“मारीच” नामक स्वर्णमृग की कथा हम सभी ने रामायण में पढ़ रखी है. मारीच का उद्देश्य था कि किसी भी तरह भगवान राम को अपने लक्ष्य से भटकाकर रावण के लिए मार्ग प्रशस्त करना. मारीच वास्तव में था तो रावण की सेना का एक राक्षस ही, लेकिन वह स्वर्णमृग का रूप धरकर भगवान राम को अनावश्यक कार्य में उलझाकर दूर ले गया था... नतीजा सीताहरण. वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार को एक वर्ष से अधिक हो गया है. लेकिन इस पूरे साल में लगातार यह देखने में आया है कि भारत के तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के रवैये में कोई बदलाव आना तो दूर, वह दिनोंदिन गैर-जिम्मेदार, ओछा एवं मोदी-द्वेष की अपनी पुरानी बीमारी से ही ग्रसित दिखाई दे रहा है. भारत का मीडिया भी इस समय स्वर्णमृग “मारीच” की तरह व्यवहार कर रहा है. पिछली पंक्ति में मैंने मीडिया के लिए “तथाकथित” इसलिए लिखा, क्योंकि यह मीडिया कहने के लिए तो खुद को “राष्ट्रीय” अथवा नेशनल कहता है, लेकिन वास्तव में इस नॅशनल मीडिया (खासकर चैनलों) की सीमाएँ दिल्ली की सीमाओं से थोड़ी ही दूरी पर नोएडा, गुडगाँव या अधिक से अधिक आगरा अथवा हिसार तक खत्म हो जाती है... इसके अलावा मुम्बई के कुछ फ़िल्मी भाण्डों के इंटरव्यू अथवा फिल्मों के प्रमोशन तक ही इनका “राष्ट्रीय कवरेज”(?) सीमित रहता है.
इस मीडिया को “मारीच” की उपमा देना इसलिए सही है, क्योंकि पिछले एक वर्ष से इसका काम भी NDA सरकार की उपलब्धियों अथवा सरकार के मंत्रियों एवं नीतियों की समीक्षा, सकारात्मक आलोचना अथवा तारीफ़ की बजाय “अ-मुद्दों” पर देश को भटकाना, अनुत्पादक गला फाड़ बहस आयोजित करना एवं जानबूझकर नकारात्मक वातावरण तैयार करना भर रह गया है. जिस तरह काँग्रेस आज भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार नहीं कर पा रही, ठीक उसी तरह पिछले बारह-तेरह वर्ष लगातार मोदी की आलोचना और निंदा में लगा मीडिया भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि जिस व्यक्ति के खिलाफ उन्होंने इतना दुष्प्रचार किया, आज वह देश का प्रधानमंत्री बन चुका है. विकास के मुद्दों एवं सरकार के अच्छे कामों की तरफ से देश की जनता का ध्यान बँटाने की सफल कोशिश लगातार जारी है. जैसे ही सरकार कोई अच्छा सकारात्मक काम करने की कोशिश करती है या कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय लेती है अथवा विदेश में हमारे प्रधानमंत्री कोई लाभदायक समझौता करते हैं तो इनकी समीक्षा करने की बजाय हमारा “नेशनल मीडिया”(??) गैर-जरूरी मुद्दों, धार्मिक भेदभावों, जातीय समस्याओं से सम्बन्धित कोई ना कोई “अ-मुद्दे” लेकर सामने आता है तथा ऐसी चीख-पुकार सहित विवादों की ऐसी धूल उड़ाई जाती है कि देश की जनता सच जान ही ना सके. वह समझ ही ना सके कि वास्तव में देश की सरकार ने उनके हित में क्या-क्या निर्णय लिए हैं. आईये कुछ उदाहरणों द्वारा देखते हैं इस “मारीच राक्षस” ने भाजपा सरकार के कई उम्दा कार्यों को किस प्रकार पलीता लगाने की कोशिश की है.
