Sunday, February 24, 2013

"टीका मस्तक की शोभा,या वैज्ञानिकता " ! !


तिलक-टीका: आज्ञा चक्र के भेद
योग ने उस चक्र को जगाने के बहुत-बहुत प्रयोग किये है। उसमें तिलक भी एक प्रयोग है। स्मतरण पूर्वक अगर चौबीस घण्टेु उस चक्र पर बार-बार ध्यालन को ले जाता है तो बड़े परिणाम आते है। अगर तिलक लगा हुआ है तो बार-बार ध्यासन जाएगा। तिलक के लगते ही वह स्था।न पृथक हो जाता है। वह बहुत सेंसिटिव स्थाघन है। अगर तिलक ठीक जगह लगा है तो आप हैरान होंगे, आपको उसकी याद करनी ही पड़ेगी, बहुत संवेदनशील जगह है। सम्भावत: शरीर में वि सर्वाधिक संवेदनशील जगह हे। उसकी संवेदनशीलता का स्पार्श करना, और वह भी खास चीजों से स्पेर्श करने की विधि है—जैसे चंदन का तिलक लगाना।

सैकड़ों और हजारों प्रयोगों के बाद तय किया था कि चन्दखन का क्योंग प्रयोग करना है। एक तरह की रैजोनेंस हे चंदन में। और उस स्थागन की संवेदनशीलता में। चंदन का तिलक उस बिन्दु  की संवेदनशीलता को और गहन करता है। और घना कर जाता है। हर कोई तिलक नहीं करेगा। कुछ चीजों के तिलक तो उसकी संवेदनशीलता को मार देंगे, बुरी तरह मार देंगे आज स्त्रि यां टीका लगा रही है। बहुत से बाजारू टीके है वे उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है। उनका योग से कोई लेना देना नहीं है। वे बाजारू टीके नुकसान कर रहे है। वह नुकसान करेंगे।

सवाल यह है कि संवेदनशीलता को बढ़ाते है या घटाते है। अगर घटाते है संवेदनशीलता को तो नुकसान करेंगे, और बढ़ाते है तो फायदा करेंगे। और प्रत्ये क चीज के अलग-अलग परिणाम है, इस जगत में छोटे से फर्क पड़ता है। इसको ध्याफन में रखते हुए कुछ विशेष चीजें खोजी गयी थी। जिनका ही उपयोग किया जाए। यदि आज्ञा का चक्र संवेदनशील हो सके, सक्रिय हो सके तो आपके व्योक्तिजत्व  में एक गरिमा और इन्टीकग्रिटी आनी शुरू होगी। एक समग्रता पैदा होगी। आप एक जुट होने लगते है। कोई चीज आपके भीतर इकट्ठी हो जाती है। खण्डी-खण्डत नहीं अखण्डज हो जाती है।

इस संबंध में टीके के लिए भी पूछा है तो वह भी ख्याशल में ले लेन चाहिए। तिलक से थोड़ा हटकर टीके को प्रयोग शुरू हुआ। विशेषकर स्त्रि्यों के लिए शुरू हुआ। उसका कारण वही था, योग का अनुभव काम कर रहा था। असल में स्त्रि यों का आज्ञा चक्र बहुत कमजोर चक्र है—होगा ही। क्यों कि स्त्री  का सारा व्यक्तित्व निर्मित किया गया है समर्पण के लिए। उसके सारे व्य क्तिचत्व  की खूबी समर्पण की है। आज्ञा चक्र अगर उसका बहुत मजबूत हो तो समर्पण करना मुश्किकल हो जाएगा। स्त्री  के पास आज्ञा का चक्र बहुत कमजोर हे। असाधारण रूप से कमजोर है। इसलिए स्त्री  सदा ही किसी का सहारा माँगती रहेगी। चाहे वह किसी रूप में हो। अपने पर खड़े होने का पूरा साहस नहीं जुटा पायेगी। कोई सहारा किसी के कन्धेव पर हाथ, कोई आगे हो जाए कोई आज्ञा दे और वह मान ले इसमें उसे सुख मालूम पड़ेगा।

