और शिक्षा के नाम पर कैसे और कितना बडा धंधा हो रहा है यह भी देख लें । क्योंकि निजी क्षेत्र में शिक्षा का धंधा 7 लाख करोड रुपये से ज्यादा का है । और शिक्षा का सच ये है कि नेशनल एसेसमेंट और एक्रिडिटेशन काउसिंल के मुताबिक 90 फिसदी कालेज और 70 फिसदी यूनिवर्सिसटी का स्तर निम्न है ।

आईआईटी में ही 15 से 25 फिसदी शिक्षकों की कमी है । लेकिन शिक्षा के नाम पर धंधा हो रहा है तो आलम यह है कि आजादी के बाद पहले 52 बरस में सिर्फ 44 निजी शिक्षा संस्थाओं को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्ज दिया गया । लेकिन बीते 16 बरस में 69 निजी संस्थाओं को डीम्ड का दर्जा दे दिया गया । इतना ही नहीं जिस 2020 में भारत को दुनिया के सबसे ताकतवर और तकनीक या वैज्ञानिक क्षेत्र में भारत को मानव शक्ति का जरीखा माना जा रहा है उसका सच यही है उच्च शिक्षा के लिये भारत में दुनिया के सबसे कम छात्र रजिस्ट्रेशन कराते है । हालात यह है कि भारत में 11 फिसदी छात्र ही उच्च शिक्षा का रजिस्ट्रशन कराते है । जबकि विकसित देशो में यह 75 से 85 फिसदी तक है । और भारत को 11 फिसदी से 15 फीसदी तक पहुंचने के लिये 2,26,410 करोड़ का बजट चाहिये । और भारत का आलम यह है कि शिक्षा का बजट ही 75 हजार करोड पार नहीं कर पाया है । जबकि हर बरस देश का 6 लाख युवा पढाई के लिये 90 हजार करोड रुपया देश के बाहर ले जाता है । और भारत सरकार का उच्च शिक्षा पर बजट है 28840 करोड ।

Tuesday, May 10, 2016

उनका "देशप्रेम", हमारे देशप्रेम से बड़ा कैसे ?? - पीतांबर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो.न. - +919414657511

आजकल भारत में "सच्चे इतिहास"और अपने आपको सच्चा देश-भक्त दिखाने का मौसम सा चल है जैसे ! जिसे देखो वो ही अपने मर्ज़ी के आदमियों को आजादी का सच्चा सिपाही बता रहा है !और अपनेआपको सच्चा देश भक्त बताकर दोबारा से इतिहास लिखने-पढ़ाने की बातें कर रहा है !उस वक़्त के इनके बुज़ुर्ग तो भाव वश जेल  चले गए और अपने प्राणों को भी देश पर न्योछावर कर गए ,लेकिन वो अंग्रेज़ों की उस विशेष "डायरी" में अपना नाम अंकित नहीं करवा पाये ,जिसको देखकर तत्कालीन वामपंथियों ने इतिहास लिखा था !अब बाद में पछताने से क्या होता है जब "चिड़िया"चुग गयी खेत !!
           आज जिन लोगों की इस देश में सरकार चल रही है , वो लोग इतने भोले और अपरिपक्व हैं कि हर काम को वो तुरंत कर देना चाहते हैं !जिस बात को काम पूरा होने तलक "गुप्त"रखना चाहिए , उसका ढिंढोरा ये लोग पहले ही स्वयं पीटने लग जाते हैं !जिससे वो लोग चोकन्ने हो जाते हैं जिन्होंने उस समय अपनी "सत्ता"का फायदा उठाकर अपनी मर्ज़ी से कॉमरेडों से भारत का "विशेष इतिहास "लिखवाया और 67 वर्षों तलक पढ़वाया था !
                      जो मुद्दे अगले कार्यकाल हेतु छोड़ दिए जाने चाहिएं उन्हें ये भोले नेता लोग प्राथमिकता से आगे बढ़ा रहे हैं और जो जनहित के मुद्दे पहले सारे नियम-क़ानून को बदलकर तुरंत लागू करके जनता के दिलों में अपना स्थान अगले 20 वर्षों तलक सत्तासीन रहने हेतु प्रयास करने चाहिए थे वो इन्होने संविधान और सिस्टम के पचड़ों में फंसाकर हंसी के पात्र बन रहे हैं !एकबार फिर इन हिन्दू-नेताओं ने अपनेआपको अपरिपक्व ही साबित किया है !बड़बोलापन, जल्दी "फूंक"में आ जाना और "दसों - दिशाओं "के ज्ञाता होने का भ्रम पाले रखना इनकी विशेष कमियां हैं !दूसरी तरफ के कॉंग्रेसी+समाजवादी+कॉमरेड और अम्बेडकरवादी सभी मिल जाते हैं और इनको सत्ता से बाहर रहते हुए भी कूटनीति से "धुल-चटा"जाते हैं !डराते हैं सो वो अलग !
          जब भी कांग्रेस सत्ता से बाहर रही है वो सत्तासीन पार्टियों को डराने में कामयाब रही है !यही इनकी वो विशेषता है जिसे भारत के अफसर लोग भी भलीभांति से समझते हैं !शायद इसीलिए सारे अफसर इनका काम सत्ता में नहीं होने पर भी प्राथमिकता से करते हैं !कार्यपालिका पर पकड़ ही बड़ा नेता बनाने में सहायक सिद्ध होती है !
             इसलिए हिन्दू नेताओ !! होश में आओ !!परिपकवता दिखाओ ! रोटी-कपड़ा और मकान से संबंधित जनहित के कार्य प्राथमिकता से सभी कानूनों में बदलाव करके तुरंत सभी लाभ जनता तक पंहुचाओ !!अन्यथा आगे फिरसे सत्तासीन होने का ख्वाब लेना छोड़ दो !!
             जय-हिन्द !! जय-भारत !!
 "5th पिल्लर करप्शन किल्लर"वो ब्लॉग जिसे आप रोज़ाना पढ़ना,बाँटना और अपने अमूल्य कॉमेंट्स देना चाहेंगे !लिंक- www.pitamberduttsharma.blogspot.com.


