FIGHT ANY TYPE OF CORRUPTION, WITH "PEN"!
Wednesday, December 21, 2016
करप्शन की गंगोत्री राजनीति से निकलती है, अब तो मान लीजिए........!!!! - पुण्य प्रसून बाजपेयी
हफ्ते भर पहले ही चुनाव आयोग ने देश में रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों की सूचीजारी की। जिसमें 7 राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 58 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जिक्र है। लेकिन महत्वपूर्ण वो सूची है, जो राजनीतिक तौर पर जिस्टर्ड तो हो चुकी है और राजनीतिक दल के तौर पर रजिस्टर्ड कराने के बाद इस सूची में हर राजनीतिक दल को वह सारे लाभ मिलते है जो टैक्स में छूट से लेकर। देसी और विदेशी चंदे को ले सकते हैं। बीस हजार से कम चंदा लेने पर किसी को बताना भी नहीं होता कि चंदा देने वाला कौन है। और इस फेहरिस्त में अब जब ये खबर आई कि चुनाव आयोग 200 राजनीतिक दलों को अपनी सूची से बाहर कर रहा है। सीबीडीटी को पत्र लिख रहा है। क्योंकि ये पार्टियां मनीलान्ड्रिंग में लगी रहीं। तो समझना ये भी होगा कि चुनाव आयोग की इस फेहरिस्त में सिर्फ दो सौ या चार सौ राजनीतिक दल रजिस्टर्ड नहीं है जिन्होंने चुनाव नही लड़ा और सिर्फ कागज पर मौजूद है। बल्कि ऐसे राजनीतिक दलों की फेहरिस्त 13 दिसंबर यानी पिछले हफ्ते तक 1786 राजनीतिक दलों की थी। और इन राजनीतिक दलो की फेहरिस्त में इक्का दुक्का या महज दो सौ राजनीतिक दल नहीं है जो टैक्स रिटर्न तक फाइल नहीं करतीं। बल्कि चुनाव आयोग सूत्रों के मुताबिक एक हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल नहीं करती। तो इस फेरहिस्त को देखकर कोई भी सवाल कर सकता है कि क्या राजनीतिक दल कालाधन खपाने के लिये बनाये जाते हैं। क्या चुनाव लड़ने वाली राजनीतिक पार्टियां अपने काले चंदे को खपाने के लिये भी पार्टियां बनाती है। क्योंकि चुनाव आयोग आर्टिकल 324 के तहत चुनावी प्रक्रिया पर कन्ट्रोल तो कर सकता है।
लेकिन चुनाव आयोग किसी राजनीतिक दल को अपने तौर पर हटा नहीं सकता। तो क्या जिन 200 राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन रद्द करने का जिक्र चुनाव आयोग अब कर रहा है उसके लिये सीबीडीटी जांच जरुरी है। यानी राजनीति पाक साफ हो । इसके लिये पहल सरकार को ही करनी होगी। क्योंकि कायदे कानून अगर कड़े होंगे। राजनीतिक दलों के खिलाफ आरोप साबित होने पर कानून अपना काम करते हुये दिखे। जांच एजेंसियां स्वतंत्रता के साथ काम करने लगे। तो फिर चुनाव आयोग से राजनीति को पाक साफ करने की गुहार पीएम को भी करने की जरुरत पडेगी नहीं । क्योकि कानून सरकार को बनाना है। लागू जांच एंजोसियों को करना है। समझना होगा कि चुनाव आयोग सिर्फ पार्टियों को रजिस्टर्ड कर सकती हैं। रद्द करने का अधिकार उसके पास नहीं है। तो बड़ा सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीतिक दल बनने के साथ ही शुरु होती है। तो आईये इसे भी परख लें। क्योंकि राजनीति का सच तो यही है कि कॉरपोरेट,कालाधन और दागियों ने भारतीय राजनीति को बंधक बना लिया है। या कहें कि भारतीय राजनीति की दशा-दिशा उसी कॉरपोरेट की मर्जी से तय होती है, जिसे विपक्ष में रहते हुए हर दल निशाने पर लेता है और सत्ता में आते ही खामोश हो जाता है । और सत्ता खिसक जाये तो सत्ता के करप्शन पर सीधे अंगुली उठती है ।