"हमारे पत्रकारिता व लेखन कार्य के गुरु - डॉक्टर वेद प्रकाश "वैदिक" जी के मशहूर लेख" आपके लिए साभार प्रस्तुत हैं !!वे सटीक चोट करने में बड़े ही माहिर हैं ! आप भी देखिये -
क्या राहुल का यही सोना है ???
मुजफ्फरनगर में जाटो और मुसलमानों के बीच जो दंगे हुए, वे तो बेहद दुखद और दुर्भाग्यजनक थे ही, अब जो नए तथ्य सामने आ रहे हैं, वे भारत के घावों पर तेजाब छिड़कने-जैसा है। अब पता चला है कि हरयाणा के दो इमामों को गिरफ्तार किया गया है। मेवात में रहनेवाले ये इमाम लश्करे-तोयबा के सदस्य हैं और ये शरणार्थी शिविरों में जाकर उन्हें भड़का रहे थे और उनसे दिल्ली में आतंकवाद फैलाने की तैयारी करवा रहे थे। इन इमामों का संबंध लश्कर के आतंकवादी जावेदी बलूची के साथ बताया गया है।
दो अन्य इमामों की तलाश जारी है, जो मुसलमान शरणार्थियों को पाकिस्तानी आतंकवादी गुटों का रंगरुट बनाने पर तुले हुए हैं। ये इमाम पुलिस के डर के मारे भूमिगत हो गए हैं लेकिन इनकी काली करतूतों पर से कुछ शरणार्थियों ने नकाब उठा दिया है। इन देशभक्त मुसलमानों ने सिर्फ उन इमामों द्वारा दिए गए लालच को ठुकराया ही नहीं, उनकी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की खबर पुलिस को भी दे दी है। उन्होंने पटियाला हाउस में अदालत में दंड संहिता की धारा 164 के अन्तर्गत गवाही दी है और कहा है कि ये इमाम उन्हें पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों में घसीटने की कोशिश कर रहे थे।
सबसे पहले तो मैं इन देशभक्त मुसलमानों की तहे-दिल से सराहना करना चाहता हूं। उन्होंने अपने व्यक्तिगत दुख-दर्द को देश की खातिर दरकिनार कर दिया। उन्होंने अपनी निजी तकलीफों को अपनी देशभक्ति पर हावी नहीं होने दिया। जहां तक उन इमामों का सवाल है, उनके जाल में न फंसकर मुजफ्फरनगर के मुसलमानों ने सांप्रदायिकता के मुंह पर करारा तमाचा लगाया है। पाकिस्तान के इस्लामी तत्वों की हरचंद कोशिश यह होती है कि एकदम निजी, स्थानीय और द्विपक्षीय मामलों को भी वे हिंदू-मुस्लिम सवाल बना देते हैं ताकि दंगे भड़कें और वैमनस्य फैले ताकि भारत कमजोर हो। इस नापाक कोशिश को मुजफ्फरनगर के मुसलमानों ने रद्द कर दिया। वास्तव में मुजफ्फरनगर में जो कुछ हुआ, वह दो परिवारों के बीच का मामला था। उस मामले का मजहब से कुछ लेना-देना नहीं था। वह मंदिर-मस्जिद या नमाज-पूजा या भारत-पाक का मुद्दा नहीं था। वह व्यक्तिगत मुद्दा या पारिवारिक मुद्दा, दो बड़े समूहों का मुद्दा बन गया, यह एक अलग बात है।
मुजफ्फरनगर के बारे में ये जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे राहुल गांधी सही साबित हुए लगते हैं लेकिन राहुल ने इंदौर में जिस अदा से यह बात कही थी, वह अदा देश के सारे मुसलमानों को बहुत ही अपमानजनक लगी थी। राहुल के फट पड़ने पर ऐसा लगा कि मुजफ्फरनगर में जो दंगे हुए, वे पाकिस्तान के इशारे पर हुए। दूसरे शब्दों में मुलसमान पाकिस्तान के एजेंट हैं। यह तो कोई मामूली बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि किसी लड़की को छेड़ने का स्थानीय मामला पाकिस्तान कैसे भड़का सकता है? हां, पाकिस्तान के उग्रवादी इस्लामी तत्व उसका फायदा जरुर उठा सकते हैं। यदि राहुल में राजनीतिक परिपक्वता होती तो वे इस मामले को पर्याप्त गंभीरता के साथ उठाते। इसके कारण उनकी अपनी छवि भी बनती और मुसलमान भी नाराज नहीं होते। राहुल ने जिस चलताऊ ढंग से सारे मामले को जिक्र किया, उससे तो ऐसा भी लगा कि कहीं उन्होंने कोई कपोल-कल्पित गप्प तो नहीं लगा दी। किसी बात का सही होना ही काफी नहीं है, उसे सही ढंग से उठाना भी जरुरी है।
क्या राहुल का यही सोना है ???
