Thursday, November 12, 2015

हो गए चुनाव,मना ली दीपावली ,अब तो कर लो इस गरीब देश की रखवाली !! - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो. न. - +919414657511.

"क्या-क्या सितम नहीं ढाएँ हैं इन कमीनों ने चुनाव की खातिर "इस देश की जनता पर , पोत दी है "कालिख"भारत माता के मुंह पर !अब जांच करवाओ कि "किसके" कहने पर कोन - क्या बोला ? किसने किसके कहने पर हड़ताल की ? जिन्होंने पुरुस्कार लोटाये उन्हें "हौसला" किसने दिया ?"दादरी-हार्दिक पटेल-पंजाब में छाये असंतोष और योगेन्द्र-यादव केजरीवाल एंड पार्टी के पीछे कौन-कौन सी छिपी हुई ताक़तें हैं ??कांग्रेस - कम्युनिस्टों के और कितने छिपे हुए दोस्त हैं ? हमें सब पता लगाना ही होगा ! क्योंकि अगर ये लोग अब फिर "सत्ता"तक पहुँच गए तो फिर इस देश में हिन्दू सभ्यता को मानने वाले हर धर्म के लोग सदा के लिए असरुक्षित हो जाएंगे !
                          मोदी जी  तो देश हित में अपने काम में लग गए हैं ! विदेशों में भारत हित साधने की श्रृंखला में लंदन और फिर तुर्की जायेंगे ! देश की सारी जिम्मेदारी गृहमंत्री राजनाथ सिंह और अपने अन्य मंत्रियों को सौंप गए हैं !अब इन्ही लोगों को चौकस रहकर अपने काम करने हैं !इस देश में आज से पहले भी दंगे फसाद ,प्रदर्शन,धार्मिक भावनाओं को ठेस पंहुचने , अत्याचार और महंगाई जैसी समस्याएं आती रही हैं ! उनकी प्रतिक्रिया भी हुई थी ! लेकिन जो "ज़हर भरा वातावरण "अब नज़र आ रहा है पहले कभी नज़र नहीं आया ! क्या ये विपक्ष के साथ मिलकर देश के दुश्मन करवा रहे हैं ? क्या सत्ता पाने का लालच भारतीय नेताओं को इस स्तर तलक ले गया है ?ये जांच का विषय ही नहीं बल्कि अफ़सोस का विषय भी है !
                              दो दिन पहले जब ये समाचार सुना कि सिख भाई दशम गुरु की देह स्वरूप गुरु ग्रन्थ साहिब जी की बीड़ें जलादेने के विरोध स्वरूप इसबार दीपावली पर हमारे स्वर्ण-मंदिर को सजाया नहीं जाएगा , तो यकीन मानिए ! दिल इतना दुखी हुआ और मन में ख्याल आया कि जो काम 15 साल में खालिस्तानी आतंकवाद नहीं कर पाया , वो काम आज उन "शख्सों"ने कर दिया, जिन्होंने सिख आगुओं को ये सुझाव देकर उन्हें ऐसा करने पर राज़ी कर लिया !ऐसे "दोफाड़"करने वाले लोग हर उस जगह पर कैसे इतने प्रभावी हो जाते हैं ?जहां भी कुछ अनहोनी हो जाती है इस देश में ??हैरानी वाली बात ये भी है की वहाँ उपस्थित लोग उन बुरे सुझावों को मान भी लेते हैं जो उनके लिए ही नुकसानदायक होता है ??
                  हमारे देश के मीडिया की बड़ी भारी ये जिम्मेदारी बनती है कि हर बुरी खबर को वो समेटने का काम करे और देश के लिए हर अच्छी खबर को वो कई दिनों तलक फैलाये !वामपंथियों और उनके समर्थकों को भी ये सोचना चाहिए की अगर ये देश रहेगा , तो वो भी कुछ करने के लिए बचे रहेंगे ,अगर ये देश ही नहीं रहेगा,तो कुछ भी नहीं रहेगा ! इसलिए .......सब बोलो !! जय हिन्द !! 
                                " आकर्षक - समाचार ,लुभावने समाचार " आप भी पढ़िए और मित्रों को भी पढ़ाइये .....!!!

मेरा मोबाईल नंबर ये है :- 09414657511. 01509-222768. धन्यवाद !!
आपका प्रिय मित्र ,
पीताम्बर दत्त शर्मा,
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Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE


Tuesday, November 10, 2015

संघ परिवार में जाग रहा है सावरकर का हिन्दुत्व !

सरसंघचालक का काम हिन्दू संगठन को मजबूत करना है लेकिन वह धर्म की लड़ाई में जा फंसे। प्रधानमंत्री मोदी समृद्ध भारत के लिये काम करना है लेकिन वह चुनावी जीत के लिये प्रांत-दर-प्रांत भटक रहे हैं। और अमित शाह को राजनीतिक तौर पर हेडगेवार के हिन्दुत्व को रखना है लेकिन वह सावरकर की लाइन पकड़े हुये हैं। तो बड़ा सवाल है कि इन्हे समझायेगा कौन और गलती कर कौन रहा है यह बतायेगा कौन । यह तीनों सवाल इसलिये क्योंकि सरसंघचालक को ही प्रधानमंत्री मोदी को समझाना था कि उन्हे भारत के लिये जनादेश मिला है। यानी मोदी को तो गोलवरकर की लीक एकचालक अनुवर्तिता की लाइन पर ही चलना है। राज्यों का काम तो संगठन के लोग करेंगे। लेकिन मोदी निकल पड़े इंदिरा गांधी बनने तो रास्ता डगमडाने लगा। और सरसंघचालक दशहरा की हर रैली में ही जब मोदी को देश-दुनिया का नायक ठहराने लगे तो उसके आगे कहे कौन। तो अगला सवाल सरसंघचालक मोहन भागवत का है जिनका काम हिन्दू समाज को संगठित करना ही रहा है लेकिन मौजूदा वक्त में वह खुद जगत गुरु की भूमिका में आ गये और राजनीतिक तौर पर भी त्रिकालवादी सत्य यह कहकर बोलने लगे कि जब आंबेडकर ने भी आरक्षण की उम्र 10 बरस के लिये रखी तो उसे दोहराने में गलत क्या। वही इस लकीर को धर्म के आसरे भी खिंचा गया। यानी जिस संघ की पहचान हेडगेवार के दौर से ही समाज के हर क्षेत्र में भागीदारी के साथ हिन्दू समाज को बनाने की सोच विकसित हुई। और यह कहकर हुई कि हिन्दुत्व धर्म नहीं बल्कि जिन्दगी जीने का तरीका है। 


