चकाचौंध की व्यवस्था से अब तो सचेत हो जायें !
जब जिन्दगी पर बन आई तो हंगामा मच गया। हवा जहरीली हुई तो सांसें थमने लगीं। आंखों में जलन शुरु हुई तो गैस चेंबर की याद आ गई। लेकिन क्या वाकई जिन्दगी की परवाह किसी को है। मौजूदा वक्त में जो सवाल देश के है उन्हीं के आसरे जिन्दगी को टोटल लें तब हवा में जहर क्यों और दूर हो कैसे इसपर भी बात होगी। क्योंकि जिस दौर में देशभक्ति जवानों की शहादत पर जा टिकी है, उस दौर में इसी बरस 93 जवान सीमा पर शहीद हो गये। जिस वक्त फसल की जड़ यानी खूंटी के जलने से फैलते जहरीले धुयें में मौत दिखायी दे रही है, तब इसी बरस 1950 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। जब दिल्ली की सडक पर जेएनयू के छात्र नजीब के गायब होने पर हंगामा मचा है। तब देश में 26 हजार से ज्यादा बच्चे इसी बरस लापता हो चुके हैं। जिस दौर में सफाई और विकास पर जोर है उसी दौर में फैंके जाते कचरे में लगती आग। कच्चे उघोगों से निकलता धुआं और सडक निर्माण के लिये सीमेंट,लोहा, ईंट, कोलतार से निकलने वाला धुआं 22 फीसदी बढ़ चुका है। और इस कतार में डिजल के ट्रक-एसयूवी का इस्तेमाल 12 फिसदी बढ़ गया। लकडी-कोयले से निकलने वाले धुये में 3 फीसदी की बढोतरी हो गई। बिजली उत्पादन बढाने के प्रोजेक्ट ने 4 फिस जहर हवा में घोल दिया । तो क्या जिन्दगी धुआं धुआं है और विकास की रफ्तार बेफिक्र है। या फिर सरकारी नीतियां जिस रास्ते जिन्दगी जीने को मजबूर कर रही हैं, उस दिशा में अब भारत ने सोचना बंद कर दिया है।
ये सवाल इसलिये क्योंकि वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में एक उपभोक्ता के बराबर 89 लोग हैं। यानी देश में विकास की समूची थ्योरी ही जब बाजार या कहें उपभोक्तावाद पर टिकी है तब जिस रास्ते कमाई या विकसित होने की नीतियां लाई जा रही हैं। उसमें डेढ़ करोड़ कन्जूमर के हत्थे देश के सौ करोड लोगों के जीवन से खिलवाड़ तो नहीं किया जा रहा है। क्योंकि गांव से औसत दो करोड़
लोगो का पलायन बीते 5 बरस में हर बरस हुआ। दिल्ली में ही 80 लाख रिहाइश बस्तियों में सिमटी है। कचरे से खाद बनाने की तकनीक जो दिल्ली में लगी है उसकी सीमा 10 फिसदी है। यानी दिल्ली की हवा में घुले जहर के साये में हर सवाल मौत से ज्यादा डरावना है। लेकिन अर्से बाद महानगर ही नहीं देश की राजधानी और उपभोक्ताओं की जिन्दगी पर बन आई है तो रास्ता किसी को नहीं सूझ रहा है। और सरकारें भी जिस डिहे पर खडी होकर खतरे की इस घंटी से निजात पाना चाहती है वह है कितना खोखला। उसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि सूखी जड़ों में लगी ये आग उतनी घातक नहीं है जितना मशरुम की तरह फैली देश झुग्गी-झोपडिया और बस्तियां है। जो असमानता का प्रतीक भी है और अंधेरे की जमीन पर चकाचौंध की शहरी सम्यता खड़ा करने की सोच भी है। क्योंकि जिस तरह कंक्रीट के मकान है। गाडियों का हुजूम है। और अव्यवस्थित-असमान समाज के विकास की सोच है। उसके भीतर का सच यही है कि खेती की सवा लाख हेक्ट्यर जमीन हर बरस शहरी कंक्रीट के लिये हड़पी जा रही है। 