Saturday, May 6, 2017

मित्रों की अनमोल बातें !! - पीताम्बर दत्त शर्मा (स्वतंत्र टिप्पणीकार)

Jyoti Singh-
#कश्मीर घाटी में आधी आबादी भी तथाकथित आजादी के लिए, हाथ में पत्थर लिए सडको पर उतर आई है !आज़ादी की पैरोकार ये महिलायें कट्टरपंथी संगठन दुख्तराने-मिल्लत की उस प्रतिबन्ध पर मुंह ढक लिया , कि सभी महिलाए बुर्कानशीं हो जाए !
बुर्का विद पत्थर एक मूवी बननी चाहिए , साथ तलाक का तड़का !
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क्या ईमानदार आदमियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो जाना चाहिए?टिकेट नेता नहीं देते,वोट जनता नहीं देती और पैसे उनके पास होते नहीं।बस एक मुंह होता है जिससे वो बोलते रहते हैं।मुझे ही देख लो!😊
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मोबाइल नंबर
हे समाज बता
कहां गया तेरा पता
विकास के नाम पर
गली, मुहल्ला
और घर खो गया है
आदमीं अब सिर्फ
मोबाइल नंबर हो गया है।
-डा विवेक सक्सेना
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जिसने दुर्भाग्य से सरकार द्वारा तय ऊँची जाति
में जन्म ले लिया, पर आर्थिक स्थिति उसकी इतनी भी नहीं कि वह प्रतिदिन अपने पेट में दो जून अन्न पहुँचा सके,कपड़े लत्ते इलाज़ शिक्षा की बात तो केवल उसके सपनों में होता है। उसके पास साधन नहीं होते पर आगे बढ़ने के सपनों को वह मार उजाड़ नहीं पाता...
आज के दिन में उससे बड़ा दलित शोषित मजबूर और मज़लूम भी कोई है??
लेकिन कभी सुना है गाँवों शहरों में जीने की जद्दोजहद में फँसे,हर तरह के टैक्स देते इस वर्ग ने कभी नक्सलियों जिहादी आतंकवादियों की तरह बन्दूकें उठा ली हो और निकल चला हो रक्त से धरा को रंजित करते समानांतर सरकार बनाने और चलाने के अभियानों में।
कभी आज़माते इस वर्ग/समूह को आप क्रान्ति की जरूरत अच्छी तरह समझाते, अत्याधुनिक हथियार खरीदने को धन दीजिये और यह छूट भी दीजिये कि उस धन का उपयोग वह अपने विवेक से करे।
भाई साहब, दावा है हमारा,उस पैसे का उपयोग वह अपने बच्चों के शिक्षा,उनके लिए छत और भोजन के लिए कर देगा(वैसे मुझे पक्का यक़ीन है कि अगर आदिवासी/नक्सलियों आदि को भी धन देकर विवेक का यह अधिकार आप दीजियेगा तो वह भी यही करेगा,वह नहीं जो आज मजबूरी में वह कर रहा है)। यही नहीं, यदि आप इस भय से कि कहीं वह आपके दिए अस्त्र ख़रीद के पैसे का उपयोग उक्त प्रयोजन में न करेगा,आप सीधे उसे अस्त्र ही दे दें,तो भी बड़ी संभावना है कि वह उस अस्त्र को बेच अपने लिए वही करने का प्रयास करेगा जिसमें उसके परिवार के शान्तिमय उज्ज्वल भविष्य की संभावना है।
खूब समझा लिया आपने कि स्कूल कॉलेज सड़क थाने उड़ाते, सेना पुलिस को मारते(जो कि इन्हीं की तरह वेतनभोगी अतिसाधारण/विपन्न परिवारों के सदस्य होते हैं), ये भूखे नंगे पीड़ित प्रताड़ित बेचारे आदिवासी हैं,जिन्होंने त्रस्त होकर प्रतिकार को अस्त्र धारण किया है।
हे वामी वामिनियों,,,आपको क्या लगता है,कबतक आप यह झूठ लोगों के भेजे में ठूँसे अटकाए रखने में सफल रहिएगा? आपको नहीं लगता कि आपकी काठ की हाँडी जल कर लगभग कोयला हो ही चली है,बस अब वह राख होनी और हवा संग उड़ जाना बाकी है,जिसमें सदियों नहीं लगने हैं।जैसे जैसे राष्ट्र जगेगा,आप राख बन उड़ेंगे।
...
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निर्भया के बहाने मानसिकता का विश्लेषण
कल बहुचर्चित और हम सबको आक्रोशित कर देने वाले निर्भया कांड का निर्णय आया. स्वाभाविक है स्वागत ही हुआ होगा! इस निर्णय के आने से हम सभी की आत्मा में ठंडक मिली होगी. निर्भया क्यों? और इस जघन्य काण्ड के लिए अपराधी कौन? कल जब से अपराधियों के वकीलों की दलीलें सुनी हैं, या उससे पहले भी वकीलों की दलीलें सुनी, कि मृत्युदंड रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस में दिया जाना चाहिए, तो क्या किसी भी लड़की के साथ बलात्कार रेयर केस में आता है या रेयरेस्ट ऑफ द रेयर में पता नहीं? मुझे नहीं पता यह कौन सी मानसिकता है जों लड़कों को किसी भी लड़की का बलात्कार कर देने के लिए प्रेरित या उत्प्रेरित करती है? बलात्कार