तो वहीं संघ हिन्दुत्व के भीतर धर्म के उस दायरे में जा फंसा, जहां सावरकरवाद की शुरुआत होती है। सावरकर ने 1923 में अपनी पुस्तक हिन्दुत्व में साफ लिखा कि मुसलमान, ईसाई, यहूदी यानी दूसरे धर्म के लोग हिन्दू नहीं हो सकते। लेकिन 1925 में हेडगेवार ने हिन्दुत्व की इस परिभाषा को खारिज किया और हिन्दुत्व को धर्म से नहीं जोड़कर वे आफ लाइफ यानी जीने के तरीके से जोड़ा। लेकिन इसी दौर में संघ और बीजेपी के भीतर से हिन्दुत्व को लेकर जो सवाल उठे या उठ रहे हैं, वह संघ की सोच के उलट और सावरकरवाद के कितने नजदीक है, यह कई आधारों से समझा जा सकता है। मसलन योगी आदित्यनाथ, साक्षी महराज या फिर साध्वी प्राची का बोलना सिर्फ हिन्दुत्व को धर्म के आईने में समेटना भर नहीं है बल्कि सावरकर यानी हिन्दू महासभा की ही धर्म की लकीर को मौजूदा संघ परिवार और बीजेपी से जोड़ देना है। इस बारीकी को संघ परिवार के दिग्गज स्वयंसेवक भी जब नहीं समझ पा रहे है तो बीजेपी या स्वयंसेवक सियासतदान कैसे समझेंगे यह भी सवाल है। क्योंकि भैयाजी जोशी भी शिरडी के साई बाबा भगवान है या नहीं यह कहने के लिये कूद पड़ते हैं। और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से जब उनके करीबी ही यह सवाल करते है कि साक्षी महराज या योगी आदित्यनाथ जिस तरह के बयान देते है तो उनपर रोक लगनी चाहिये तो बीजेपी अध्यक्ष यह कहने से तो नहीं कतराते कि उन्हें यह बयान नहीं देने चाहिये । लेकिन फिर इस टिप्पणी से भी नहीं बच पाते कि उन्होने गलत क्या कहा है। तो क्या बीजेपी अध्यक्ष भी सावरकरवादी है। यह सारे सवाल इसलिये क्योकि झटके में संघ सरकार और बीजेपी के भीतर ही कमान संभाले स्वयंसेवक संगठन संभालने के बदले विद्दान बनने की होड़ में है। यानी उस धारा को पकड़ना चाह रहे हैं, जहां विद्वानों की तर्ज पर ही मत विभाजन हो । असर इसका भी है कि जनादेश से चुनी गई देश की सत्ता को लेकर ही विद्वानों में मत विभाजन के हालात बनने लगे हैं। जाहिर है ऐसे में बिहार चुनाव में हार का सिरा पकड़े कौन और पूंछ छोडे कौन इसलिये मंथन दिलचस्प है। क्योंकि उठते सवाल-जवाब हर अनकही कहानी को कह रहे हैं।

मसलन चुनाव बीजेपी ने लडा लेकिन हार के लिये संघ जिम्मेदार है। पांच सितारा होटल से लेकर उडानखटोले में ही बीजेपी का चुनाव प्रचार सिमटा। लेकिन संघ के एजेंडे ने ही बंटाधार कर दिया । टिकट बांटने से लेकर सबकुछ लुटाते हुये सत्ता की व्यूह रचना बीजेपी ने की। लेकिन हिन्दुत्व का नाम लेकर संघ के चहेतों ने जीत की बिसात उलट दी । कुछ ऐसी ही सोच संघ के साथ बैठकों के दौर में बीजेपी के वही कद्दावर रख रहे है और संघ को समझा रहे हैं कि बिहार की जमीन राजनीतिक तौर पर बहुत ही उर्वर है उसमें हाथ बीजेपी के इसलिये जले क्योकि संघ की सक्रियता को ही मुद्दा बना दिया गया । बिसात ऐसी बिछायी जा रही है जहा बिहार के सांसद हुक्मदेवनारायण यादव सरसंघचालक पर आरक्षण बयान को लेकर निशाना साधे और कभी ठेगडी के साथ स्वदेशी जागरण मंच संबालने वाले मुरलीधर राव बडबोल सांसदों को पार्टी से ही निकालने की बात कह दें। यानी पहली लकीर यही खिंच रही है कि जो दिल्ली से बिहार की बिसात सियासी ताकत, पैसे की ताकत , जोडतोड और सोशल इंजीनियरिंग का मंडल चेहरा लेकर जीत के लिये निकले उन्ही की हार हो गई तो ठिकरा संघ के मत्थे मढ़कर अपनी सत्ता बरकरार रखी जाये। और संघ की मुश्किल है कि आखिर बीजेपी है तो उन्ही का राजनीतिक संगठन। उसमें सत्तानशीं तो स्वयंसेवक ही है। तो सत्ता पलटकर नये स्वयंसेवकों को कमान दे दी जाये या फिर सत्ता संभाले स्वयंसेवकों का ही शुद्दीकरण किया जाये। और सत्तानशीं स्वयसेवकों को लगने लगा है कि शुरद्दीकरण का मतलब खुदे को झुकाना नहीं बल्कि खुद के अनुकूल हालात को बनाना है। यानी बिहार की बीजेपी यूनिट बदल दी जाये जो आडवाणी युग से चली आ रही थी। उन बडबोले सांसदों और समझदार नेताओं को खामोश कर दिया जाये जो सच का बखान खुले तौर पर करने लगे है। और संघ परिवार को भी समझाया जाये कि स्वयंसेवक की राजनीति का पाठ संघ से नहीं सत्ता से निकलता है। तो कल तक स्वदेशी की बात करने वाले मुरलीधर राव अब सांसद शत्रुघ्न और आर के सिंह को निकालने का खुला जिक्र करने लगे हैं। कल तक संघ के देसीकरण का जिक्र करने वाले राम माधव अब सत्ता की तिकडमो के अनुकूल खुद को बनाने में जुटे हैं।

