Friday, October 18, 2013

" मेरे प्रिय मित्र श्री सूबेदार जी की सुन्दर रचना , आप भी पढ़िए..." भारत को बचाने फिर कब आओगे श्याम --------?

शुक्रवार, 27 सितम्बर 2013
                      जब-जब धर्म की हानी होती है मै आता हु ऐसा गीता मे भगवान श्रीक़ृष्ण ने कहा ऐसा प्रकट भी हुआ, समय- समय पर या तो वे स्वयं आए अथवा अपने अंश को भेजा जिसके द्वारा धरती का उद्धार हुआ जब हम पृथबी की कल्पना करते हैं तो उसका अर्थ आर्यावर्त, भारतवर्ष अथवा हिंदुस्तान ही होगा क्यों की जब धर्म की बात होगी तो केवल भारत मे ही होगी क्यों की वे यहीं आए चाहे वामन के रूप मे या कच्छप अथवा श्रीराम, श्रीक़ृष्ण के रूप मे और यहीं से धरती का उद्धार किया इसका अर्थ भी हमे समझना पड़ेगा मानव, मानवता क्या है ? उसकी भी ब्याख्या होनी चाहिए, जो भगवान मनु की संतान अपने-आप को मानते हैं वास्तव मे मनुष्य वही हैं, इस धरती पर कुछ लोग मोमिन अथवा खृष्ट हैं वे मनुष्य नहीं उनके ग्रन्थों मे मानवता का वर्णन भी नहीं है एक मे कुरान, मोमिन व उनके पैगंबर का वर्णन है दूसरे मे भी इशू, चर्च व बाइबिल का ही वर्णन है  इनकी मानवता जो इंनका अनुयाई है जिसका विसवास इनकी पूजा पद्धति मे वही मानव है
जो अपने संप्रदाय तक ही सीमित है।

          भारत का अर्थ क्या है यह हमें समझने की आवश्यकता है भारत की अपनी संस्कृति है वह गावों में बसती है जिसे हमारे महापुरुषों ने हजारों -लाखों वर्षों की तपस्या पश्चात् यह मानव-मानव, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों बनास्पतियों सभी में जीव है सभी मानव उपयोगी है जिसका चिंतन हमारे पुर्बजों ने की, किसी में कोई भेद न करने वाली संस्कृति इसी को हम हिन्दू संस्कृति भी कहते हैं वर्तमान परिदृश्य कैसा है--? क्या भारत भारत बच सकेगा ? सेकुलर नेता हिन्दू बिरोधी निति अपनाकर राष्ट्रद्रोह पर उतारू हैं वे सेकुलर के नाम पर हिन्दू बहन बेटियों का सौदा करने में कोई संकोच नहीं करते वे हिन्दुओ की आराध्य गौ माता को बध शालाओं में विदेशी मुद्रा की लालच में ले जा रहे है खुले आम मुस्लिम मुहल्लों में गाय काटी जा रही है, लव जेहाद को माध्यम बना देश में लाखों हिन्दू लड़कियों को जेहादी बनाया जा रहा है वर्तमान भारत के कई प्रान्तों में हिन्दू अल्पमत  में आ गया है उन स्थानों पर हिन्दू बहन-बेटियों का जीना दूभर हो गया है कश्मीर जैसे हालत असम में भी पैदा करने का प्रयास हो रहा है.
         मंदिरों का धन हज यात्रियों, चर्चों व अन्य कार्यों में लगाने की आदत सी हो गयी है भारत सरकार की निगाहे हिन्दू मंदिरों में रखे सोना पर लगी है ये देश द्रोही नेता क्या करना चाहते हैं ---? हे भगवान अब तुम ही भारत को बचा सकते हो गीता में आपने कहा था की ''यदा-यदाहि धर्मस्य-----'' जब जब भारत में धर्म की हानी होगी मै आउगा, आप आये भी शंकर के रूप में सुदूर दक्षिण केरल के कालड़ीग्राम में, आप आये रामानंद स्वामी के रूप में, आप आये महाराणा, शिवाजी के रूप में, आप आये दयानंद, विवेकानंद के रूप में, आप को आना होगा फिर किसी के रूप में नहीं तो मानवता को कौन बचाएगा--? कौन बचाएगा इस पवित्र हिन्दू धर्म को--? कौन बचाएगा भारतमाता की अस्मिताता को--? अयोध्या, मथुरा, काशी, कांची, अवंतिका को कौन बचाएगा ---? गंगा, कावेरी के पवित्र जल को कौन बचाएगा ? इसलिए अब आपको आना ही होगा नहीं तो आपकी पूजा, श्रधा कैसे होगी---? हे श्रीकृष्ण जिस पवित्र यमुना जी तट पर खेलते थे जिसको पवित्र करने हेतु कालियानाग को भगाया उसकी दुर्दसा आपसे कैसे देखी जाती है, भगवान श्रीराम जिस पवित्र सरयू के किनारे खेले वह तुम्हे बुला रही है, गंगाजी अपना आक्रोस केदारनाथ में प्रकट कर चुकी हैं आपको यह सब कैसे देखा जाता है क्या इन सब की करुण पुकार आपको सुनाई नहीं देती---!
              इसलिए हे भगवान कृष्णा इस देश को बचने फिर कब आओगे----? 
         सूबेदार जी  

SWAGAT MITRO !! NAMASKAR !!
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Thursday, October 17, 2013

काठ के घोड़े पर सवार तीसरा मोर्चा.........! ! !? ? ?( mere guru ji ka lekh hai , aap bhi padhiye !! sabhaar !!)


डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Oct 12, 2013, 06:48AM IST


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काठ के घोड़े पर सवार तीसरा मोर्चा
राजनीति भी अजीब बला है। अभी पहले और दूसरे मोर्चे का ही कुछ पता नहीं है कि कौन किधर जाएगा, लेकिन तीसरे मोर्चे की खिचड़ी पकने लगी है। जैसे कभी कर्नाटक के प्रांतीय नेता देवेगौड़ा और दिल्ली के ड्राइंग रूम नेता इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बन गए थे। वैसे ही अब चार-पांच प्रांतीय नेता भी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं। वे सोचते हैं कि वे प्रधानमंत्री का सपना क्यों नहीं देखें? जब मनमोहन सिंह जैसा अराजनीतिक आदमी भारत का प्रधानमंत्री बन सकता है, तो वे तो सचमुच के नेता हैं। अपने दम-खम से मुख्यमंत्री बने हैं। मुख्यमंत्री की अगली पायदान प्रधानमंत्री ही है।
प्रधानमंत्री पद की यह दौड़ मुलायमसिंह यादव, नीतीश कुमार, जयललिता और नवीन पटनायक को एक ही जाजम पर इक_े होने के लिए उकसा रही है। इन नेताओं के लिए जाजम बिछाने का काम कर रहे हैं, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता प्रकाश करात, सीताराम येचूरी और एबी वद्र्धन! ये सब 30 अक्टूबर को दिल्ली में एक रैली करेंगे और उसे मुखौटा पहनाएंगे, धर्मनिरपेक्षता का या सेक्युलरिज़्म का!
उनसे कोई पूछे कि किसकी धर्मनिरपेक्षता ज्यादा प्रामाणिक है? कांग्रेस की या इस तथाकथित तीसरे मोर्चे की? यदि आप एक गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई मोर्चा बनाना चाहते हैं, तो आपका यह मोर्चा कहीं कांग्रेस की कार्बन कॉपी तो नहीं बन जाएगा? वह भी धर्मनिरपेक्ष और आप भी धर्मनिरपेक्ष?

इसका जवाब आप यह दे रहे हैं कि अभी हम मोर्चा-वोर्चा नहीं बना रहे हैं। सिर्फ समानधर्मा पार्टियों की एक रैली कर रहे हैं। इस पर पूछा जा सकता है कि कौन सा धर्म और कौन सा समानधर्म? क्या इन पांचों पार्टियों का धर्म एक ही है, सिद्धांत एक ही है, नीतियां एक ही हैं, कार्यक्रम एक ही हैं? सिद्धांत और नीतियों की बात जाने दें। इस मामले में सभी पार्टियां या तो दिवालिया हो चुकी हैं या फिर जब जैसी जरूरत पड़ती है, वे वैसा सिद्धांत गढ़ लेती हैं।
जयललिता के मंत्री वाजपेयी सरकार की शोभा बढ़ा चुके हैं। खुद नीतीश कुमार वाजपेयी मंत्रिमंडल में रह चुके हैं। यही हाल नवीन पटनायक की पार्टी का रहा है और जहां तक मुलायम सिंह का प्रश्न है, उन्होंने कांग्रेस का साथ देने में मुलायमित की हद कर दी थी। जब भारत-अमेरिका परमाणु सौदे के विरोध में 2007 में कम्युनिस्ट पार्टियों ने कांग्रेस को समर्थन देना बंद किया तो कांग्रेस की द्रौपदी को चीरहरण से बचाने के लिए मुलायम सिंह उसके कृष्ण बनकर सामने आ गए थे, जबकि वे उस सौदे को बराबर राष्ट्र-विरोधी बताते रहे थे।
उस समय भी कम्युनिस्ट पार्टियां और समाजवादी पार्टी एक 'संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील गठबंधनÓ की सदस्य थीं। सपा ने खेरची व्यापार में विदेशी विनियोग के सवाल पर भी पल्टी मार दी थी और राष्ट्रपति के चुनाव में ममता बनर्जी को गच्चा देकर प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर दिया था। इधर नीतीश ने भी भाजपा से गठबंधन तोड़कर जबर्दस्त कलाबाजी दिखाई है।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए यदि ये नेता कहते हैं कि गठबंधन तो चुनाव के बाद बनेगा तो मानना पड़ेगा कि ये लोग काफी यथार्थवादी हैं। एक-दूसरे पर विश्वास जमने के लिए आखिर कुछ समय तो चाहिए और फिर गठबंधन के लिए कोई ठोस मुद्दा तो होना चाहिए। इन सब दलों के पास सबसे ठोस मुद्दा बस एक ही है-सत्ता! सिद्धांत, नीति और कार्यक्रम तो मुखौटा है। वे जानते हैं कि तथाकथित तीसरा मोर्चा खुद तो सरकार बना ही नहीं सकता। वह केवल इधर या उधर चिपककर किसी भी सत्तारूढ़ दल या मोर्चे के साथ लटक सकता है। इसीलिए उसके सदस्य अपने विकल्प बंद क्यों करें? चुनाव के बाद जिस पार्टी को जो मौका मिलेगा, उसे वह भुनाएगी।