  

Saturday, May 7, 2016

मोदी के दो बरस होने से पहले ही संघर्ष की मुनादी के मायने.......???

मोदी सरकार के दो बरस पूरे होने से ऐन पहले ही राजनीतिक संघर्ष की मुनादी सड़क पर खुले तौर पर होने लगी है। यानी अगस्ता हेलीकाप्टर की उड़ान ने यह संकेत दे दिये हैं कि अब सवाल संसद के जरिये देश चलाने या विपक्ष को साथ लेकर सरकार चलाने का वक्त नहीं रहा । वक्त सियासी जमीन बचाने या सियासी जमीन बनाने के आ गया है। इसीलिये एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी अब चुनावी सभाओं में गांधी परिवार को सजा दिलाने का जिक्र करने से नहीं चूक रहे हैं तो सोनिया गांधी मोदी सरकार को मिट्टी में मिटाने के तंज कसने से नहीं चूक रही है। और यह तकरार संसद के भीतर नहीं बल्कि चल रही संसद के बाद सड़क से हो रही है। और इस संघर्ष में तीसरा कोण बने नीतिश कुमार भी संघ और बीजेपी मुक्त सत्ता का ख्वाब यह सोच कर संजो चले हैं कि जब कांग्रेस हर राज्य में अपने हर विरोधियों को साध कर मोदी सरकार को हराने के लिये झुकने को तैयार है तो फिर लड़ाई अभी से 2019 को लेकर बनने लगे हैं, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता । 


लेकिन सवाल यही है कि क्या जिस अगस्ता हेलाकाप्टर को बोफोर्स तोप की तर्ज पर मोदी सरकार रखना चाह रही है क्या वह अतीत दुबारा उभर पायेगा । या फिर मोदी सरकार को हराने के लिये जिस तरह 1977 के जनता पार्टी की तर्ज पर कांग्रेस लेफ्ट से लेकर राइट तक को अपने साथ समेटने को तैयार है क्या वह अतीत लौट कर आयेगा। और क्या जो सपना संघ की खिलाफत कर नीतीश कुमार पाले हुये है क्या दोबारा देवेगौडा या गुजराल के दौर को देश दोहराने के लिये तैयार हैं। तो ध्यान दें तो भारतीय राजनीति के सारे पुराने प्रयोग नये सीरे से मथे जा रहे हैं। हर की बिसात बदल गई है और हर का नजरिया बदल चुका है। क्योकि एक तरफ सोनिया गांधी भी इस सच को समझ गई है 45 सांसदों के जरीये संसद के भीतर ज्यादा लंबी लडाई नही लड़ी जा सकती है तो वह सड़क पर कार्यकर्ताओं के साथ संघर्ष के लिये भी तैयार है। और अपने हर विरोधी के साथ हर राज्य में गठबंधन कर बीजेपी को साधते हुये। मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का कोई मौका गंवाना नहीं चाहती। और मोदी सरकार को भी समझ में आ गया है कि गवर्नेंस का मतलब अब विपक्ष को साथ लेकर चलना नहीं बल्कि निशाने पर लेकर कठघरे का खौफ पैदा करते हुये दो दो हाथ करना ही ठीक है । यानी इसी आसरे सौदेबाजी हो गई तो ठीक नहीं तो कांग्रेस मुक्त भारत के संघ के एजेंडे को लागू कराने के लिये तमाम संस्थानों का सियासीकरण । और इस दो कोण में तीसरा कोण नीतीश कुमार बना रहे हैं। जो 2014 से पहले संघ को सही ठहराने के लिये जेपी के तर्क गढ़ा करते थे । वही नीतिश अब संघ-बीजेपी विरोध के सबसे बडा झंडाबरदार बनने को तैयार हो रहे हैं। लेकिन राजनीति संघर्ष की मुनादी चलती हुई संसद के वक्त दिल्ली की सडक पर कांग्रेस लोकतंत्र बचाओ के नारे के साथ इस तरह करेगी जिसमें संसद मार्ग पर बैरिकेट्स तोडते हुये पूर्व पीएम मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी नजर आये यह तो किसी ने सोचा नहीं होगा ।