यानी एक तरफ बीजेपी के भीतर सत्ता बचाने की महीन राजनीति है जो स्वयंसेवकों को ही ढाल बनाकर समझदारों पर वार कर रही है तो दूसरी तरफ सत्ता के खिलाफ खुलेआम विरोध के स्वर जो पार्टी बचाने के लिये राजनीति का ककहरा कहना चाह रहे हैं जिसे संघ के मुखिया समझ नहीं पा रहे हैं। क्योंकि उनके लिये बिहार की हार विचारधारा की हार है और बीजेपी के सत्तानशीं बिहार को सिर्फ एक राज्य की हार के तौर पर ही देखना-दिखाना चाहते है। तो सवाल है होगा क्या । और कुछ नहीं होगा तो वजहे क्या बतायी जायेंगी। त्रासदी यह नहीं है कि शत्रुघ्न को कुत्ता ठहरा दिया गया। या फिर आर के सिंह, अरुण शौरी या चंदन मित्रा को आने वाले वक्त में क्या कहा जायेगा या इनका क्या किया जायेगा। सवाल है कि जो सवाल बीजेपी अध्यक्ष को लेकर उठाया गया है उसे संघ परिवार के भीतर देखा कैसे जा रहा है और परखा कैसे जा रहा है। यानी अमित शाह को दोबारा अधयक्ष अगर ना बनाया जाये। यानी दिसंबर के बाद उनका बोरिया बिस्तर अधयक्ष पद से बंध जाये तो सवाल उठ रहे है कि अमितशाह को हटाया गया तो उन्हे रखा कहां जाये। यह सवाल संघ परिवार ही नहीं बीजेपी और मोदी सरकार के भीतर भी यक्ष प्रशण से कम नहीं है । क्योकि अमित शाह सरकार और बीजेपी में नंबर दो है । जैसे नरेन्द्र मोदी सरकार और बीजेपी में भी नंबर एक है । और नंबर एक दो के बीच का तालमेल इतना गहरा है कि कि इसका तीसरा कोण किसी नेता से नहीं बल्कि गुजरात से जुडता है । यानी केन्द्र सरकार, बीजेपी और गुजरात का त्रिकोण संघ परिवार तक के लिये सत्ता का कटघरा बन चुका है । संघ के भीतर यह सवाल है कि सरकार और पार्टी दोनों गुजरातियों के हाथ में नहीं होनी चाहिये । किसी ब्राहमण को नया अधयक्ष बनना चाहिये। उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक सरोकार वाले शख्स को अध्यक्ष बनना चाहिये। तो पहले सवाल का जबाब ही किसी को नहीं मिल पा रहा है। क्योंकि अमित शाह को गुजरात सीएम बनाकर भेजा नहीं जा सकता । क्योंकि वहां पटेल आंदोलन चल रहा है और आनंदी बेन पटेल को हटाने का मतलब है आंदोलन की आग में घी डालना। अमित शाह को सरकार में लेकर पार्टी किसी तीसरे के भरोसे नरेन्द्र मोदी छोड़ना नहीं चाहेंगे। और नरेन्द्र मोदी को नाराज सरसंघचालक करना नहीं चाहेंगे। तो फिर वही सवाल कि होगा क्या। पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर की आलोचना की जा सकती है। भगवाधारी सांसदों और नेताओ के बयानो की आलोचना हो सकती है । संघ, सरकार और बीजेपी में तालमेल नहीं है यह सवाल उठाया जा सकता है । लेकिन अगर यह मान लिया जाये कि आखिरकार संघ ही रास्ता दिखाता है तो मानना पडेगा पहली बार संघ ही भटका है।

Monday, November 9, 2015

राजनीति का ककहरा सिखा दिया बिहार के जनादेश ने !!! - साभार - श्री पुण्य प्रसुन्न वाजपेयी जी