यानी कालाधन इस राजनीति को वो ऑक्सीजन देता है,जो ईमानदारी के पैसे से मुमकिन ही नहीं। और दागी वो औजार हैं, जो संसदीय राजनीति की तमाम कमियों को ढाल बनाकर राजनीति के मायने ही बदल देते हैं। तो क्या ये इसलिए है क्योंकि देश की नीतियां कॉरपोरेट तय करता है। और कॉरपोरेट इसलिए तय करता है क्योंकि बीते 12 बरस में हुये तीन लोकसभा चुनाव में 2355 करोड़ रुपये कारपोरेट ने चंदे के तौर पर दिये। और कारपोरेट को टैक्स में छूट के तौर पर 40 लाख करोड़ से ज्यादा राजनीति सत्ता ने दिये ।
इसी तरह -बीते 10 बरस में विधानसभा चुनावो में कारपोरेट ने 3368 करोड टैक्स के तौर पर दिये। राज्यों ने कारपोरेट को योजनाओं के जरीये 50 लाख करोड़ से ज्यादा का लाभ दे दिया। तो राजनीति करप्ट है या देश में विकास के नाम पर जो भी काम कोई उघोगपति या कारपोरेट करना चाहता है मुनाफे के लिये उसे राजनीतिक सत्ता का आसरा लेना ही होता है। तो क्या राजनीतिक दल अगर करप्ट ना हो तो देश में विकास या इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर जितना खनिज संसाधन लुटाया जाता है वह सही मायने में देश को विकसित कर दें। यह सवाल इसलिये क्योंकि जब कैशलेस देश का जिक्र हो रहा है तो बीते दस बरस में 10 बरस में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने 1039 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर पर लिये। क्षेत्रीय पार्टियों ने 2107 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर लिये। और असर इसी का है कि एनपीए यानी डुबा हुआ कर्ज लगातार बढ़ रहा है और मनमोहन सिंह के बाद प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में आने के बाद भी थमा नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 में बैंकों का एनपीए 5.43 फीसदी था, जो अब बढ़कर 9.92 फीसदी हो चुका है। हद तो ये कि हाल में सरकार ने शीर्ष 100 विलफुट डिफाल्टरों में से 60 से अधिक पर बकाया 7,016 करोड़ रुपए के लोन को डूबा हुआ मान लिया । और अब विपक्ष में रहते हुए इस मुद्दे को अगर कांग्रेस उठा रही है, तो कांग्रेस का सच ये है कि कांग्रेस के कार्यकाल
में करीब 1 लाख करोड़ का कॉरपोरेट कर्ज माफ किया गया था । और कॉरपोरेट या बड़े उद्योगपतियों को सरकार की छाया का लाभ कैसे मिलता है-इसका पता इस बात से भी लग सकता है कि कालेधन पर विदेशी बैंकों के 627 खाताधारकों में इक्का दुक्का को छोड़कर आज तक सबके नाम सामने नहीं आए। और नाम सामने आने चाहिये इसके लिये अब राहुल गांधी कहते है नाम क्यों नहीं बताते और जब मनमोहन सिंह की सत्ता थी तो बीजेपी पूछती थी मनमोहन सिंह नाम क्यों नहीं बताते। तो राजनीतिक भ्रष्टाचार के सामने कैसे हर भ्रष्टाचार छोटा है ये अमेरिकी की नामी सर्वे कंपनी आईपीएसओएस के सर्वे में सामने आ गया तो दुनिया के 25 देशो के सामने मुख्य मुद्दा हो, कौन सा इसे लेकर किया गया ।