यूं भी इस तथाकथित मोर्चे में जो क्षेत्रीय पार्टियां शामिल हो रही हैं, उनकी अखिल भारतीय हैसीयत क्या है? आज की लोकसभा में सपा के 22, जनता दल(यू) के 20, माक्र्सवादी पार्टी के 16, बीजू जनता दल के 14, अन्नाद्रमुक के 9, कम्युनिस्ट पार्टी के 4, देवेगौड़ा जनता दल का 1 और अन्य छोटी-मोटी पार्टियों के तीन-चार सदस्य मिलकर कुल 100 सदस्य भी नहीं बनते। इधर बिहार  व उत्तरप्रदेश की राजनीति ने जैसा मोड़ लिया है और माक्र्सवादी पार्टी का जैसा हाल है, उसे देखकर लगता है कि तीसरे मोर्चे को चुनाव में कहीं मोर्चा ही न लग जाए? चौबेजी छब्बेजी बनने जा रहे हैं। कहीं वे दुबेजी न रह जाएं।

इसके अलावा इस संभावित तीसरे मोर्चे के घटकों में आपसी अंतर्विरोध इतने हैं कि उनमें तालमेल बिठाना आसान नहीं है। पहला उत्तरप्रदेश में सपा अपनी सीटें कम्युनिस्टों को देने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है जबकि कम्युनिस्ट पार्टियां देश के सबसे बड़े प्रदेश में अपना मजबूत खंभा गाडऩे के लिए बेताब हैं। दूसरा, तीसरे मोर्चे में अगर सपा शामिल होगी तो बसपा के आने का सवाल ही नहीं उठता। एक म्यान में दो तलवारें कैसे रहेंगी? तीसरा, यदि इस मोर्चे की कर्णधार माक्र्सवादी पार्टी है तो ममता की तृणमूल कांग्रेस तो अपने आप अस्पृश्य हो गई। चौथा, जयललिता का अभी यही पता नहीं कि वह 30 अक्टूबर की रैली में भी आएंगी कि नहीं तो फिर मोर्चे में शामिल होना तो दूर की कौड़ी है।
पांचवां, लालू की गिरफ्तारी ने नीतीश के लिए कांग्रेस के द्वार खोल दिए हैं। जनता दल(यू) और कांग्रेस में आजकल मधुरता का आदान-प्रदान प्रचुर मात्रा में हो रहा है। छठा, मोर्चे में इक_े होनेवाले एकाध नेता को छोड़कर सभी अपने आप को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानते हैं। एक ही मांद में आखिर कितने शेर रहेंगे? सातवां, मोर्चे के इन नेताओं में से एक भी ऐसा नहीं है, जो आज की जनभावना को स्वर दे सके। आज असली मुद्दा भ्रष्टाचार है, सांप्रदायिकता नहीं। आज राष्ट्र एक ऐसे नेता की तलाश में है, जो भ्रष्टाचार-विरोध का सशक्त प्रतीक बन सके। क्या इनमें से कोई नेता ऐसा है, जो इस राष्ट्रीय शून्य को भर सके?

ऐसी हालत में कहीं ऐसा न हो कि ये क्षेत्रीय दल चुनाव के बाद मरणासन्न हो जाएं। इस संभावना पर भी इन दलों को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता अब काठ का घोड़ा बन गया है। अब उसे पीटते रहने से कोई फायदा नहीं दिखता। उस पर सवार होकर यह तीसरा मोर्चा कहां जाएगा? इसमें शक नहीं कि इस मोर्चे में ऐसे नेता भी हैं, जो दो बड़े दलों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के मुकाबले कहीं अधिक अनुभवी और योग्य हैं, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वे आज के वक्त की कसौटी पर खरे उतरते हैं?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष


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hamari ..................AWAAZ.................suno ...................!!!


