खुलासा कर देना आवश्यक है कि और सज्जन होते होंगे, किन्तु मै जन्मजात कवि नहीं था. बल्कि उल्टे मुझे कविता से डर लगता था (उस कविता से नहीं, जिसका जिक्र आगे है). कविता के रूप में मैने जो पहला गाना ध्यान से सुना था, वह था- “मै जट यमला पगला दीवाना, इत्ती सी बात न जाना”. मैं इस गाने को अक्सर गुनगुनाता रहता था. एक दिन मुहल्ले के पँडितजी पैसे उधार लेने पिताजी के पास आए. वह पोथी बाँचने से लेकर मस्तक देख कर भाग्य बताने देने वाले कई कार्य सम्पादित कर लेते थे, सो वातावरण को ‘फेवरेबल' बनाने चक्कर मे हाथ देख कर भूत-भविष्य बताने का ‘प्रोटोकॉल' करने लगे. उन्होंने इसका श्रीगणेश एक बालक से, यानी मेरा हाथ देख करना चाहा. मेरे हाथ पर दृष्टिपात करते ही घोषित कर दिया- "यह तो अति होनहार बालक है. बड़ा होकर एक कवि बनेगा, अच्छेलाल दूबेजी!'' घृणा और अपमान बोध से त्रसित होकर मैने तुरन्त अपना हाथ छुड़ा लिया और शौचालय के अंदर जाकर दरवाजे की चिटकिनी लगा कर रोने लगा- “हे दैव, क्या मै भी कविता और गीत ही लिखूंगा.. मैं भी? हे पालनकर्ता, क्या मुझे भी (स्वीकारोक्ति) में गाना पड़ेगा- मै काला, गिट्ठा, हकला- इत्ती सी बात...” मुझसे गाया न गया, रोने की आवाज को कंठ में दबाते हुए तो कदाचित स्वर्गवासी सर्वश्री रफ़ी मुहम्मद और मुकेश माथुर भी न गा पाते- मैं तो सुर में कभी रोया तक नहीं था.
विधि का विधान! दो साल सात महीने के बाद सड़क के उस पार – मेरे मकान के सामने एक लाला जगमल हाथ मे लोटा लिए हमारे मुहल्ले को लूटने आ गए. पूर्व-प्रायोजित कार्यक्रम के अनुसार उनका परिवार भी छह महीने के बाद आ गया. और, कविता भी आ गई- जो मुझसे दो बरस छोटी थी. हाय, क्या नाक-नक्श थे, क्या आँखें थीं, और क्या होंठ (पता नहीं अब कैसे हो गए होंगे यह सब?) उसे देख कर मेरी उम्र के सभी लड़के उसके दीवाने हो गए- मुझे मिला कर. सभी लड़कों एवं मुझमे एक अन्तर था. बाकी सभी लड़के बहिर्मुखी थे- उससे बातें करना, उसके पास जाना चाहते थे. किन्तु मैं अन्तर्मुखी था- यदि उसे देखना भी होता- तो खिड़की के सामने पीठ करके, हाथ मे शीशा लेकर अपना मुँह देखने के बहाने उसे देखा करता. और सभी लड़के उसके पिताजी का नाम लेते हुए जगमल मे से ‘ज' शब्द हटाकर ‘ह’ लगा देते थे. किन्तु मै स्पष्टतः ‘जगमल’ ही कहता. शायद लड़कियाँ मनो वृ (विकृ) त्ति को भाँपने-जानने मे अत्यन्त कुशल होती हैं, अतः कविता ने सब समझ-बूझ लिया था. मैं काला, गिट्ठा और हकला- उसे भा गया था (यह मैंने कुछ देर से जाना था). वह मेरी ओर देखती तो एक अदा से आँखें झुका लेती, मुस्कुराती तो ऐसे कि मै रात भर इसी उधेड़-बुन मे पड़ा रहता कि जालिम मुस्कुराई थी भी कि नहीं!