भारत में नोटबंदी से एन पहले 25 अक्टूबर से 4 नवंबर तक जो सर्वे किया गया। उसमें सामने यही आया कि अमेरिका के सामने सबसे बडा मुद्दा आतंकवाद का है। रुस के सामने सबसे बडा मुद्दा गरीबी और समाजिक असमानता है। चीन के सामने सबसे बडा मुद्दा पर्यावरण का है। फ्रांस के सामने सबसे बड़ा मुद्दा रोजगार का है। लेकिन भारत के सामने सबसे बडा मुद्दा वित्तीय और राजनीतिक करप्शन है। और इस सर्वे में ये साफ तौर पर उभरा कि भारत के लोग आंतक, गरीबी,हेल्थ, शिक्षा या फिर अपराध से भी उपर पॉलिटिकल करप्शन को ही महत्वपूर्ण मानते हैं। सर्वे के मुताबिक 46 फिसदी लोगों की राय है कि पॉलिटिकल करप्शन ना हो तो हर हालात ठीक हो सकते हैं। तो क्या ये भी कहा जा सकता है कि राजनीति से बडा सांगठनिक अपराध और कोई नहीं है। या फिर राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगते ही कानून-व्यवस्था कोई मायने नहीं रखता। या राजनीति से बड़ा रोजगार और कोई नहीं है। क्योंकि मोदी सरकार ही जिस
कैशलेस व्यवस्था की दिशा में देश को ले जाना चाह रही है उसमें कोई राजनीतिक दल कहने को तैयार नहीं है कि अब कैश से एक पैसा भी चंदा नहीं लिया जायेगा और चंदा देने वाले को राजनीतिक सत्ता कोई लाभ नहीं देगी ।तो क्या 30 दिसंबर को देश अफसल साबित होगा ?
सवाल ना तो किसी चौराहे का है ना ही पीएम के वचन का। सवाल है कि आखिर 30 दिसंबर के बाद देश के सामने रास्ता होगा क्या। क्योंकि इन्फ्रास्ट्रक्चर जादू की छड़ी से बनता नहीं है। और नोट छापने से लेकर कैशलेस देश की जो परिभाषा बीते 36 दिनो से गढ़ी जा रही है, उसके भीतर का सच यही है कि मनरेगा से लेकर देशभर के दिहाड़ी मजदूर जिनकी तादाद 27 करोड पार की है उनकी हथेली खाली है। पेट खाली हो चला है। तीन करोड़ से ज्यादा छात्र जो घर छोड़ हॉस्टल या शहरों में कमरे लेकर पढ़ाई करते है उनकी जिन्दगी किताब छोड़ बैंक की कतारों में जा सिमटी है। मिड-डे मील की खिचड़ी भी अब गाव दर गांव कम हो रही है। और दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे भारत की तादाद जो 19 करोड़ की है । अब इस कतार में 11 करोड़ से ज्यादा लोगों की तादाद शामिल हो चुकी है। गुरुद्वारों के लंगर में बीते 35 दिनो में तीस फीसदी का इजाफा हो चुका है । यानी आगरा मे गजक बनाने वाला हों या गया के तिलकुट बनाने वाले या फिर कानपुर में चमडे का काम हो या सोलापुर या सूरत में सूती कपडे का काम । ठप हर काम पड़ा है। पं बंगाल समेत नार्थ इस्ट में जूट का छिटपुट काम भी
ठप है और असम के चाय बगानो से मजदूरो से पहले अब ठेकेदार और बगान मालिकही मजदूरों को भुगतान के डर से भाग रहे हैं। तो सवाल ये नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद क्या कोई जादू की छड़ी काम करने लगेगी। सवाल ये है कि जिस स्थिति में देश नोटबंदी के बाद आ खड़ा हो गया है, उसमें अब रास्ता है कौन सा। क्योंकि नोटो की मांग पूरी ना कर पाने के हालात कैशलेस का राग जप रहे हैं। तो दूसरी तरफ 65 फिसदी हिन्दुस्तान में मोबाईल-इंटरनेट-बिजली संकट है तो कैशलेस कैसे होगा। और एक कतार में हर नेता के निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी का नोटबंदी का निर्णय है लेकिन रास्ता किसी के पास नहीं है। और ये कोई अब समझने को तैयार नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद पीएम नहीं देश भी फेल होगा। लेकिन राजनीतिक बिसात आरोपों की है तो निर्णय भी अब घोटाले के अक्स में देखा जा रहा है। तो वाकई हालात बिगड़े हैं। या बिगड रहे हैं।