पाठकों को याद होगा कि कुछ माह पहले यमन नामक देश में शिया-सुन्नी युद्ध के कारण वहाँ पर काम कर रहे हजारों भारतीय फँस गए थे. इन भारतीयों के साथ विश्व के अनेक देशों के कर्मचारी भी युद्ध की गोलीबारी के बीच खुद को असहाय महसूस कर रहे थे. इनमें से अधिकाँश भारतीय केरल एवं तमिलनाडु के मुस्लिम भारतीय नागरिक हैं. ऐसी भीषण परिस्थितियों में फँसे हुए लोगों ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को लगातार ट्वीट्स करके अपनी व्यथाएँ बताईं. सुषमा स्वराज ने भारत के विदेश मंत्रालय को तत्काल सक्रिय किया, उन भारतीयों की लोकेशन पता की तथा उन्हें वहाँ के दूतावास से संपर्क करने की सलाह दी. सिर्फ इतना ही नहीं, सुषमा स्वराज ने अपने अधीनस्थ काम कर रहे पूर्व फ़ौजी और इस परिस्थिति के अनुभवी जनरल वीके सिंह को बड़े-बड़े मालवाहक हवाई जहाज़ों के साथ यमन में तैनात कर दिया. जनरल साहब ने अपना काम इतनी बखूबी निभाया कि वे वहाँ से तीन हजार से अधिक भारतीयों को वहाँ से निकाल लाए. लेकिन भारत में बैठे “मारीचों” को यह कतई नहीं भाया. जनरल सिंह साहब की तारीफ़ करना तो दूर, इन्होंने भारत में अपने-अपने चैनलों पर “Presstitutes” शब्द को लेकर खामख्वाह का बखेड़ा खड़ा कर दिया. अर्थात यमन से बचाकर लाए गए मुस्लिमों का क्रेडिट कहीं मोदी सरकार ना लूट ले जाए, इसलिए सुषमा स्वराज एवं वीके सिंह के इस शानदार काम पर विवादों की धूल उड़ाई गई...
इन “मारीच राक्षसों” ने ठीक ऐसी ही हरकत नेपाल भूकम्प के समय भारत की सेना द्वारा की जाने वाली सर्वोत्तम एवं सबसे तेज़ बचाव कार्यवाही के दौरान भी की. उल्लेखनीय है कि नेपाल में आए भूकम्प के समय खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल के प्रधानमंत्री को ट्वीट कर के सबसे पहले त्वरित सन्देश दिया था. भूकम्प की तीव्रता पता चलते ही प्रधानमंत्री कार्यालय ने तीन घंटे के भीतर भारत के NDRF को सक्रिय कर दिया तथा भारतीय सेना का पहला जत्था पाँच घंटे के अंदर नेपाल पहुँच चुका था. नेपाल में बचाव एवं राहत का सबसे बड़ा अभियान सेना आरम्भ कर चुकी थी तथा उसका नेपाल सरकार के साथ समन्वय स्थापित हो चुका था. नेपाल की त्रस्त एवं दुखी जनता भी भारत की इस सदाशयता तथा भारतीय सेना के इस शानदार ऑपरेशन से अभिभूत थी. चीन और पाकिस्तान को रणनीतिक रूप से रोकने तथा एक गरीब देश में आपदा के समय पश्चिमी मिशनरी की धूर्त धर्मान्तरण पद्धतियों को रोकने हेतु मोदी सरकार तथा भारतीय सेना ने अपना मजबूत कदम वहाँ जमा लिया था... लेकिन भारतीय मीडिया और कथित बुद्धिजीवियों को एक “हिन्दू राष्ट्र” में की जाने वाली मदद भला कैसे पचती? लिहाज़ा यह “मारीच” वहाँ भी जा धमका. गरीब उर बेघर नेपालियों के मुँह में माईक घुसेड़कर उनसे पूछा जाने लगा, “आपको कैसा लग रहा है?”, बेहद भले और सौम्य नेपालियों को कैमरे के सामने घेर-घार कर उनसे जबरिया उटपटांग सवाल किए जाने लगे. इस आपदा के समय भारतीय सेना की मदद करना तो दूर, इन मारीचों ने दूरदराज के अभियानों के समय हेलीकॉप्टरों तथा सेना के ट्रकों में भी घुसपैठ करते हुए उनके काम में अड़ंगा लगाया. ज़ाहिर है कि चीन का मीडिया इसी मौके की ताक में था, उसने जल्दी ही दुष्प्रचार आरम्भ कर दिया, नतीजा यह हुआ कि भारत सरकार तथा भारतीय सेना की इस पहल का लाभ तो मिला नहीं, उल्टा वहाँ चीन-पाकिस्तान प्रायोजित “इन्डियन मीडिया गो बैक” के शर्मनाक नारे लगाए जाने लगे. जो मीडिया इस भीषण आपदा के समय एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था, उस मीडिया के कुछ नौसिखिए और कुछ चालाक कर्मियों तथा दिल्ली के एसी कमरों में बैठकर समाजसेवा करने वाले कुछ बुद्धिजीवियों ने भारतीय सेना और मोदी सरकार की मिट्टी-पलीद करने में कोई कसर बाकी न रखी.