मुजफ्फरनगर में जाटो और मुसलमानों के बीच जो दंगे हुए, वे तो बेहद दुखद और दुर्भाग्यजनक थे ही, अब जो नए तथ्य सामने आ रहे हैं, वे भारत के घावों पर तेजाब छिड़कने-जैसा है। अब पता चला है कि हरयाणा के दो इमामों को गिरफ्तार किया गया है। मेवात में रहनेवाले ये इमाम लश्करे-तोयबा के सदस्य हैं और ये शरणार्थी शिविरों में जाकर उन्हें भड़का रहे थे और उनसे दिल्ली में आतंकवाद फैलाने की तैयारी करवा रहे थे। इन इमामों का संबंध लश्कर के आतंकवादी जावेदी बलूची के साथ बताया गया है।
दो अन्य इमामों की तलाश जारी है, जो मुसलमान शरणार्थियों को पाकिस्तानी आतंकवादी गुटों का रंगरुट बनाने पर तुले हुए हैं। ये इमाम पुलिस के डर के मारे भूमिगत हो गए हैं लेकिन इनकी काली करतूतों पर से कुछ शरणार्थियों ने नकाब उठा दिया है। इन देशभक्त मुसलमानों ने सिर्फ उन इमामों द्वारा दिए गए लालच को ठुकराया ही नहीं, उनकी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की खबर पुलिस को भी दे दी है। उन्होंने पटियाला हाउस में अदालत में दंड संहिता की धारा 164 के अन्तर्गत गवाही दी है और कहा है कि ये इमाम उन्हें पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों में घसीटने की कोशिश कर रहे थे।
सबसे पहले तो मैं इन देशभक्त मुसलमानों की तहे-दिल से सराहना करना चाहता हूं। उन्होंने अपने व्यक्तिगत दुख-दर्द को देश की खातिर दरकिनार कर दिया। उन्होंने अपनी निजी तकलीफों को अपनी देशभक्ति पर हावी नहीं होने दिया। जहां तक उन इमामों का सवाल है, उनके जाल में न फंसकर मुजफ्फरनगर के मुसलमानों ने सांप्रदायिकता के मुंह पर करारा तमाचा लगाया है। पाकिस्तान के इस्लामी तत्वों की हरचंद कोशिश यह होती है कि एकदम निजी, स्थानीय और द्विपक्षीय मामलों को भी वे हिंदू-मुस्लिम सवाल बना देते हैं ताकि दंगे भड़कें और वैमनस्य फैले ताकि भारत कमजोर हो। इस नापाक कोशिश को मुजफ्फरनगर के मुसलमानों ने रद्द कर दिया। वास्तव में मुजफ्फरनगर में जो कुछ हुआ, वह दो परिवारों के बीच का मामला था। उस मामले का मजहब से कुछ लेना-देना नहीं था। वह मंदिर-मस्जिद या नमाज-पूजा या भारत-पाक का मुद्दा नहीं था। वह व्यक्तिगत मुद्दा या पारिवारिक मुद्दा, दो बड़े समूहों का मुद्दा बन गया, यह एक अलग बात है।
मुजफ्फरनगर के बारे में ये जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे राहुल गांधी सही साबित हुए लगते हैं लेकिन राहुल ने इंदौर में जिस अदा से यह बात कही थी, वह अदा देश के सारे मुसलमानों को बहुत ही अपमानजनक लगी थी। राहुल के फट पड़ने पर ऐसा लगा कि मुजफ्फरनगर में जो दंगे हुए, वे पाकिस्तान के इशारे पर हुए। दूसरे शब्दों में मुलसमान पाकिस्तान के एजेंट हैं। यह तो कोई मामूली बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि किसी लड़की को छेड़ने का स्थानीय मामला पाकिस्तान कैसे भड़का सकता है? हां, पाकिस्तान के उग्रवादी इस्लामी तत्व उसका फायदा जरुर उठा सकते हैं। यदि राहुल में राजनीतिक परिपक्वता होती तो वे इस मामले को पर्याप्त गंभीरता के साथ उठाते। इसके कारण उनकी अपनी छवि भी बनती और मुसलमान भी नाराज नहीं होते। राहुल ने जिस चलताऊ ढंग से सारे मामले को जिक्र किया, उससे तो ऐसा भी लगा कि कहीं उन्होंने कोई कपोल-कल्पित गप्प तो नहीं लगा दी। किसी बात का सही होना ही काफी नहीं है, उसे सही ढंग से उठाना भी जरुरी है।
अन्ना - अब बने पुतले का " पुतला "???
