Sunday, July 5, 2015

सभी नेता आजकल "स्वराज"ही तो कर रहे हैं जी !! यानिकि स्वयं का राज ???-पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)-मो. न. - 9414657511

कोई गांधी जी का स्वराज चाहता है तो कोई आजकल राम-राज्य चाहता है !हर नेता के हर काम में इन दो सूत्रों का सहारा लेकर रोज़ाना आरोप-प्रत्यरोप लगाये जा रहे हैं ! क्या टीवी एंकर क्या प्रिंट मीडिया का पत्रकार रोज़ ऐसी कहानियाँ गढ़ता है कि आम-जन बस सोचता ही रह जाता है कि यार ये स्वराज और राम-राज्य आखिर है किस चिड़िया का नाम !किसने देखा है इन्हें ? किसने स्वाद चखा है इस स्वराज और राम-राज्य नामक झूठी मिठाई का ??कोई हमें क्यों ऐसे सपने दिखा रहा है जो पूरे ही नहीं हो सकते ???
                        पूरी रामायण हमने पढ़ ली जी ! ना तो महाराजा दशरथ सुखी थे , ना राम और ना हमारी सीता माता ! और तो और इसके अन्य पात्र भी जीवन भर किसी न किसी दुःख से दुखी ही रहे !सुग्रीव की पत्नी बाली के पास ,स्वरूपणखा शादी ना होने के कारण दुखी तो रावण एंड पार्टी सीता जी को ना अपना पाने के कारण से दुखी था ! तो हमें राम-राज्य क्यों चाहिए ?? महाराज बलि के राज में क्या कमी थी ??ऐसे और भी उदाहरण मिल जायेंगे ! बस किसी ने झूठे समाचारों में छाप-बोल दिया कि राम-राज्य अच्छा होता है तो हम चल दिए राम-राज्य पाने को !
                      दूसरा शब्द प्रचलित है " स्वराज" का ! इसकी भी बड़ी खूबियां समझदारों द्वारा बताई जाती हैं ! लेकिन वास्तविक जीवन में इसका भी कोई उदाहरण नहीं है की स्वराज बढ़िया होता है !गांधी जी ने तो स्वराज नाम की माला केवल इसलिए जपी थी क्योंकि उस समय देश पर अंग्रेज़ शासन कर रहे थे ! आज तो देश स्वतंत्र है तो फिर क्यों इसकी माला जपि जा रही है ?? आप पार्टी ने इसको बोल-बोल कर दिल्ली जीत ली , और जब वो स्वयं के रिश्तेदारों या स्वयं के मित्रों को लाखों रुपये के मासिक वेतन पर फिट करने लगे तो फिर शोर मचाया जाने लगा कि देखो जी ये गलत होरहा है !
                       बिहार में लालू जी ने राबड़ी जी को मुख्यमंत्री बनाकर स्वराज लाया था तो नितीश ने मांझी को लाकर स्वराज का  झंडा फहराया था ! हमारी कांग्रेस तो स्वराज की साक्षात मूर्ति है जी , उसने तो आजतक स्वयं के परिवार में ही राज करने की पावर रखकर देश का नाम पूरे विश्व में ऊँचा किया है जी ?? बोलो गांधी परिवार की जय !! 
                          हम तो हैं ही ऐसे जी स्वयं के भाई-बहन,माता-पिता ,दोस्त-पडोसी पर विश्वास नहीं करते बल्कि बड़ी कम्पनियों, सुन्दर मॉडलों और आकर्षक अभिनय करने वाले नेताओं पर विश्वास करके अपने घर से लेकर देश तक की चाबी उसके हाथ में सौंप देते हैं जी !हम स्वयं तो कुछ करना नहीं चाहते क्योंकि आलस्य हमारे ऊपर चढ़ा रहता है जीवन भर , तो हमारा राम नाम सत्य तो होना ही है जी ???
                           हम इतिहास की झूठी सच्ची कहानियों का आसरा लेकर और अपने शातिर दिमाग से नए-नए तर्क निकालकर अपना काम दूसरों पर डाल देते हैं और जब वो अपनी मनमर्ज़ी करता है तो हम पछताते हैं ! मित्रो  कहना है इस विषय पर अवश्य बताइयेगा  पर पधारकर - सधन्यवाद !
  
                 मित्रो !!"5TH PILLAR CORRUPTION KILLER",नामक ब्लॉग रोज़ाना अवश्य पढ़ें,जिसका लिंक -www.pitamberduttsharma.blogspot.com. है !इसे अपने मित्रों संग शेयर करें और अपने अनमोल विचार भी हमें अवश्य लिख कर भेजें !इसकी सामग्री आपको फेसबुक,गूगल+,पेज और कई ग्रुप्स में भी मिल जाएगी !इसे आप एक समाचार पत्र की तरह से ही पढ़ें !हमारी इ-मेल ईद ये है - pitamberdutt.sharma@gmail.com. f.b.id.-www.facebook.com/pitamberduttsharma.7 . आप का जीवन खुशियों से भरा रहे !इस ख़ुशी के अवसर पर आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !!
आपका अपना - पीताम्बर दत्त शर्मा -(लेखक-विश्लेषक), मोबाईल नंबर - 9414657511 , सूरतगढ़,पिनकोड -335804 ,जिला श्री गंगानगर , राजस्थान ,भारत !

Thursday, July 2, 2015

"कांग्रेस के आडवाणी, श्री हंसराज भरद्वाज ने दिखाया कांग्रेस प्रवक्ताओं को आईना"- पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)-9414657511

पाठक मित्रो ! जब से हमारे राहुल गांधी जी 56 दिनों का विदेश में अवकाश बिताकर आये हैं ,और उन्होंने सेकुलर ताकतों की नज़र में सरकार पर राजनितिक आक्रमण किये , उन्हें देख व उनसे उत्साहित होकर कांग्रेस के अन्य प्रवक्तागण पिछले 10 दिनों से रोज़ किसी  किसी विषय पर प्रेस कांफ्रेंस करके अनर्गल आरोप लगा रहे थे , उन सब पर आज श्री हंस राज ने पानी फेर दिया या यूं कहें कि कांग्रेस के गुबारे की हवा ही निकाल दी !
          किस्सा यूूँ है कि पिछले कई दिनों से कांग्रेस के आला-कमान में ही आगामी प्रधानमंत्री पद को लेकर एक जंग छिड़ी हुई है , जो केवल राजनीती के अनुभवी लोगों को बड़ी आसानी से दिखाई दे रही है ! जी हाँ ! आप सही समझ रहे हैं ! ये जंग सोनिया जी और राहुल जी के बीच में चल रही है !दोनों के समर्थक जनता में अपना-अपना महत्व दिखाना चाह रहे हैं ! इसीलिए अति-उत्साह में दोनों पक्ष यानि राहुल और सोनिया जी अपने आपको ज्यादा बड़ा और कारगार विपक्षी नेता होना जाता रहे हैं ! राहुल गांधी जी के साथ जहां 15-20 युवा साँसद हैं तो सोनिया जी के साथ कई बुज़ुर्ग नेता और दूसरे विपक्षी दलों के नेता हैं ! आपको राष्ट्रपति भवन तक विपक्ष का वो मार्च तो याद होगा,जिसमे सोनिया जी ने अपनी भरपूर ताक़त का प्रदर्शन किया था !
           अब कांग्रेस की मजबूरी ये है की वो ये भी चाहती है की उसकी ये लड़ाई बाहर ना दिखाई दे और वो अंदर ही अंदर अपने दोनों नेताओं को तोलना भी चाहती है ! कांग्रेस देखना चाहती है कि सोनिया और राहुल जी में कौन सा नेता उन्हें अगले आम चुनावों में जिता पायेगा ??हालांकि परिवार ने समझोता करवाने का भरपूर प्रयास भी किया लेकिन अभी तलक दोनों किसी मान्य स्थिति तक नहीं पँहुचें हैं !
              इसीलिए माननीय हंसराज भारद्वाज जी ने आज वो कह दिया जो देश के बड़े-बड़े पत्रकार नहीं कह पाये !जबकि देश में चल रहे फ़र्ज़ी ड्रामों के बारे में मीडिया को ना केवल बोलना चाहिए था बल्कि इसे रोकने के प्रयास भी करने चाहिए थे !लेकिन देश का दुर्भाग्य ये है की हमारा मीडिया तो दुकानदार बन गया है और मित्रो दूकान दार तो स्वर्ग में भी अपनी दूकान चलाना चाहता है !
          दरअसल समय आ है कि कांग्रेस इन फ़र्ज़ी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी के बोझ को उतार फेंके और हंसराज भरद्वाज जैसे अनुभवी नेताओं को अपनी कमान सौंपे ! ताकि देश का भला हो सके !