लेकिन सच यही है कि कांग्रेस के सड़क का यह संघर्ष भी संसद में 45 से उसी 272 तक पहुंचने की चाह है जिस चाह में एक वक्त बीजेपी सडक पर संघर्ष करती रही और कांग्रेस सत्ता के मद में डूबी रही। तो क्या दो बरस में वाकई ऐसी स्थिति आ गई है जहां कांग्रेस को लगने लगा है कि वह लोकतंत्र बचाओ के नारे तले मोदी सरकार
को कठघरे में खड़ाकर अपनी खोयी जमीन बना सकती है। या फिर मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को ही हथियार बनाकर कांग्रेस के नोस्टाल्जिया को अब गांधी परिवार जीवित करना चाहता है। लेकिन समझना यह भी होगा कि कांग्रेस के पास कोई ऐसी स्क्रिप्ट वाकई नहीं है जहां योजनाबद्द तरीके से कांग्रेस को कैसे आगे बढ़ना है यह उसे पता हो। क्योंकि बीते दो बरस में जिन मुद्दों के आसरे कांग्रेस ने खुद को खड़ा करने की कोशिश की वह मुद्दे मोदी सरकार ने ही दिये । भूमि अधिग्रहण का सवाल सूट बूट की सरकार तले राहुल को पहचान दे गया । तो जीएसटी का सवाल अतित में मोदी के जीएसटी विरोध तले जा खड़ा हो गया। और मनरेगा या खाद्दान्न सुरक्षा या फिर आधार कार्ड के गुणगाण ने कांग्रेस को मान्यता दे दी । यानी मोदी सरकार ही काग्रेस को खोयी जमीन अपनी असफलताओं से लौटा रही है । इसीलिये जो मुद्दे एक वक्त पीएम की रेस में होते हुये
नरेन्द्र मोदी उठाते। अब उन्हीं मुद्दों को कांग्रेस उठा रही है और सरकार फंसती जा रही है। यानी मुद्दे वही किसान-मजदूर, खेती-किसानी, अल्पसंख्यक- दलित, महंगाई और पाकिस्तान के है। बस पाला बदल गया है । तो क्या पीएम बनने से पहले जिस तरह हर भाषण के वक्त मोदी -मोदी की गूंज होती थी , वह राग बदल रहा है । क्योंकि सच यह भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी की लोकप्रियता के पीछे कही ना कही मनमोहन सिंह के दौर का काला अध्याय़ था जिससे लोग उब गये थे । और एतिहासिक चुनावी जीत को ही बीजेपी ने जिस तरह मापदंड बनाया उसमें अब यह सवाल बीजेपी के भीतर भी खड़ा हो चला है कि चुनावी जीत ना हो तो फिर सियासी जमीन बरकरार रखने का आधार होगा क्या। क्योकि 2015 में दिल्ली -बिहार में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। फिर 2016 में सिवाय असम के किसी राज्य में बीजेपी को कोई आस भी नहीं है । और अगर असम में भी चूक गये तो बीजेपी के सामने यही बडा सवाल होगा कि वह सियासी जमीन बनाये रखने के लिये काग्रेस पर सीधा हमला करें। ध्यान दें तो पहली बार मोदी सरकार ने अगस्ता हेलीकाप्टर के जरीये गांधी परिवार को कटघरे में खडाकर सीधे संघर्ष की मुनादी की है। तो मोदी भी अब कांग्रेस की दुखती रग को पकड़ने के लिये तैयार हैं। क्योंकि पीएम बनने से पहले विकास की जो भी लकीर खिचने की मोदी ने सोची होगी वह दो बरस में संसद के हंगामे और राज्यसभा में कांग्रेस की रणनीति ने फेल कर दिया है। तो बीजेपी के सामने भी अब सियासी जमीन बचाने के लिये रास्ता सियासत का ही बचता है । इसीलिये अगस्ता हेलीकाप्टर को लेकर काग्रेस अगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच की बात कर रही है तो सुब्रहमण्यम स्वामी यह कहने से नहीं चूक रहे कि मनमोहन सिंह के दौर में ही सुप्रीम कोर्ट का जिक्र क्यो नहीं हुआ । तब सिर्फ सीबीआई जांच ही क्यों हुई। यानी जिस रास्ते पर देश निकल पड़ा है उसमें सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिसके पास राजनीतिक सत्ता होगी उसी सत्ता के अनुकूल लोकतंत्र का सारे खंभे काम करेंगे। और सत्ता में जो भी होगा उसका रास्ता भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नहीं बल्कि गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस या संघ परिवार मुक्त बीजेपी का होगा। और देश सत्ता बदलने के साथ इसी में उलझ कर रह जायेगा कि बीजेपी संघ का राजनीतिक संगठन भर है और गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस कुछ भी नहीं ।