अन्ना हजारे ने भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह को एक पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि गुड़गांव में उनका पुतला लगवाने में वे मदद करें। गुड़गांव में अन्ना का एक भक्त उनका पुतला लगवाना चाहता है और भाजपा के कार्यकर्ता उसका विरोध कर रहे हैं। भाजपा के कार्यकर्ता विरोध क्यों कर रहे हैं, हमें पता नहीं है लेकिन अगर वे पुतला लगाने का ही विरोध कर रहे हैं तो वे गलत हैं, क्योंकि भाजपा के कई नेताओं के पुतले देश भर में लगे हुए हैं।
लेकिन अन्ना द्वारा अपने ही पुतले के लिए वकालत करना बहुत अजीब-सी बात है। ऐसी भूल तो वही आदमी कर सकता है जो बिल्कुल बुद्धू हो, जिसे यही समझ न हो कि उसके इस कदम का लोगों पर कितना बुरा असर पड़ेगा। या ऐसा पत्र वही आदमी लिख सकता है, जिससे जो आदमी जब जैसा चाहे, वैसा लिखा ले। ऐसा आदमी तो मुहम्मद बिन तुगलक से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अन्ना हजारे का कुछ भरोसा नहीं कि वे कब क्या बोल दें या कब क्या कर दें? वे कभी मोदी की प्रशंसा कर देते हैं और कभी निंदा, वे कभी रामदेव के पांव छूते हैं और कभी कहते हैं कि उन्हें वे मंच से नीचे उतार देंगे, कभी वे अरविंद केजरीवाल की तारीफ करते हैं और कभी उस पर आग बरसाते हैं। अन्ना हजारे और राहुल गांधी, दोनों के मानसिक स्तर में कितनी समानता है। दोनों ही वैसा नाच दिखाते हैं, जैसी कि चाबी भर दी जाती है। उम्र के अंतर से कोई अंतर नहीं पड़ता। दोनों ही गांधी बन गए हैं। एक फिरोज गांधी का पोता होने के कारण गांधी है और दूसरा गांधी टोपी लगाने के कारण गांधी है। गांधी के नाम से हम जिस महात्मा को जानते हैं, उस महात्मा गांधी से इन दोनों का दूर-दूर का कोई रिश्ता नहीं है। दोनों को महात्मा गांधी के बारे में न्यूनतम जानकारी भी नहीं है। अन्ना तो भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की रट लगाए रहते हैं। यह अच्छा है लेकिन हम तो अभी गांधी की बात कर रहे हैं।
जहां तक पुतला लगाने की बात है, अन्ना से बढ़िया पुतला कहां मिलेगा? अन्ना पुतले के अलावा क्या हैं? इस पुतले में जब तक अरविंद की चाबी भरी रही, यह नाच दिखाता रहा। अब यह पुतला शुद्ध पुतला रह गया है। गुड़गांव के भक्त को क्या सूझी कि अब वह पुतले का पुतला बनवा रहा है। पुतला बनवाने के बारे में डाॅ. राममनोहर लोहिया का विचार है कि किसी के मरने के 300 साल बाद उसका पुतला बनना चाहिए याने किसी महापुरुष की महिमा 300 साल तक टिकी रहे, तब वह पुतले के लायक बनता है लेकिन अब तो तीन साल ही काफी हैं। दो-तीन साल में ही आजकल महिमा खिसक लेती है। कुर्सी खिसकी या प्रचार खिसका तो महिमा खिसकी! इसीलिए मायावती ने करोड़ों-अरबों खर्च करके अपने और कांशीराम के पुतले खड़े करवा दिए। लोहियाजी की तरह मैं 300 साल नहीं कम से कम 30 साल तक इंतजार करने का पक्षधर हूं। कम से कम दो पीढ़ियों तक किसी का नाम चले तो वह पुतले के लायक समझा जाए। सरकारी पैसे से बने जिंदा लोगों के पुतले तो जनता को ही तोड़ देने चाहिए और उनके पत्थर अपने शौचालयों में जड़वा लेना चाहिए। अन्ना का पुतला कोई अपने पैसों से बनवा रहा है तो बनवाए। आपको आपत्ति क्यों हैं? बस आप तो यह देखें कि उस पुतले के मुंह पर से कौओं और पंक्षियों की बीट बराबर साफ होती रहे।