9 फिसदी नदियों की जमीन हथिया ली गई । 10 फीसदी जंगल काट लिये गये। 19 फिसदी गाडियां बढ़ गईं। 17 फिसदी कचरा बढ बीते पांच बरस में बढ़ चुका है। तो क्या वाकई देश जिस रास्ता निकल पडा है उसमें आने वाले वक्त में हर शहर को आगे बनने के लिये दिल्ली के रास्ते आना ही विकसित होना पडेगा । क्योंकि किसानों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर हो क्या सरकार के पास कोई नीति नहीं है । शहरों हो कैसे , इसकी कोई योजना सरकारों के पास है नहीं । शहर या महानगर ही नहीं देश की राजधानी में भी पब्लिक ट्रासपोर्ट को कोई विजन है नहीं। निर्माण क्षेत्र कैसे पर्यावरण को प्रभावित ना करें कभी किसी ने सोचा ही नहीं। दिल्ली में तो हर वक्त निर्माण कार्य ने बिमारी फैलाने में इतनी सहूलियत पैदा कर दी है कि डेंगू हो या चिकनगुनिया या फिर अब बर्ड फ्लू । आदमी से ज्यादा मच्छर इसमें रहने और विकसित होने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हालात है कितने बुरे इसका अंदाज इसी से लग सकता है सिर्फ दिल्ली को अगर हवा में जहर से निजात दिलाना है तो खेतो में बडी गली फसल की जड यानी खूंटी ना जले इसके लिये 4 राज्यो के किसानो के लिये 3 लाख करोड चाहिये।
पब्लिक ट्रासपोर्ट के लिये 9 हजार करोड तुरंत चाहिये। औघोगिक घुआं रोकने के लिये सवा लाख करोड तुरंत चाहिये। निर्माण कार्य का असर वातावरण पर ना पड़े तुरंत 80 हजार करोड चाहिये। यानी 6-7 लाख करोड का असर दिल्ली के वातावरण को तभी ठीक कर पायेगा जब दिल्ली को देश के हालात से काट कर कही और ले जाया जाये। जो संभव है नहीं तो फिर सवाल दिल्ली का नहीं देश का है। और देश मदमस्त है। तो भारत सरकार को कम से कम पर्यावरण पर बनी सबसे चर्चित फिल्म " वॉल.ई " देखनी चाहिये, जिसमें पृथ्वी डंपिग यार्ड में बदल जाती है। मनुष्य दूसरे ग्रह पर चले जाते हैं। गगनचुंबी इमारते कूडे के ढेर में बदल जाती है । रोबोट के जरीये पृथ्वी पर कूडे को व्यवस्थित रुप से रखा जाता है । और बाजार हो या बैक या फिर विकास की चकाचौध के सारे प्रतीक,सबकुछ कूड़ा रखने में ही काम आते है।
ये सवाल इसलिये क्योंकि वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में एक उपभोक्ता के बराबर 89 लोग हैं। यानी देश में विकास की समूची थ्योरी ही जब बाजार या कहें उपभोक्तावाद पर टिकी है तब जिस रास्ते कमाई या विकसित होने की नीतियां लाई जा रही हैं। उसमें डेढ़ करोड़ कन्जूमर के हत्थे देश के सौ करोड लोगों के जीवन से खिलवाड़ तो नहीं किया जा रहा है। क्योंकि गांव से औसत दो करोड़