स्त्रीप के आज्ञा चक्र को सक्रिय बनाने के लिए अकेली कोशिश इस मुल्कऔ में हुई है, और कहीं भी नहीं हुई। और वह कोशिश इसलिए थी कि अगर स्त्रीो का आज्ञा चक्र सक्रिय नहीं होता तो परलोक में उसकी कोई गति नहीं होती। साधना में उसकी कोई गति नहीं होती। उसके आज्ञा चक्र को तो स्थि र रूप से मजबूत करने की जरूरत है। लेकिन अगर यह आज्ञा चक्र साधारण रूप से मजबूत किया जाए तो उसके स्त्रैरण होने में कमी पड़ेगी। और उसमें पुरुषत्व के गुण आने शुरू हो जायेंगे। इसलिए इस टीके को अनिवार्य रूप से उसके पति से जोड़ने की चेष्टाी की गई। उसके जोड़ने का करण है।

इस टीके को सीधा नही रखा दिया गया उसके माथे पर, नहीं तो उसके स्त्री त्वर कम होगा। वह जितनी स्वटनिर्भर होने लगेगी उतनी ही उसकी कमनीयता, उसका कौमार्य नष्ट् हो जाएगा। वह दूसरे का सहारा खोजती है इसमें एक तरह की कोमलता हे। पर जब वह अपने सहारे खड़ी होगी तो एक तरह की कठोरता अनिवार्य हो जाएगी। तब बड़ी बारीकी से ख्याहल किया गया कि उसको सीधा टीका लगा दिया जाए,नुकसान पहुँचेगा उसके व्यरक्ति त्वि में,उसमे मां होने में बाधा पड़ेगी, उसके समर्पण में बाधा पड़ेगी। इसलिए उसकी आज्ञा को उसके पति से ही जोड़ने का समग्र प्रयास किया गया। इस तरह दोहरे फायदे होंगे। उसके स्त्रैजण होने में अन्त र नहीं पड़ेगा। बल्किा अपने पति के प्रति ज्याेदा अनुगत हो पायेगी। और फिर भी उसकी आज्ञा का चक्र सक्रिय हो सकेगा।

इसे ऐसा समझिए, आज्ञा का चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए, उसके विपरीत कभी नहीं जाता। चाहे गुरु से संबंधित कर दिया जाए तो गुरु के विपरीत कभी नही जाता। चाहे पति के संबंधित कर दिया जाए तो पति से विपरीत कभी नहीं जाता। आज्ञा चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत व्यक्तित्व नहीं जाता। अगर उस स्त्री  के माथे पर ठीक जगह पर टीका है तो वह सिर्फ पति तो अनुगत हो सकेगी। शेष सारे जगत के प्रति वह सबल हो जाएगी। यह करीब-करीब स्थिैति वैसी है अगर आप सम्मोसहन के संबंध में कुछ समझते है तो इसे जल्दी  समझ जायेंगे।

एक तरफ वह समर्पित होती है अपने पति के लिए। और दूसरी और शेष जगत के लिए मुक्ते हो जाती है। अब उसके स्त्रीब तत्वि के लिए कोई बाधा नहीं पड़ेगी। इसीलिए जैसे ही पति मर जाए टीका हटा दिया जाता है। वह इसलिए हटा दिया गया है। कि अब उसका किसी के प्रति भी अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा।

लोगों को इस बात का कतई ख्यागल नहीं है, उनको तो ख्या ल है कि टीका पोंछ दिया,क्योंअकि विधवा हो गयी। पोंछने को प्रयोजन है। अब उसके अनुगत होने को कोई सवाल नहीं रहा। सच तो यह है कि अब उसको पुरूष की भांति ही जीना पड़ेगा। अब उसमें जितनी स्वरतंत्रता आ जाए, उतनी उसके जीवन के लिए हितकर होगी। जरा सा भी छिद्र बल्नीरेबिलिटी का जरा सा भी छेद जहां से वह अनुगत हो सके वह हट जाए।