तीसरा उदाहरण है, बेहद चतुराई और धूर्तता के साथ गढा गया IIT_मद्रास का “अम्बेडकर-पेरियार” विवाद. जैसा कि सभी जानते हैं, मोदी सरकार द्वारा शपथ ग्रहण के पहले दिन से ही भारतीय चैनलों एवं (कु)बुद्धिजीवियों के सर्वाधिक निशाने पर यदि कोई है, तो वे हैं मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी. जिस प्रकार उन्होंने स्कूली शिक्षा, मध्यान्ह भोजन व्यवस्था में सुधार के लिए कई कदम उठाए, वर्षों से चले आ रहे भारत के सही इतिहास विरोधी पाठ्यक्रमों की समीक्षा करने तथा महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों पर नकेल कसना आरम्भ किया, उसी का नतीजा है कि वर्षों से शिक्षा क्षेत्र में काबिज “एक गिरोह विशेष” शुरू से ही बेचैन है. यह कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी गिरोह अभी तक दिल्ली के एक खास विश्वविद्यालय द्वारा अपनी घिनौनी राजनीति के साथ, समाज को तोड़ने वाले “किस ऑफ लव” अथवा “समलैंगिक अधिकारों” जैसे फूहड़ आंदोलनों के सहारे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाए हुए था. परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में किए जाने वाले सुधारों तथा डॉक्टर दीनानाथ बत्रा द्वारा भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के सच्चे प्रकटीकरण के प्रयासों ने इस बौद्धिक गैंग को तगड़ा झटका दिया. IIT-मद्रास में “आम्बेडकर-पेरियार स्टडी ग्रुप” द्वारा रचा हुआ “हाय दैया, ज़ुल्म हुआ!!” छाप राजनैतिक नाटक इसी खुन्नस का नतीजा था. जिस मामले में मानव संसाधन मंत्रालय अथवा स्मृति ईरानी का कोई सीधा दखल तक नहीं था, उसे लेकर आठ-दस दिनों तक दिल्ली में नौटंकी खेली गई. “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हनन” एवं “विचारों को कुचलने का फासीवाद” जैसे सदैव झूठे नारे दिए गए. इस मामले में इस गिरोह का पाखण्ड तत्काल इसलिए उजागर हो गया क्योंकि जहाँ एक तरफ तो वे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता की बात करते रहे, वहीं दूसरी तरफ स्मृति ईरानी द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन में हस्तक्षेप का आरोप भी लगाते रहे. “मारीचों” ने हमेशा की तरह इस मामले का भी कतई अध्ययन नहीं किया था, उन्हें “रावण” की तरफ से जैसा निर्देश मिलता रहा वे बकते रहे... उन्हें अंत तक समझ में नहीं आया कि वे स्मृति ईरानी द्वारा आईआईटी में दखल का विरोध करें या उनके द्वारा बयान किए गए स्वायत्तता के मुद्दे पर उनका घेराव करें. अंततः आठ दिन बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि सारा झमेला IIT-मद्रास का अंदरूनी झगड़ा ही था, जिसे कुछ जातिवादी प्रोफेसरों एवं सुविधाभोगी छात्रों द्वारा जबरन रंगा गया था... तब इन्होंने अपनी ख़बरों का फोकस तत्काल दूसरी तरफ कर लिया. परन्तु मोदी सरकार को यथासंभव बदनाम करने तथा मंत्रियों पर खामख्वाह का कीचड़ उछालने में वे कामयाब हो ही गए... और वैसे भी इन मारीचों का मकसद भारत की छवि देश-विदेश में खराब करना था और है, वह पूरा हुआ. हालांकि एक “सबसे तेज़” चैनल ने खुद को अधिक समझदार साबित करने की कोशिश में स्मृति ईरानी की कक्षा लेनी चाही, परन्तु उसका यह कुत्सित प्रयास ऐसा फँसा कि स्मृति ईरानी ने अपनी तेजतर्रार छवि में जबरदस्त सुधार करते हुए, एक तथाकथित पत्रकार की धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं एवं वे महोदय लाईव कार्यक्रम में पिटते-पिटते बचे.
जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी विदेश दौरे पर जाते हैं, वहाँ किसी महत्त्वपूर्ण समझौते अथवा दोनों देशों के बीच व्यापार सहमति के बारे में कोई निर्णय लेते हैं, ठीक उसी समय यहाँ भारत में “मारीच” अपना “ध्यान भटकाओ” खेल शुरू करते हैं. हाल ही की घटना का उदाहरण देना ठीक रहेगा. प्रधानमंत्री बांग्लादेश के दौरे पर गए. वहाँ पर उन्होंने पिछले चालीस वर्ष से उलझा हुआ भूमि के टुकड़े वाला विवाद समझौता करके हमेशा के लिए समाप्त कर दिया. इस समझौते में पक्ष-विपक्ष सभी की पूर्ण सहमति थी, परन्तु देश की जनता में भ्रम ना फैले इस हेतु किसी भी चैनल या प्रमुख अखबार ने इस समझौते पर कोई लेखमाला अथवा बहस आयोजित नहीं की, कि भूमि की इस अदला-बदली से दोनों देशों को किस प्रकार फायदा होगा? अथवा अभी तक दोनों देशों को क्या-क्या नुक्सान हो रहा था? इसकी बजाय नरेंद्र मोदी द्वारा ढाकेश्वरी मंदिर के दर्शन की खबरों को प्रमुखता दी गई. इसी दौरे में प्रधानमंत्री ने कोलकाता से शुरू होकर बांग्लादेश, म्यांमार होकर थाईलैंड तक जाने वाले सड़क मार्ग पर सभी देशों की आम सहमति को लेकर भी एक समझौता किया, क्या किसी चैनल ने भविष्य के लिए फायदेमंद इस प्रमुख खबर को दिखाया? नहीं दिखाया. क्योंकि इन तमाम चौबीस घंटे अनथक चलने वाले ख़बरों के भूखे बकासुर चैनलों को वास्तविक ख़बरों के लिए वाद-विवाद, प्लांट की गई खबरों, कानाफूसियों अथवा नकारात्मकता पर निर्भर रहने की आदत हो गई है.
म्यांमार से अपनी गतिविधियाँ चलाने वाले आतंकी संगठनों के एक गुट ने मणिपुर में भारतीय सेना पर हमला करके अठारह जवानों को शहीद कर दिया. इस पर चैनलों ने खूब हो-हल्ला मचाया. तमाम कथित बुद्धिजीवियों एवं मोदी-द्वेषियों ने 56 इंच का सीना, 56 इंच का सीना कहते हुए खूब खिल्ली उड़ाई... लेकिन जब कुछ ही दिनों बाद मनोहर पर्रीकर के सशक्त नेतृत्त्व एवं अजीत डोभाल की रणनीति एवं हरी झंडी के बाद भारत की सेना ने म्यांमार की सीमा में घुसकर आतंकी शिविरों को नष्ट करते हुए दर्जनों आतंकियों को ढेर कर दिया तब भारत में यही “मारीच” इस गौरवशाली खबर को पहले तो दबाकर बैठ गए. लेकिन जब सरकार और सेना ने बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति देकर इस घटना के बारे में बताया तो कहा जाने लगा कि “सेना की ऐसी कार्रवाईयों का प्रचार नहीं किया जाना चाहिए”... अर्थात इन “दुर्बुद्धिजीवियों” के अनुसार भारत की सेना के जवान मारें जाएँ तो ये खूब बढ़चढ़कर उसे दिखाएँ, लेकिन वर्षों बाद देश के नेतृत्व की वजह से सीमा पार करके हमारे सैनिकों ने जो बहादुरी दिखाई है उसकी चर्चा ना की जाए. इनका यही नकारात्मक रवैया पहले दिन से है. इसीलिए देश को NDA सरकार की अच्छी बातों की ख़बरों के बारे में बहुत देर से, या बिलकुल भी पता नहीं चलता. जबकि विवाद, चटखारे, झगड़े, ऊटपटांग बयानों, धार्मिक विद्वेष, जातीयतावादी ख़बरों के बारे में जल्दी पता चल जाता है.