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Tuesday, June 30, 2015

"अगर जीना है तो क्या हमें लकीर का फ़क़ीर बनना जरूरी है "? - पीताम्बर दत्त शर्मा - 9414657511

हमारे बज़ुर्गों ने अपने जीवन के अनुभव से हमारे लिए आसानी हो जाये , इसलिए कई लकीरें खींच दी हैं ! जिन पर चलकर हज़ारों लोगों ने अपने जीवन    में बड़ी-बड़ी सफलताएं पायीं हैं ! निस्संदेह ये हमारे लिए शॉर्टकट साबित हुई हैं ! जिन्होंने इन पर विश्वास नहीं किया उन्होंने कड़े कष्ट ही झेले हैं अपने जीवन में सफलताएं पाने में ! 
                   लेकिन फिर भी कई ऐसी खैंची गयी लकीरें हैं जिनको समय के फेर अनुसार बदलना भी पड़ता है !प्रकृति भी  को समय-समय पर बदलती है , तो इन्सान के नियम क़ानून बदलने में क्या बुराई है जी ? बल्कि बदलना ही चाहिए !हमारे सामजिक नियम हों या फिर सरकारी नियम , हमारे अपने रीती-रिवाज़ हों या राष्ट्रिय-मान्यताएं ! सबका हर दशक बीत जाने पर मूल्यांकन उचित व्यक्तियों द्वारा होना ही चाहिए !हमारे कवि और लेखक लोग अपनी रचनाओं के माध्यम से ये महान कार्य करते ही रहते हैं !
                   व्यक्तिगत इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु तो हम अपनी बुद्धि और मन का आदेश मानते हैं ! लेकिन हमें क्या बनना है अपने जीवन में ?, क्या पढ़ना है ?और कैसे रहना है ?इसके लिए हमें समाज और देश के कानूनों का पालन करना पड़ता है !कुछ लोगों ने मिलकर देश का संविधान बना दिया और कुछ लोग समय-समय पर उसे अपनी सुविधनुसार बदलते भी रहते हैं , तब भी उसका पालन देश के 120 करोड़ लोगों को मानना ही पड़ेगा अन्यथा देश की पोलिस और फौज आपके साथ जबरदस्ती करेगी ! इसी तरह से अगर मुझे अपने जीवन के 30 महत्वपूर्ण साल मौजूदा शिक्षा-पद्धिति में ख़राब नहीं करने तो मुझे इस देश का कोई सरकारी संस्थान काम नहीं देगा ! लेकिन अगर कोई नकल करके या फ़र्ज़ी डिग्री ले आये तो वो पता नहीं चलने तक नौकरी भी  है और इस देश  भी बन सकता है जी क्यों ??
                        अगर पहले इस देश में बिना किताबों के किसान का बेटा किसान , सुनार का बेटा सुनार,लोहार का बेटा लोहार और पंडित का बेटा पंडित बन सकता तो आज के समय में डॉक्टर का बेटा डाक्टर,इंजीनियर का बेटा इंजिनियर क्यों नहीं बन सकता ?? जबकि नेता का बेटा नेता आज भी बन जाता है !!इसमें कोई शक नहीं कि  मेहनत हर  अति आवश्यक है ! लेकिन अगर सभी टीवी चेनेल वाले अपना पत्रकार बनाने का कारखाना खोल सकते हैं तो वैसे ही एक पूर्ण लोहार को एक विद्यार्थी को लोहार बनाने और अपना प्रमाणपत्र देने का अधिकार होना ही चाहिए ! इसी तरह से उन सबको ये अधिकार मिले जो किसी भी हुनर में माहिर हैं !ऐसा करने से देश से बेरोजगार दूर भाग जायेगा जी !! 
आपका क्या कहना है मित्रो ! इस विषय पर , अवश्य बताइयेगा मेरे ब्लॉग पर जाकर ! 


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Saturday, June 27, 2015

ध्यान बँटाने और भटकाने में सफल हज़ारों मारीच... मारेंगे इनको भगवन राम ! होगा भारत का कल्याण !

“मारीच” नामक स्वर्णमृग की कथा हम सभी ने रामायण में पढ़ रखी है. मारीच का उद्देश्य था कि किसी भी तरह भगवान राम को अपने लक्ष्य से भटकाकर रावण के लिए मार्ग प्रशस्त करना. मारीच वास्तव में था तो रावण की सेना का एक राक्षस ही, लेकिन वह स्वर्णमृग का रूप धरकर भगवान राम को अनावश्यक कार्य में उलझाकर दूर ले गया था... नतीजा सीताहरण. वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार को एक वर्ष से अधिक हो गया है. लेकिन इस पूरे साल में लगातार यह देखने में आया है कि भारत के तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के रवैये में कोई बदलाव आना तो दूर, वह दिनोंदिन गैर-जिम्मेदार, ओछा एवं मोदी-द्वेष की अपनी पुरानी बीमारी से ही ग्रसित दिखाई दे रहा है. भारत का मीडिया भी इस समय स्वर्णमृग “मारीच” की तरह व्यवहार कर रहा है. पिछली पंक्ति में मैंने मीडिया के लिए “तथाकथित” इसलिए लिखा, क्योंकि यह मीडिया कहने के लिए तो खुद को “राष्ट्रीय” अथवा नेशनल कहता है, लेकिन वास्तव में इस नॅशनल मीडिया (खासकर चैनलों) की सीमाएँ दिल्ली की सीमाओं से थोड़ी ही दूरी पर नोएडा, गुडगाँव या अधिक से अधिक आगरा अथवा हिसार तक खत्म हो जाती है... इसके अलावा मुम्बई के कुछ फ़िल्मी भाण्डों के इंटरव्यू अथवा फिल्मों के प्रमोशन तक ही इनका “राष्ट्रीय कवरेज”(?) सीमित रहता है.


इस मीडिया को “मारीच” की उपमा देना इसलिए सही है, क्योंकि पिछले एक वर्ष से इसका काम भी NDA सरकार की उपलब्धियों अथवा सरकार के मंत्रियों एवं नीतियों की समीक्षा, सकारात्मक आलोचना अथवा तारीफ़ की बजाय “अ-मुद्दों” पर देश को भटकाना, अनुत्पादक गला फाड़ बहस आयोजित करना एवं जानबूझकर नकारात्मक वातावरण तैयार करना भर रह गया है. जिस तरह काँग्रेस आज भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार नहीं कर पा रही, ठीक उसी तरह पिछले बारह-तेरह वर्ष लगातार मोदी की आलोचना और निंदा में लगा मीडिया भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि जिस व्यक्ति के खिलाफ उन्होंने इतना दुष्प्रचार किया, आज वह देश का प्रधानमंत्री बन चुका है. विकास के मुद्दों एवं सरकार के अच्छे कामों की तरफ से देश की जनता का ध्यान बँटाने की सफल कोशिश लगातार जारी है. जैसे ही सरकार कोई अच्छा सकारात्मक काम करने की कोशिश करती है या कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय लेती है अथवा विदेश में हमारे प्रधानमंत्री कोई लाभदायक समझौता करते हैं तो इनकी समीक्षा करने की बजाय हमारा “नेशनल मीडिया”(??) गैर-जरूरी मुद्दों, धार्मिक भेदभावों, जातीय समस्याओं से सम्बन्धित कोई ना कोई “अ-मुद्दे” लेकर सामने आता है तथा ऐसी चीख-पुकार सहित विवादों की ऐसी धूल उड़ाई जाती है कि देश की जनता सच जान ही ना सके. वह समझ ही ना सके कि वास्तव में देश की सरकार ने उनके हित में क्या-क्या निर्णय लिए हैं. आईये कुछ उदाहरणों द्वारा देखते हैं इस “मारीच राक्षस” ने भाजपा सरकार के कई उम्दा कार्यों को किस प्रकार पलीता लगाने की कोशिश की है. 