टीके का प्रयोग एक बहुत ही गहरा प्रयोग है। लेकिन ठीक जगह पर हो, ठीक वस्तुा का हो। ठीक नियोजित ढंग से लगाया गया हो तो ही कार गार है अन्यीथा बेमानी है। सजावट हो शृंगार हो उसका कोई मूल्‍य नहीं है। उसका कोई अर्थ नहीं है। तब वह सिर्फ औपचारिक घटना है। इसलिए पहली बार जब टीका लगया जाए तो उसका पूरा अनुष्ठाअन हे। और पहली दफा गुरु तिलक दे तब उसके पूरा अनुष्ठा न से ही लगाया जाए। तो ही परिणामकारी होगा। अन्यदथा परिणामकारी नहीं होगा।

आज सारी चींजे हमें व्यर्थ मालूम पड़ने लगी है। उनका कारण है। आज तो व्यणर्थ है। क्योंठकि उनके पीछे को कोई भी वैज्ञानिक रूप नहीं रहा है। सिर्फ उसकी खोल रह गयी है। जिसको हम घसीट रहे है। जिसको हम खींच रहे है, बेमन जिसके पीछे मन का कोई लगाव नहीं रह गया है। आत्मास को कोई भाव नहीं रह गया है, और उसके पीछे की पूरी वैज्ञानिकता का कोई सूत्र भी मौजूद नहीं है। वह आज्ञा चक्र है, इस संबंध में दो तीन बातें और समझ लेनी चाहिए क्योंवकि यह काम आ सकती है। इसका उपयोग किया जा सकता है।

आज्ञा चक्र की जो रेखा है उस रेखा से ही जुड़ा हुआ हमारे मस्तिोष्क  का भाग है। इससे ही हमारा मस्ति ष्का शुरू होता है। लेकिन अभी भी हमारे मस्ति्ष्को का आधा हिस्सास बेकार पडा हुआ है। साधारण:। हमारा जो प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली व्यिक्तिो होता है। जिसको हम जीनियस कहें, उसके भी केवल आधा ही मस्तिाष्का काम करता है। आध काम नहीं करता। वैज्ञानिक बहुत परेशान है, फिजियोलाजिस्ट बहुत परेशान है कि यह आधी खोपड़ी का जो हिस्साक है, यह किसी भी काम में नहीं आता। अगर आपके इस आधे हिस्सेे को काटकर निकाल दिया जाए तो आपको पता भी नहीं चलेगा। कि कहीं कोई चीज कम हो गई है। क्यों कि उसका ता कभी उपयोग ही नहीं हुआ है, वहन होने के बारबार है।

लेकिन वैज्ञानिक जानते है प्रकृति कोई भी चीज व्यकर्थ निर्मित नहीं करती। भूल होती है, एकाध आदमी के साथ हो सकती है। यह ता हर आदमी के साथ आधा मस्तिउष्कम खाली पडा हुआ है। बिलकुल निष्क्रि य पडा हुआ है। उसके कहीं कोई चहल पहल भी नहीं है। योग का कहना है कि वह जो आधा मस्ति ष्क  है वह आज्ञा चक्र के चलने के बाद शुरू होता है। आधा मस्ति ष्कम आज्ञा चक्र ने नीचे के चक्रों से जुड़ा है और आधा मस्ति ष्के आज्ञा चक्र के ऊपर के चक्रों से जुड़ा हुआ है। नीचे के चक्र शुरू होत है तो आधा मस्तिाष्क  काम करता है और जब आज्ञा के ऊपर काम शुरू होता है तब आधा मस्तिैष्कै काम शुरू करता है।

इस संबंध में हमें ख्यामल भी नहीं आता कि जब कोई चीज सक्रिय न हो जाए हम सोच भी नहीं सकते। सोचने का भी कोई उपाय नहीं है। जब कोई चीज सक्रिय होती तब हमें पता चला है।

