पलाश विश्वास
पहले इस पर अवश्य गौर करें कि के सेंसेक्स के आज रिकार्ड ऊंचाई पर पहुंचने के बीच 99 शेयरों ने अपने 52 सप्ताह का उच्च स्तर छूआ। एक्सिस बैंक, बायोकॉन, जेएसडब्ल्यू स्टील तथा लार्सन एंड टुब्रो अपने एक साल के उच्च स्तर पर पहुंच गए। हालांकि, एक्सचेंज में 105 शेयर अपने एक साल के निचले स्तर पर आ गए। इनमें वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज तथा अमर रेमेडीज शामिल हैं। एमप्लस कंसल्टिंग के प्रबंध निदेशक प्रवीण निगम ने कहा, 'बीजेपी की जीत के बाद सेंसेक्स ने चार माह का उच्च स्तर छूआ। तीन राज्यों में बीजेपी की जीत के बाद निवेशक भारतीय बाजार में आने वाले समय में स्थिरता आने की उम्मीद कर रहे हैं।
बाजार हिंदू राष्ट्र बनाने का मौका गंवाना नही चाहता और दिल्ली ने कांग्रेस और भाजपा दोनों के रथ के पहिये धंसा दिये। कोई मूर्ख ही होगा जो भाजपा ौर कांग्रेस दोनों का विरोध तो करता हो, लेकिन दिल्ली के जनादेश में निहित तात्पर्य पर किसी संवाद की जरुरत न समझता हो। यह मुक्त बाजार की अर्थ व्यवस्था और कारपोरेट राजनीति के चोली दामन के संबंधों के खुलासे का मौका है और जनविकल्प के लिए नये विकल्प तलाशने का भी मौका है।
निःसंदेह वह जन विकल्प फिलहाल आप नहीं है। लेकिन हमें अगर इस दुधारी वर्णवर्चस्वी जायनवादी कारपोरेट सत्ता यंत्र से भारतीय जन गण और लोकगणराज्य को,संविधान और लोकतंत्र को बचाने की चिंता है.तो हर विकल्प की संभावना पर ईमानदारी से सिलसिलेवार सोटना ही होगा,ऐसे विकल्प पर जो कारपोरेट न हो फिर।
हम अपने आदरणीय मित्र चमनलाल जी से शत प्रतिशत सहमत हैं कि आम आदमी की दिल्ली विजय पर जश्न मनाने का कोई औचित्य नहीं है।मेरे हिसाब से तो इस वधस्थल पर किसी भी तरह के उत्सव किसी भी बहाने अनुचित हैं।अभी अभी राजस्थान में हो रहे आदिवासी सम्मेलन के आयोजकों से हमारी लंबी बातचीत हुई है और हम उनसे सहमत है कि मुख्य मुद्दा जमीन का है ।जमीन की लड़ाई की सर्वोच्च प्राथमिकता है।जाति व्यवस्था और कारपोरेट जायनवादी साम्राज्यवाद के निशाने पर है पूरा कृषि समाज,कृषि व्यवस्था,देहात और जनपद,मनुष्य और प्रकृति। जिन लोगों की इस बारे में दृष्टि साफ नहीं है,उनसे बदलाव की कोई उम्मीद भी बेमानी है। हम आदरणीय लेखक वीरेंद्र यादव जी से भी सहमत हैं कि विचारहीन राजनीति की कोई दिशा नहीं होती।
उसीतरह मानते हैं हम कि पिछले सात दशकों में विचारहीन दृष्टिहीन आजादी की लड़ाई और बदलाव के नाम पर हमने मसीहा पैदा करने के सिवाय कुछ नहीं किया और मलाईदार तबके की कोई भी एकता संभव नहीं है। है भी तो वह एकता लूट खसोट में हिस्सेदारी की एकता होगी। सारे विकल्प कारपोरेट है। पहला दूसरा तीसरा चौथा सारे विकल्प कारपोरेट। हम अन्यतर विकल्प की बात कर रहे हैं।
हम अब भी भारतीय यथार्थ के मुताबिक बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की प्रासंगिकता मानते हैं। लेकिन बाबासाहेब के आंदोलन को क्षेत्र विशेष की पहले से मजबूत जातियों के वर्चस्व को और मजबूत करने की कवायद नहीं मानते। अंहबेडकर आंदोलन की मुख्य थीम जाति उन्मूलन है और अंबेडकरी आंदोलन के नाम पर अबतक ब्राह्मणवाद के विरोध के नाम पर खास जातियों की सत्ता और व्यवस्था में हिस्सेदारी की लड़ाई ही लड़ते रहे हैं बहुजन। जाति व्यवस्था के बाहर के लोगों को, अस्पृश्य भूगोल को जोड़कर कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा करने की पहल अभी तक नहीं हुई है और न जमीन,संसाधनों और अवसरों के बंटवारा को आंदोलन का मुद्दा बनाया जा रहा है।