तो कोई भी कह सकता है तब 30 दिसंबर के बाद रास्ता होना क्या चाहिये। क्योंकि सवाल ना तो देश के सब्र में रहने का है ना ही एक निर्णय के असफल होने का। सवाल है कि अब निर्णय कोई भी सरकार क्या लेगी। क्योंकि नोटों के छपने का इंतजार रास्ता नहीं है। कैशलेस होने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने तक के वक्त का इंतजार रास्ता नहीं है। बैंकिंग सर्विस के जरिये आमजन तक रोटी की व्यवस्था कराने की सोच संभव नहीं है। -लोगों की न्यूनतम जरुरतों को सरकार हाथ में ले नहीं सकती। शहरी गरीबो के लिये सरकार के पास काम नहीं है। और फैसले पर यू टर्न तो लिया ही नहीं जा सकता। अन्यथा पूरी इकनॉमी ही ध्वस्त हो जायेगी। तो क्या पहली बार देश उस मुहाने की तरफ जा रहा है जहा आने वाले वक्त में राजनीतिक सत्ता को ही बांधने की व्यवस्था राजनीतिक और संवैधानिक तौर पर कैसे हो अब बहस इसपर शुरु होगी। क्योंकि चुनावों की जीत-हार से कहीं आगे के हालात में देश फंस रहा है और असमंजस के हालात किसी भी देश को आगे नही ले जाते इसे तो हर कोई जानता समझता है। तो दो हालातों को समझना जरुरी है। पहला ढहती भारतीय व्यवस्था। दूसरी ढहती व्यवस्था के अक्स पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को जनता की राय मान ली जाये। तो दोनों स्थिति त्रासदीदायक है क्योंकि एक तरफ जिस मनरेगा के आसरे देश के साढ पांच करोड़ परिवारों के पेट भरने की व्यवस्था 15 बरस पहले हुई उसका मौजूदा सच यही है कि नोटबंदी ने मनरेगा मजदूरों की रीढ़ तोड़ दी है। आलम ये है कि मनरेगा के तहत अक्टूबर के मुकाबले नवंबर में 23 फीसदी रोजगार घट गया।
और पिछले साल नवंबर की तुलना में तो इस बार मनरेगा में 55 फिसदी रोजगार कम रहा। और ये हाल अभी का है और इससे पहले का मनरेगा का सच ये था कि वित्तीय साल 2015-16 में कुल 5.35 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की लेकिन केवल 4.82 करोड़ परिवारों को ही रोजगार दिया जा सका यानी 9.9 फीसद परिवारों को मांग के बावजूद रोजगार नहीं हासिल हुआ। और ये रोजगार भी सिर्फ 100 दिन के लिए था । और अब हालात और बिगड़े हैं क्योंकि पैसा नहीं है। तो दो सवाल सीधे हैं कि देश के करोडो मजदूरों के पास अगर काम ही नहीं होगा तो वो जाएंगे कहां ? और अगर काम बिना खाली पेट सरीखे हालात बने तो क्या आने वाले दिनों में अराजकता का माहौल नहीं बनेगा? जवाब कम से कम सरकार के पास नहीं है अलबत्ता इंतजार चुनाव का ही हर कोई करने लगा है। क्योंकि देश चौराहे पर तो खड़ा है। एक तरफ नोटबंदी पर ईमानदारी के दावे । दूसरी तरफ नोटबंदी से परेशान कतार में खडा देश । तीसरी तरफ संसद के भीतर बाहर घोटाले की तर्ज