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार के प्रति यह नकारात्मकता सिर्फ मीडिया अथवा संस्थानों में बैठे (कु)बुद्धिजीवी छाप “मारीच” ही फैला रहे हैं. असल में इन मारीचों को भाजपा की अंदरूनी कलह तथा सरकार में बैठे कुछ शक्तिशाली मंत्री ही ख़बरें परोस रहे हैं, खाद-पानी दे रहे हैं. विदेश मंत्री के रूप में सुषमा स्वराज की जबरदस्त सफलता तथा विदेशों में रहने वाले भारतीयों के बीच उनकी तेजी से बढ़ती लोकप्रियता भारत में कुछ खास लोगों को पची नहीं और उन्होंने ललित मोदी के बहाने सुषमा स्वराज पर तीर चलाने शुरू कर दिए. उल्लेखनीय है कि पिछले चार दशक से अधिक समय से राजनीति के क्षेत्र में रहीं सुषमा स्वराज पर आज तक भ्रष्ट आचरण संबंधी कोई आरोप नहीं लगा है. कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं से उनके मधुर सम्बन्ध हों अथवा ललित मोदी से उनके पारिवारिक सम्बन्ध हों वे हमेशा विवादों से परे रही हैं, उनकी छवि आमतौर पर साफसुथरी मानी जाती रही है. लेकिन ललित मोदी से सम्बन्धित ताज़ा विवाद में सुषमा स्वराज पर जिस तरह से कीचड़ उछाला गया और कीर्ति आज़ाद ने “आस्तीन के साँप” शब्द का उल्लेख किया वह साफ़ दर्शाता है कि इस सरकार में सब कुछ सही नहीं चल रहा. ज़ाहिर है कि “एक विशिष्ट क्लब” वाले लोग हैं, जो नहीं चाहते कि यह सरकार आराम से काम कर सके. इसीलिए सरकार में जो “मीडिया-फ्रेंडली” नेता हैं उन पर कभी कोई उँगली नहीं उठती.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में ये “मारीच” धीरे-धीरे इतने अंधे हो चले हैं कि मोदी से घृणा करते-करते वे भारत की संस्कृति और देश से ही नफरत और अपने ही देश को हराने की दिशा में जा रहे हैं. पाठकों को याद होगा कि हाल ही में राहुल गाँधी ने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि मोदी के “मेक इन इण्डिया” कार्यक्रम से सिर्फ अंडा मिलेगा. इसका अर्थ यह होता है कि राहुल गाँधी समेत सभी प्रगतिशील बुद्धिजीवी चाहते हैं कि “मेक इन इंडिया” योजना फेल हो जाए. भारत में रोजगारों का निर्माण ना हो तथा चीन के सामान भारत समेत पूरी दुनिया को रौंदते रहें. ये कैसी मानसिकता है? मारीच राक्षसों का यही रवैया “जन-धन योजना” को लेकर भी था तथा यही रवैया 330 तथा 12 रूपए वाली “जन-सुरक्षा बीमा” योजना को लेकर भी है. यानी चाहे जैसे भी हो सरकार की प्रत्येक योजना की आलोचना करो. चैनलों पर गला फाड़कर विरोध करो. बिना सोचे-समझे अपने-अपने आकाओं के इशारे पर अंध-विरोध की झड़ी लगा दो, फिर चाहे देश या देशहित जाए भाड़ में. जरा याद कीजिए कि जब देश की नौसेना ने मुम्बई-कराची के बीच पाकिस्तान की एक संदिग्ध नौका को उड़ा दिया था तब ये कथित बुद्धिजीवी और “सेमी-पाकिस्तानी” चैनल कैसे चीख-पुकार मचाए हुए थे? सभी को अचानक मानवाधिकार और अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून वगैरह याद आ गए थे. पाकिस्तान से आने वाली बोट और उसमें मरने वाले आतंकवादियों के साथ सहानुभूति दिखाने की जरूरत किसे और क्यों है? परन्तु इन मारीचों को भारत की सुरक्षा अथवा सेना की जाँबाजी से कभी भी मतलब नहीं था और ना कभी होगा. इनका एक ही मकसद है नकारात्मकता फैलाना, देश को नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक चले जाना.
अंत में हम संक्षेप में भाजपा सरकार के कुछ और महत्त्वपूर्ण निर्णयों तथा योजनाओं के बारे में देखते हैं जिन पर इन चैनलों ने अथवा स्तंभकारों या लेखकों और बुद्धिजीवियों(?) ने कभी भी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई.
१) आधार कार्ड के सहारे गैस सिलेंडरों को जोड़ने की महती योजना DBTL “पहल” (PAHAL) के कारण इस सरकार ने पिछले एक साल में लगभग दस हजार करोड़ रूपए की बचत की है जो कि इस क्षेत्र में दी जाने वाली कुल सब्सिडी अर्थात तीस हजार करोड़ का एक तिहाई है. लगभग चार करोड़ फर्जी गैस कनेक्शन पकड़े गए हैं जिनके द्वारा एजेंसियाँ भ्रष्टाचार करती थीं. क्या इस मुद्दे पर कभी किसी “बुद्धिजीवी मारीच” ने सरकार की तारीफ़ की?? नहीं की.