ऐसी सभी जातीय संगठनो के अध्यक्षों से आग्रह करते है ,जो SC / STवर्ग में नही आते

विशेष रूप से ब्राह्मण वर्ण , क्षत्रिय वर्ण और वैश्य वर्ण के संगठनो के अध्यक्षों का ध्यान आकृष्ट करना चाहेगे

आपकी जाति की 1950 में जब संविधान लागु हुआ
1 . आपकी जाति की जनसँख्या कितनी थी ? आज क्या है ?
2 . आपकी जाति की प्रति व्यक्ति आय कितनी थी ( per capita Income ). आज कितनी है
3 . आपकी जाति का साक्षरता % कितना था . आज क्या है ?
4 . आपकी जाति के पास कृषियोग्य भूमि कितनी थी .आज कितनी बची है ?
5 . आपकी जाति के कितने परिवार BPL थे . आज कितने परिवार BPL है
6 . आपकी जाति में बेरोजगारी का % कितना था . आज कितने % बे रोजगार है ?
7 . आपकी जाति में कितने % परिवारों में अंतर जातीय विवाह होते थे?

( सरकारी परिभाषा के अनुसार अंतर जातीय विवाह SC/STऔर नॉन SC / ST के बीच विवाह को ही सरकार अंतर जातीय विवाह मानती है जिसके लिए सरकार धन का लालच दे रही है )

8 . आपकी जाति ने मुग़ल शासको और अंग्रेजो के विरुद्ध आन्दोलन में कितने अत्याचार सहे .

9 . जिन जातियों को संविधान में धारा 330 के माध्यम से देश की 131 लोक सभा और हजारो विधान सभाओ में चुनाव लड़ने के विशेषाधिकार दिए गए उन जातियों ने मुगलों और अंग्रेजो के कितने अत्याचार सहे .

10 . संविधान की धारा 330 में दिए गए विशेषाधिकार केवल 10 साल के लिए दिए थे

11 . आपकी जातियों को पिछले 63 सालो से और आनेवाले 7 सालो यानि 2020 तक चुनाव लड़ने के अधिकारों से वंचित क्यों किया गया

आपको उपरोक्त 7 प्रश्नों के उतर तलाश कर उनकी तुलना वर्तमान से करनी होगी आपको देखना होगा की आज आपकी जाति की स्थिति क्या है और क्यों है

बाकी 8-9-10 इन तीन प्रश्नों के जवाब में अपनी आर्थिक सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति के कारणों को ढूँढना होगा |

इन सभी विषयों का अध्ययन ही आपकी अपनी जातीय संगठन की भलाई के लिए किये गए प्रयास होगे ,
अन्यथा मेरे और केवल मेरे दृष्टिकोण से आप अपने निजी स्वार्थो के लिए जातीय संगठन बना कर अपनी जाति को धोखा दे रहे होगे

यदि किसी जातीय संगठन के नेताओ को मेरे दृष्टिकोण पर विरोध हो तो मै उनसे क्षमा चाहूंगा
क्षमा याचना के साथ

*** वशिष्ट ***

                                                
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Wednesday, October 16, 2013

क्या राहुल का विकल्प है प्रियंका गांधी? ( mere priya mitr ka ek lekh aap bhi padhiye )

पुण्य प्रसून बाजपेयी




Posted: 14 Oct 2013 07:50 AM PDT
सिर्फ 40 मिनट के भीतर प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर लाने के ऐलान की खबर की मौत हो जाती है। लेकिन इन चालीस मिनट में ही गांधी परिवार की एक्स-रे रिपोर्ट सामने आ जाती है। पहला सवाल प्रियंका को लेकर खड़ा होता है कि क्या वाकई कांग्रेस के लिये प्रियका तुरुप का पत्ता है। जिसके सामने राहुल गांधी की लोकप्रियता कोई मायने नहीं रखती हैं। दूसरा सवाल राहुल गांधी को ही लेकर खड़ा होता है कि क्या राहुल गांधी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने का स्थिति में नहीं हैं। और संगठन को मथ कर जिसतरह कांग्रेस को युवा हाथों में सौपने का सपना राहुल गांधी ने देखा है, वह महज सपना है। और तीसरा सवाल सोनिया गांधी को लेकर खड़ा होता है कि क्या सोनिया गांधी उम्र, स्वास्थ्य और सियासी वजहों से अब रिटायर होने के रास्ते पर है।

जाहिर है प्रियंका गांधी को लेकर तीनों सवाल गांधी परिवार के ही अंतर्विरोध को लेकर उछले और राजनीतिक धमाचौकडी के उस दौर में उछले जब गांधी परिवार बिना जिम्मेदारी सत्ता में है। और गांधी परिवार का कोई एक शख्स नहीं तीन तीन शख्स सियासत कर रहे हैं। तो क्या ऐसे वक्त में प्रियका गांधी को लेकर कांग्रेस ने जानबूझकर खबर उछाली है कि प्रियका अब रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेंगी और नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रचार का जवाब देंगी।

