Wednesday, October 30, 2013

"दोहे-नेता का श्रृंगार" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') ......sabhaar !!


अगवाड़ा भी मस्त हैपिछवाड़ा भी मस्त।
अपने नेता ने कियेकीर्तिमान सब ध्वस्त।१

अगवाड़ा भी मस्त है, पिछवाड़ा भी मस्त।
अपने नेता ने किये, कीर्तिमान सब ध्वस्त।१।
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जोड़-तोड़ के अंक से, चलती है सरकार।
मक्कारी-निर्लज्जता, नेता का श्रृंगार।२।
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तन-मन में तो काम है, जिह्वा पर हरिनाम।
नैतिकता का शब्द तो, हुआ आज गुमनाम ।३।
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सपनों की सुन्दर फसल, अरमानों का बीज।
कल्पनाओं पर हो रही, मन में कितनी खीझ।४।
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किसका तगड़ा कमल है, किसका तगड़ा हाथ।
अपने ढंग से ठेलते, अपनी-अपनी बात।५।
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अपनी रोटी सेंकते, राजनीति के रंक।
कैसे निर्मल नीर को, दे पायेगी पंक।६।
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कहता जाओ हाट को, छोड़ो सारे काज।
अब कुछ सस्ती हो गयी, लेकर आओ प्याज।७।
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मत पाने के वास्ते, होने लगे जुगाड़।
बहलाने फिर आ गये, मुद्दों की ले आड़।८।
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तन तो बूढ़ा हो गया, मन है अभी जवान।
सत्तर के ही बाद में, मिलता उच्च मचान।९।
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क्षीण हुआ पौरुष मगर, वाणी हुई बलिष्ठ।
सीधी-सच्ची बात को, समझा नहीं वरिष्ठ।१०।
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खा-पी करके हो गया, ये तगड़ा मुस्तण्ड।
अब जन-गण को चाहिए, देना इसको दण्ड।११।

4 comments:

  1. फगवाड़ा भी मस्त है, छिंदवाड़ा भी मस्त |
    कहीं अकाली लड़ रहे, कहीं कमल अभ्यस्त |

    कहीं कमल अभ्यस्त, कहीं हो रहे धमाके |
    देते गलत बयान, दुलारे अपनी माँ के |

    जाती नीति बिलाय, धर्म हो जाता अगवा |
    रही दुष्टता जीत, खेलती घर घर फगवा ||

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  2. एक थाली के चट्टे बट्टे
    सारे नेता होते है ॥
    माल हड़प खुद कर जाते है
    फिर डनलप पर सोते है ॥
    वोट माँगने घर घर आते ॥
    वादे की झड़ी लगाते है ॥
    जीत जाने पर भूल जाते है ॥
    वापस फिर नहीं आते है ॥
    उनके खातिर जो डण्डे खाये ॥
    बाद में वे भी रोते है ॥
    माल हड़प खुद कर जाते है
    फिर डनलप पर सोते है ॥
    मंदिर मस्जिद का भेद बता कर ॥
    जनता को लड़वाते है ॥
    लाशें जब खूब बिछ जाती है
    उसके बाद दिखाते है ॥
    सोच समझ कर वोट दो यारो ॥
    इसमे काफी खोटे है॥
    माल हड़प खुद कर जाते है
    फिर डनलप पर सोते है ॥

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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

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