पाठकों को याद होगा कि कुछ माह पहले यमन नामक देश में शिया-सुन्नी युद्ध के कारण वहाँ पर काम कर रहे हजारों भारतीय फँस गए थे. इन भारतीयों के साथ विश्व के अनेक देशों के कर्मचारी भी युद्ध की गोलीबारी के बीच खुद को असहाय महसूस कर रहे थे. इनमें से अधिकाँश भारतीय केरल एवं तमिलनाडु के मुस्लिम भारतीय नागरिक हैं. ऐसी भीषण परिस्थितियों में फँसे हुए लोगों ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को लगातार ट्वीट्स करके अपनी व्यथाएँ बताईं. सुषमा स्वराज ने भारत के विदेश मंत्रालय को तत्काल सक्रिय किया, उन भारतीयों की लोकेशन पता की तथा उन्हें वहाँ के दूतावास से संपर्क करने की सलाह दी. सिर्फ इतना ही नहीं, सुषमा स्वराज ने अपने अधीनस्थ काम कर रहे पूर्व फ़ौजी और इस परिस्थिति के अनुभवी जनरल वीके सिंह को बड़े-बड़े मालवाहक हवाई जहाज़ों के साथ यमन में तैनात कर दिया. जनरल साहब ने अपना काम इतनी बखूबी निभाया कि वे वहाँ से तीन हजार से अधिक भारतीयों को वहाँ से निकाल लाए. लेकिन भारत में बैठे “मारीचों” को यह कतई नहीं भाया. जनरल सिंह साहब की तारीफ़ करना तो दूर, इन्होंने भारत में अपने-अपने चैनलों पर “Presstitutes” शब्द को लेकर खामख्वाह का बखेड़ा खड़ा कर दिया. अर्थात यमन से बचाकर लाए गए मुस्लिमों का क्रेडिट कहीं मोदी सरकार ना लूट ले जाए, इसलिए सुषमा स्वराज एवं वीके सिंह के इस शानदार काम पर विवादों की धूल उड़ाई गई... 


इन “मारीच राक्षसों” ने ठीक ऐसी ही हरकत नेपाल भूकम्प के समय भारत की सेना द्वारा की जाने वाली सर्वोत्तम एवं सबसे तेज़ बचाव कार्यवाही के दौरान भी की. उल्लेखनीय है कि नेपाल में आए भूकम्प के समय खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल के प्रधानमंत्री को ट्वीट कर के सबसे पहले त्वरित सन्देश दिया था. भूकम्प की तीव्रता पता चलते ही प्रधानमंत्री कार्यालय ने तीन घंटे के भीतर भारत के NDRF को सक्रिय कर दिया तथा भारतीय सेना का पहला जत्था पाँच घंटे के अंदर नेपाल पहुँच चुका था. नेपाल में बचाव एवं राहत का सबसे बड़ा अभियान सेना आरम्भ कर चुकी थी तथा उसका नेपाल सरकार के साथ समन्वय स्थापित हो चुका था. नेपाल की त्रस्त एवं दुखी जनता भी भारत की इस सदाशयता तथा भारतीय सेना के इस शानदार ऑपरेशन से अभिभूत थी. चीन और पाकिस्तान को रणनीतिक रूप से रोकने तथा एक गरीब देश में आपदा के समय पश्चिमी मिशनरी की धूर्त धर्मान्तरण पद्धतियों को रोकने हेतु मोदी सरकार तथा भारतीय सेना ने अपना मजबूत कदम वहाँ जमा लिया था... लेकिन भारतीय मीडिया और कथित बुद्धिजीवियों को एक “हिन्दू राष्ट्र” में की जाने वाली मदद भला कैसे पचती? लिहाज़ा यह “मारीच” वहाँ भी जा धमका. गरीब उर बेघर नेपालियों के मुँह में माईक घुसेड़कर उनसे पूछा जाने लगा, “आपको कैसा लग रहा है?”, बेहद भले और सौम्य नेपालियों को कैमरे के सामने घेर-घार कर उनसे जबरिया उटपटांग सवाल किए जाने लगे. इस आपदा के समय भारतीय सेना की मदद करना तो दूर, इन मारीचों ने दूरदराज के अभियानों के समय हेलीकॉप्टरों तथा सेना के ट्रकों में भी घुसपैठ करते हुए उनके काम में अड़ंगा लगाया. ज़ाहिर है कि चीन का मीडिया इसी मौके की ताक में था, उसने जल्दी ही दुष्प्रचार आरम्भ कर दिया, नतीजा यह हुआ कि भारत सरकार तथा भारतीय सेना की इस पहल का लाभ तो मिला नहीं, उल्टा वहाँ चीन-पाकिस्तान प्रायोजित “इन्डियन मीडिया गो बैक” के शर्मनाक नारे लगाए जाने लगे. जो मीडिया इस भीषण आपदा के समय एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था, उस मीडिया के कुछ नौसिखिए और कुछ चालाक कर्मियों तथा दिल्ली के एसी कमरों में बैठकर समाजसेवा करने वाले कुछ बुद्धिजीवियों ने भारतीय सेना और मोदी सरकार की मिट्टी-पलीद करने में कोई कसर बाकी न रखी. 


तीसरा उदाहरण है, बेहद चतुराई और धूर्तता के साथ गढा गया IIT_मद्रास का “अम्बेडकर-पेरियार” विवाद. जैसा कि सभी जानते हैं, मोदी सरकार द्वारा शपथ ग्रहण के पहले दिन से ही भारतीय चैनलों एवं (कु)बुद्धिजीवियों के सर्वाधिक निशाने पर यदि कोई है, तो वे हैं मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी. जिस प्रकार उन्होंने स्कूली शिक्षा, मध्यान्ह भोजन व्यवस्था में सुधार के लिए कई कदम उठाए, वर्षों से चले आ रहे भारत के सही इतिहास विरोधी पाठ्यक्रमों की समीक्षा करने तथा महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों पर नकेल कसना आरम्भ किया, उसी का नतीजा है कि वर्षों से शिक्षा क्षेत्र में काबिज “एक गिरोह विशेष” शुरू से ही बेचैन है. यह कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी गिरोह अभी तक दिल्ली के एक खास विश्वविद्यालय द्वारा अपनी घिनौनी राजनीति के साथ, समाज को तोड़ने वाले “किस ऑफ लव” अथवा “समलैंगिक अधिकारों” जैसे फूहड़ आंदोलनों के सहारे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाए हुए था. परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में किए जाने वाले सुधारों तथा डॉक्टर दीनानाथ बत्रा द्वारा भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के सच्चे प्रकटीकरण के प्रयासों ने इस बौद्धिक गैंग को तगड़ा झटका दिया. IIT-मद्रास में “आम्बेडकर-पेरियार स्टडी ग्रुप” द्वारा रचा हुआ “हाय दैया, ज़ुल्म हुआ!!” छाप राजनैतिक नाटक इसी खुन्नस का नतीजा था. जिस मामले में मानव संसाधन मंत्रालय अथवा स्मृति ईरानी का कोई सीधा दखल तक नहीं था, उसे लेकर आठ-दस दिनों तक दिल्ली में नौटंकी खेली गई. “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हनन” एवं “विचारों को कुचलने का फासीवाद” जैसे सदैव झूठे नारे दिए गए. इस मामले में इस गिरोह का पाखण्ड तत्काल इसलिए उजागर हो गया क्योंकि जहाँ एक तरफ तो वे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता की बात करते रहे, वहीं दूसरी तरफ स्मृति ईरानी द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन में हस्तक्षेप का आरोप भी लगाते रहे. “मारीचों” ने हमेशा की तरह इस मामले का भी कतई अध्ययन नहीं किया था, उन्हें “रावण” की तरफ से जैसा निर्देश मिलता रहा वे बकते रहे... उन्हें अंत तक समझ में नहीं आया कि वे स्मृति ईरानी द्वारा आईआईटी में दखल का विरोध करें या उनके द्वारा बयान किए गए स्वायत्तता के मुद्दे पर उनका घेराव करें. अंततः आठ दिन बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि सारा झमेला IIT-मद्रास का अंदरूनी झगड़ा ही था, जिसे कुछ जातिवादी प्रोफेसरों एवं सुविधाभोगी छात्रों द्वारा जबरन रंगा गया था... तब इन्होंने अपनी ख़बरों का फोकस तत्काल दूसरी तरफ कर लिया. परन्तु मोदी सरकार को यथासंभव बदनाम करने तथा मंत्रियों पर खामख्वाह का कीचड़ उछालने में वे कामयाब हो ही गए... और वैसे भी इन मारीचों का मकसद भारत की छवि देश-विदेश में खराब करना था और है, वह पूरा हुआ. हालांकि एक “सबसे तेज़” चैनल ने खुद को अधिक समझदार साबित करने की कोशिश में स्मृति ईरानी की कक्षा लेनी चाही, परन्तु उसका यह कुत्सित प्रयास ऐसा फँसा कि स्मृति ईरानी ने अपनी तेजतर्रार छवि में जबरदस्त सुधार करते हुए, एक तथाकथित पत्रकार की धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं एवं वे महोदय लाईव कार्यक्रम में पिटते-पिटते बचे. 

जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी विदेश दौरे पर जाते हैं, वहाँ किसी महत्त्वपूर्ण समझौते अथवा दोनों देशों के बीच व्यापार सहमति के बारे में कोई निर्णय लेते हैं, ठीक उसी समय यहाँ भारत में “मारीच” अपना “ध्यान भटकाओ” खेल शुरू करते हैं. हाल ही की घटना का उदाहरण देना ठीक रहेगा. प्रधानमंत्री बांग्लादेश के दौरे पर गए. वहाँ पर उन्होंने पिछले चालीस वर्ष से उलझा हुआ भूमि के टुकड़े वाला विवाद समझौता करके हमेशा के लिए समाप्त कर दिया. इस समझौते में पक्ष-विपक्ष सभी की पूर्ण सहमति थी, परन्तु देश की जनता में भ्रम ना फैले इस हेतु किसी भी चैनल या प्रमुख अखबार ने इस समझौते पर कोई लेखमाला अथवा बहस आयोजित नहीं की, कि भूमि की इस अदला-बदली से दोनों देशों को किस प्रकार फायदा होगा? अथवा अभी तक दोनों देशों को क्या-क्या नुक्सान हो रहा था? इसकी बजाय नरेंद्र मोदी द्वारा ढाकेश्वरी मंदिर के दर्शन की खबरों को प्रमुखता दी गई. इसी दौरे में प्रधानमंत्री ने कोलकाता से शुरू होकर बांग्लादेश, म्यांमार होकर थाईलैंड तक जाने वाले सड़क मार्ग पर सभी देशों की आम सहमति को लेकर भी एक समझौता किया, क्या किसी चैनल ने भविष्य के लिए फायदेमंद इस प्रमुख खबर को दिखाया? नहीं दिखाया. क्योंकि इन तमाम चौबीस घंटे अनथक चलने वाले ख़बरों के भूखे बकासुर चैनलों को वास्तविक ख़बरों के लिए वाद-विवाद, प्लांट की गई खबरों, कानाफूसियों अथवा नकारात्मकता पर निर्भर रहने की आदत हो गई है. 


म्यांमार से अपनी गतिविधियाँ चलाने वाले आतंकी संगठनों के एक गुट ने मणिपुर में भारतीय सेना पर हमला करके अठारह जवानों को शहीद कर दिया. इस पर चैनलों ने खूब हो-हल्ला मचाया. तमाम कथित बुद्धिजीवियों एवं मोदी-द्वेषियों ने 56 इंच का सीना, 56 इंच का सीना कहते हुए खूब खिल्ली उड़ाई... लेकिन जब कुछ ही दिनों बाद मनोहर पर्रीकर के सशक्त नेतृत्त्व एवं अजीत डोभाल की रणनीति एवं हरी झंडी के बाद भारत की सेना ने म्यांमार की सीमा में घुसकर आतंकी शिविरों को नष्ट करते हुए दर्जनों आतंकियों को ढेर कर दिया तब भारत में यही “मारीच” इस गौरवशाली खबर को पहले तो दबाकर बैठ गए. लेकिन जब सरकार और सेना ने बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति देकर इस घटना के बारे में बताया तो कहा जाने लगा कि “सेना की ऐसी कार्रवाईयों का प्रचार नहीं किया जाना चाहिए”... अर्थात इन “दुर्बुद्धिजीवियों” के अनुसार भारत की सेना के जवान मारें जाएँ तो ये खूब बढ़चढ़कर उसे दिखाएँ, लेकिन वर्षों बाद देश के नेतृत्व की वजह से सीमा पार करके हमारे सैनिकों ने जो बहादुरी दिखाई है उसकी चर्चा ना की जाए. इनका यही नकारात्मक रवैया पहले दिन से है. इसीलिए देश को NDA सरकार की अच्छी बातों की ख़बरों के बारे में बहुत देर से, या बिलकुल भी पता नहीं चलता. जबकि विवाद, चटखारे, झगड़े, ऊटपटांग बयानों, धार्मिक विद्वेष, जातीयतावादी ख़बरों के बारे में जल्दी पता चल जाता है. 

ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार के प्रति यह नकारात्मकता सिर्फ मीडिया अथवा संस्थानों में बैठे (कु)बुद्धिजीवी छाप “मारीच” ही फैला रहे हैं. असल में इन मारीचों को भाजपा की अंदरूनी कलह तथा सरकार में बैठे कुछ शक्तिशाली मंत्री ही ख़बरें परोस रहे हैं, खाद-पानी दे रहे हैं. विदेश मंत्री के रूप में सुषमा स्वराज की जबरदस्त सफलता तथा विदेशों में रहने वाले भारतीयों के बीच उनकी तेजी से बढ़ती लोकप्रियता भारत में कुछ खास लोगों को पची नहीं और उन्होंने ललित मोदी के बहाने सुषमा स्वराज पर तीर चलाने शुरू कर दिए. उल्लेखनीय है कि पिछले चार दशक से अधिक समय से राजनीति के क्षेत्र में रहीं सुषमा स्वराज पर आज तक भ्रष्ट आचरण संबंधी कोई आरोप नहीं लगा है. कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं से उनके मधुर सम्बन्ध हों अथवा ललित मोदी से उनके पारिवारिक सम्बन्ध हों वे हमेशा विवादों से परे रही हैं, उनकी छवि आमतौर पर साफसुथरी मानी जाती रही है. लेकिन ललित मोदी से सम्बन्धित ताज़ा विवाद में सुषमा स्वराज पर जिस तरह से कीचड़ उछाला गया और कीर्ति आज़ाद ने “आस्तीन के साँप” शब्द का उल्लेख किया वह साफ़ दर्शाता है कि इस सरकार में सब कुछ सही नहीं चल रहा. ज़ाहिर है कि “एक विशिष्ट क्लब” वाले लोग हैं, जो नहीं चाहते कि यह सरकार आराम से काम कर सके. इसीलिए सरकार में जो “मीडिया-फ्रेंडली” नेता हैं उन पर कभी कोई उँगली नहीं उठती. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में ये “मारीच” धीरे-धीरे इतने अंधे हो चले हैं कि मोदी से घृणा करते-करते वे भारत की संस्कृति और देश से ही नफरत और अपने ही देश को हराने की दिशा में जा रहे हैं. पाठकों को याद होगा कि हाल ही में राहुल गाँधी ने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि मोदी के “मेक इन इण्डिया” कार्यक्रम से सिर्फ अंडा मिलेगा. इसका अर्थ यह होता है कि राहुल गाँधी समेत सभी प्रगतिशील बुद्धिजीवी चाहते हैं कि “मेक इन इंडिया” योजना फेल हो जाए. भारत में रोजगारों का निर्माण ना हो तथा चीन के सामान भारत समेत पूरी दुनिया को रौंदते रहें. ये कैसी मानसिकता है? मारीच राक्षसों का यही रवैया “जन-धन योजना” को लेकर भी था तथा यही रवैया 330 तथा 12 रूपए वाली “जन-सुरक्षा बीमा” योजना को लेकर भी है. यानी चाहे जैसे भी हो सरकार की प्रत्येक योजना की आलोचना करो. चैनलों पर गला फाड़कर विरोध करो. बिना सोचे-समझे अपने-अपने आकाओं के इशारे पर अंध-विरोध की झड़ी लगा दो, फिर चाहे देश या देशहित जाए भाड़ में. जरा याद कीजिए कि जब देश की नौसेना ने मुम्बई-कराची के बीच पाकिस्तान की एक संदिग्ध नौका को उड़ा दिया था तब ये कथित बुद्धिजीवी और “सेमी-पाकिस्तानी” चैनल कैसे चीख-पुकार मचाए हुए थे? सभी को अचानक मानवाधिकार और अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून वगैरह याद आ गए थे. पाकिस्तान से आने वाली बोट और उसमें मरने वाले आतंकवादियों के साथ सहानुभूति दिखाने की जरूरत किसे और क्यों है? परन्तु इन मारीचों को भारत की सुरक्षा अथवा सेना की जाँबाजी से कभी भी मतलब नहीं था और ना कभी होगा. इनका एक ही मकसद है नकारात्मकता फैलाना, देश को नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक चले जाना. 