लेकिन अन्ना द्वारा अपने ही पुतले के लिए वकालत करना बहुत अजीब-सी बात है। ऐसी भूल तो वही आदमी कर सकता है जो बिल्कुल बुद्धू हो, जिसे यही समझ न हो कि उसके इस कदम का लोगों पर कितना बुरा असर पड़ेगा। या ऐसा पत्र वही आदमी लिख सकता है, जिससे जो आदमी जब जैसा चाहे, वैसा लिखा ले। ऐसा आदमी तो मुहम्मद बिन तुगलक से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। अन्ना हजारे का कुछ भरोसा नहीं कि वे कब क्या बोल दें या कब क्या कर दें? वे कभी मोदी की प्रशंसा कर देते हैं और कभी निंदा, वे कभी रामदेव के पांव छूते हैं और कभी कहते हैं कि उन्हें वे मंच से नीचे उतार देंगे, कभी वे अरविंद केजरीवाल की तारीफ करते हैं और कभी उस पर आग बरसाते हैं। अन्ना हजारे और राहुल गांधी, दोनों के मानसिक स्तर में कितनी समानता है। दोनों ही वैसा नाच दिखाते हैं, जैसी कि चाबी भर दी जाती है। उम्र के अंतर से कोई अंतर नहीं पड़ता। दोनों ही गांधी बन गए हैं। एक फिरोज गांधी का पोता होने के कारण गांधी है और दूसरा गांधी टोपी लगाने के कारण गांधी है। गांधी के नाम से हम जिस महात्मा को जानते हैं, उस महात्मा गांधी से इन दोनों का दूर-दूर का कोई रिश्ता नहीं है। दोनों को महात्मा गांधी के बारे में न्यूनतम जानकारी भी नहीं है। अन्ना तो भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की रट लगाए रहते हैं। यह अच्छा है लेकिन हम तो अभी गांधी की बात कर रहे हैं।
जहां तक पुतला लगाने की बात है, अन्ना से बढ़िया पुतला कहां मिलेगा? अन्ना पुतले के अलावा क्या हैं? इस पुतले में जब तक अरविंद की चाबी भरी रही, यह नाच दिखाता रहा। अब यह पुतला शुद्ध पुतला रह गया है। गुड़गांव के भक्त को क्या सूझी कि अब वह पुतले का पुतला बनवा रहा है। पुतला बनवाने के बारे में डाॅ. राममनोहर लोहिया का विचार है कि किसी के मरने के 300 साल बाद उसका पुतला बनना चाहिए याने किसी महापुरुष की महिमा 300 साल तक टिकी रहे, तब वह पुतले के लायक बनता है लेकिन अब तो तीन साल ही काफी हैं। दो-तीन साल में ही आजकल महिमा खिसक लेती है। कुर्सी खिसकी या प्रचार खिसका तो महिमा खिसकी! इसीलिए मायावती ने करोड़ों-अरबों खर्च करके अपने और कांशीराम के पुतले खड़े करवा दिए। लोहियाजी की तरह मैं 300 साल नहीं कम से कम 30 साल तक इंतजार करने का पक्षधर हूं। कम से कम दो पीढ़ियों तक किसी का नाम चले तो वह पुतले के लायक समझा जाए। सरकारी पैसे से बने जिंदा लोगों के पुतले तो जनता को ही तोड़ देने चाहिए और उनके पत्थर अपने शौचालयों में जड़वा लेना चाहिए। अन्ना का पुतला कोई अपने पैसों से बनवा रहा है तो बनवाए। आपको आपत्ति क्यों हैं? बस आप तो यह देखें कि उस पुतले के मुंह पर से कौओं और पंक्षियों की बीट बराबर साफ होती रहे।
"आम आदमी का खर्च बनाम ख़ास आदमी का खर्च "