हम सोशल मीडिया के बेहतरीन इस्तेमाल के संदर्भ में और खास कर सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी की दृष्टि से ही दिल्ली में आप की चमतकृत कर देने वाली कामयाबी का मूल्यांकन कर रहे है और इससे सबक ले रहे हैं कि लोकतांत्रिक संस्थागत आंदोलन खड़ा करने के लिए, चमनलाला जी के शब्दों में बीमारी के इलाज के लिए राष्ट्रव्यापी संवाद में हम सोशल मीडिया के महाविस्फोट और हमारे विरुद्ध इस्तेमाल की जा रही उच्च तकनीक को अपने आंदोलन का हथियार कैसे बनायें।
हम सामाजिक शक्तियों के एकीकरण की बात कर रहे हैं।मौकापरस्तों,दलालों और रंग बिरंगे दूल्हों के निहित स्वार्थों के एकीकरण की नहीं।यह निराशा नहीं है।यथार्थ से मुठभेड़ की कवायद है।जो लोग हमेशा विश्वासघात करने के लिए अभ्यस्त हैं,ऐसे लोगों को साथ लेकर चलने में हमें हमेशा अपनी पीठ पर छुरा घोंपे जाने का अहसास ही होगा।इसलिए उस आत्मघाती प्रक्रिया से ्लगाव की बात कर रहे हैं हम।अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन को विसर्जित करके हम वामपंथियों की तरह भारतीय यथार्थ को नजरअंदाज करने की भूल करके एक कदम भी बढ़ नहीं सकते।
हम छात्रों युवाओं के कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ गोलबंदी का स्वागत करते हैं।जिन्हें बहुजन आंदोलन ने अबतक संबोधित ही नहीं किया है। मजदूर यूनियनें हमने वामपंथियों के हवाले कर दी हैं और वे अपने हितों के मुताबिक चलाते हुए जायनवादी कारपोरेट साम्राज्यवाद की सहयोगी बनकर खुद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में सिरे से गैर प्रासंगिक बना चुके हैं। राजनीति में जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह स्त्री का इस्तेमाल तो खूब होता है, लेकिन बहुजन राजनीति में अभी स्त्री विमर्श अनुपस्थित है।आदिवासी विमर्श अनुपस्थित है। नागरिक व मानवाधिकार के मामले में सन्नाटा है। पर्यावरण चेतना नहीं है।इतिहास का वस्तुपरक अध्ययन नहीं है। प्रकृति से कोई तादात्म्य है ही नहीं।
इसके विपरीत इस महाध्वंस समय को बहुजन चेतना के स्वयंभू रथी महारथी स्वर्ण युग बताते हुए नहीं अघा रहे हैं। जश्न तो वे मना रहे हैं अपनी बेमिसाल कामयाबी का और बहुजनों के सफाये के आर्थिक सुधारों का।
हम जानते हैं कि आम आदमी पार्टी भूमि सुधार और जल जंगल जमीन नागरिकता और आजीविका के अधिकारों को मुद्दा नहीं बना रही है। हम जानते हैं कि खास तबकों को छोड़कर बाकी लोगों की उन्हें फिक्र नहीं है। हम जानते हैं कि कारपोरेट साम्राज्यवाद के जायनवादी विध्वंस से उन्हें कोई तकलीफ नहीं है और न कृषि समाज,कृषि और समूची उत्पादन प्रणाली के बारे में उनकी कोई सोच है।वे इंफ्रा बम और परमाणु शक्तिधर राष्ट्र के जन गण के विरुद्ध युद्ध के खिलाफ भी कुछ कहने जा रहे हैं। न सामाजिक न्याय और समता का उनका कोई लक्ष्य है।