पर नोटबंदी को देखने मानने पर हंगामा। और चौथी तरफ पांच राज्यों के विधानसभा की उल्टी गिनती। और अब सवाल ये कि क्या यूपी, उत्तराखंड, पंजाब , गोवा और मणिपुर में चुनाव मोदी के नोटबंदी के फैसले पर ही हो जायेगा। क्योंकि हालात बताते हैं कि खरगोश से भी तेज रफ्तार से देश चल पड़े तो भी अप्रैल बीत जायेगा। और चुनाव आयोग संकेत दे रहा है कि चुनाव फरवरी में ही निपट जायेंगे। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बडा जुआ या कहें दांव पर ही देश चुनाव में फैसला करेगा। यानी ईमानदारी का राग सही या गलत । भ्रष्टाचार राजनीति का ही पालापोसा बच्चा है या नहीं। नोटबंदी से क्रोनी कैपटिलिज्म की जमीन खत्म हो जायेगी या नहीं। नोट बदलने से ब्लैक-मनी खत्म हो जायेगी या नहीं। या फिर चुनाव की हार जीत से गरीब देश फिर हार जायेगा। यानी पहली बार देश की इकनॉमी से राजनीतिक खिलवाड़ हो रहा है और आज संसद तो कल विधानसभा चुनाव इसकी बिसात के प्यादा साबित होंगे। और परेशान देश में जीत उसी राजनीति की होगी जिसने देश को खोखला भी बनाया और खोखले देश को ईमानदारी से भरने का राग भी अलापा।
पहले सिस्टम करप्ट था अब करप्शन ही सिस्टम तो नहीं हो चला ?
वेल्लूर 24 करोड़ तो दिल्ली 15 करोड़ 65 लाख। चेन्नई 10 करोड़ तो चित्रदुर्ग 5 करोड़ 70 लाख। गोवा डेढ़ करोड़ और उसके बाद मुंबई से लेकर कोलकाता और जयपुर से लेकर पुणे तक और गाजियाबाद से लेकर गपडगांव यानी गुरुग्राम तक लाखों के नये नोट जब्त किये गये हैं। और देश के सिर्फ 16 हीनहीं बल्कि 32 जगहों से जो अवैध नये नोटों को पकड़ने का सिलसिला जारी है या कहे 500 और 2000 के नये नोट निकल कर सामने आये हैं, उसमें सवाल यही बड़ा है कि पकड़ने वालों की पीठ थपथपायी जाये या फिर नोट पहुंचाने वालों को सजा दी जाये। संयोग से जिन्होने नोट पहुंचाये और जिन्होंने नोट पकड़े दोनों ही सरकारी मुलाजिम हैं। या कहें उसी सिस्टम का हिस्सा है जिस सिस्टम पर भरोसा कर देश को कैशलेस बनाकर बैकिंग सर्विस से जोडकर करप्शन मुक्त या कालाधन मुक्त होने का सपना देखा दिखाया जा रहा है। तो क्या ये वाकई सपना है। क्योंकि नोटबंदी से पहले जो सिस्टम था वही करप्ट था और नोटबंदी केबाद जिस साफ सिस्टम की वकालत की जा रही है उसी में करप्शन है और बैंकिंग सर्विस में भ्रष्टाचार है, इसे पीएमओ भी अगर मान रहा है और उसे स्टिंग करानेकी जरुरत पड़ रही है तो देश के तीन सच से आंखे किसी को नहीं मूंदनी चाहिये।
पहला, सिस्टम ठीक तभी होगा जब देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा। दूसरा, इन्फ्रास्ट्रक्चर तभी होगा जब जनता सिस्टम का हिस्सा होगी। तीसरा, जनता सिस्टम में शामिल तभी होगी जब सत्ता जनता के बीच होगी। और ध्यान दें तो अभी तक सत्ता का मिजाज जनता को सरकार के रहमोकरम पर रखने वाला है। यानी देश का किसान मानामाल नहीं हो सकता। देश का मजदूर दो जून के लिये भटकना छोड़ नहीं सकता। 