अंत में हम संक्षेप में भाजपा सरकार के कुछ और महत्त्वपूर्ण निर्णयों तथा योजनाओं के बारे में देखते हैं जिन पर इन चैनलों ने अथवा स्तंभकारों या लेखकों और बुद्धिजीवियों(?) ने कभी भी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई. 


१) आधार कार्ड के सहारे गैस सिलेंडरों को जोड़ने की महती योजना DBTL “पहल” (PAHAL) के कारण इस सरकार ने पिछले एक साल में लगभग दस हजार करोड़ रूपए की बचत की है जो कि इस क्षेत्र में दी जाने वाली कुल सब्सिडी अर्थात तीस हजार करोड़ का एक तिहाई है. लगभग चार करोड़ फर्जी गैस कनेक्शन पकड़े गए हैं जिनके द्वारा एजेंसियाँ भ्रष्टाचार करती थीं. क्या इस मुद्दे पर कभी किसी “बुद्धिजीवी मारीच” ने सरकार की तारीफ़ की?? नहीं की. 

२) पिछले एक वर्ष में विद्युत पारेषण की कार्यशील लाईनों में 32% की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. यूपीए सरकार के दौरान अंतिम एक वर्ष में विद्युत पारेषण की जो लाईनें सिर्फ 16743 किमी ही शुरू हुई थीं, मोदी सरकार ने सिर्फ एक वर्ष में उसे बढ़ाकर 22101 किमी तक पहुँचा दिया गया है. क्या किसी अखबार ने इसके बारे में सकारात्मक बातें प्रकाशित कीं?? नहीं की.  

३) वर्ष 2013-14 में यूपीए सरकार ने एक साल में सिर्फ 3621 किलोमीटर हाईवे प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी और उस पर काम आरम्भ हुआ, जबकि इस NDA सरकार ने विगत एक वर्ष में 7980 किलोमीटर हाईवे प्रोजेक्ट्स को मंजूरी देकर उस पर द्रुत गति से काम भी आरंभ कर दिया है. अर्थात पूरे 120% की वृद्धि. क्या इस काम के लिए नितिन गड़करी की तारीफ़ नहीं की जानी चाहिए? लेकिन क्या “मारीच राक्षसों” ने ऐसा किया? नहीं किया... बल्कि गड़करी के खिलाफ उल्टी-सीधी बिना सिर-पैर की ख़बरों को प्रमुखता से स्थान दिया गया. 


आखिर ये (कु)बुद्धिजीवी इस सरकार के प्रति नफरत से इतने भरे हुए क्यों हैं? ऐसा क्यों है कि पिछले तेरह साल से “गुजरात 2002” नामक दिमागी बुखार इन्हें रातों को सोने भी नहीं देता? जनता द्वारा चुने हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नामक व्यक्ति से घृणा का यह स्तर लगातार बढ़ता ही क्यों जा रहा है? ऐसा क्यों है कि विभिन्न मुद्दों पर जो “गिरोह” पिछले साठ वर्ष से सोया हुआ था, अचानक उसे सिर्फ एक वर्ष में ही सारे परिणाम चाहिए? इस गैंग को एक ही वर्ष में काला धन भी चाहिए... इस सरकार के एक ही वर्ष में सभी भ्रष्टाचारियों को जेल भी होना चाहिए... वास्तव में इस “वैचारिक खुन्नस” की असली वजह है मोदी सरकार द्वारा इस गिरोह के “पेट पर मारी गई लात”. जी हाँ!!! पिछले एक वर्ष में इस मारीच के मालिक अर्थात दस मुँह वाले NGOs छाप रावण के पेट पर जोरदार लात मारी गई है. विदेशों से आने वाली “मदद”(??) को सुखाने की पूरी तैयारी की जा चुकी है. भारत में अस्थिरता और असंतोष फैलाने वाले दो सबसे बड़े गिरोहों अर्थात “ग्रीनपीस” पर पाबंदियाँ लगाई गईं जबकि फोर्ड फाउन्डेशन से उनके चन्दे का हिसाब-किताब साफ़ करने को कहा गया है. इन दो के अलावा कुल 13470 फर्जी NGOs को प्रतिबंधित किया जा चुका है. क्योंकि इनमें से अधिकाँश गैर-सरकारी संगठन सिर्फ कागजों पर ही जीवित थे. इनका काम विदेशों से चन्दा लेकर भारत की नकारात्मक छवि पेश करना तथा असंतुष्ट गुटों को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करना भर था. ज़ाहिर है कि इस सरकार की अच्छी बातें जनता तक नहीं पहुँचने देने तथा देश के प्रमुख मुद्दों से ध्यान भटकाते हुए फालतू की बातों पर चिल्लाचोट मचाना इन मारीचों की फितरत में आ चुका है. संतोष की बात सिर्फ यही है कि देश की जनता समझदार होती जा रही है. सोशल मीडिया की बदौलत उस तक सही बातें पहुँच ही जाती हैं. इन चैनलों-अखबारों की “दुकानदारी” कमज़ोर पड़ती जा रही है, विश्वसनीयता खत्म होती जा रही है, इसीलिए ये अधिक शोर मचा रहे हैं...परन्तु इन मारीचों को अंततः मरना तो “राम” के हाथों ही है.

Wednesday, June 24, 2015

"गोवंश के नाम पर चल रहे हैं कई तरह के व्यापार और सध रहे कइयों के गैरवाजिब हित "!! - पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)-मो. न. -9414657511