२) पिछले एक वर्ष में विद्युत पारेषण की कार्यशील लाईनों में 32% की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. यूपीए सरकार के दौरान अंतिम एक वर्ष में विद्युत पारेषण की जो लाईनें सिर्फ 16743 किमी ही शुरू हुई थीं, मोदी सरकार ने सिर्फ एक वर्ष में उसे बढ़ाकर 22101 किमी तक पहुँचा दिया गया है. क्या किसी अखबार ने इसके बारे में सकारात्मक बातें प्रकाशित कीं?? नहीं की.
३) वर्ष 2013-14 में यूपीए सरकार ने एक साल में सिर्फ 3621 किलोमीटर हाईवे प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी और उस पर काम आरम्भ हुआ, जबकि इस NDA सरकार ने विगत एक वर्ष में 7980 किलोमीटर हाईवे प्रोजेक्ट्स को मंजूरी देकर उस पर द्रुत गति से काम भी आरंभ कर दिया है. अर्थात पूरे 120% की वृद्धि. क्या इस काम के लिए नितिन गड़करी की तारीफ़ नहीं की जानी चाहिए? लेकिन क्या “मारीच राक्षसों” ने ऐसा किया? नहीं किया... बल्कि गड़करी के खिलाफ उल्टी-सीधी बिना सिर-पैर की ख़बरों को प्रमुखता से स्थान दिया गया.
आखिर ये (कु)बुद्धिजीवी इस सरकार के प्रति नफरत से इतने भरे हुए क्यों हैं? ऐसा क्यों है कि पिछले तेरह साल से “गुजरात 2002” नामक दिमागी बुखार इन्हें रातों को सोने भी नहीं देता? जनता द्वारा चुने हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नामक व्यक्ति से घृणा का यह स्तर लगातार बढ़ता ही क्यों जा रहा है? ऐसा क्यों है कि विभिन्न मुद्दों पर जो “गिरोह” पिछले साठ वर्ष से सोया हुआ था, अचानक उसे सिर्फ एक वर्ष में ही सारे परिणाम चाहिए? इस गैंग को एक ही वर्ष में काला धन भी चाहिए... इस सरकार के एक ही वर्ष में सभी भ्रष्टाचारियों को जेल भी होना चाहिए... वास्तव में इस “वैचारिक खुन्नस” की असली वजह है मोदी सरकार द्वारा इस गिरोह के “पेट पर मारी गई लात”. जी हाँ!!! पिछले एक वर्ष में इस मारीच के मालिक अर्थात दस मुँह वाले NGOs छाप रावण के पेट पर जोरदार लात मारी गई है. विदेशों से आने वाली “मदद”(??) को सुखाने की पूरी तैयारी की जा चुकी है. भारत में अस्थिरता और असंतोष फैलाने वाले दो सबसे बड़े गिरोहों अर्थात “ग्रीनपीस” पर पाबंदियाँ लगाई गईं जबकि फोर्ड फाउन्डेशन से उनके चन्दे का हिसाब-किताब साफ़ करने को कहा गया है. इन दो के अलावा कुल 13470 फर्जी NGOs को प्रतिबंधित किया जा चुका है. क्योंकि इनमें से अधिकाँश गैर-सरकारी संगठन सिर्फ कागजों पर ही जीवित थे. इनका काम विदेशों से चन्दा लेकर भारत की नकारात्मक छवि पेश करना तथा असंतुष्ट गुटों को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करना भर था. ज़ाहिर है कि इस सरकार की अच्छी बातें जनता तक नहीं पहुँचने देने तथा देश के प्रमुख मुद्दों से ध्यान भटकाते हुए फालतू की बातों पर चिल्लाचोट मचाना इन मारीचों की फितरत में आ चुका है. संतोष की बात सिर्फ यही है कि देश की जनता समझदार होती जा रही है. सोशल मीडिया की बदौलत उस तक सही बातें पहुँच ही जाती हैं. इन चैनलों-अखबारों की “दुकानदारी” कमज़ोर पड़ती जा रही है, विश्वसनीयता खत्म होती जा रही है, इसीलिए ये अधिक शोर मचा रहे हैं...परन्तु इन मारीचों को अंततः मरना तो “राम” के हाथों ही है.
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