लोगो का पलायन बीते 5 बरस में हर बरस हुआ। दिल्ली में ही 80 लाख रिहाइश बस्तियों में सिमटी है। कचरे से खाद बनाने की तकनीक जो दिल्ली में लगी है उसकी सीमा 10 फिसदी है। यानी दिल्ली की हवा में घुले जहर के साये में हर सवाल मौत से ज्यादा डरावना है। लेकिन अर्से बाद महानगर ही नहीं देश की राजधानी और उपभोक्ताओं की जिन्दगी पर बन आई है तो रास्ता किसी को नहीं सूझ रहा है। और सरकारें भी जिस डिहे पर खडी होकर खतरे की इस घंटी से निजात पाना चाहती है वह है कितना खोखला। उसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि सूखी जड़ों में लगी ये आग उतनी घातक नहीं है जितना मशरुम की तरह फैली देश झुग्गी-झोपडिया और बस्तियां है। जो असमानता का प्रतीक भी है और अंधेरे की जमीन पर चकाचौंध की शहरी सम्यता खड़ा करने की सोच भी है। क्योंकि जिस तरह कंक्रीट के मकान है। गाडियों का हुजूम है। और अव्यवस्थित-असमान समाज के विकास की सोच है। उसके भीतर का सच यही है कि खेती की सवा लाख हेक्ट्यर जमीन हर बरस शहरी कंक्रीट के लिये हड़पी जा रही है। 9 फिसदी नदियों की जमीन हथिया ली गई । 10 फीसदी जंगल काट लिये गये। 19 फिसदी गाडियां बढ़ गईं। 17 फिसदी कचरा बढ बीते पांच बरस में बढ़ चुका है। तो क्या वाकई देश जिस रास्ता निकल पडा है उसमें आने वाले वक्त में हर शहर को आगे बनने के लिये दिल्ली के रास्ते आना ही विकसित होना पडेगा । क्योंकि किसानों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर हो क्या सरकार के पास कोई नीति नहीं है । शहरों हो कैसे , इसकी कोई योजना सरकारों के पास है नहीं । शहर या महानगर ही नहीं देश की राजधानी में भी पब्लिक ट्रासपोर्ट को कोई विजन है नहीं। निर्माण क्षेत्र कैसे पर्यावरण को प्रभावित ना करें कभी किसी ने सोचा ही नहीं। दिल्ली में तो हर वक्त निर्माण कार्य ने बिमारी फैलाने में इतनी सहूलियत पैदा कर दी है कि डेंगू हो या चिकनगुनिया या फिर अब बर्ड फ्लू । आदमी से ज्यादा मच्छर इसमें रहने और विकसित होने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हालात है कितने बुरे इसका अंदाज इसी से लग सकता है सिर्फ दिल्ली को अगर हवा में जहर से निजात दिलाना है तो खेतो में बडी गली फसल की जड यानी खूंटी ना जले इसके लिये 4 राज्यो के किसानो के लिये 3 लाख करोड चाहिये।
पब्लिक ट्रासपोर्ट के लिये 9 हजार करोड तुरंत चाहिये। औघोगिक घुआं रोकने के लिये सवा लाख करोड तुरंत चाहिये। निर्माण कार्य का असर वातावरण पर ना पड़े तुरंत 80 हजार करोड चाहिये। यानी 6-7 लाख करोड का असर दिल्ली के वातावरण को तभी ठीक कर पायेगा जब दिल्ली को देश के हालात से काट कर कही और ले जाया जाये। जो संभव है नहीं तो फिर सवाल दिल्ली का नहीं देश का है। और देश मदमस्त है। तो भारत सरकार को कम से कम पर्यावरण पर बनी सबसे चर्चित फिल्म " वॉल.ई " देखनी चाहिये, जिसमें पृथ्वी डंपिग यार्ड में बदल जाती है। मनुष्य दूसरे ग्रह पर चले जाते हैं। गगनचुंबी इमारते कूडे के ढेर में बदल जाती है । रोबोट के जरीये पृथ्वी पर कूडे को व्यवस्थित रुप से रखा जाता है । और बाजार हो या बैक या फिर विकास की चकाचौध के सारे प्रतीक,सबकुछ कूड़ा रखने में ही काम आते है।
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