बीजेपी का यह भ्रम भी टूट गया कि कि बिना उसे नीतीश कुमार जीत नहीं सकते हैं। और नीतिश कुमार की यह विचारधारा भी जीत गई कि नरेन्द्र मोदी के साथ खड़े होने पर उनकी सियासत ही धीरे धीरे खत्म हो जाती। तो क्या बिहार के वोटरों ने पहली बार चुनावी राजनीति में उस मिथ को तोड़ दिया है, जहां विचारधारा पर टिकी राजनीति खत्म हो रही है। यह सवाल इसलिये क्योंकि जो सवाल नीतीश कुमार ने बीजेपी से अलग होते वक्त उठाये और जो सवाल बीजेपी शुरु से उठाती रही कि पहली बार नीतीश को बिहार का सीएम भी बीजेपी ने ही बनाया। तो झटके में जनादेश ने कई सवालो का जबाब भी दिया और इस दिशा में सोचने के लिये मजबूर कर दिया कि देश से बड़ा ना कोई राजनीतिक दल होता है। ना ही कोई राजनेता और ना ही वह मुद्दे जो भावनाओं को छूते हैं लेकिन ना पेट भर पाते है और ना ही समाज में सरोकार पैदा कर पाते हैं। यानी गाय की पूंछ पकड कर चुनावी नैया किनारे लग नहीं सकती। समाज की हकीकत पिछड़ापन और उसपर टिके आरक्षण को संघ के सामाजिक शुद्दिकरण से घोया नहीं जा सकता। जंगल राज को खारिज करने के लिये देश में हिन्दुत्व की बेखौफ सोच को देश पर लादा नहीं जा सकता। यानी पहली बार 2015 का बिहार जनादेश 2014 के उस जनादेश को चुनौती देते हुये लगने लगा जिसने अपने आप में डेढ़ बरस पहले इतिहास रचा। और मोदी पूर्ण बहुमत के साथ पीएम बने । तो सवाल अब चार हैं। पहला क्या प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को चुनावी जीत की मशीन मान लिया था। दूसरा क्या नीतीश कुमार ने दोबारा विचारधारा की राजनीति की शुरुआत की है और तीसरा क्या लालू यादव आईसीयू से निकल कर दिल्ली के राजनीतिक शून्यता को भरने के केन्द्र में आ खड़ा हुये हैं। और चौथा क्या कांग्रेस बिहार की जमीन से दोबारा खुद को दिल्ली में खड़ा कर लेगी। जाहिर है यह चारों हालात उम्मीद और आशंका के बीच हैं। क्योंकि बिहार के जनादेश ने 2014 में खारिज हो चुके नेताओं को दुबारा केन्द्रीय राजनीति के बीच ना सिर्फ ला खड़ा किया बल्कि मोदी सरकार के सामने यह चुनौती भी रख दी कि अगर अगले एक बरस में उसने विकास का कोई वैकल्पिक ब्लू प्रिंट देश के सामने नहीं रखा तो फिर 2019 तक देश में एक तीसरी धारा निकल सकती है। क्योंकि डेढ बरस के भीतर ही बिहार के आसरे वही पारंपरिक नेता ना सिर्फ एकजुट हो रहे है बल्कि उन नेताओं को भी आक्सीजन मिल गया, जिनका जिन टप्पर 2014 के लोकसभा चुनाव में उड़ गया था। हालात कैसे बदले, यह भी सियसत का नायाब ककहरा है। जो राहुल गांधी लालू के मंडल गेम से बचना चाह रहे थे। जो केजरीवाल लालू के भ्रष्टाचार के दाग से बचना चाह रहे थे। सभी को झटके में लालू में अगर कई खासियत नजर आ रही है तो संकेत जनादेश के ही हैं। क्योंकि मोदी सरकार के खिलाफ लड़ा कैसे जाये इसके उपाय हर कोई खोज रहा है। आज जिस तरह राहुल , केजरीवाल ही नहीं ममता बनर्जी और नवीन पटनायक से लेकर देवेगौड़ा को भी बिहार के जनादेश में अपनी सियासत नजर आने लगी तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र में जो शिवसेना बिहारियो को ही मुंबई से भगाने पर आमादा रही उसने भी बिहार जनादेश के जरीये अपनी सियासत साधने में कोई कोताही नही बरती। और बीजेपी को सीधी सीख दी तो मोदी और अमित शाह की जोड़ी को भी सियासी ककहरा यह कहकर पढ़ा दिया कि अगर महाराष्ट्र में आज ही चुनाव हो जाये तो बिहार सरीखा हाल बीजेपी का होगा। यानी बिहार के जनादेश ने देश के भीतर उन सवालों को सतह पर ला दिया जिसके केन्द्र में और कोई नहीं प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह है। तो सवाल यही है कि क्या अब बीजेपी के भीतर अमित शाह को मुश्किल होने वाली है और प्रदानमंत्री मोदी को सरकार चलाने में मुश्किल आने वाली है। क्योंकि राज्यसभा में 2017 तक बीजेपी बहुमत में आ सकती है यह अब संभव नहीं है। असहिष्णुता और सम्मान लौटाने का मुद्दा बिहार के बिगडे सामाजिक आर्थिक हालात को पीछे ढकेल चुका है। और देश के सवालों को जनादेश रास्ता दिखायेगा यह बहस तेज हो चुकी है। 


यानी सिर्फ बीजेपी या मोदी सरकार की हार नहीं बल्कि संघ परिवार की विचारदारा की भी हार है यह सवाल चाहे अनचाहे निकल पड़े हैं। क्योंकि संघ परिवार की छांव तले हिन्दुत्व की अपनी अपनी परिभाषा गढ कर सांसद से लेकर स्वयंसेवक तक के बेखौफ बोल डराने से नहीं चूक रहे हैं। खुद पीएम को स्वयंसेवक होने पर गर्व है। तो बिहार जनादेश का नया सवाल यही है कि बिहार के बाद असम, बंगाल, केरल , उडीसा, पंजाब और यूपी के चुनाव तक या तो संघ की राजनीतिक सक्रियता थमेगी या सरकार से अलग दिखेगी। या फिर जिस तरह बिहार चुनाव में आरक्षण और गोवध के सवाल ने संघ की किरकिरी की। वैसे ही मोदी के विकास मंत्र से भी सेंध के स्वदेशी सोच के स्वाहा होने पर सवाल उठने लगेंगे। तो तीन फैसले संघ परिवार को लेने है। पहला, मोदी पीएम दिखे स्वयंसेवक नहीं । दूसरा नया अधय्क्ष [ दिसबंर में अमित शाह का टर्म पूरा हो रहा है ] उत्तर-पूर्वी राज्यों के सामाजिक सरोकारो को समझने वाला है। और तीसरा संघ के एजेंडे सरकारी नीतियां ना बन जायें। नहीं तो जिस जनादेश ने लालू यादव को राजनीतिक आईसीयू से निकालकर राजनीति के केन्द्र में ला दिया वहीं लालू बनारस से दिल्ली तक की यात्रा में मोदी सरकार के लिये गड्डा तो खोदना शुरु कर ही देंगे।साभार - श्री पुण्य प्रसुन्न वाजपेयी जी !!
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Saturday, November 7, 2015

करियर के पहले संपादक ने सिखाया , “पत्रकारिता जीने का तरीका है”