चोर चोरी करे तो ज्यादा दुःख नहीं होता उसे समझाया जा सकता है , सज़ा देकर सुधारा जा सकता है ! लेकिन अगर कोई पुण्यकर्म  आड़ में अपनी रोटियां सेकें , सरकार द्वारा प्राप्त सहूलियतों का नाज़ायज़ फायदा उठाये और समाज में अपना एक विशेष स्थान बनाने की कुचेष्टा करे, तो इसे  आप लोग क्या कहेंगे ??घोर कलयुग ही कहेंगे ना मित्रो !
                       पूरे भारत में करोड़ों गोशालाएं चल रही हैं ! सभी ऐसी हों ऐसा तो नहीं हैं ! लेकिन कहावत है ना कि "एक गन्दी मछली , सारे तालाब को ही गन्दा कर देती है !ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब लोग पाप करने से डरते थे , किसी और के हक़ व धन को हड़पते नहीं थे ! हराम समझा जाता था किसी के धन पर नज़र रखने को ! लेकिन आजकल पता नहीं लोगों को क्या हो गया है ?जिसे देखो वो ही गलत तरीके से धनवान बनने की योजनाएं बनाता नज़र आ रहा है !जिसके दो आसान तरीके आजकल प्रचलन में हैं ! पहला तरीका तो नेतागीरी और दूसरा तरीका समाजसेवी संस्था बनाकर चंदा हड़पना !
                         मोदी सरकार ने इस और ध्यान देना शुरू किया है और इस मौजूदा सरकार ने 4075 समाजसेवी संस्थाओं के लाइसेंस रद्द कर दिए हैं !लेकिन किसी गोशाला इसमें शामिल नहीं है ! शायद ये सरकार भी ऐसे लोगों के हंगामे से डरती है कि कंही उसे गोवंश विरोधी ना मान लिया जाये !जबकि निम्न लिखित गलत तरीके अपनाने वाली गोशालाओं को भी बंद कराया जाना अति आवश्यक है !या फिर इनका प्रशासनिक ढांचे में विशेष बदलाव लाये जाएँ !देखने में आया है कि भारत में कई गोशालाओं के प्रबंधक निम्न प्रकार के गलत कार्य कर सकते हैं -:
1. - गोशाला की ज़मीन पर चारे की जगह कोई दूसरी        फसल बीजना !
2. - केवल दुधारू गायों को ही गोशाला में रखना ,              बछड़े और नंदीगण की सेवा नहीं करना !
3. - गोशाला की सम्पत्ति व पैसे को निजी हित में                प्रयोग करना !
4. - किसी दूसरे द्वारा अगर गोवंश को कोई नुकसान          हो जाये तो "प्रबल-विरोध"करना , और अगर            कोई गोवंश स्वयं बीमार हो जाये या फिर                    प्रकिर्तिक मौत मर जाए,  तो उसे जल्द मदद नहीं        पंहुचाना !!
5. - गौशाला में रहते पशुओं की प्रबंधन की गलती से         मौत हो जाना !
                         मेरे दृष्टिकोण से अगर सरकार सभी गोशालाओं में उपरोक्त कारणों की जांच का आदेश देती है तो उसका  स्वागत ही करेंगे !और गोवंश के नाम पर चल रही दुकानें बंद होंगी ???????
                      मित्रो !!"5TH PILLAR CORRUPTION KILLER",नामक ब्लॉग रोज़ाना अवश्य पढ़ें,जिसका लिंक - www.pitamberduttsharma.blogspot.com. है !इसे अपने मित्रों संग शेयर करें और अपने अनमोल विचार भी हमें अवश्य लिख कर भेजें !इसकी सामग्री आपको फेसबुक,गूगल+,पेज और कई ग्रुप्स में भी मिल जाएगी !इसे आप एक समाचार पत्र की तरह से ही पढ़ें !हमारी इ-मेल ईद ये है - pitamberdutt.sharma@gmail.com. f.b.id.-www.facebook.com/pitamberduttsharma.7 . आप का जीवन खुशियों से भरा रहे !इस ख़ुशी के अवसर पर आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !!
आपका अपना - पीताम्बर दत्त शर्मा -(लेखक-विश्लेषक), मोबाईल नंबर - 9414657511 , सूरतगढ़,पिनकोड -335804 ,जिला श्री गंगानगर , राजस्थान ,भारत !
                                                           


Sunday, June 21, 2015

"चुनावों में लगाते हैं,ये सफ़ेद वर्दी धारी नेता अपनी काली कमाई ! क्या जनता अबके करेगी इनकी धुलाई "?-पीताम्बर दत्त शर्मा ( लेखक-विश्लेषक )-मो. न. -9414657511

लीजिये मित्रो !! अपने राजस्थान में एकबार फिर नगरपालिकाओं के चुनाव होने वाले हैं ! पिछलीबार जिन नगर-निगमों और पालिकाओं में चुनाव हुए थे उनमे भाजपा ने बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया था !क्योंकि उस समय देश में मोदी जी और वसुंधरा जी का प्रभाव जनता के मनो-मस्तिष्क पर पूरी तरह से छाया हुआ था !कांग्रेस संसद और विधानसभा में बड़ी बुरी तरह से हार कर हताश हो चुकी थी ! उसे चुनाव में खड़े करने हेतु प्रत्याशी तक भी नहीं मिल पा रहे थे !इसीलिए कई प्रत्याशी तो अपनी जमानत तक भी नहीं बचा पाये थे !
                     लेकिन अब 18-20 महीनों में ही पांसा पलट गया लगता है !कांग्रेस बड़े जोश में दिखाई दे रही है ! कहीं भी , कोई भी चुनाव चाहे क्यों ना हो ! चुनाव छोटा हो या बड़ा कांग्रेस अपनी पूरी ताक़त उसमे झोंक रही है !इसका एक बड़ा कारण ये भी है की राहुल गांधी 56 दिनों का जो विदेश में अवकाश काट कर आये हैं , उसके बाद उनमे एक नयी स्फूर्ति दिखाई देती है !इसे देख कर सोनिया जी भी जोश में हैं ! वो भी पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के घर तक और फिर पूरे विपक्ष के साथ राष्ट्रपति भवन तक मार्च कर चुकी हैं !दिल्ली में केजरीवाल भी कांग्रेस को बढ़ने के भरपूर अवसर प्रदान कर रहे हैं !तो दूसरी तरफ लालू मुलायम फेविकोल लेकर घूम रहे हैं  सारे विपक्ष को एक करने हेतु !
                          इसलिए सचिन पायलेट , अशोक गहलोत और सी. पी. जोशी जी अपने कार्यकर्ताओं से "अलग-अलग"मिलने में लगे हुए हैं !अभी इस बात में ये शंका है कि वो सबको जुड़ने का कह रहे हैं या फिर अपने घोड़े मजबूत कर रहे हैं ?अब ये हौसले की बात को यहीं पर रोक कर थोड़ा मुद्दे पर आते हैं यानी कि " सफ़ेद वर्दी की काली कमाई " के मुद्दे पर ! सरकार नगर- पालिकाओं के चुनाव लड़ने हेतु जीते धन खर्च करने की इज़ाज़त देती है उतने में तो प्रत्याशियों साधनों पर ही खर्च हो जाते हैं !! अपने वोटरों समर्थकों को लुभाने हेतु तो लाखों लगा देते हैं आज कल के प्रत्याशी ? अब जब पहले लगाते हैं तो फिर कमाने की चेष्टा भी करते हैं ये नेता लोग ?
                   हम जनता में से ही कुछ लोग " खाने-पीने " के लालच में अपना और अन्य वोटरों का भविष्य बिगाड़ देते हैं !लेकिन जनता अब समझती जा रही है इनकी चालों को ! अबकी बार हमें ये आशा रखनी चाहिए कि जनता ऐसे बेईमानों को सबक सिखाएगी ! जाति, इलाके,धर्म और पार्टी से ऊपर उठ कर ईमानदार मेहनती प्रत्याशी को अपना वोट देकर विजयी बनाएगी ताकि वो बाद में जन-हित के कार्य करवाकर देश को आगे बढ़ा सके !हमें चाहिए की हम सब सच्चे और ईमानदार आदमियों की कद्र करें और बुओं को बुरा कहने की हिम्मत अपने में लाएं ! इसी में हमारी और हमारी आने वाली पीढ़ियों की भलाई है ! मित्रो !!"5TH PILLAR CORRUPTION KILLER",नामक ब्लॉग रोज़ाना अवश्य पढ़ें,जिसका लिंक - www.pitamberduttsharma.blogspot.com. है !इसे अपने मित्रों संग शेयर करें और अपने अनमोल विचार भी हमें अवश्य लिख कर भेजें !इसकी सामग्री आपको फेसबुक,गूगल+,पेज और कई ग्रुप्स में भी मिल जाएगी !इसे आप एक समाचार पत्र की तरह से ही पढ़ें !हमारी इ-मेल ईद ये है - pitamberdutt.sharma@gmail.com. f.b.id.-www.facebook.com/pitamberduttsharma.7 . आप का जीवन खुशियों से भरा रहे !इस ख़ुशी के अवसर पर आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !!
आपका अपना - पीताम्बर दत्त शर्मा -(लेखक-विश्लेषक), मोबाईल नंबर - 9414657511 , सूरतगढ़,पिनकोड -335804 ,जिला श्री गंगानगर , राजस्थान ,भारत !