असल में गांधी परिवार पहली बार सियासत में रहकर भी जिस तर्ज पर देश को चलाने का भ्रम बनाये हुये है, वह आजादी के बाद अपनी तरह का अजूबा ही है। क्योंकि इससे पहले सिर्फ नेहरु की मौत के बाद ही इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष होकर भी पीएम नहीं बनी और तब कांग्रेस सिंडिकेट यानी कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को पीएम बनाया। लेकिन 1966 में शास्त्री जी की मौत के बाद कहीं कामराज या कहें वही सिंडिकेट इंदिरा गांधी के पत्र में झुका और मोरारजी देसाई वरिष्ठ होकर भी और चाह कर भी पीएम ना बन सके। और एक वक्त के बाद उन्हें कांग्रेस के बाहर का रास्ता देखना ही पड़ा। कांग्रेस के पन्नों को पलटें तो वही कामराज को भी इंदिरा ने अलग थलग किया या कहें कांग्रेस दो फाड़ हो गई जब सिंडिकेट काग्रेस का विरोध इंदिरा गांधी ने किया और कामराज ने इंदिरा गांधी का विरोध किया। अगर इस कडी को आगे बढायें तो

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के तत्काल बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राजीव गांधी को तुरंत पीएम बनाये जाने का विरोध किया था। और इसका खामियाजा उन्हें सबसे बड़ी जीत के साथ पीएम बने राजीव गांधी को मंत्रिमंडल में जगह मिलना तो दूर, कांग्रेस छोड़ राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाकर अपने राजनीतिक आस्तित्व को बचाने तक की आ गई थी। दरअसल गांधी-नेहरु परिवार पर कोई टिप्पणी तो दूर कई मौको पर तो समूची कांग्रेस ही खामोश रही है और जब भी कोई बोला है तो उसे रास्ता अलग पकड़ना पडा है। इंदिरा गांधी के दौर तो इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया के नारे तक लगे। लेकिन अब के दौर में यानी सोनिया गांधी के वक्त पहली बार हालात ऐसे भी हैं, जहां नेहरु परिवार की चौथी पीढी ना सिर्फ जवान हो चुकी है बल्कि भागते वक्त के साथ उम्र भी गुजर रही है। और देरी का मतलब है कांग्रेस की विरासत संभालने से भागना या कांग्रेस का मतलब जहां गांधी-नेहरु परिवार ही माना जाता है, उससे चूक जाना। लेकिन इसी दौर में कांग्रेस की हालत क्या है, यह प्रियका गांधी की खबर के सामने आने से लेकर खबर के खंडन या खारिज किये जाने के चालिस मिनट के वक्त में ही दिख गया। नरेन्द्र मोदी के गुजरात के संबरकांठा से चुन कर आने वाले काग्रेसी सांसद मधुसुधन मिस्त्री ने दिल्ली में पत्रकारों को जानकारी दी कि प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार के लिये रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेगी। और इसके तुरंत बाद ही कांग्रेसियों में होड़ मच गयी कि कौन प्रियंका गांधी के पक्ष में कितना बोल सकता है। राशिद अल्वी और कपिल सिब्बल सरीखे नेता यह कहने से नहीं चूके की कांग्रेस का तो हर कार्यकर्ता चाहता है कि प्रियंका गांधी मुख्यधारा की राजनीति में आयें। लेकिन कांग्रेस की त्रासदी देखिये जैसे ही प्रियंका के चुनाव प्रचार में कूदने की खबर का खंडन काग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने किया वैसे ही झटके में हर कांग्रेसी को लगने लगा कि प्रियंका गांधी को अभी राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर नहीं आना चाहिये। और एक एक कर वही कांग्रेसी बदलने लगे जो आधे घंटे पहले तक प्रियंका के पक्ष में थे। सवाल है कि क्या मौजूदा दौर में कांग्रेस इतनी कमजोर हो गयी है कि गांधी परिवार के दो सदस्यों के आसरे भी उसे अपनी सत्ता जाती दिख रही है। या फिर जो प्रियंका अभी तक रायबरेली और अमेठी से बाहर चुनाव प्रचार तक के लिये निकली है उनमें कोई नये गुण कांग्रेसी देख रहे है जो राहुल गांधी में नहीं है। या फिर मौजूदा वक्त में राहुल गांधी की राजनीति कांग्रेसियों को ही नहीं भा रही है। क्योंकि राहुल गांधी काग्रेस के उस ढांचे को तोड़ना चाहते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने बनाया। या कहें इंदिरा के बाद राजीव गांधी और फिर सोनिया गांधी ने जिस तरह सत्ता संभाली उसने इसके संकेत साफ दे दिये कांग्रेस संगठन से नहीं गांधी परिवार के औरे से चलती है और हर कांग्रेसी किसी भी तरह की कोई आंच गांधी परिवार पर आने नहीं देता। इसलिये जो भी हवा गांधी परिवार को लेकर बहे या बहने के संकेत दिखने लगे। बस उसी अनुरुप हर कांग्रेसी ढल जाता है। लेकिन प्रियंका के सवाल ने आने वाले वक्त के लिये यह संकेत तो दे दिये कि अगर प्रियंका जब भी मुख्यधारा की राजनीति में आयेगी वैसे ही राहुल गांधी की राजनीति पर पूर्ण विराम लग जायेगा। क्योंकि 2004 में राहुल गांधी के अमेठी से पर्चा भरने से लेकर 19 जनवरी 2013 को जयपुर में राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने तक के दौरान की परिस्थितियों को देखें तो प्रियंका हर जगह मौजूद थी। और बार बार राजनीतिक मिजाज में बात यही उभरी या हर कांग्रेसी ने यही देखा समझा कि राहुल गांधी हर महत्वपूर्ण मौके पर बिना प्रियंका गांधी के एक पग भी आगे नहीं बढ़ाते हैं। लेकिन प्रियंका को लेकर जो कांग्रेसी उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं, उनके लिये आखिरी सवाल यही है कि इंदिरा यू ही राजनीति में नहीं आ गयी।