70 करोड़ की आबादी के लिये सरकार के पास सिर्फ मदद या राहत पैकेज है जिसे वही सरकारी कर्मचारी या संस्थान पहुंचाते है, जो करप्ट है। तो फिर नोटबंदी के बाद सिस्टम का दायरा जब बैंकिंग सर्विस और तकनीक पर आ टिका है और नोटों के उत्पादन से ज्यादा नोटों की मांग है तो फिर सिस्टम को और ज्यादा करप्ट होने से कौन सा सिस्टम रोक पायेगा। क्योंकि नोटबंदी से पहले सिस्टम करप्ट था। नोटबंदी के बाद करप्शन ही सिस्टम हो रहा है। क्योंकि देश के एक लाख तीस हजार बैंक शाखाओं में से पांच सौ बैंकों में स्टिंग और किसी ने नहीं पीएमओ ने कराया। और खबर आ गई कि जहां जहां स्टिंग हुआ वहां वहां गड़बड़ी हुई है। तो अब उन्हें बख्शा नहीं जायेगा। यानी जो भ्रष्टाचार होना नहीं चाहिये था, वह भ्रष्टाचार देश की सफाई के लिये उठाये गये सबसे बडे कदम के दौर में वही बैक कर रहा है, जिस बैंकिंग सर्विस पर सरकार को भरोसा है कि आने वाले वक्त में यही तरीका देश को बचा सकता है । यानी भ्रष्टाचार खत्म कैसे हो इसका उपाय किसी के पास नहीं। तो क्या देश स्टिंग आपरेशन के आसरे चल सकता है। ये सवाल कल भी था और आज भी है। कल केजरीवाल के लिये ये हथकंडा था और प्रधानमंत्री मोदी के लिये।
तो ये मान भी लिया जाये कि हर जगह कैमरा लगा होगा । हर जगह पर सीधे सत्ता नजर रखेगी । यानी कोई भ्रष्ट ना हो या बैक इस तरह कैश ना बांटे जैसा स्टिंग ऑपरेशन में नजर आया होगा । तो अगला सवाल है कि कैशलेस करप्शन पर रोक के लिये कौन सा स्टिंग होगा । क्योंकि जनता का ही बैंकों में जमा रुपया कारपोरेट को बांटा गया। जो कैश नहीं चैक या खातों में ट्रांसफऱ कर दिखाया जाता है और उसी कड़ी में नॉन परफोर्मिंग एसेट यानी एनपीए की राशि बीते 10 बरस में 10 लाख करोड़ से ज्यादा की हो चुकी है। तो क्या जिन बैंक मैनेजरों ने जिन राजनेताओं के कहने पर जिन कारपोरेट को करोड़ों रुपया कर्ज दिया । और जो कारपोरेट जिन राजनेताओ के कंघे पर सवार होकर बैंकों को कर्ज की रकम नहीं लौटा रहे हैं, क्या वह करप्शन नहीं है। और है तो उसके लिये कौन सा कानून किस तरह देश में काम कर रहा है। यानी मौजूदा वक्त में भी करीब सवा लाख बैंकों में क्या हो रहा है-इसका सरकार को कुछ पता नहीं या कहें कि सरकार चाहकर भी कुछ कर नहीं सकती। और अगर सरकार ये सोच रही है कि आने वाले वक्त में बैकिंग सर्विस के दायरे में समूचा दगेश होगा और बैकिंग सर्विस पर निगरानी रखकर उक्नामी के करप्शन को खत्म किया जा सकता है। तो ये नजरिया कब कैसे पूरा होगा कोई नही जानता। क्योंकि फिलहाल 97 बैंकों की 1लाख 30 हजार शाखायें देश भर में हैं और 10 बरस पहले यानी 2005 में 284 बैंकों की 70373 शाखायें देश भर में थीं। यानी दस बरस में करीब दुगनी शाखायें देश भर में खुलीं। लेकिन देश का सच यही है कि 93 फिसदी ग्रामीण भारत में बैंक है ही नहीं । शहरो में प्रति बैक शाखा औसतन 10 हजार लोग हैं। और मौजूदा वक्त में प्रतिदिन नोट बांटने की कैपिसिटी प्रति शाखा सिर्फ 500 लोग है। यानी मौजूदा सिस्टम को ही पटरी पर लाने के लिये जो इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिये उसमें कई गुना सुधार की जरुरकत है। और ये जरुरत कितने दिनों में कैसे पूरी होगी कोई नहीं जानता।