Friday, May 6, 2016

भ्रष्टाचार के गर्त में डूबे देश में "हेलीकाप्टर" की क्या औकात?

462 बिलियन डालर, आजादी के बाद से साठ बरस के भ्रष्टाचार की यह रकम है। यह रकम ऐसे कालेधन की है जो टैक्स चोरी, अपराध और भ्रष्टाचार के जरीये निकली। वाशिंगटन की ग्लोबल फाइनेनसियल इंटीग्रेटी की रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार भारत की जड़ों में रहा जिसकी वजह से 462 बिलियन डालर यानी 30 लाख 95 हजार चारसौ करोड रुपये भारत के आर्थिक विकास से जुड़ नहीं पाये। और 1991 के आर्थिक सुधार ने इस रकम का 68 फिसदी हिस्सा यानी करीब 21 लाख करोड अलग अलग तरीकों से विदेश चला गया । यानी जो सवाल आज की तारिख में कालेधन से लेकर भ्रष्टाचार को लेकर उसकी नींव आजादी के वक्त ही देश में पडी और भ्रष्टाचार को लेकर जो सवाल हेलीकाप्टर घोटाले के जरीये संसद में उठ रहे है उसका असल सच यही है कि रक्षा सौदौ में घोटाले देश के अन्य क्षेत्रो के घोटालो में काफी पीछे हैं। और इसे हर राजनेता बाखूबी समझता है।

यानी भ्रष्टाचार को लेकर संसद में चर्चा भी कोई नयी ईबारत नहीं लिखी जा रही है । बल्कि नेहरु के दौर में जीप घोटाले से लेकर मुंदडा घोटाला, इंदिरा के दौर में मारुति घोटाले से लेकर तेल घोटाला, राजीव गांधी के दौर में बोफोर्स से लेकर सेंट किट्स, पीवी नरसिंह राव के दौर में हर्शद मेहता से लेकर जेएमएम घूसखोरी, वाजपेयी के दौर में बराक मिसाइल से लेकर यूटीआई और सबसे प्रसिद्द ताबूत घोटाला तो मनमोहन के दौर में टूजी से लेकर कोयला को कोई भूल नहीं सकता। और यह जानकार हैरत नहीं होनी चाहिये कि अब जब राज्यसभा में हेलीकाप्टर घोटाले को लेकर बहस में हंगामा मचा है , तो इसी राज्यसभा में अबतक छोटे बडे 600 से ज्यादा भ्रष्टाचार-घोटालो को लेकर आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला बहस के रुप में सामने आ चुका है । आजादी के बाद से संसद में 322 घोटालों पर चर्चा हो चुकी है। इससे निकला क्या इसपर ना जाये । इसका इसर हुआ क्या यह केएंमपीजी की एक रिपोर्ट बताती है कि सत्ताधारियों के भ्रष्ट होने से विकास की राह में देश का सिस्टम नाकाबिल बना दिया गया । जो सक्षम नही थे उनका प्रभुत्व बाजार पर हो गया। घरेलू वित्तीय बाजार देश की जरुरतों से नहीं ब्लैक मनी से जुड गया । और असर इसी का हुआ कि शेयर बाजार पूंजी के निवेश लगाने और निकालने से जुड गया ।