केरल में पहली वामपंथी सत्ता डगमगायी तो उसके पीछे इंदिरा गांधी की ही सियासी चाल थी। और 42 बरस की उम्र में इंदिरा 1959 में तब कांग्रेस की अध्यक्ष बनी जब देश में समाजवादी लहर बहने लगी थी। लोहिया सीधे नोहरु को घेर रहे थे। और 1964 में नेहरु की मौत के वक्त भी कांग्रेस की अगुवाई कौन करें इसे लेकर बखूबी परिस्थितियों को देख समझ रही थी। और फिर कामराज के सिंडिकेट कांग्रेस से टकरा कर कहीं ज्यादा तेजी से उभरने का हुनर भी इंदिरा ने दिखाया था। लेकिन प्रियंका ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। और 14 अक्टूबर 2013 को जब कांग्रेस के भीतर से ही प्रियंका गांधी को लेकर खबरे निकले और 40 मिनट बाद दफन हो गयी तो आने वाले वक्त के संकेत भी दे गयी कि अब चाहे प्रियकां गांधी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने सामने आये लेकिन माना यही जायेगा कि राहुल हार गये । यानी जिस गांधी परिवार से देश के विकल्प की बात होती रही वही गांधी परिवार अपने ही परिवार का विक्लप बन रहा है। यानी मौजूदा वक्त के आईना यही दिखाया कि राहुल गांधी का विकल्प है प्रियंका गांधी।

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"संगीत सुनाया क्यों" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


TUESDAY, OCTOBER 15, 2013

"संगीत सुनाया क्यों" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत

"संगीत सुनाया क्यों"

मेरे वीराने उपवन में,
सुन्दर सा सुमन सजाया क्यों?
सूने-सूने से मधुबन में,
गुल को इतना महकाया क्यों?

मधुमास बन गया था पतझड़,
संसार बन गया था बीहड़,
लू से झुलसे, इस जीवन में,
शीतल सा पवन बहाया क्यों?

ना सेज सजाना आता था,
मुझको एकान्त सुहाता था,
चुपके से आकर नयनों में,
सपनों का भवन बनाया क्यों?

मैं मन ही मन में रोता था,
अपना अन्तर्मन धोता था,
चुपके से आकर पीछे से,
मुझको दर्पण दिखलाया क्यों?

ना ताल लगाना आता था,
ना साज बजाना आता था,
मेरे वैरागी कानों में,
सुन्दर संगीत सुनाया क्यों?

http://ukchitthakar.blogspot.in/2013/10/blog-post_15.html
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Saturday, October 12, 2013

दंगाइयों का नहीं मानसिकता का दोष है--! क्या हम उस मानसिकता को समाप्त करने की इक्षा शक्ति रखते हैं---? ''मुज़फ्फरनगर दंगा''


शनिवार, 12 अक्तूबर 201


  आखिर दंगे होते क्यों है--? क्या हमने इसपर विचार किया अथवा करने का सहस कर सकते हैं ! अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जूनियर बुश ने कहा कि हज़ार वर्ष तक भारत को इस्लाम ने रौदा (हिन्दू बहन बेटियों से साथ बलात्कार) फिर भी भारतीय इस्लाम को समझ नहीं पाए, बंगलादेशी लेखिका ने कहा की लगता है की भारत की सेकुलर नीति हिन्दू समाज को समाप्त कर देगा उस इतिहास को लिखने वाला कोई नहीं बचेगा--! यह कौन सी मानसिकता है और उसे कौन बढ़ावा दे रहे हैं इस पर विचार करने की आवस्यकता है, 

         जब हम विचार करते हैं तो दिखाई पड़ता है की सारे के सारे इस्लामिक देश भी आतंकवाद से जूझ रहे हैं फिर यह विचार अवश्यक हो जाता है की आखिर दंगे क्यों ? इसका ग्रन्थ और प्रेरणा श्रोत क्या है ? बहुत गहराई से विचार करने से पता चलता है की ये तो कुरान और मुहम्मद ही इसका मूल श्रोत है क्योंकि एक हाथ में तलवार दुसरे हाथ में कुरान लेकर विश्व की बहुत सारी महान संस्कृतियाँ और देश समाप्त किया गए,  आज इस्लामिक देशों में कुरान की परिभाषा अपने -अपने हिसाब से कर रहे हैं इस्लामिक देशों को भी कुरान के आधार पर चलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं प्रतिदिन आतंकवादी हामले में सैकड़ो निरीह मारे जा रहे हैं सभी इस्लाम मतावलंबी ही फिर भी दंगे क्यों ? लगता है की इस इस्लामिक आंधी में अरबियन देश भी टूटने से नहीं बचेगे फिर अमेरिका को अपनी भूमिका भी तय करनी पड़ेगी.