ओशो
हिंदी लेखन स्वामी आनंद प्रसाद
तिलक-टीका: आज्ञा चक्र के भेद
योग ने उस चक्र को जगाने के बहुत-बहुत प्रयोग किये है। उसमें तिलक भी एक प्रयोग है। स्मतरण पूर्वक अगर चौबीस घण्टेु उस चक्र पर बार-बार ध्यालन को ले जाता है तो बड़े परिणाम आते है। अगर तिलक लगा हुआ है तो बार-बार ध्यासन जाएगा। तिलक के लगते ही वह स्था।न पृथक हो जाता है। वह बहुत सेंसिटिव स्थाघन है। अगर तिलक ठीक जगह लगा है तो आप हैरान होंगे, आपको उसकी याद करनी ही पड़ेगी, बहुत संवेदनशील जगह है। सम्भावत: शरीर में वि सर्वाधिक संवेदनशील जगह हे। उसकी संवेदनशीलता का स्पार्श करना, और वह भी खास चीजों से स्पेर्श करने की विधि है—जैसे चंदन का तिलक लगाना।

सैकड़ों और हजारों प्रयोगों के बाद तय किया था कि चन्दखन का क्योंग प्रयोग करना है। एक तरह की रैजोनेंस हे चंदन में। और उस स्थागन की संवेदनशीलता में। चंदन का तिलक उस बिन्दु की संवेदनशीलता को और गहन करता है। और घना कर जाता है। हर कोई तिलक नहीं करेगा। कुछ चीजों के तिलक तो उसकी संवेदनशीलता को मार देंगे, बुरी तरह मार देंगे आज स्त्रि यां टीका लगा रही है। बहुत से बाजारू टीके है वे उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है। उनका योग से कोई लेना देना नहीं है। वे बाजारू टीके नुकसान कर रहे है। वह नुकसान करेंगे।

सवाल यह है कि संवेदनशीलता को बढ़ाते है या घटाते है। अगर घटाते है संवेदनशीलता को तो नुकसान करेंगे, और बढ़ाते है तो फायदा करेंगे। और प्रत्ये क चीज के अलग-अलग परिणाम है, इस जगत में छोटे से फर्क पड़ता है। इसको ध्याफन में रखते हुए कुछ विशेष चीजें खोजी गयी थी। जिनका ही उपयोग किया जाए। यदि आज्ञा का चक्र संवेदनशील हो सके, सक्रिय हो सके तो आपके व्योक्तिजत्व में एक गरिमा और इन्टीकग्रिटी आनी शुरू होगी। एक समग्रता पैदा होगी। आप एक जुट होने लगते है। कोई चीज आपके भीतर इकट्ठी हो जाती है। खण्डी-खण्डत नहीं अखण्डज हो जाती है।

इस संबंध में टीके के लिए भी पूछा है तो वह भी ख्याशल में ले लेन चाहिए। तिलक से थोड़ा हटकर टीके को प्रयोग शुरू हुआ। विशेषकर स्त्रि्यों के लिए शुरू हुआ। उसका कारण वही था, योग का अनुभव काम कर रहा था। असल में स्त्रि यों का आज्ञा चक्र बहुत कमजोर चक्र है—होगा ही। क्यों कि स्त्री का सारा व्यक्तित्व निर्मित किया गया है समर्पण के लिए। उसके सारे व्य क्तिचत्व की खूबी समर्पण की है। आज्ञा चक्र अगर उसका बहुत मजबूत हो तो समर्पण करना मुश्किकल हो जाएगा। स्त्री के पास आज्ञा का चक्र बहुत कमजोर हे। असाधारण रूप से कमजोर है। इसलिए स्त्री सदा ही किसी का सहारा माँगती रहेगी। चाहे वह किसी रूप में हो। अपने पर खड़े होने का पूरा साहस नहीं जुटा पायेगी। कोई सहारा किसी के कन्धेव पर हाथ, कोई आगे हो जाए कोई आज्ञा दे और वह मान ले इसमें उसे सुख मालूम पड़ेगा।