मौजूदा दौर में पत्रकारिता करते हुये पच्चीस-छब्बीस बरस पहले की पत्रकारिता में झांकना और अपने ही शुरुआती करियर के दौर को समझना शायद एक बेहद कठिन कार्य से ज्यादा त्रासदियों से गुजरना भी है। क्योंकि 1988-89 के दौर में राजनीति पहली बार सामाजिक-आर्थिक दायरे को अपने अनुकूल करने के उस हालात से गुजर रही थी और पत्रकारिता ठिठक कर उन हालातों को देख-समझ रही थी , जिसे इससे पहले देश ने देखा नहीं था । भ्रष्टाचार के कटघरे में राजीव गांधी खड़े थे । भ्रष्टाचार के मुद्दे के आसरे सत्ता संभालने वाले वीपी सिंह मंडल कमीशन की थ्योरी लेकर निकल पड़े और सियासत में साथ खड़ी बीजेपी ने कमंडल थाम कर अयोध्या कांड की बिसात बिछानी शुरु कर दी । और इसी दौर में नागपुर से हिन्दी अखबार लोकमत समाचार के प्रकाशन लोकमत समूह ने शुरु किया । जिसका वर्चस्व मराठी पाठकों में था । और संयोग से छब्बीस बरस पहले भी मेरे जहन में नागपुर की तस्वीर तीन कारणों से बनी थी । पहली , संघ का हेडक्वार्टर नागपुर में था । दूसरा बाबा साहेब आंबेडकर के सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग की जमीन नागपुर थी और तीसरा आंध्रप्रदेश से निकलकर महाराष्ट्र के विदर्भ में नक्सलवाद की आहट पीपुल्सवार ग्रुप के जरीये सुनायी दे रही थी । तीनो हालात वक्त के साथ कही ज्यादा तीखे सवाल समाज को भेदेंगे। यह मेरे जहन में दिल्ली से नागपुर के लिये निकलते वक्त भी था । लेकिन उस वक्त एक सवाल जहन में जरुर था कि दिल्ली की पढाई बीच में छोड़कर अगर नागपुर में लोकसमत समाचार से जुड़ने जा रहा हूं तो फिर उस अखबार का संपादक खासा मायने रखेगा । क्योंकि संपादक की समझ का दायरा आने वाले वक्त को किस रुप में देखता समझता है और कैसे हर दिन की रिपोर्टिग को एक बडे कैनवास में समझ पाता है । यह कितना जरुरी है यह ट्रेनिंग तो पटना-दिल्ली की खाक छानते हुये पढ़ाई के दौर में ही हो चली थी । इसलिये नागपुर में लोकमत समाचार से जुड़ते ही पहली नजर संपादक की तरफ गई । एस एन विनोद । कमाल है यह तो संपादक नहीं लगते । मेरी पहली प्रतिक्रया नागपुर से दिल्ली लौटने के बाद अपने दोस्तों के बीच यही थी । कि कोई संपादक किसी रिपोर्टर की तरह खबरों को लेकर किस तरह बैचेन हो सकता है यह मेरे लिये नया था। क्योंकि संपादक को विचार-विमर्श के दायरे में चिंतनशील ही ज्यादा माना गया या कहे बनाया गया या फिर मेरे जहन में यही तस्वीर थी । और किसी रिपोर्टर की तरह संपादक के तेवर से दो दो हाथ करने की असल शुरुआत भी नागपुर से ही हुई । जो दिखायी दे रहा है । दिखायी देने के बाद जो सवाल आपके जहन में है । उन्हीं सवालो को पन्नों पर उकेरना सबसे कठिन काम होता है। और अगर वह सवाल रिपोर्ट की तर्ज पर छापे जायें तो कहीं ज्यादा मुश्किल होता है लिख पाना। 


यही तभी संभव है जब आपके सरोकार लोगों से हों। लगातार समाज में जो घट रही है उससे आप कितने रुबरु हो रहे हैं। कोई जरुरी नहीं है कि किसी घटना के घटने के बाद ही घटना पर रिपोर्ट करने के वक्त आप वहा जाकर घटना की बारीकियों को समझें। और उसके बाद लिखें। अगर आप रोज ही लोगों से मिल रहे हैं या कहें आप पत्रकारिता को जीवन ही मान चुके हैं तो फिर आपका दिमाग हर वक्त पत्रकार को ही जीयेगा। और जब कोई घटना होगी उसको कितने बडे कैनवास में आप कैसे रख सकते हैं या फिर आपकी रिपोर्ट ही घटना स्थल पर जायजा लेने ना जा पाने के बावजूद बेहतरीन होगी । क्योंकि हालात को कागजों पर उभारते वक्त आप रिपोर्टर नहीं होते बल्कि अक्सर घटना को महसूस करने वाले एक आम व्यक्ति हो जाते हैं । पत्रकारिता की यह ऐसी ट्रेनिंग थी जो अखबार यानी लोकमत समाचार निकलने से पहले या कहें निकालने की तैयारी के दौर संपादक एसएन विनोद के साथ रहते हुये सामान्य सी बातचीत में निकलती चली गई । और मेरे जैसे शख्स के लिये पत्रकारिता जीने का तरीका बनती चली गई । लोकमत समाचार का प्रकाशन तो 14 जनवरी 1989 से शुरु हुआ लेकिन पटना-दिल्ली से निकल कर नागपुर जैसे नये शहर को समझने के लिये अक्टूबर 1988 से ही सभी ने नागपुर में डेरा जमा लिया था । खुद संपादक ही अपनी कार से अगर शहर घुमाने-बताने निकल पड़े तो संवाद बनाने और संपादक को दोस्त की तरह देखने-समझने में देर नहीं लगती। कई बार यह भूल भी साबित होती है लेकिन संपादक के हाथ अगर अखबारों के मालिक मजबूत किये रहते हैं तो फिर संपादक भी कैसे नये नये प्रयोग करने की दिशा में बढ सकता है यह मैंने बाखूबी एसएन विनोद के साथ करीब पांच बरस काम कर जान लिया । क्योंकि संघ हेडक्वार्टर में सरसंघचालक देवरस के साथ बैठना-मुलाकात करना । कई मुद्दों पर चर्चा करना । दलितों के भीतर के आक्रोश को अपनी पत्रकारीय कलम में आग लगाने जैसे अनुभव को सहेजना । दलित युवाओ की टोली के दलित रंगभूमि के निर्माण को उनके बीच बैठकर बारीकी से समझना । और नक्सलियों के बीच जाकर उनके हालातों को समझने का प्रयास । सबकुछ नागपुर में कदम रखते ही शुरु हुआ । हो सकता है कोई दूसरा संपादक होता तो रोकता । शायद अपनी सोच को लादकर रास्ता बताने का भी प्रयास करता । लेकिन एसएन विनोद ने ना रोका । ना बताया । सिर्फ सुना । और जो मैंने लिखा उसे छापा । कमाल के तेवर थे उस दौर में । आडवाणी की रथयात्रा नागपुर से गुजरे तो संघ हेडक्वार्टर की हलचल । और बाबरी मस्जिद ठहाने के बाद नागपुर के मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में पुलिस गोलीबारी में 13 लडकों की मौत । रिपोर्टिंग का सिरा कैसे सामाजिक तानेबाने को गूंथते हुये राजनीतिक हालातों को पाठकों के सामने रख सकता है यह एसएन विनोद की संपादकीय की खासियत थी । शंकरगुहा नियोगी की हत्या के बाद खुद ब खुद ही रायपुर और दिल्ली-राजहरा की कादोने के चक्कर लगाकर लौटा तो एनएन विनोद ने सिर्फ इतना ही कहा कि पूरा एक पन्ना नियोगी पर निकालो । जो भी देख कर आये कागज पर लिखो । और मेरे सीनियर को यही हिदायत दी कि व्यारकण ठीक कर देना । विचार नहीं । और जब पूरा पेज शंकरगुहा नियोगी पर निकला और उसे मैंने जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी को भेजा तो दिल्ली में मुलाकात के वक्त उन्होंने इतना ही कहा । हमारे लिये भी ऐसे मौकों पर लिख दिया करो । हौसला बढ़ा तो उसके बाद दिल्ली के अखबार को ध्यान
में रखकर भी लिखना और मुद्दों को समझना शुरु किया ।