             भारत में हमेसा सभी धर्मों का आदर रहा है फिर यहाँ दंगे क्यों ? इसे समझने की आवस्यकता है भारत हिन्दू मतावलंबी देश होने के कारन सभी को यहाँ सम्मान है पूजा कार्नर व पूजा स्थल बनाने की छूट है लेकिन जब-जब हिन्दू समाज कमजोर हुआ है तब-तब दंगे ही नहीं हुए बल्कि देश भी टूट गया इस नाते कारण ढूढ़ना होगा की दंगे क्यों होते है तो दंगों की अपनी मानसिकता होती है, जब हम यह विचार करते हैं की केवल मेरा धर्म मेरा धर्किम ग्रन्थ ही सही उसी प्रेरणा से नालंदा-तक्षशिला जैसे विश्व विद्यालय जला दिए गए और हम देखते रहे, फिर मेरा ही धार्मिक स्थल पवित्र है हजारों मंदिरों को तोड़ डाला मेरा अनुयायी ही सही है सैकड़ों करोण सनातन धर्मियों को अन्याय पुर्बक धर्म के नाम पर मार डाला.
              इस्लाम मतावलंबियों की आज भी वही मानसिकता बनी हुई है वे अब हिन्दू समाज को स्वीकार करने को तैयार नहीं वे अब हिन्दू समाज के साथ नहीं रहना चाहते वे हिन्दू समाज पर सासन करना चाहते है इसलिए आये दिन हिन्दू बहन बेटियों का अपरहण 'लव जिहाद' आम बात हो गयी है जहाँ मक्का में किसी हिन्दू को प्रवेश नहीं वही अयोध्या में श्रीरामजन्म भूमि पर बाबरी मस्जिद हिन्दू क्या करे ? वास्तव में इसकी जड़ में कुरान है जब-तक में संसोधन नहीं होगा तब-तक दंगे बंदी नहीं होगा क्यों की कुरान उनका धार्मिक ग्रन्थ और मुहम्मद उनका प्रेरणा श्रोत कुरान ने दुनिया को बाट कर रख दिया है या तो इस्लाम को स्वीकार करो अथवा स्वर्ग सिधारो इनका इतिहास तो यही बताता है.

         क्या हम इसके लिए तैयार हैं ? क्योंकि मुहम्मद को आदर्श नहीं माना जा सकता उनके कर्म हो सभ्य समाज के लिए स्वीकार नहीं, कुरान बिना संसोधन के यदि भारत रही तो दंगे होते ही रहेगे और भारत बटेगा भी कोई भी उसे रोक नहीं सकता, सेकुलर के नाम पर देशद्रोही कदम, सेकुलर, कुरान और इस्लाम की प्रबृति ही यही है लगता है की हमारी नियति भी.  

Thursday, October 10, 2013

"राइट दू रिजेक्ट" के नाम पर वोटर धोखा तो नहीं खायेगा..........????? ( mere priya mitr sh. punya prusun ji ka ek lekh , aap bhi padhiye !! )

पुण्य प्रसून बाजपेयी




Posted: 04 Oct 2013 10:28 AM PDT
2013 के चुनाव वोटरों के लिये पहली बार उम्मीदवारों को बाकायदा बटन दबाकर खारिज करने वाला भी चुनाव होगा। यानी ईवीएम की मशीन में वोटरों को यह विकल्प भी मिलेगा कि वह किसी भी उम्मीदवार को चुनना नहीं चाहते है। लेकिन राइट टू रिजेक्ट से इतर इनमें से कोई नहीं वाला बटन क्या वाकई राजनीतिक दलों पर नैतिक दबाव बना पायेगा कि वह दागियो को टिकट ना दें। या फिर दागियों के लिये जीतने का यह स्वर्णिम अवसर हो जायेगा। क्योंकि इस चुनाव में इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने वोटरों ने इनमें से कोई नहीं का बटन दबाया उनकी गिनती हो। और दूसरा अगर कुल पड़े वोट की तादाद में सबसे ज्यादा वोटरों ने इनमें से कोई नहीं वाला बटन दबा भी दिया तो भी कोई ना कोई उम्मीदवार तो हर हाल में जीतेगा ही। यानी दागी उम्मीदवार की जो सबसे बड़ी ताकत वोट को मैनेज करना होता है उसमें उसे कम मशक्कत करनी पड़ेगी। क्योंकि आदर्श स्थिति की बात करने वाले वोटर तो इनमे से कोई नहीं वाला बटन दबाएंगे।

