पानी के संकट को नहीं इसके धंधे को समझे
तो पानी का संकट भारत के लिये खतरे की घंटी है। क्योंकि दुनिया में जिस तेजी से जनसंख्या बढी और जिस तेजी से पानी कमा उसमें दुनिया के उन पहले देशों में भारत शुमार होता है, जहां सबसे ज्यादा तेजी से हर नागरिक के हिस्से में पानी कम होता चला जा रहा है। आलम यह है कि आजादी के वक्त यानी 1947 में 6042 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के कोटे में आता था। जो कम होते होते 2001 में 1816 क्यूबिक मीटर हो गया। तो 2011 में 1545 क्यूबिक मीटर पानी ही हर हिस्से में बचा । और आज की तारीख में यानी 2016 में 1495 क्यूबिक मीटर पानी हर व्यक्ति के हिस्सा का है। लेकिन विकसित होते देशों के कतार में भारत ही दुनिया का एक ऐसा देश है जहां पानी का कोई मैनेजमेंट है ही नहीं। यानी उपयोग में लाये जा चुके 90 फीसदी पानी को नदियों में पर्यावरण को और ज्यादा नुकसान करते हुये बहाया जाता है। 65 फीसदी बरसात का पानी समुद्र में चला जाता है। और इसके साथ साथ खेती और बिजली पैदा करने के लिये थर्मल पावर पर भारत की 90 फीसदी जनसंख्या टिकी है। यानी बिजली का उत्पादन बढाने के लिये पानी ही चाहिये । और सिंचाई के लिये बिजली से जमीन के नीचे से पानी निकालने की सुविधा चाहिये। और इस पूरी प्रक्रिया में विकसित होने का जो ढांचा भारत में अपनाया जा रहा है वह पानी को कही तेजी से खत्म कर रहा है। क्योंकि जनसंख्या पर रोक नहीं है । सूखे से निपटने के उपाय नहीं हैं। प्रदूषण फैलाते खाद के उपयोग पर रोक नहीं हैं। डैम और जलाशय के नुकसान पर कोई ध्यान नहीं है। उपजाऊ जमीन पर क्रंकीट खड़ा करने में कोई कोताही नहीं है। फसल बर्बादी से आंखें फेर आनाज आयात करने में कोई परेशानी नहीं है। और पानी से होती बिमारी को रोकने के कोई उपाय नहीं है । यानी भारत का रास्ता पानी को लेकर एक ऐसी दिशा में बढ़ रहा है, जहां खेती की अर्थव्यवस्था भी ढह जायेगी और थर्मल पावर सेक्टर भी बिजली देने में सक्षम महीं हो जायेगी ।
यानी जिस इकनॉमी को नेहरु ने हवाई उड़ान दी। वह इकनॉमी ही नहीं बल्कि देश भी 2050 में उसी इकनॉमी तले खत्म होने के कगार पर होगा क्योंकि 2050 में देश में प्रति व्यक्ति पानी का कोटा 1000 क्यूबिक मीटर से नीचे आ जायेगा । यानी चकाचौंध का वह पूरा ढांचा ही डगमगा रहा है। और चकाचौंध भी ऐसी जमीन पर कि एक तरफ पानी का संकट तो दूसरी तरफ संकट को ही धंधे में बदलने के कवायद। क्योंकि डेढ़ बरस बाद बोतलबंद पानी का धंधा 160 अरब रुपये का हो जायेगा। वह भी तब जब आज के हालात में पानी बेचने की दिशा में जो धंधा अपना चुके हैं। यह आंकडा उसका है। यानी अगले डेढ बरस में पानी का संकट और बढेगा तो तो यह 160 अरब के पानी का धंधा 200 अरब भी पार कर सकते हैं। यानी जो संविधान जीने का अकार हर नागरिक को देता है । उस संविधान की शपथ लेने वाली सरकारें हर नागरिक को मुफ्त में पीने का पानी भी दे पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है। और जो पानी दिया भी जा रहा है उसमे भी 60 फीसदी पानी साफ नहीं है । और असर इसी का है कि देश में 72 फीसदी बिमारी साफ पानी ना मिलने की वजह से हो रही है। और इन्हीं बीमारियों के इलाज के लिये देश में स्वास्थ्य सेवा भी मुनाफा वाला धंधा इस तरह बन चुका है कि आज की तारिख में निजी हेल्थ सेक्टर 10 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है। और पानी के इस मुनाफे वाले धंधे से अगला जुड़ाव खेती की जमीन पर कंक्रीट खड़ा करने का है । कोई भी रियल इस्टेट खेती की जमीन इसलिये पंसद करता है क्योंकि वहा जमीन के नीचे पानी ज्यादा सुलभ होता है । और खेती की जमीन को कैसे क्रिकट के जंगल में बदला जाये इसका खेल अगर क्रोनी कैपटलिज्म का एक बडा सच है तो दूसरा सच यह भी है कि कि बीते 10 बरस में 47 फीसदी कंक्रीट के जंगल खेती के जमीन पर खडे हो गये । और कंक्रीट के इस जंगल का मुनाफा बीते दस बरस में 20 लाख करोड से ज्यादा का है । यानी भारत जैसे देश में पानी का संकट कैसे मुनाफे वाले धंधे में बदलता जा रहा है । और इसे ही विकास का अविरल धारा माना जा रहा है । यह वाजपेयी सरकार के दौर में तब कही ज्यादा साफ हो गया जब 2002 में नेशनल वाटर पॉलिसी में सरकार ने पानी को निजी क्षेत्र के लिये खोल दिया । यानी जल संसाधन से जुड़ी परियोजनाओं को बनाने, उसके विकास और प्रबंधन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता खुलते ही पानी से बाजार में मुनाफा कमाने की होड़ में कंपनियां टूट पड़ीं। जबकि इसी दौर में सरकार पीने का पानी उपलब्ध कराने के अपने सबसे पहले कर्तव्य से ही पीछे हटती चली गई। नतीजा यह हुआ कि आज भी साढ़े सात करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध ही नहीं है । करोडो रुपयो के विज्ञापन इसपर फूके जा रहे है कि बोतलबंद पानी का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन सच यह भी है कुकरमुत्ते की तरह बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनिया उग तो आई लेकिन उसमें भी कीटनाशको की मिलावट है । और यह सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की रिसर्च में सामने आया । यानी मानकों से कोई लेना देना नहीं। बीते साल नवंबर में मुंबई में 19 ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई गई थी। और सूखे के बीच ही इस आखरी सच को भी जान लीजिये कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में पांच लीटर पानी खर्च होता है। तो सरकार के पास कोई नीति है नहीं इसलिये कैबिनेट की बैठक हो या आल पार्टी मीटिंग या सूखे पर चर्चा हो या पानी के संकट पर सरकार चर्चा करें । सभी के सामने वही बोलतबंद पानी होता है। जिसका धंधा अरबों-खरबों में पहुंच चुका है।
यानी जिस इकनॉमी को नेहरु ने हवाई उड़ान दी। वह इकनॉमी ही नहीं बल्कि देश भी 2050 में उसी इकनॉमी तले खत्म होने के कगार पर होगा क्योंकि 2050 में देश में प्रति व्यक्ति पानी का कोटा 1000 क्यूबिक मीटर से नीचे आ जायेगा । यानी चकाचौंध का वह पूरा ढांचा ही डगमगा रहा है। और चकाचौंध भी ऐसी जमीन पर कि एक तरफ पानी का संकट तो दूसरी तरफ संकट को ही धंधे में बदलने के कवायद। क्योंकि डेढ़ बरस बाद बोतलबंद पानी का धंधा 160 अरब रुपये का हो जायेगा। वह भी तब जब आज के हालात में पानी बेचने की दिशा में जो धंधा अपना चुके हैं। यह आंकडा उसका है। यानी अगले डेढ बरस में पानी का संकट और बढेगा तो तो यह 160 अरब के पानी का धंधा 200 अरब भी पार कर सकते हैं। यानी जो संविधान जीने का अकार हर नागरिक को देता है । उस संविधान की शपथ लेने वाली सरकारें हर नागरिक को मुफ्त में पीने का पानी भी दे पाने में सक्षम नहीं हो पा रही है। और जो पानी दिया भी जा रहा है उसमे भी 60 फीसदी पानी साफ नहीं है । और असर इसी का है कि देश में 72 फीसदी बिमारी साफ पानी ना मिलने की वजह से हो रही है। और इन्हीं बीमारियों के इलाज के लिये देश में स्वास्थ्य सेवा भी मुनाफा वाला धंधा इस तरह बन चुका है कि आज की तारिख में निजी हेल्थ सेक्टर 10 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है। और पानी के इस मुनाफे वाले धंधे से अगला जुड़ाव खेती की जमीन पर कंक्रीट खड़ा करने का है । कोई भी रियल इस्टेट खेती की जमीन इसलिये पंसद करता है क्योंकि वहा जमीन के नीचे पानी ज्यादा सुलभ होता है । और खेती की जमीन को कैसे क्रिकट के जंगल में बदला जाये इसका खेल अगर क्रोनी कैपटलिज्म का एक बडा सच है तो दूसरा सच यह भी है कि कि बीते 10 बरस में 47 फीसदी कंक्रीट के जंगल खेती के जमीन पर खडे हो गये । और कंक्रीट के इस जंगल का मुनाफा बीते दस बरस में 20 लाख करोड से ज्यादा का है । यानी भारत जैसे देश में पानी का संकट कैसे मुनाफे वाले धंधे में बदलता जा रहा है । और इसे ही विकास का अविरल धारा माना जा रहा है । यह वाजपेयी सरकार के दौर में तब कही ज्यादा साफ हो गया जब 2002 में नेशनल वाटर पॉलिसी में सरकार ने पानी को निजी क्षेत्र के लिये खोल दिया । यानी जल संसाधन से जुड़ी परियोजनाओं को बनाने, उसके विकास और प्रबंधन में निजी क्षेत्र की भागीदारी का रास्ता खुलते ही पानी से बाजार में मुनाफा कमाने की होड़ में कंपनियां टूट पड़ीं। जबकि इसी दौर में सरकार पीने का पानी उपलब्ध कराने के अपने सबसे पहले कर्तव्य से ही पीछे हटती चली गई। नतीजा यह हुआ कि आज भी साढ़े सात करोड़ से ज्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध ही नहीं है । करोडो रुपयो के विज्ञापन इसपर फूके जा रहे है कि बोतलबंद पानी का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन सच यह भी है कुकरमुत्ते की तरह बोतलबंद पानी बेचने वाली कंपनिया उग तो आई लेकिन उसमें भी कीटनाशको की मिलावट है । और यह सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की रिसर्च में सामने आया । यानी मानकों से कोई लेना देना नहीं। बीते साल नवंबर में मुंबई में 19 ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई गई थी। और सूखे के बीच ही इस आखरी सच को भी जान लीजिये कि एक लीटर बोतलबंद पानी तैयार करने में पांच लीटर पानी खर्च होता है। तो सरकार के पास कोई नीति है नहीं इसलिये कैबिनेट की बैठक हो या आल पार्टी मीटिंग या सूखे पर चर्चा हो या पानी के संकट पर सरकार चर्चा करें । सभी के सामने वही बोलतबंद पानी होता है। जिसका धंधा अरबों-खरबों में पहुंच चुका है।
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