रियल इस्टेट और कस्ट्रक्शन कालेधन का सबसे बडा अड्ड बना । तो टेलिकाम का विकास के राग में घोटाले से जुड़ गया । शिक्षा, गरीबी सरीखे समाजाकि विकास के सवाल भ्रष्टाचार से जुड़ गये । और इसी दायरे में बैक से लेकर इश्योरेंस और म्युचल फंड तक भ्रष्टाचार के दायरे में आये । जिनमें माल्या नया चेहरा जरुर हैं। लेकिन क्रोनी कैपटिलिज्म के खेल में देश के वित्तीय संस्धान कैसे जुडे और कैसे 2008 तक जो रकम 30 लाख करोड की थी वह कालेधन के रुप में 2014 के चुनाव से ठीक पहले 50 लाख करोड के होने का जिक्र कैसे कर रही थी । यह किसे से छुपा नहीं है । यानी एक तरफ मोदी सरकार की जांच तो दूसरी तरफ कटघरे में गांधी परिवार और सवाल यही कि 3600 करोड के अगस्ता हेलाकाप्टर के खेल में किसने कितनी कमीशन खायी । और बीते हफ्ते भर से राजनेताओ के गलियारे में बहस इसी सच को टटोलने को लेकर हो चली है कि इटली की अदालत के पैसले ने यह बता दिया कि घूस किसने दी । लेकिन घूस किसने ली । या किसको मिली इसपर अभी तक
देश की तमाम जांच एंजेसी सिर्फ पूर्व वायुसेनाध्यक्ष त्यागी और गौतम खेतान से पूछताछ के आगे बढ नही पायी है । लेकिन संसद के भीतर का हंगामा कांग्रेस के राजनेताओ को कटघरे में खड़ा कर रहा है और राजनीतिक रोमांच इसी बात को लेकर हो चला है कि सोनिया गांधी का नाम है या नहीं और एपी है कौन
शख्स । तो क्या राजनीतिक तौर पर सवाल फिर दोषी बताकर कटघरे में खडा करने का है । या देश के जांच एंजेसिया या अदालत भ्रष्टाचार करने वालों को कोई सजा भी देगी। क्योंकि देश का सच तो यह भी है कि हर बरस 5 लाख करोड की रियायत अब भी कारपोरेट और इंडस्ट्रलिस्ट को मिलती है । सवा लाख करोड से
ज्यादा के एनपीए के बावजूद बैंकों का कारपोरेट लोन देना जारी है । खेती और सिचाई के नाम पर औसतन सालाना 5 हजार करोड़ कहां जाते हैं, यह किसी को नहीं पता। उच्च शिक्षा के लिये हर बरस देश के बाहर 30 हजार करोड से ज्यादा की रकम चली जाती है । यानी चलते हुये सिस्टम को कैसे बदला जाये जिससे देश
विकास की राह पर चले क्या उन मुद्दों से हर किसी ने आख मूंद ली है। और संसद में सबसे अनुभवी शरद यादव भी अगर खुले तौर पर कहते हैं कि राज्यसभा में सिर्फ गाल बजाया जा रहा है निकलेगा कुछ नहीं। अगर ऐसा है तो याद कीजिये 15 अगस्त 1947 की आधी रात को दिए अपने मशहूर भाषण में देश के पहले प्रधानमंत्री ने भारत की सेवा का मतलब करोड़ों गरीबों और शोषितों की सेवा करार दिया था,जिसका मतलब गरीबी और असमानता को खत्म करना था।

और गरीबों को हक मिले तो देश औद्योगिक विकास की राह पर भी चल पड़े-इसे ध्यान में रखते हुए देश ने मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल अपनाया। जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों की भागीदारी हो। लेकिन-बीते 68 साल में मिक्स्ड इकोनामी से खुली अर्थव्यवस्था के दौर में आने तक देश ने विकास की जो चाल
चली उससे हासिल हुआ क्या। या कहें कि क्या वो लक्ष्य हासिल हुए-जिनका सपना देश ने आजादी के सूरज के साथ दिखा था। क्योंकि आंकड़ों पर ग़ौर करें तो आजादी के वक्त गरीबी की रेखा से नीचे 15 करोड लोग थे । तब जनसंख्या 33 करोड थी । आज आबादी करीब 130 करोड़ है, और गरीबी रेखा के नीचे 42 करोड है । यानी गरीबी कम करने में सरकारें नाकाम रहीं। लेकिन सवाल गरीबी का नहीं विकास का है। और विकास का मतलब वीवीआईपी हेलीक्पटर पर घूस लेने भर का नहीं है । समझना यह भी होगा कि देश में 400 लोगोके पास अपना चार्टर्ड विमान है । और 2985 परिवारो के पास जितनी संपत्ति यह है उसमे देश की के 18 करोड़ किसान मजदूरों के परिवार जीवन पर्यात अपने तरह से पांच सितारा जीवन जीवन जी सकते है। क्योंकि एक तरफ 52 फीसदी खेती पर टिके परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। जिनका कुल कर्ज ढाई हजार करोड का है तो दूसरी तरफ देश के 6 हजार उधोगपति बैंकों से सवा लाख करोड का कर्ज लेकर अब भी पांच सितारा जीवन जी रहे है । तो सवाल यही है कि जो सच संसद के भीतर बाहर नेहरु के दौर में राजनीतिक तौर पर सत्ता को परेशान करता था वही हालात मनमोहन से होते हुये मोदी के दौर में भी देश को परेशान कर रहे है । अंतर सिर्फ इतना आया है कि उस वक्त लोहिया संसद के भीतर बाहर यह सवाल उटाते थे कि नेहरु पर प्रतिदिन का खर्चा 25 हजार रुपये है जबकि एक आम आदमी तीन आने में जीता है । और अब संसद के भीतर बाहर कोई राजनेता नहीं कहते कि 80 करोड लोग तो अब भी 20 रुपये में जीते है तो पिर संसद में बैटे 85 फिसदी लोग करोडपति कैसे हो गये ।