ह्त्या से भी घिनौना कार्य है, बलात्कार के बाद लड़की यदि जिंदा रह जाए तो पूरी ज़िन्दगी या तो वह गुमनामी में जिएगी या फिर वह जिंदा भी रहेगी तो एक अपराधबोध के चलते. किसी भी लड़की की पूरी ज़िन्दगी नष्ट करने के बाद न जाने किस मुंह से लोग इन लोगों के मानवाधिकार की बात करते हैं? क्या इन लड़कियों का कोई अधिकार नहीं? जब मैं ये बात लिख रही हूँ, तब मैं शायद यह नहीं जान पाती कि स्त्री को मानव ही नहीं माना जाता तो उसके मानवाधिकार क्या होंगे? वह यातो देवी है या दासी, और दोनों ही स्थितियों में वह मानवपन से कोसों दूर? उसके मानवाधिकार क्या? और क्यों? यह बहस का मुद्दा है! निर्भया कांड के बाद, जैसी मेरी आदत है लोगों से बात करने की, मैं कई लोगों से बाते करती थी, जानबूझ कर इस बात को उठाती थी. कई बातें निकल कर आईं थी मेरे सामने
“बहुत गलत हुआ! बहुत ही, मगर जरूरत क्या थी, इतनी रात को जाने की?”
“बहुत गलत हुआ, मगर आप देखिये, इस बस में बैठने की क्या जरूरत? और वो भी बैक सीट पर? सुनते हैं, वो लोग कुछ कर रहे थे! लड़के थे बाकी, उत्तेजित हो गए, लड़के को फ़ेंक दिया और लड़की को यूज़ कर लिया! अब क्या बुरा किया?”
“बहुत गलत हुआ, फांसी देनी चाहिए, मगर लड़कियों को सोचना चाहिए न कि घर से बाहर न निकलें, रात में? अरे रात में तो देव भी सो जाते, तो लड़की जात की क्या बिसात”
“बहुत गलत हुआ, अब लड़कियों को तो घर पर बैठाने का ही समय है!”
लब्बोलुआब ये कि समय गलत है, लड़कियां घर पर बैठें, लडकियां रात में बाहर न निकलें! जितने लोगों से बात करती गयी, समाज की मानसिकता की ऐसी सडांध बाहर आती गयी कि पूछिए न! सबसे ज्यादा लोगों का सवाल आखिर वह रात में निकली क्यों? रात में बाहर निकलने का अधिकार छीनने वाले कुछ लोग क्यों? क्यों हर बलात्कार के बाद लड़कियों के ये न करो, वो न करो के नियम बनाए जाने लगते हैं? क्यों बलात्कार के लिए प्रेरित करने वाली मानसिकता पर वार नहीं होता? लड़की को वस्तु या रात को बाहर निकलने वाली, या छोटे कपडे वाली लड़की को सुलभ समझने वाली मानसिकता से बाहर हम नहीं निकल पाते? सुलभता के सिद्धांत को अपने अनुसार विश्लेषित करने की जो सुविधा है, उसे आपको मारना होगा? लड़की सुलभ नहीं है, लड़की की न ही है! मगर जहां परिवारों में बच्चा पैदा होने के बाद जब स्त्री प्रसव पीड़ा से पूरी तरह उभर न पाए और फिर से सेक्स मशीन बन जाए, वहां पर स्वस्थ स्त्री की न का सम्मान करने की कल्पना? भूल ही जाएं! जहां पर स्त्री के साथ अभी भी यह कहकर शाब्दिक बलात्कार होता है “वो तो शुक्र मनाओ, हम जैसे मिले हैं, मिला होता कोई जूते मारने वाला या नंगा रखकर पोंछा लगवाने वाला, तो पता चलता, तब तुम्हारा मुंह खुलता!” उसमें निर्भया के अपराधियों के प्रति लगाव कोई असहज नहीं है, और मैं बस यही गुनगुनाती हूँ, जब स्त्री की न को सम्मान मिलेगा, वह सुबह कभी तो आएगी, मैं उस सुबह के इंतजार में हूँ, मैं उस सुबह के इंतजार में हूँ!
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                         मैं बड़े ही गर्व के साथ कह सकता हूँ की मेरे ब्लॉग को माननीय प्रधानमंत्री श्री मान नरेंद्र मोदी जी और माननीय राष्ट्रीय अध्यक्ष भाजपा श्री मान अमित शाह जी भी पढ़ते हैं !उन्होंने मुझे ट्वीट भी किये हैं ! कई बड़े लेखक और लेखिकाएं,कवी-कवित्रियाँ और स्वतंत्र टिप्पणीकार आदि भी जुड़े हैं जिससे मैं अपने आपको गौरवान्वित समझता हूँ !आशा करता हूँ की आप सबका मुझे और ज्यादा साथ मिलेगा ! फिर मैं बारी बारी से आप सबके शहरों में आकर मिलूंगा !आपसे और ज्यादा सीखूंगा !
                           आप सबसे अनुरोध है कि आप मुझे अपने अनमोल सुझाव देते रहा करें !
                               सधन्यवाद !
                                                  आपका अपना ,
                                                   पीताम्बर दत्त शर्मा,
                                                     सूरतगढ़ !

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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...