अरविंद केजरीवाल को पल्टी खानी पड़ी क्योंकि लोगों ने उसको याद दिलाई, उसकी अपनी प्रतिज्ञाएं। पहली प्रतिज्ञा तो उसने यही भंग कर दी कि ‘आप’ की सरकार बनाने के लिए उसने कांग्रेस से हाथ मिलाया और जब उसने 10 कमरों वाले मकान में रहना स्वीकार किया तो सारे चैनलों और अखबार ने हल्ला मचा दिया। यदि वे शोर नहीं मचाते तो ‘आप’ के मुख्यमंत्री पहले ही दांव में चारों खाने चित हो गए थे। सबसे पहला सवाल मेरे दिमाग में यही उठा कि अरविंद क्या राहुल या अन्ना की तरह भौंदू निकल गया? क्या उसे पता नहीं था कि उसके सिर्फ एक कदम से जनता की नजर में वह ढोंगी सिद्ध हो जाएगा? क्या मंत्रियों के सरकारी बंगले में 10-10 बेडरूम होते हैं? अब संतोष की बात यही है कि ‘आप’ की सरकार की खाल गैंडे की तरह नहीं है। इस सारे मामले में यह निष्कर्ष भी निकलना है कि अरविंद की सादगी उसकी मजबूरी रही है। वह सिद्धांततः या स्वभावतः सादगी पसंद नहीं है। अब अरविंद और उसके साथियों को अपने आचरण से सिद्ध करना पड़ेगा कि वे अब तक के नेताओं से भिन्न हैं।
अब तक के हमारे नेता मानसिक दृष्टि से अंग्रेजों के ही वंशज सिद्ध होते रहे हैं। कोई भी पार्टी इसकी अपवाद नहीं है। हां, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार और असम के पूर्व मुख्यमंत्री शरदचंद्र सिन्हा जैसे कुछ नेता इसके अपवाद रहे हैं। देश में जब औसत आदमी पर 3 आने रोज खर्च होता था तो प्रधानमंत्री नेहरू पर सरकार 25 हजार रुपए रोज खर्च करती थी। जब डा. लोहिया ने यह मामला संसद में उठाया तो सरकार के हाथ-पांव फूल गए लेकिन आज तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और कुछ अन्य लोगों पर करोड़ों रुपए रोज खर्च होता है लेकिन कोई भी उनके कान खींचने वाला नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि जिन्हें कान खींचने का अधिकार है, सांसद और विधायक, वे भी लूट-पाट में लगे हुए हैं। उनके वेतन, भत्ते और ऊपर की कमाई लाखों में होती है। जब वे खुद हाथ की सफाई दिखाते रहते हैं तो लूटपाट करने वाले नेताओं को वे कैसे रोक सकते हैं।
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए 3500 करोड़ याने 35 अरब रुपए के हेलिकॉप्टरों का सौदा हुआ। ऐसा सौदा करने वालों को जेल भेजा जाना चाहिए। ये लोग जनता के दुश्मन हैं। इतने पैसों में सैकड़ों स्कूल और अस्पताल खुल सकते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने अब तक 67 विदेश यात्राएं कीं। हर यात्रा पर लगभग 10 करोड़ रु खर्च हुए। खोदा पहाड़ और निकली चुहिया। चुहिया भी नहीं। अगर जाना ही था तो पाकिस्तान, लंका, नेपाल और पड़ोसी देशों में जाकर किसी साझा बाजार, साझा संसद, साझा महासंघ की बात करते। जरा बेशर्मी देखिए इस सरकार की। यह कहती है, देश में वह गरीब नहीं है, जिसे 30 रुपए रोज मिलते हैं और अपनी वर्षगांठ पर यह सरकार पार्टी देती है, जिसमें खाने की ही हर तश्तरी 8 हजार रु की होती है!
किसी भी लोकतांत्रिक सरकार में आम आदमी का खर्च और खास आदमी (नेता) के खर्च में कुछ अनुपात बांधा जाना चाहिए या नहीं? इस समय यह अनुपात 1 और 100 का है और यह 1 और 1 लाख तक भी पहुंचा है याने औसत आदमी यदि 30 रु रोज खर्च करता है तो खास आदमी का खर्च कम से कम 3 हजार रु रोज है। क्या हम इस खाई को थोड़ा-बहुत पाट सकते हैं? क्या यह अनुपात हम 1 और 10 या 20 का बना सकते हैं? क्या हम खास लोगों के खर्चों पर रोक लगाने के लिए कोई कठोर कानून नहीं बना सकते?
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