Saturday, June 20, 2015

मौजूदा मीडिया बनाम आपातकाल के दौर की पत्रकारिता


क्या मौजूदा वक्त में मीडिया इतना बदल चुका है कि मीडिया पर नकेल कसने के लिये अब सरकारों को आपातकाल लगाने की भी जरुरत नहीं है। यह सवाल इसलिये क्योंकि चालीस साल पहले आपातकाल के वक्त मीडिया जिस तेवर से पत्रकारिता कर रहा था आज उसी तेवर से मीडिया एक बिजनेस मॉडल में बदल चुका है, जहां सरकार के साथ खड़े हुये बगैर मुनाफा बनाया नहीं जा सकता है। और कमाई ना होगी तो मीडिया हाउस अपनी मौत खुद ही मर जायेगा। यानी 1975 वाले दौर की जरुरत नहीं जब इमरजेन्सी लगने पर अखबार के दफ्तर में ब्लैक आउट कर दिया जाये। या संपादकों को सूचना मंत्री सामने बैठाकर बताये कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखा तो अखबार बंद हो जायेगा। या फिर पीएम के कसीदे ही गढ़े। अब के हालात और चालीस बरस पहले हालात में कितना अंतर आ गया है।

यह समझने के लिये 40 बरस पहले जून 1975 में लौटना होगा। आपातकाल लगा तो 25 जून की आधी रात के वक्त लेकिन इसकी पहली आहट 12 जून को तभी सुनायी दे गई जब इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरागांधी के खिलाफ फैसला सुनाया और समाचार एजेंसी पीटीआई ने पूरे फैसले को जस का तस जारी कर दिया। यानी शब्दों और सूचना में ऐसी कोई तब्दिली नही की जिससे इंदिरागांधी के खिलाफ फैसला होने के बाद भी आम जनता खबर पढने के बाद फैसले की व्याख्या सत्ता के अनुकूल करें । हुआ यही कि आल इंडिया रेडियो ने भी समाचार एजेंसी की कापी उठायी और पूरे देश को खबर सुना दी कि, श्रीमति गांधी को जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 [ 7 ] के तहत भ्रष्ट साधन अपनाने के लिये दोषी करार दिया गया । और प्रधानमंत्री को छह वर्षों के लिये मताधिकार से वंचित किया गया। और 600 किलोमीटर दूर बारत की राजधानी नई दिल्ली में इलाहबाद में दिये गये फैसले की खबर एक स्तब्धकारी आघात की तरह पहुंची। इस अविश्वसनीय खबर ने पूरे देश को ही जैसे मथ डाला। एक सफदरजंग मार्ग पर सुरक्षा प्रबंध कस दिये गये। ट्रकों में भरकर दिल्ली पुलिस के सिपाही पहुंचने लगे। दल के नेता और कानूनी विशेषज्ञ इंदिरा के पास पहुंचने लगे। घर के बाहर इंदिरा  के समर्थन में संगठित प्रदर्शन शुरु हो गये। दिल्ली परिवहन की कुल 1400 बसों में से 380 को छोडकर बाकी सभी बसों को भीड़ लाद लाद कर प्रदर्शन के लिये 1, सफदरजंग पहुंचाने पर लगा दिया गया । और यह सारी रिपोर्ट भी
समाचार एजेंसी के जरीये जारी की जाने लगी। असल में मीडिया को ऐसे मौके पर कैसे काम करना चाहिये या सत्ता को कैसे काम लेना चाहिये यह सवाल संजय गांधी के जहन में पहली बार उठा।

और संजय गांधी ने सूचना प्रसारण मंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को बुलाकर खूब डपटा कि प्रधानमंत्री के खिलाफ इलाहबाद हाईकोर्ट के पैसले को बताने के तरीके बदले भी तो जा सकते थे। उस वक्त आल इंडिया रेडियो में काम करने वाले न्यूज एडिटर कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक वह पहला मौका था जब सत्ता को लगा कि खबरें उसके खिलाफ नही जानी चाहिये। और पहली बार समाचार एजेंसी पीटीआई-यूएनआई को चेताया गया कि बिना जानकारी इस तरह से खबरें जारी नहीं करनी है। और चूंकि तब समाचार एजेंसी टिकी भी सरकारी खर्च पर ही थी तो संजय गांधी ने महसूस किया कि जब समाचार एजेंसी के कुल खर्च का 80 फिसदी रकम सरकारी खजाने से जाती है तो फिर सरकार के खिलाफ खबर को एजेंसियां क्यों जारी करती है । उस वक्त केन्द्र सरकार रेडियो की खबरों के लिये 20 से 22 लाख रुपये समाचार एजेंसी पीटीआई-यूएनआई को देती थी । बाकि समाचार पत्र जो एजेंसी की सेवा लेते वह तीन से पांच हजार से ज्यादा देते नहीं थे। यानी समाचार एजेंसी तब सरकार की बात ना मानती तो एजेंसी के सामने बंद होने का खतरा मंडराने लगता। यह अलग मसला है कि मौजूदा वक्त में सत्तानुकूल हवा खुद ब खुद ही एजेंसी बनाने लगती है क्योंकि एजेंसियों के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा प्रतिस्पर्धा होती है कि कौन सरकार या सत्ता के ज्यादा करीब है । लेकिन दिलचस्प यह है आपातकाल लगते ही सबसे पहले आपातकाल का मतलब होता क्या है इसे सबसे पहले किसी ने महसूस किया तो सरकारी रेडियो में काम करने वालों ने ही । और पहली बार आपातकाल लगने के बाद सुबह तो हुई लेकिन मीडिया के लिये 25 जून 1975 की रात के आखरी पहर में ही घना अंधेरा छा गया । असल में उसी रात जेपी यानी जयप्रकाश नारायण को गांधी पीस फाउंडेशन के दफ्तर से गिरफ्तार किया गया और जेपी ने अपनी गिरप्तारी के वक्त मौजूद पत्रकारों से जो शब्द कहे उसे समाचार एंजेसी ने जारी तो कर दिया लेकिन चंद मिनटों में ही जेपी के कही शब्द वाली खबर किल..किल..किल कर जारी कर दी गई । और समूचे आपाकताल के दौर यानी 18 महीनों तक जेपी के शब्दो को किसी ने छापने की हिम्मत नहीं की । और वह शब्द था , “ विनाशकाले विपरीत बुद्दी “ । जेपी ने 25 की रात अपनी गिरफ्तारी के वक्त इंदिरा गांधी को लेकर इस मुहावरे का प्रयोग किया था कि जब विनाश आता है तो दिमाग भी उल्टी दिशा में चलने लगता है । कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक वह रात उनके लिये वाकई खास थी । क्योंकि उनका घर रउफ एवेन्यू की सरकारी कालोनी में था। जो गांधी पीस फाउंडेशन के ठीक पीछे की तरफ थी । तो रात का बुलेटिन कर जब वह घर पहुंचे और खाने के बाद पान खाने के लिये मोहन सिंह प्लेस निकले तबतक उनके मोहल्ले में सबकुछ शांत था । लेकिन जब वापस लौटे को बडी तादाद में पुलिस की मौजूदगी देखी । एक पुलिस वाले से पूछा, क्या हुआ है। तो उसने जबाब देने के बदले पूछा, तुम किधर जा रहे है। इसपर जब अपने घर जाने की बातकही तो पुलिस वाले ने कहा देश में इमरजेन्सी लग गई है। जेपी को उठाने आये हैं। और कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक उसके बाद तो नींद और नशा दोनों ही फाख्ता हो गये। स्कूटर वापस मोड़ रेडियो पहुंच गये। रात डेढ बडे न्यूज डायरेक्टर भट साहेब को फोन किया तो उन्होने पूछी इतना रात क्या जरुरत हो गई । जब आपातकाल लगने और जेपी की गिरफ्तारी अपनी आंखों से देखने का जिक्र किया तो भट साहेब भी सकते में आ गये। खैर उसके बाद ऊपर से निर्देश या कि सुबह आठ बजे के पहले बुलेटिन में आपातकाल की जानकारी और उस पर नेता, मंत्री , सीएम की प्रतिक्रिया ही जायेगी। इस बीच पीटीआई ने जेपी की गिरफ्तारी की खबर, विनाशकाले विपरित बुद्दी के साथ भेजी जिसे चंद सेकेंड में ही किल किया जा चुका था। तो अब समाचार एंजेसी पर नहीं बल्कि खुद ही सभी की प्रतिक्रिया लेनी थी तो रात से ही हर प्रतिक्रिया लेने के लिये फोन घनघनाने लगे। पहला फोन बूटा सिंह को किया गया। उन्हें जानकारी देकर उनकी प्रतिक्रिया पूछी तो जबाब मिला, तुस्सी खुद ही लिख दो, मैनू सुनाने दी जरुरत नही हैगी। मै मुकरुंगा नहीं। इसी तरह कमोवेश हर सीएम , नेता ने यही कहा कि आप खुद ही लिख दो। कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक सिर्फ राजस्थान के सीएम सुखाडिया ने एक अलग बात बोली कि लिख तो आप ही दो लेकिन कड़क लिखना। अब कडक का मतलब आपातकाल में क्या हो सकता है यह कोई ना समझ सका। लेकिन सभी नेता यह कहकर सो गये ।

