Tuesday, January 28, 2014

" हम नौकरों को भी अब नौकर चाहियें " .....???

आजकल अच्छे नौकर मिलते ही कहाँ हैं ? ( साभार - श्री आनंद जी शर्मा )

                            गोरे मालिकों के जाते वक़्त मुल्क के लोग मालिक बन गये |

हर एक मालिक को नौकर की जरूरत होती ही है - वरना वो मालिक किस बात का ?

गोरे मालिकों के दो मक्कार झांसेबाज़ दलालों ने अपने मालिकों के जाने के पहले से ही मुल्क में खुद की और अपनी आने वाली कई पुश्तों की रोजी रोटी का इंतजाम शुरू कर दिया था |

गोरे मालिकों के जाते ही मुल्क के मालिकों को जब नौकर की दरकार पड़ी तो वे दो नौकर हाजिर थे |

मुल्क ने बिना समझे कि ये ही दोनों पुराने गोरे मालिकों के जी-हजूरिये थे - उन्हे नौकरी पर रख लिया |


हजारों बरसों से गैर-मुल्की लुटेरों से लूटे जाने के बावजूद मुल्क में कभी भी दौलत की कमी नहीं थी - सो नयी नयी आज़ादी मिलते ही मुल्क के बाशिंदे मौज-मस्ती और जश्नों में मशगूल हो गये और मुल्क को संभालने का काम नौकरों के जिम्मे कर दिया |

अंधा का चाहे - दो आँखें - बस फ़िर क्या था - मक्कार नौकरों को मुँह-माँगी मुराद मिल गयी |

नौकरों ने अपने ही जैसे बेईमान - मक्कार - जालसाज़ - धोखेबाज़ - फ़रेबी - दगाबाज़ - वतन-फ़रोश लोगों को चुन चुन कर बड़े ओहदों पर तैनात कर एक मज़बूत गिरोह तैयार कर लिया और उन्होने ने भी अपने गिरोह को और मज़बूत करने के लिये खुद के जैसे गुर्गे - कारिंदे - कारकून छोटे छोटे ओहदों पर भर्ती कर के मुल्क पर पूरी तरह से क़ाबिज़ हो गये |

गोरे मालिकों की हुकूमत के दौर में ख़बर-नवीस ईमानदार और वतन-परस्त हुआ करते थे - इसलिए इन नौकरों ने अपनी हुकूमत बरकरार रखने के लिये सबसे पहले इन पुराने ख़बर-नवीसों को मुँह-माँगी दौलत दे कर उनके अख़बार खरीद लिये और फ़िर उन अखबारों में ईमानदारों की जगह अपने ज़र-खरीद गुलामों को तैनात कर दिया |

मुल्क के मालिक लोग - मुल्क का काम चलाने के लिये - अपने नौकरों को बाज़ार से खरीद-फ़रोख्त के लिये जो पैसे दे कर भेजते थे - उसमें से ये बेईमान नौकर एक बहुत बड़े हिस्से का गबन कर लेते थे |

मसलन - बाज़ार से कोई चीज़ लाने के लिये 1 रुपया दिया हो तो 10 पैसे की चीज़ ला कर - 90 पैसे बीच में ही गबन कर लेते थे |

एक बार तो नौकर ने बड़ी बेशर्मी से यह बात कबूल भी कर ली कि वे हर 1 रुपए में से 90 पैसों का गबन करते आ रहे हैं - लेकिन मुल्क की जनता को मौज मस्ती से फुरसत ही कहाँ जो इस बात पर गौर करती |

इससे नौकरों के गिरोह के सरगना का हौंसला एकदम बुलंदियों को छूने लगा |

नौकरों ने अपने मालिकों पर एहसान जताने की गरज़ से ऐलान-ए-आम किया कि उनका गिरोह मुल्क के लोगों को दो वक़्त की रोटी खाने का हक़ दे रहा है और उनके इस ऐहसान के बदले दुबारा नौकरों के गिरोह के सरगना को हुकूमत पर क़ाबिज़ रहने के फ़रमान पर चुपचाप दस्तख़त कर दे |

मुल्क के मालिक भी बेचारा क्या करें -
आजकल ईमानदार नौकर मिलते कहाँ हैं - कहाँ ढूँढने जाएँ -
एक नमो नाम के नये नौकर ने अर्ज़ी तो दे रक्खी है लेकिन अख़बार-नवीस उसके खिलाफ़ लामबंद हुए पड़े हैं जैसे मुल्क में दूसरा और कोई काम या ख़बर ही न हो -
ऐसे में भला कौन मौज मस्ती छोड़ कर नये नौकर का कामकाज देखे - पुराने नौकर से ही काम चला लेंगे -
पुराने नौकर ने पहले मुल्क के मालिकों को पढ़ाई-लिखाई का हक़ दिया था - हाँ ये बात ज़ुदा है कि पढ़ाई-लिखाई करने की इमारतों की जगह ख़स्ता-हाल टूटी फूटी हालत में मकान के नाम पर शर्म जैसा कुछ होता है जहाँ बच्चे पढ़ते कम हैं - बीमार ज्यादा होते हैं
पुराने नौकर ने मुल्क के मालिकों को नौकरों के गिरोह के कारनामों को जानने का हक़ दिया था - हाँ ये बात ज़ुदा है कि गबन के कारनामे जानने के बाद - गुनाह साबित होने पर भी नौकर बरी हो जाते हैं -
पुराना नौकर पिछले 66 बरसों से लूट रहा है तो क्या हुआ - दो वक़्त की रोटी देने का हक़ तो दे रहा है ना -
मुल्क के मालिकों को बस दो वक़्त की रोटी से मतलब है - और वे दो रोटियाँ खाने का हक़ तो पुराना नौकर दे रहा है ना - और क्या चाहिये
फ़िर क्यूँ नये नौकर की सुनें - क्यों उसकी आजमाइश करें -
क्यूँ वक़्त ज़ाया करें और अपनी मौज-मस्ती में खुद ही खलल डालें ?

आखिर आजकल अच्छे नौकर मिलते ही कहाँ हैं ?


                        
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