और जीत हार तय करने निकले वह वोटर जो जातीय या धर्म या समुदाय के आधार पर बंटे होते हैं वह उम्मीदवार के दागी होने से पहले अपने आधारों को देखते हैं। तो तीन सवाल असबार सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एवीएम में नोटा यानी इनमें से कोई नहीं वाले बटन के घाटे पर बड़ी तादाद में वोटरों के वोट बिना गिने रह जायेंगे। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक उदाहरण संसद का यह कहकर दिया था कि वहां भी वोटिंग के हालात में एबसेंट की संख्या भी बतायी जाती है। लेकिन चुनाव आयोग ने कोई व्यवस्था नहीं की है कि नोटा बटन दबाने वालो की गिनती हो। दूसरा सवाल वोट मैनेज करने वालो के लिये आसानी होनी। क्योकि साफ छवि वाले नेता वोटरो के सामने यह आवाज जरुर उठायेगे कि वो नोटा बटन भी दबा सकते हैं। और तीसरा रिप्ररजेन्टेशन आफ पीपुल्स एक्ट की धारा 49 को खत्म करने का कोई महत्व नहीं बचेगा। क्योंकि इस नियम के तहत वोटर पहले प्रिजाइडिंग अफसर को जानकारी देता था कि वह किसी भी उम्मीदवार को वोट देना नहीं चाहता है। तो उसकी संख्या पता चल जाती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवधान को इसलिये बदला क्योंकि इससे धारा 19(1) के तहत फ्रीडम आफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन का वॉयलेशन होता क्योकि वोटिग को सिक्रेट बैलेट माना जाता है।

 लेकिन यहीं से सवाल बड़ा होता है कि संविधान चुनाव के अधिकार को अगर बराबरी के तराजू में रखता है तो वोट का मतलब अपने नुमाइन्दे को चुनने या दूसरे को खारिज करने के लिये होता है। इसकी कोई व्यवस्था संविधान में भी नहीं है कि वोटर वोट डाल दें और उसके वोट को कही दिखाया ही ना जाये। यानी गिनती में कही नजर ही ना आये। इसे बारिकी से समझें तो 2009 में देश में कुल 70 करोड़ वोटर थे। लेकिन वोटिंग महज 29 करोड़ हुई। और इसमें से 11.5 करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया और 8.5 करोड वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया। कमोवेश इसी तरह करीब एक करोड़ वोट सपा या बीएसपी के पक्ष में पड़े। यानी हर पार्टी को कितने वोट मिले यह चुनाव आयोग के दस्तावेज में दर्ज है और इसे कोई भी कभी भी देख सकता है। लेकिन 2013 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कुल 11 करोड़ वोटर हैं। मान लीजिये 50 फीसदी वोटिंग होती है। यानी 5.5 करोड़ वोटर वोट डालते है ।

लेकिन इस बार यह तो जिक्र होगा कि कि किस राज्य में राजनीतिक दल को कितने वोट मिले या फिर किस उम्मीदवार को कितने वोट मिले और वह कितने अंतर से जीत गया। लेकिन इसका कोई जिक्र ही नहीं होगा कि कितने वोटरो ने अपने क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार को वोट देना पंसद नहीं किया और अगर 5.5 करोड़ में से तीन करोड़ वोटर इनमे से कोई नहीं वाला बटन भी दबा दें तो भी हर क्षेत्र में कोई ना कोई जीतेगा या किसी ना किसी राजनीतिक दल की सरकार बनेगी। और सैकड़ों, हजारों, लाखों या करोड़ वोट इसबार बिना मतलब के साबित होंगे। और चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट खुश हो सकता है कि वोटरों को एक नया विकल्प मिल गया । लेकिन वोटर यह सोच कर कतई खुश नहीं हो सकता कि उसे विक्लप मिल गया और हो सकता है यह तौर तरीका या कहे चुनाव परिणाम तब एक बडी त्रासदी बन जायेगा जब कोई दागी इस बिला पर चुन कर आ जायेगा कि उसे नोटा की तुलना में  कम वोट मिले लेकिन उम्मीदवारो की पेरहिस्त में सबसे ज्यादा वोट मिले। और यह हर कोई जानता है कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिये उम्मीदवार को मैदान में उतारता है। तो अधूरी तैयारी के साथ चुनाव आयोग का उठाया गया कदम कहीं ज्यादा घातक ना हो इसका इंतजार करना होगा। क्योंकि राइट टू रिजेक्ट का सीधा मतलब होता है वोट के प्रतिशत की तुलना में रिजेक्ट किये गये वोट का आंकलन या फिर वोट के रिजेक्ट फीसदी की एक लकीर खींच कर रिजेक्ट को भी बतौर उम्मीदवार के तौर पर मानना जिससे वोटर को दुबारा वोट डालने का मौका उसी चुनाव में नये सिरे से मिल सके। लेकिन इसकी कोई व्यवस्था नहीं है ।
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...