और अगली सुबह जब बुलेटिन चला तो पहली बार समाचार एजेंसी के रिपोर्टर आल इंडिया रेडियो पहुंचे। सारे नेताओ का प्रतिक्रिया लिखकर ले गये। और उसी वक्त तय हो गया कि अब देश भर में फैले पीआईबी और आलइंडिया रेडियो ही खबरों का सेंसर करेंगे। यानी पीआईबी हर राज्य की राजधानी में खुद ब खुद खबरों को लेकर दिशा-निर्देश बताने वाला ग्राउंड जीरो बन गया। यानी मौजूदा वक्त में पीआईओ के साथ खड़े होकर जिस तरह पत्रकार खुद को सरकार के साथ खडे होने की प्रतिस्पर्धा करते है वैसे हालात 1975 में नहीं थे। यह जरुर था कि सरकारी विज्ञापनों के लिये डीएवीपी के दप्तर के चक्कर जरुर अखबारो के संपादक लगाते। क्योंकि उस
वक्त डीएवीपी का बजट सालाना दो करोड़ रुपये का था। लेकिन अब के हालात में तो विज्ञापन के लिये सरकारों के सामने खबरो को लेकर संपादक नतमस्तक हो जाते हैं क्योंकि हर राज्य के पास हजारो करोड़ के विज्ञापन का बजट होता है। इसे एक वक्त हरियाणा के सीएम हुड्डा ने समझा तो बाद में राजस्थान मे
वसुधंरा से लेकर बिहार में नीकिश कुमार से लेकर दिल्ली में केजरीवाल तक इसे समझ चुके है। यानी अब खबरो को स्थायी पूंजी की छांव भी चाहिये। लेकिन अब की तुलना में चालिस बरस के कई हालात उल्टे भी थे। मसलन अभी संघ की सोच के करीबियों को रेडियो, दूरदर्शन से लेकर प्रसार भारती और सेंसर
बोर्ड से लेकर एफटीआईआई तक में फिट किया जा रहा है तो चालीस साल पहले आपातकाल लगते ही सरकार के भीतर संघ के करीबियों और वामपंथियों की खोज कर उन्हें या तो निकाला जा रहा था या हाशिये पर ढकेला जा रहा था । वामपंथी धारा वाले आंनद स्वरुप वर्मा उसी वक्त रेडियो से निकाले गये। हालांकि स
वक्त उनके साथ साम करने वालो ने आईबी के उन अधिकारियो को समझाया कि रेडियो में कोई भी विचारधारा का व्यक्ति हो उसके विचारधारा का कोई मतलब नहीं है क्योंकि खबरो के लिये पुल बनाये जाते हैं। यानी जो देश की खबरें जायेगी उसके लिये पुल वन, विदेशी खबोर क लिये पुल दू । और जिन खबरों को
लेना है जब वह सेंसर होकर पुल में लिखी जा रही है और उससे हटकर कोई दूसरी खबर जा नहीं सकती तो फिर विचारधारा का क्या मतलब। और आनंद स्वरुप वर्मा तो वैसे भी उस वक्त खबरों का अनुवाद करते हैं। क्योंकि पूल में सारी खबरें अंग्रेजी में ही लिखी जातीं। तो अनुवादक किसी भी धारा का हो सवाल तो अच्छे
अनुवादक का होता है। लेकिन तब अभी की तरह आईबी के अधिकारियों को भी अपनी सफलता दिखानी थी तो दिखायी गई। फिर हर बुलेटिन की शुरुआत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नाम से होनी चाहिये। यानी इंदिरा गांधी ने कहा है। और अगर किसी दिन कही भी कुछ नहीं कहा तो इंदिरा गांधी ने दोहराया है कि...,
या फिर इंदिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रम में कहा गया है कि.. । यानी  मौजूदा वक्त में जिस तरह नेताओ को सत्ताधारियों को कहने की जरुरत नहीं पडती और उनका नाम ही बिकता है तो खुद ब खुद ही अब तो नेताओं को खुश करने के लिये उनके नाम का डंका न्यूज चैनलों में बजने लगता है। वह चालीस बरस
पहले आपाताकाल के दबाब में कहना पड़ रहा था। फिर बडा सच यह भी है कि मौजूदा वक्त में जैसे गुजरात के रिपोर्टरों या पीएम के करीबी पत्रकारों को अपने अपने सस्थानो में जगह मिल रही है चालिस साल पहले आपातकाल के वक्त जेपी के दोलन पर नजर रखने के लिये खासतौर से तब बिहार में चाक चौबंद
व्यवस्था की गई। चूंकि रेडियो बुलेटिन ही सबकुछ होता था तो पटना में होने शाम साढे सात बजे के सबसे लोकप्रिय बुलेटिन के लिय़े शम्भूनाथ मिश्रा तो रांची से शाम छह बजकर बीस मिनट पर नया बुलेटिन शुरु करने के लिये मणिकांत वाजपेयी को दिल्ली से भेजा गया। फिर अभी जिस तरह संपादकों को अपने अनुकूल करने केलिये प्रधानमंत्री चाय या भोजन पर बुलाते हैं।

या फिर दिल्चस्प यह भी है कि चालीस बरस पहले जिस आपातकाल के शिकार अरुण जेटली छात्र नेता के तौर पर हुये वह भी पिछले दिनो बतौर सूचना प्रसारण मंत्री जिस तरह संपादकों से लेकर रिपोर्टर तक को घर बुलाकर अपनी सरकार की सफलता के प्रचार-प्रसार का जिक्र करते रहे। और बैठक से निकलकर कोई संपादक बैठक की बात तो दूर बल्कि देश के मौजूदा हालात पर भी कलम चलाने की हिम्मत नहीं रख पाता है । जबकि आपातकाल लगने के 72 घंटे के भीतर इन्द्र कुमार गुजराल की जगह विघाचरण शुक्ल सूचना प्रसारण बनते ही संपदकों को बुलाते हैं। और दोपहर दो बजे मंत्री महोदय पद संभालते है तो पीआईबी के प्रमुख सूचना अधिकारी डां. ए आर बाजी शाम चार दिल्ली के बडे समाचार पत्रा को संपादकों को बुलावा भेजते है। मुलगांवकर { एक्सप्रेस } ,जार्ज वर्गीज { हिन्दुस्तान टाइम्स },गिरिलाल जैन { स्टेटेसमैन  } , निहालसिंह {स्टेटसमैन }  और विश्वनाथ { पेट्रियाट  } पहुंचते हैं। बैठक शुरु होते ही मंत्री महोदय कहते है कि सरकार संपादकों के कामकाज के काम से खुश नहीं है। उन्हें अपने तरीके बदलने होंगे। इसपर एक संपादक जैसे ही बोलते हैं कि ऐसी तानाशाही को स्वीकार करना उनके लिये असम्भव है। तो ठीक है कहकर मंत्री जी भी उत्तर देते है कि , “ हम देखेगें कि आपके अखबार से कैसा बरताव किया जाये “ । तो गिरिलाल जैन बहस करने के लिये कहते हैं कि ऐसे प्रतिबंध तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं लगाय़े गये थे। शुक्ल उन्हें बीच में ही काट कर कहते है , “यह अंग्रेजी शासन नहीं है । यह राष्ट्रीय आपातस्थिति है “।  और इसके बाद संवाद भंग हो जाता है। और उसके बाद अदिकत्र नतमस्तक हुये। करीब सौ समाचारपत्र को सरकारी विज्ञापन बंद कर झुकाया गया। लेकिन तब भी स्टेटसमैन के सीआर ईरानी और एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका ने झुकने से इंकार कर दिया। तो सरकार ने इनके खिलाफ फरेबी चाले चलने शुरु की । लेकिन पीएमओ के अधिकारी ही सेंसर बोर्ड में तब्दिल हो गये । प्रेस परिषद भंग कर दी गई । आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक का घृणित अध्यादेश 1975 लागू कर दिया गया । यह अलग बात है कि बावजूद चालिस साल पहले संघर्ष करते पत्रकार और मीडिया हाउस आपातकाल में भी दिखायी जरुर
दे रहे थे । लेकिन चालीस साल बाद तो बिना आपातकाल सत्ता झुकने को कहती है तो हर कोई सरकारों के सामने लेटने को तैयार हो जाता है।साभार !!-:

"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...