Tuesday, May 3, 2016

तो ये है देश का इकनॉमिक मॉडल....???? "5th पिल्लर करप्शन किल्लर"वो ब्लॉग जिसे आप रोज़ाना पढ़ना,बाँटना और अपने अमूल्य कॉमेंट्स देना चाहेंगे !लिंक- www.pitamberduttsharma.blogspot.com.

गुजरात में पाटीदारों ने आरक्षण के लिए जो हंगामा मचाया- जो तबाही मचायी । राज्य में सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति स्वाहा कर दी उसका फल उन्हें मिल गया। सरकार ने सामान्य वर्ग में पाटीदारों समेत आर्थिक रुप से पिछड़े लोगों के लिए दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी। तो विकास की मार में जमीन गंवाते पटेल समाज के लिये यह राहत की बात है कि जिनकी कमाई हर दिन पौने दो हजार की है उन्हे भी आरक्षण मिल गया । यानी सरकारी नौकरी का एक ऐसा आसरा जिसमें नौकरी कम सियासत ज्यादा है । यानी आरक्षण देकर जो सियासी राजनीतिक बिसात अब बीजेपी बिछायेगी उसमें उसे लगने लगा है कि अगले बरस गुजरात में अब उसकी हार नहीं होगी । और इससे पहले कुछ ऐसा ही हाल हरियाणा के जाट आंदोलन का है। आरक्षण इन्हें भी चाहिए था । और आरक्षण की मांग करते हुये करीब 33 हजार करोड़ की संपत्ति स्वाहा इस आंदोलन में हो गई ।धमकी सरकार गिराने की दे दी गई तो आरक्षण भी मिल गया । लेकिन यह सवाल दोनों जगहों पर गायब है कि नौकरी है कितनी। और जिस जमीन और खेती को गंवाकर आरक्षण की राजनीति के रास्ते देश निकल रहा है उसका सच आने वाले वक्त में ले किस दिशा में जायेगा । क्योकि गुजरात में पटेल समाज की 12 फिसदी खेती

की जमीन विकास ने हडप ली । हरियाणा में जाट समाज की 19 फिसदी जमीन विकास ने हडप ली । देश में किसानों की कमाई में 27 फिसदी की गिरावट बीते 3 बरस में आई है । और अगर आरक्षण के जरीये नौकरियों की चाहत है तो हालात हैं कितने बुरे इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि गुजरात में 11,0189
रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं । तो हरियाणा में 30 लाख से ज्यादा रजिस्टर्ड बेरोजगार है । और देश की अर्थव्यवस्था जिस दिशा में जा रही है उसमें रोजगार बिना विकास का नारा ज्यादा बुलंद है कैसे तो आईये इसे भी समझ
लें ।