स्त्रीप के आज्ञा चक्र को सक्रिय बनाने के लिए अकेली कोशिश इस मुल्कऔ में हुई है, और कहीं भी नहीं हुई। और वह कोशिश इसलिए थी कि अगर स्त्रीो का आज्ञा चक्र सक्रिय नहीं होता तो परलोक में उसकी कोई गति नहीं होती। साधना में उसकी कोई गति नहीं होती। उसके आज्ञा चक्र को तो स्थि र रूप से मजबूत करने की जरूरत है। लेकिन अगर यह आज्ञा चक्र साधारण रूप से मजबूत किया जाए तो उसके स्त्रैरण होने में कमी पड़ेगी। और उसमें पुरुषत्व के गुण आने शुरू हो जायेंगे। इसलिए इस टीके को अनिवार्य रूप से उसके पति से जोड़ने की चेष्टाी की गई। उसके जोड़ने का करण है।

इस टीके को सीधा नही रखा दिया गया उसके माथे पर, नहीं तो उसके स्त्री त्वर कम होगा। वह जितनी स्वटनिर्भर होने लगेगी उतनी ही उसकी कमनीयता, उसका कौमार्य नष्ट् हो जाएगा। वह दूसरे का सहारा खोजती है इसमें एक तरह की कोमलता हे। पर जब वह अपने सहारे खड़ी होगी तो एक तरह की कठोरता अनिवार्य हो जाएगी। तब बड़ी बारीकी से ख्याहल किया गया कि उसको सीधा टीका लगा दिया जाए,नुकसान पहुँचेगा उसके व्यरक्ति त्वि में,उसमे मां होने में बाधा पड़ेगी, उसके समर्पण में बाधा पड़ेगी। इसलिए उसकी आज्ञा को उसके पति से ही जोड़ने का समग्र प्रयास किया गया। इस तरह दोहरे फायदे होंगे। उसके स्त्रैजण होने में अन्त र नहीं पड़ेगा। बल्किा अपने पति के प्रति ज्याेदा अनुगत हो पायेगी। और फिर भी उसकी आज्ञा का चक्र सक्रिय हो सकेगा।

इसे ऐसा समझिए, आज्ञा का चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए, उसके विपरीत कभी नहीं जाता। चाहे गुरु से संबंधित कर दिया जाए तो गुरु के विपरीत कभी नही जाता। चाहे पति के संबंधित कर दिया जाए तो पति से विपरीत कभी नहीं जाता। आज्ञा चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत व्यक्तित्व नहीं जाता। अगर उस स्त्री के माथे पर ठीक जगह पर टीका है तो वह सिर्फ पति तो अनुगत हो सकेगी। शेष सारे जगत के प्रति वह सबल हो जाएगी। यह करीब-करीब स्थिैति वैसी है अगर आप सम्मोसहन के संबंध में कुछ समझते है तो इसे जल्दी समझ जायेंगे।

एक तरफ वह समर्पित होती है अपने पति के लिए। और दूसरी और शेष जगत के लिए मुक्ते हो जाती है। अब उसके स्त्रीब तत्वि के लिए कोई बाधा नहीं पड़ेगी। इसीलिए जैसे ही पति मर जाए टीका हटा दिया जाता है। वह इसलिए हटा दिया गया है। कि अब उसका किसी के प्रति भी अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा।

लोगों को इस बात का कतई ख्यागल नहीं है, उनको तो ख्या ल है कि टीका पोंछ दिया,क्योंअकि विधवा हो गयी। पोंछने को प्रयोजन है। अब उसके अनुगत होने को कोई सवाल नहीं रहा। सच तो यह है कि अब उसको पुरूष की भांति ही जीना पड़ेगा। अब उसमें जितनी स्वरतंत्रता आ जाए, उतनी उसके जीवन के लिए हितकर होगी। जरा सा भी छिद्र बल्नीरेबिलिटी का जरा सा भी छेद जहां से वह अनुगत हो सके वह हट जाए।

टीके का प्रयोग एक बहुत ही गहरा प्रयोग है। लेकिन ठीक जगह पर हो, ठीक वस्तुा का हो। ठीक नियोजित ढंग से लगाया गया हो तो ही कार गार है अन्यीथा बेमानी है। सजावट हो शृंगार हो उसका कोई मूल्‍य नहीं है। उसका कोई अर्थ नहीं है। तब वह सिर्फ औपचारिक घटना है। इसलिए पहली बार जब टीका लगया जाए तो उसका पूरा अनुष्ठाअन हे। और पहली दफा गुरु तिलक दे तब उसके पूरा अनुष्ठा न से ही लगाया जाए। तो ही परिणामकारी होगा। अन्यदथा परिणामकारी नहीं होगा।