नक्सलवाद शब्द पत्रकारिता में सनसनाहट पैदा करता है, यह मुझे तब भी लगा और आज भी लगता है । लेकिन मैंने नक्सलवाद के मद्देनजर जब विदर्भ के आदिवासियों के हालात को समझना शुरु किया तो जो तथ्य उभरे उसने पहली बार राज्य के आतंक और नक्सलवाद को ढाल बनाकर कैसे योजनाओं के नाम पर करोड़ों के वारे न्यारे होते है उसके मर्म को पकड़ा । टाडा जैसे कठोर आतंकी कानून के दायरे में कैसे 8 बरस से लेकर 80 बरस का आदिवासी फंसाया गया । इसकी रिपोर्टिंग की तो बिना किसी लाग-लपेट उसे जगह दी गई । और एसएन विनोद ने मुझे उकसाया भी कि इसके बडे फलक को पकड़ो । जरुरी नहीं कि पत्रकारिता नागपुर में कर रहे हो तो नागपुर के अखबार में ही छपे । फलक बड़ा होगा तो मुंबई-दिल्ली के अखबार में भी जगह मिलेगी । और हुआ भी यही । 30 जुलाई 1991 में वर्धा नदी से आई बाढ़ में नागपुर जिले का मोवाड डूब गया । फिर लातूर में भूकंप आया ।  फिर चन्द्रपुर-गढचिरोली में नक्सली हिसा में मरने वालो की तादाद बढ़ने लगी । पहली बार नागपुर में सिर्फ नक्सल मामलों के लिये कमीश्नर पद के पुलिस अफसर को नियुक्त किया गया । यानी घटनाओं को कवर करने का एक तरीका और घटना से प्रभावित सामाजिक-आर्थिक हालातो को समझने-समझाने की अलग रिपोर्टिंग । यह बिलकुल अलग नजरिया रिपोर्टिंग का था जिसे संपादक एसएन विनोद ने उभारा । यानी सिर्फ घूमने के तौर पर घटना स्थल पर घटना घटने के दिन-चार दिन बाद जाईये और समझने की कोशिश किजिये कि जमीनी हालात है क्या । लोगो के जीने के सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में कितना अंतर आया है । जो महसूस किजिये उसे पन्ने पर उकेर दिजिये । हर वक्त खबरो में जीने की तड़प । अखबार के
ले-आउट से लेकर न्यूज प्रिंट की कीमत तक पर चर्चा । सामाजिक तौर पर बतौर संपादक से ज्यादा एक आम शख्स के तौर पर शहर की हर सरगर्मी में शरीक । चाहे वह साहित्य की गोष्ठी हो या रईसो की चुलबुलाहट । या फिर राजनेताओं की गली-पॉलिटिक्स । यानी संपादक ही हर जगह मौजूद रहना चाहे तो रिपोर्टर को मुश्किल होती है । लेकिन रिश्ता अगर रिपोर्टर के लिये संपादक की गाड़ी में सफर करने के मौके से लेकर संपादक को अपने नजरिये से समझाने का हो जाये तो फिर रिपोर्ट के छपने से लेकर संपादक के कैनवास से भी रुबरु होने का मौका मिलता है। दरअसल पत्रकारिता कुछ इस लहजे में होने लगे जो आपको जीने का एहसास भी कराये और मानसिक तौर पर आराम भी दें तो फिर कैसे चौबिसो घंटे और तीन सौ पैसठ दिन काम करते हुये भी छुट्टी उसी दिन महसूस होती है जब कोई बडी रिपोर्ट फाइल हो । शायद वह एसएन विनोद की शुरुआती ट्रेनिंग ही रही जिसके बाद आजतक मैंने पत्रकारिता की लेकिन नौकरी नहीं की और पत्रकारिता से छुट्टी पर कभी नहीं रहा।  क्योंकि पत्रकारिता जीने का तरीका है यह पाठ एसएन विनोद ने ही सिखाया ।

Thursday, November 5, 2015

"धर्म-कर्म और ज़राईम " !! इस दीपावली पर सदविचारों की रौशनी करो ! - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो. न. - 09414657511