तो अगला सवाल ये हो सकता है कि क्या स्टिंग ऑपरेशन सिर्फ ये बताने के लिये है कि सरकार काम कर रही है । क्योंकि सरकार को बखूबी मालूम है कि उसके पास वक्त सिर्फ 30 दिसंबर तक का है,क्योंकि फिर दांव पर प्रधानमंत्री मोदी का वचन होगा। ऐसे में अगर पीएम मोदी संसद में कहेंगे तो क्या कहेंगे और अगर राहुल गांधी ही संसद में कहेंगे तो क्या कहेंगे। जाहिर है बैकिंग सर्विस,तकनालाजी और कैशलेस पेमेंट के जरीये कालेधन, भ्रष्टाचार पर नकेल से आगे पीएम क्या कह सकते हैं। और राहुल गांधी नये हालातो में इन्ही सब से पैदा हुये मुश्किल हालात से आगे क्या कहेगें। यूं जब रैलियो में पीएम के तेवर के अक्स में संसद में मोदी के कहने के इंतजार करें तो मोदी सीधे देश के बिगडे हालात के लिये नेहरु गांधी परिवार को कटघरे में खडा कर सकते हैं। भ्रष्टाचार और कालेधन को आश्रय देने वाली व्यवस्था के लिये गांधी परिवार को सबसे भ्रष्ट बता सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी मुश्किल हालात में प्रदानमंत्री मोदी को नीरो करार दे सकते हैं। जो देश के जलने पर ईमानदारी की बांसुरी बजा रहे हैं । क्योंकि देश के राजनेताओ की भाषा तो फिलहाल यही हो चली है । लेकिन सवाल यह भी है कि संसद में क्या कोई नेता ये कहने की हिम्मत दिखा गा कि संसद ही जिस जमीन पर खड़ी है और उसमें बैठकर देश के नाम संबोधन का जो जुमला हर राजनीतिक दल गढ रहा है क्या उस जमीन से जमता का वाकई कुछ लेना देना है । यानी सवाल सिर्फ प्रदानमंत्री मोदी या राहुल गांधी भर का नहीं है । सवाल है कि बीते 34 दिनो में क्या किसे ने इमानदारी से संसद में बताया कि उनकी राजनीतिक पार्टी चलती कैसे है । कारपोरेट को अरबो रुपये की टैक्स रियायत क्यो दी जाती है । और गरीबो के लिये सिर्फ सरकारी पैकेज ही क्यों चलता -दौडता है ।यानी जिस कालेधन और भ्रष्टाचार की खोज नोटबंदी के बाद कतारो में खडे लोगो के मुशकिलो में टटोला जा रहा है उसके भीतर का सच यही है कि राजनीतिक व्यवस्था ने खुद को जनता के प्रति जिम्मेदार माना ही नहीं है । कारपोरेट या निजी पूंजी की इक्नामी का इन्फ्रास्ट्रक्रचर ही देश चला रहा है । सत्ता पूंजी के आसरे व्यवस्था चलाती है ना कि मानव-संसाधन के आसरे । यानी भ्रष्टाचार कौन करता है ये बताने के लिये किसी सिस्टम की जरुर नहीं है और कालाधन किसके पास है ये जानने के लिये बैंकिंग सर्विस की जरुरत भी नहीं है । जरुरत सिर्फ इस सच के साथ खड़े होने की है कि कानून और संवैधानिक संस्धान अपनी जगह अपना काम करे । जो है नहीं तो करप्शन ही सिस्टम कैसे हो जाता है ये कहां किसी से छुपा है ।
"5th पिल्लर करप्शन किल्लर" "लेखक-विश्लेषक पीताम्बर दत्त शर्मा "
वो ब्लॉग जिसे आप रोजाना पढना,शेयर करना और कोमेंट करना चाहेंगे !
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुकर्वार (23-12-2016) को "पर्दा धीरे-धीरे हट रहा है" (चर्चा अंक-2565) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 23 दिसम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteविचारणीय।
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