देश का असल सच यही है । जहा देश भर में रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 2 करोड 71 लाख 90 हजार है । तो वैसे बेरोजगार जो रोजगार दफ्तर तक भी नहीं पहुंच पाये उनकी संख्या 5 करोड 40 लाख है । और पूरे देश में सरकारी नौकरी करने वाले महज 1 करोड 70 लाख है । यानी जिस वक्त बिना रोजगार विकास के रास्ते मोदी सरकार चल पड़ी है और आरक्षण के मांग के लिये पटेल समाज से लेकर जाट समाज आरक्षण पा कर खुश है उस दौर का सच यह भी है कि बीते 9 बरस में देश में सरकारी नौकरी में 25 लाख नौकरियों की कमी आ गई । लेकिन ऐसा भी नहीं है कि विकास की सोच प्राइवेट नौकरिया पैदा कर रही है । मोदी सरकार
खुश है कि जीडीपी से लेकर निवेश में विकास हो रहा है लेकिन सच तो यही है कि भारत रोजगार रहित विकास की राह पर भारत चल पड़ा है। नौकरी का हाल क्य है-ये समझ लीजिए। देश के प्रमुख आठ कोर सेक्टरों में बीते बरस सबसे कम रोजगार पैदा हुआ । 2015 में सिर्फ 1.35 लाख युवाओं को रोजगार मिला । जबकि
2011 में 9 लाख और 2013 में 4.19 लाख युवाओ को नौकरी मिली थी । यानी जिसवक्त जीडीपी को लेकर सरकार अपना डंका दुनिया में यहकहकर बजा रही है कि दुनिया में छाई मंदी के बीच भी भारत की जीडीपी 7.7 फिसदी है । लेकिन इसका दूसरा सच यह हैकि रोजगार दर फकत 1.8 फीसदी है । हर महीने दस लाख युवा जॉब
मार्केट में कूद रहा है,लेकिन उसके लिए नौकरी है नहीं,क्योंकि एक तरफ सरकारी नौकरियां कम तो दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में नौकरियों में सौ फिसदी तक की कमी आ चुकी है ।1996 -97 में सरकारी नौकरी जहां 1 करोड़ 95 लाख थी,जो अब एक करोड़ 70 लाख रह गई हैं । तो केयर रेटिंग के सर्वे के मुताबिक मोदी सरकार के दौर के पहले बरस यानी 2014-15 1072 कंपनियों नसिर्फ 12,760 जॉब पैदा किए । जबकि , 2013-14 में 188,371 नौकरियां निकली थी।तो क्या डिजिटल इंडिया से लेकर मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया तक
मोदी सरकार की तमाम योजनाएं आकर्षक भले हों लेकिन रोजगार पैदा हो नहीं रहे। तो बड़ा सवाल यही है कि रोजगार रहित विकास का मतलब है क्या? रोजगार पैदा ही नहीं होंगे तो पढ़ा लिखा युवा जाएगा कहां? क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि अगले 35 साल में भारत उन देशों में होगा-जहां रोजगार का भयंकर संकट होना है। और इससे कौन इंकार करेगा कि पेट भरने के लिए रोजगार तो चाहिए ही। लेकिन रोजगार पैदा करने से क्या देश आगे बढता है । क्योंकि विजय माल्या की कंपनियो की फेरहसित को ही समझे तो यूनाइटेड स्प्रिट्स  लिमिटेड , यूनाइटेड ब्रेवरीज लिमिटेड , मंगलोर कैमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स, रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर ,यूबी इंजीनियरिंग लिमिटेड ,यूबीआईसीएस ,बर्जर पेंट , क्रॉम्पटन मालाबार कैमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स ,द एशियन एज, सिने ब्लिट्स सरीखे दर्जनो कंपनियो की ये फेरहिस्त काफी छोटी है । इस फेहरिस्त में देश की छोटी बडी दो हजार से ज्यादा कंपनिया आपको जोडनी होगी जिसमें काम करने वाले लोगो की तादाद 20 लाख पार कर जायेगी । और देश की सत्ता खुश हो जायेगी की भारत विकास की राह पर है । खूब रोजगार पैदा हो रहे है । तो जरा कल्पना किजिये देश के बैको को चूना लगाकर जो विजय माल्या लंदन भाग चुके है और अब वह कह रहे हैं कि भारत नहीं लौटेंगे ।

तो उसी विजय माल्या को बैंकों ने कर्ज दिया . उसी कर्ज से विजय माल्या ने कंपनियां खोली । उन्हीं कंपनियों में करीब एक लाख युवाओं को रोजगार मिले । और उसी रोजगार को देश के विकास से जोड़ा गया । और अब जब माल्या का सबकुछ लूट-लूटा चुका है तो सारी कंपनिया बंद हैं । सारे रोजगार खत्म हो चले हैं । तो मनमोहन सिंह के दौर के किंग ऑफ गुड टाइम्स मोदी सरकार के दौर में भगौडा बन चुके हैं । लेकिन सवाल वही उलझा है कि क्या देश के पास कोई इक्नामिक माडल नहीं है । क्योंकि मनमोहन सिंह के इक्नामिक माडल में विजयमाल्या हर बरस दो-चार कंपनियां.खोल रहे थे । मार्च 2012 में 6185 कर्मचारी काम करते थे । करीब 80 हजार से एक लाख लोगों को माल्या ने रोजगार दिया था । और माल्या के यूबी ग्रुप में कर्मचारी का औसत वेतन 2,28,258 रुपए से 8,85,470 रुपए की रेंज में था ।यानी माल्या ने पैसा बनाया तो पैसा बांटा भी। और सच कहा जाए तो पैसा डुबोकर भी पैसा बांटा। क्योंकि-किंगफिशर एयरलाइंस डुबने की स्थिति में माल्या ने सरकारी
बैंकों से यह कहते हुए ही कर्ज लिया कि कंपनी चलेगी तो रोजगार बढ़ेगा। और बैंक भी कर्ज देते रहे। लेकिन-जब कंपनी डूबी तो कर्मचारी सड़क पर आ गए और माल्या राजनीति के रास्ते पैसा लेकर लंदन भागने में कामयाब रहे। तो सवा बड़ा हैं, फर्जी विकास की राह पर देस चल रहा था । अब फर्जी विकास रोका गया तो फर्जी माडल ढह रहा है । फर्जी माडल के ढहने ने देश में रोजगार खत्म कर दिया है । और सवाल वही कि विजय माल्या देश लौट भी आये तो क्या होगा । क्या वह सहारा के सुब्रत राय की तर्ज पर जेल में रहेंगे । या फिर वसूली के उन रास्तो पर सरकार कोई नीतिगत फैसला लेगी । जिससे विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वाकई देश लाया जा सके । पनामा पेपर के लीक होने के बाद उन चेहरो पर लगाम कसी जा सके । और 6 हजार से ज्यादा कारोबारियो की पेरहिस्त जिन्होने हजारो कंपनियां खोल कर देश को चूना लगाया । खुद रईसी में रहे उनपर कोई लगाम लगायी जा सके । यानी आरक्षण से आगे देश जा नहीं पा रहा है और नौकरी बगैर विकास की राह परह देश है । और हर कोई मान चुका है कि राजनीति में ही सबसे ज्यादा नौकरी भी है और पावर भी ।