पर हम तो अरविंद केजरीवाल को गरिमामंडित नही कर रहे कारपोरेट और सोशल मीडिया की तरह।हम यह भी जानते हैं कि दिल्ली में या तो सरकार भाजपा की होगी या फिर नये चुनाव होंगे जिसके नतीजे बिहार को दुहरा सकताहै और केजरीवाल का रामविलास हश्र हो सकता है।हालात भी दोबारा चुनाव के बन रहे हैं।कारपोरेट व्यवस्था इतनी बेताब है हिंदू राष्ट्र के लिए कि भाजपा की सरकार नहीं बनी तो चुनाव दोबारा होने की हालत में दिल्ली में फिर भगवा लहर पैदा होकर आप को ही गैरप्रासंगिक बना दें,तो हमें ताज्जुब भी नहीं होना चाहिए।
हालत तो यह है कि दिल्ली राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ता दिख रहा है। दोनों बड़ी पार्टियां भाजपा और आप कह रही हैं कि वो सरकार बनाने के लिए दावा पेश नहीं करेंगी क्योंकि उन्हें जनादेश नहीं मिला है। विधानसभा चुनाव का नतीजा आने के एक दिन बाद दोनों पार्टियों ने सोमवार को गहन मंत्रणा की। 70 सदस्यीय विधानसभा में दिल्ली की जनता ने खंडित जनादेश दिया है।
जहां 31 सीटें जीतकर भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है, वहीं उसके सहयोगी दल अकाली दल (बादल) को एक सीट मिली है। इसके साथ ही वह 36 के बहुमत के आंकड़े के साथ चार सीट पीछे है। दूसरी तरफ आप ने 28 सीटें जीती हैं। उसके बाद कांग्रेस को 8 सीटें मिली हैं। जद (यू) को एक सीट मिली है जबकि मुंडका सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत हासिल की है।
हमारा विनम्र निवेदन बस इतना है कि आम आदमी पार्टी के झंडे तले जो सामाजिक शक्तियां गोलबंद हुईं और देशभर में शायद होने जा रही हैं,उन्हें हम संबोधित क्यों नहीं कर पा रहे हैं,इसपर विचार आवश्यक है।
मुश्किल है कि कारपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया में अनिवार्य प्रश्नों के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है।हमारे हमपेशा ज्यादातर लोग हर कीमत काग्रेस को पराजित करना चाहते हैं और जायनवादी हिदू राष्ट्र की अवधारणा का भी वे आलिंगन कर चुके हैं। बाकी जो लोग वाम पंथी हैं उनकी प्रगति वाम राजनीति की तरह भारत के बहुजनों के मुद्दो पर किसी तरह के संवाद के विरुद्ध हैं।
इसीलिए हम फेसबुक जैसे माध्यमों के बेहतर इस्तेमाल करने पर जोर दे रहे हैं,जहां बेइंतहा कनेक्टिविटी होने के बावजूद इस माध्यम की ताकत के बारे में मित्र सारे अनजान हैं। लाइक मारने और शेयर करने के अलावा इसे हम गंभीर विमर्श का भी प्लेटफार्म बना सकते हैं ठीक उसीतरह जैसे ध्मोन्मादी राष्ट्रीयता का यह सबसे बड़ा प्लेटफार्म बन गया है। हमारे लिए अपनी बातें,अपना पक्ष कहने लिखने के मौके करीब करीब हैं ही नहीं,ये मौके हमें बनाने होंगे।
फतवेबाजी की संस्कृति के बजाय हम अगर लोकतांत्रिक विमर्श के तहत जाति उन्मूलन के एजंडे को सर्वोच्च प्राथमिकता बना पाते हैं और सामाजिक शक्तियों का राष्ट्रव्यापी एकीकरणकर पाते हैं ,तो शायद बदलाव के हालात बनें।
लेकिन हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। इसके विपरीत वे लोग ऐसा कर रहे हैं,जिनका देश की निनानब्वे फीसद जनता के मृत्यु उपत्यका में मारे जाने के लिए युद्ध बंदी बन जाने की नियति से कोई लेना देना नहीं है।
साभार ************
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