भारतीय संस्कृति के अनुसार , जब से ये सृष्टि रची गयी है ,लगभग तभी से धर्म के नाम पर तथाकथित धर्म चलाने वालों द्वारा ही अपराध किये या करवाये जाते रहे हैं !वजह सिर्फ सत्ता और औरत ही रही है !कोई देवताओं में सर्वोच्च स्थान पाना चाहता था तो कोई "मोहिनी"को पाना चाहता था !जायज़ तरीके से जो व्यक्ति कोई भी "वस्तु"या स्वर्गीय आनंद पा लेता था उसे "देवता"और "नाजायज़"तरीके से जो व्यक्ति कोई वस्तु या "स्वर्गीय-आनंद"पा लेता था , तो उसे "राक्षस"कहा जाता था !किस देवता या राक्षस ने क्या पाने के लिए क्या क्या किया या नहीं किया , ये आप सब ने भारत के महान संतों से अवश्य सुन रख्खा होगा !मैं नाजायज़ अपनी बात को लम्बा नहीं खींचना चाहता हूँ जी !
                          कलयुग में ना जाने कितने बड़े-बड़े अपराध हो चुके हैं , फिर भी हम आज तक दशहरे में रावण का पुतला ही जलाते हैं जी !हमारे साथ कोई कितना भी ज़ुल्म ढा दे , लेकिन हमें "कंस,रावण,महिषासुर,दुर्योधन,बाली और हरिण्यकश्यप से बड़ा कोई अपराधी नज़र ही नहीं आता !?ना जाने क्यों ?हम अपने बड़े से बड़े दुःख को अपना "दुर्भाग्य"मानकर भविष्य में एक नयी "आशा"का संचार होगा ये मान लेते हैं !"सनातन-धर्म"जिसको कोई नहीं चला रहा ,जिसे किसने शुरू किया कोई नहीं जानता , जो किस दिन शुरू हुआ हम नहीं जानते और जिसका कोई प्रचार नहीं होता उस धर्म की सारी दुनिया दुश्मन हुई बैठी है जी !!सनातन धर्म के नाम पर "बाबा,माता,और बालक "रुपी ठेकेदार अपना प्रचार करते हैं और अपने ही आश्रम कम मंदिर बनवाते हैं !अपनी ही शोभा-यात्रायें निकलवाते हैं !इनके भगत अपने -अपने गुरुओं-भगवानों को दुसरे से बड़ा बताते हैं !जो हमारे धर्मों ने हमें करने को कहा है , हम वो तो बिलकुल भी नहीं करते हैं !बल्कि दुसरे अनाप-शनाप काम करते या करवाते रहते हैं धर्मों के नाम पर ! बस इसी चक्र में ,  कोई अपने गुरु को मरवा देता है तो कोई अपने चेले-चेलियों को स्वर्ग पंहुचा देता है !
                       तब स्टोरी में आगमन होता है "महान-विद्वान पत्रकारों" का,जो कहानी में "ट्विस्ट"लाते हैं ! फिर हमारे आज के राक्षस , मेरा मतलब हमारे "नेता"जी अपने विचार कुछ इस तरह से जोड़ते हैं कि वातावरण में अजीब सा "ज़हर"घुल जाता है !ऊपर से हमारे भारत के लोकतंत्र ने सिर्फ कांग्रेस या उसकी सहमति से चलने वाली सरकारों का ही स्वाद चखा हुआ है जी !गलती से जो एक -दो बार जो गैर कोंग्रेसी सरकारें बानी भी हैं तो उसे कोंग्रेसियों ने डराकर ही भगा दिया है !चाहे वो मोरारजी की सरकार हो या फिट अटल जी की , इन सरकारों के कई मंत्री कोंग्रेसियों से पूछकर ही काम किया करते रहे जी ! अफसर लॉबी के तो कहने ही क्या जी ! वो तो आज भी उनकी ही हाज़री भरते हैं ! तभी तो मोदी जी ने आडवाणी,शोरी,जोशी,सिन्हा,जसवंत जी को अपने मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी है जी !जबकि इसी मण्डली के जेटली,सुषमा,पासवान और नक़वी जी आदि को मजबूरन अपने मंत्रिमंडल में शामिल ना चाहते हुए भी करना पड़ा है !
                    आप स्वयं देखिये ! देश में फलों,सब्ज़ियों और राशन के दाम आसमान छू रहे हैं लेकिन हमारे कृषि,रसदऔर अन्य मंत्री दो-चार माह बाद कोई कदम उठाते हैं !सभी विपक्षी राजनितिक,वामपंथी -सामाजिक,इतिहासकारों,कवियों,लेखकों द्वारा नाजायज़ ही मोदी जी को निशाना बनाया जा रहा है लेकिन उनके मंत्रिमंडल के अन्य मंत्री चुप बैठे हैं ,क्यों ?? 
                षड्यंत्र बहुत गहरा है ! आज पाकिस्तान के हित की बातें हमारा विपक्ष और आधा फिल्म जगत बोल रहा है क्यों ?125 करोड़ लोगों में से सेंकडों लोगों की चाहत को हमारा "पवित्र-मीडिआ"कैसे और क्यों बनाकर दिखा रहा है ?हर 8 -10 महीनों बाद किसी ना किसी प्रांत में चुनाव क्यों होते हैं ?जबकि जब हमारे पास इतनी पोलिस भी नहीं थी तो हमारा चुनाव आयोग 3 प्रकार के चुनाव एक साथ करवा लिया करता था जी ! क्या इसमें भी कोई षड्यंत्र है ?
               विपक्ष मोदी जी को ,2002 के दंगों हेतु झूठे इलज़ाम लगाकर नहीं रोक पाया , विकास के नाम पर भी मोदी जी ने विपक्ष को पटखनी दे दी ,विश्व में जब मोदी जी ने भारत का झंडा बुलन्द कर दिया , इतना ही नहीं उनकी स्वयं की छवि को भी विश्व नई माना तो कांग्रेस सहित सारा विपक्ष नीचता की हद्द तक उत्तर आया और उसने "सहिष्णुता"और धार्मिक-उन्माद को अपना हथियार बनाया ! विपक्ष की इस चाल में पाकिस्तान ने भी पूरा-पूरा साथ दिया !
                    क्या भारत में केवल कांग्रेस की सरकार ही आपसी भाईचारा बढ़ा सकती है जिसने हज़ारों दंगे इस देश में करवाये !बल्कि भारत का बंटवारा भी कांग्रेस ने ही करवाया था ! इसलिए हमें गहनता से विचार करना होगा कि भारत किसके हाथ में सुरक्षित रहेगा ! ? अब कांग्रेस जनता के निर्णय को ही पलटना चाहती है ! वो मोदी सरकार को पांच वर्ष भी पूरे ही नहीं करने देना चाहती क्यों ?जिसको जनता ने नकारा वो ही आज मापदंड निर्धारित करने चला है क्यों ?हमारा मीडिया "नकारा-नेताओं "के विचार जानने जाता ही क्यों है ?क्या उसे सदविचारों वाले नेता नज़र नहीं आते ? समाज को विकृत करने वाले समाचारों को वो इतनी ज्यादा बार दोहराता ही क्यों है ?क्यों ऐसे विषयों पर स्पेशल प्रोग्राम बनाये जाते हैं ?
            देश के लोकतंत्र के पाँचों स्तम्भो !! पहले सोचो !! फिर समझो ! और फिर कुछ किया करो !! इस दीपावली पर सदविचारों की रौशनी करो ! 
                  " आकर्षक - समाचार ,लुभावने समाचार " आप भी पढ़िए और मित्रों को भी पढ़ाइये .....!!!
BY :- " 5TH PILLAR CORRUPTION KILLER " THE BLOG .  प्रिय मित्रो , सादर नमस्कार !! आपका इतना प्रेम मुझे मिल रहा है , जिसका मैं शुक्रगुजार हूँ !! आप मेरे ब्लॉग, पेज़ , गूगल+ और फेसबुक पर विजिट करते हो , मेरे द्वारा पोस्ट की गयीं आकर्षक फोटो , मजाकिया लेकिन गंभीर विषयों पर कार्टून , सम-सामायिक विषयों पर लेखों आदि को देखते पढ़ते हो , जो मेरे और मेरे प्रिय मित्रों द्वारा लिखे-भेजे गये होते हैं !! उन पर आप अपने अनमोल कोमेंट्स भी देते हो !! मैं तो गदगद हो जाता हूँ !! आपका बहुत आभारी हूँ की आप मुझे इतना स्नेह प्रदान करते हैं !!नए मित्र सादर आमंत्रित हैं ! the link is - www.pitamberduttsharma.blogspot.com. , गूगल+,पेज़ और ग्रुप पर भी !!ज्यादा से ज्यादा संख्या में आप हमारे मित्र बने अपनी फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज कर !! आपके जीवन में ढेर सारी खुशियाँ आयें इसी मनोकामना के साथ !! हमेशां जागरूक बने रहें !! बस आपका सहयोग इसी तरह बना रहे !!