आज सारी चींजे हमें व्यर्थ मालूम पड़ने लगी है। उनका कारण है। आज तो व्यणर्थ है। क्योंठकि उनके पीछे को कोई भी वैज्ञानिक रूप नहीं रहा है। सिर्फ उसकी खोल रह गयी है। जिसको हम घसीट रहे है। जिसको हम खींच रहे है, बेमन जिसके पीछे मन का कोई लगाव नहीं रह गया है। आत्मास को कोई भाव नहीं रह गया है, और उसके पीछे की पूरी वैज्ञानिकता का कोई सूत्र भी मौजूद नहीं है। वह आज्ञा चक्र है, इस संबंध में दो तीन बातें और समझ लेनी चाहिए क्योंवकि यह काम आ सकती है। इसका उपयोग किया जा सकता है।

आज्ञा चक्र की जो रेखा है उस रेखा से ही जुड़ा हुआ हमारे मस्तिोष्क का भाग है। इससे ही हमारा मस्ति ष्का शुरू होता है। लेकिन अभी भी हमारे मस्ति्ष्को का आधा हिस्सास बेकार पडा हुआ है। साधारण:। हमारा जो प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली व्यिक्तिो होता है। जिसको हम जीनियस कहें, उसके भी केवल आधा ही मस्तिाष्का काम करता है। आध काम नहीं करता। वैज्ञानिक बहुत परेशान है, फिजियोलाजिस्ट बहुत परेशान है कि यह आधी खोपड़ी का जो हिस्साक है, यह किसी भी काम में नहीं आता। अगर आपके इस आधे हिस्सेे को काटकर निकाल दिया जाए तो आपको पता भी नहीं चलेगा। कि कहीं कोई चीज कम हो गई है। क्यों कि उसका ता कभी उपयोग ही नहीं हुआ है, वहन होने के बारबार है।

लेकिन वैज्ञानिक जानते है प्रकृति कोई भी चीज व्यकर्थ निर्मित नहीं करती। भूल होती है, एकाध आदमी के साथ हो सकती है। यह ता हर आदमी के साथ आधा मस्तिउष्कम खाली पडा हुआ है। बिलकुल निष्क्रि य पडा हुआ है। उसके कहीं कोई चहल पहल भी नहीं है। योग का कहना है कि वह जो आधा मस्ति ष्क है वह आज्ञा चक्र के चलने के बाद शुरू होता है। आधा मस्ति ष्कम आज्ञा चक्र ने नीचे के चक्रों से जुड़ा है और आधा मस्ति ष्के आज्ञा चक्र के ऊपर के चक्रों से जुड़ा हुआ है। नीचे के चक्र शुरू होत है तो आधा मस्तिाष्क काम करता है और जब आज्ञा के ऊपर काम शुरू होता है तब आधा मस्तिैष्कै काम शुरू करता है।

इस संबंध में हमें ख्यामल भी नहीं आता कि जब कोई चीज सक्रिय न हो जाए हम सोच भी नहीं सकते। सोचने का भी कोई उपाय नहीं है। जब कोई चीज सक्रिय होती तब हमें पता चला है।

ओशो

हिंदी लेखन स्वामी आनंद प्रसाद
                     

क्यों मित्रो !! आपका क्या कहना है ,इस विषय पर...??
प्रिय मित्रो, ! कृपया आप मेरा ये ब्लाग " 5th pillar corrouption killer " रोजाना पढ़ें , इसे अपने अपने मित्रों संग बाँटें , इसे ज्वाइन करें तथा इसपर अपने अनमोल कोमेन्ट भी लिख्खें !! ताकि हमें होसला मिलता रहे ! इसका लिंक है ये :-www.pitamberduttsharma.blogspot.com.

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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

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