Monday, May 2, 2016

आज अगर "नारद"होते तो क्या वो "सत्य"बोल पाते ? - पीतांबर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो.न. -+919414657511

सतयुग,त्रेता और द्वापर तक तो सभी देवताओं का इस धरा पर आना जान था , पृथ्वी मात भी अपना दुःख सुनाने भगवन विष्णु के लोक में पंहुच जाया करती थी ! यहां तलक कि ऋषि-मुनि भी अपनी बात सीधे तौर परकिसी भी देवता से कर सकते थे ! कोई "बिचोलिया"या नेता बीच में नहीं होता था ! कोई कोर्ट या वकील नहीं करना पड़ता था और ना ही कोई धरना-प्रदर्शन करना पड़ता था !! समस्या का समाधान सीधे देवता लोग कर दिया करते थे !कलयुग आने के बाद प्रभु जी ने अपना सिस्टम पता नहीं क्यों बदल दिया ? 
                       कलयुग के आने पर भगवान् को पता था कि अगर वे "प्रत्य्क्ष"इस कलयुगी जनता को दिखाई दे गए तो ना तो उनकी इतनी "इज्जत"रहेगी और ना ही उनका ये परमात्मा वाला पद बचेगा ! सो उन्होंने कुछ देवताओं को तो जनता के सामने प्रत्य्क्ष आने दिया , जैसे जल देवता, वायु देवता,सूर्य देवता और पृथ्वी माता आदि !और कुछ देवताओं को आकाश में ग्रहों के रूप में स्थापित करदिया गया ! जैसे  शुक्र-शनि,बृहपति और राहु केतु आदि !बाकि सब अपने अपने अपने गृह-स्थानों की और रवाना हो गए ! संसार को सात जन्मों के और चौरासी लाख योनियों के चक्कर में उलझा गए !
                    परमात्मा जब इस सृष्टि के नियमों को बदल सकता है तो हम 1951 में बने इस संविधान,धरना-प्रदर्शनों में आजतक क्यों फंसे हुए हैं ?जब देवताओं से गलतियां हो जाती थीं तो क्या उनसे नहीं हुई होंगी जिन्होंने हमारे और हमारी आगामी आनेवाली पीढ़ियों हेतु ये निकम्मा सिस्टम बना दिया ?आज हर व्यवसाय या क्षेत्र से जुड़े लोग इतने डॉ चुके हैं की कोई भी उन्हें डराकर अपनी इच्छानुसार कार्य करवा सकता है !या फिर वो इतने लालची और  स्वार्थी हो चुके हैं कि "कीमत"सही हो तो हर कोई बिकने को तैयार बैठा है !हम बुरे को बुरा कहना ही भूल गए हैं क्यों ?
                तो आज नारद जी से भी "पत्रकारिता"नहीं होनी थी मित्रो !!वो भी किसी "रावण - कंस या शकुनि मामा की हाजरी भर रहे होते !आज जिधर देखो उधर ऐसे समाचार दिखाई पड़ते हैं कि सर भन्ना जाता है !अंत में मैं तो यही कह हूँ कि - 'हे भगवान् !!अगर प्रलय आने के बाद ही सब सुधरना है तो आज ही प्रलय ला दो मैं "अच्छे दिनों "के आने हेतु मरने को तैयार हूँ !
           जय-हिन्द !! जय - भारत ! वन्दे -मातरम ! 
 "5th पिल्लर करप्शन किल्लर"वो ब्लॉग जिसे आप रोज़ाना पढ़ना,बाँटना और अपने अमूल्य कॉमेंट्स देना चाहेंगे !लिंक- www.pitamberduttsharma.blogspot.com.

"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...