मेरा मोबाईल नंबर ये है :- 09414657511. 01509-222768. धन्यवाद !!
आपका प्रिय मित्र ,
पीताम्बर दत्त शर्मा,
हेल्प-लाईन-बिग-बाज़ार,
R.C.P. रोड, सूरतगढ़ !
जिला-श्री गंगानगर।

Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE





Thursday, October 29, 2015

" नेताओं में एक "गुण" भी है , हमें वो ही इनसे सीखना चाहिए जी "!! - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक) मो. न. - 09414657511 .

   मित्रो ! आज करवाचौथ का व्रत है ! हिन्दू सभ्यता से जुडी हर धर्म की महिलाएं आज अपने उस "दुश्मन" की लम्बी उम्र हेतु करवा-चौथ का व्रत रखती हैं जिनसे वो लगभग रोज़ाना ही "गदर"करतीं हैं ! ये खूबी स्त्रियों के साथ-साथ हमारे नेताओं में भी विशेष रूप से पायी जाती है ! वो भी चुनावों के समय और जनता व पत्रकारों के सामने एक दुसरे को गरियाते रहते हैं लेकिन वो ही नेता शादियों में एक दुसरे की सेवा करते भी नज़र आते हैं !
                     लेकिन हम उन्हें देख कर आपस में लड़ तो लेते हैं लेकिन एक दुसरे के गले मिल नहीं पाते ! यहां तलक कि हम कत्ल करने या देश निकले की भी बात कर देते हैं !क़त्ल करने के भी आजकल अलग-अलग तरीके अपनाये जा रहे हैं जी ! हसीनाएं जहां अपनी अदाओं और नज़रों से कत्ल कर देती हैं , वहीँ ,शायर, लेखक,वैज्ञानिक और इतिहासकार अपने सन्मान लौटाकर देश के प्रधानमंत्री को कत्ल करने की कोशिश करते नज़र आते हैं !"भावुक" कहीं के ना हो तो !!
                        लेकिन जैसे हर बात की कोई ना कोई सीमा होती है , वैसे ही "दुश्मन" के साथ प्यार जताने की भी सीमा होती है जी ! अन्यथा माननीय मुरली मनोहर जोशी और आडवाणी जी जैसे ना जाने कितने नेता हैं देश में जो आज इसी गलती का दंड भोग रहे हैं जी ! जबकि होशियार जेटली और सुषमा जी जैसे चतुर लोग विपक्षी नेता बन कर भी ऐश करते थे और आज सरकार में भी हैं ! लेकिन भावुक लोग ऐसा नहीं कर पाये ! जैसे हमारे शत्रु जी !! ना बेचारे इधर के रहे और ना उधर के !उन्हें बैलेंस बनानाही नहीं आया जी ! बिलकुल हमारी तरह हैं वो ! मुंहफट ! हम भी इनकी तरह "सन्यास" लेने की सोच रहे हैं ! जय हिन्द !
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Wednesday, October 28, 2015

महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar): Sanjeev Bhatt and Congress Dirty Tricks (Part 2)

महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर (Suresh Chiplunkar): Sanjeev Bhatt and Congress Dirty Tricks (Part 2): पर्दाफ़ाश होते काँग्रेसी षड्यंत्र और झूठ... (भाग..२)   ( पिछले भाग से जारी ... पिछला भाग यहाँ क्लिक करके पढ़ें...)  काँग्रेस के बु...

"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...