लाला जगमल के किराने की दूकान पर घरेलू जरूरत का हर सामान मिलता था- आटा-दाल, तेल-मसाले से लेकर हरी सब्जियां तक. उस दुकान में आते-जाते मैने नोट किया कि कभी कुछ सामान लेने जाता तो अन्दर कमरे से निकल कर कविता आ जाती और अपने पिताजी को किसी न किसी बहाने से उठा कर- मेरा सामान खुद देने लगती. मै मीठी चीजों का शौक़ीन था, अक्सर मिस्री खरीदने जाया करता था. एक दिन ढाई सौ ग्राम मिश्री माँगी तो कविता मेरी आंखों में आंखें डाल कर बोली- "तुमने कभी लहसुन-प्याज नहीं खरीदा, क्या खाते नहीं?'' मैने आँखें नीची कर ली और ऊत्तर दिया- "हम लोग ब्राम्हण हैं... यह सब नहीं खाते. पिताजी कहते हैं कि तामसी चीजें खाने से...'' मेरी बात काटते कविता बोली- "बस, बस! अरे मैं तभी कहूं... आज से ठंडी चीज़ें खानी बन्द.'' मेरे ना-ना करते रहने पर भी उसने लहसुन-प्याज के साथ बहुत सारे गरम-मसाले भी दे दिए और बोरी थमाते हुए कुछ डाँटती सी बोली- "खाया-पिया करो, मुंह क्या देखते हो? अब जल्दी जाओ, पैसे फिर आ जाएंगे.'' घर आकर मैने लहसुन-प्याज और गरम-मसाले से भरी बोरी एक ओर रख दी और सोच मे पड़ गया. कविता-रूपि कोहेकाफ की हूर तो राजी थी लेकिन जलिम जिन्न और उसके प्यादों के सामने मेरी क्या औकात थी? न मेरे बाजू फौलाद के थे, न इरादे चट्टान की तरह! मुझे लगा कि इरादा तो बहुत दूर की बात है, अभी तो सोच तक पूरी नहीं है. केवल एक झिलमिलाता-टिमटिमाता सपना भर है! जो भी हो, मुझे लहसुन-प्याज और गरम-मसाले खाकर ताकत जुटाने की हिम्मत नहीं हुई और ठंडे पानी से नहा कर सो गया. हॉ, मैने दूकान पर जाना अवश्य कम कर दिया.
एक दिन मुझे नमक लेने जाना पड़ गया. मुझे आया देख कविता जाने कहाँ से आ गई और अपने पिताजी से बोली कि अन्दर घर में बिच्छू दिखा है. लाला जगमल फौरन से पेश्तर तराजू रख कर तथा-प्रायोजित बिच्छू को ढूंढने अन्दर चले गए और कविता मुझे सामान देने लग गई. घर आकर देखा तो पाया कि गलती से उसने चीनी दे दी है. मै वापस करने गया तो पाया कि लाला जगमल अन्दर के कमरे में बिच्छू नहीं ढूंढ पाए थे, गद्दी पर अभी तक कविता ही बैठी हुई है. मै लिफाफा वापस करते बोला कि नमक की जगह चीनी दे दिया है तो बड़ी सादगी से बोली- “मालूम है, लाओ नमक दे देती हूं.” मै नमक लेकर दूकान से चलने लगा तो बोली- “अरे, नमक को छोड़, कुछ चीनी-गुड़ की भी सोच लिया कर. पहले ही तुझमे इतना नमक भर रखा है कि बुरा हाल कर रखा है. और सुन- अभी मै ही बैठी मिलूंगी, अभी घन्टे भर तक अंदर कमरे में पिताजी की ढूंढ-ढाँढ चलेगी. कोई बिच्छू-विच्छू होगा तभी मिलेगा न- समझा?” मैं यह बात तो नहीं समझ पाया, और साथ ही वह बात भी नहीं कि- मेरे बताने से पहले ही उसे कैसे पहले मालूम था कि नमक के बदले चीनी दे दिया गया है! जब लगभग एक हफ्ते के बाद बातें समझ मे आर्इं, तो मै घबरा-शरमा गया. घबराया इसलिए कि कुछ-कुछ ताल ठोकने जैसी बात होने जा रही थी, और शरमाया इसलिए कि हिम्मत मेरी जगह एक लड़की- वह कविता दिखा रही थी. थोड़ा-बहुत लहसुन-प्याज और गरम-मसाले खा चुका था, सो फलस्वरूप अक्सर दूकान पर चला जाया करता और हाथ मे पकड़ा लिफाफा वापस करता बोलता- मैंने धनिया कहा था, तुमने जीरा दे दिया है! कविता मेरी बात सुनकर उसी चिर-परिचित अन्दाज मे मुस्कुरा देती और मै चक्करघिन्नी बन जाता.
एक दिन भाग्य ने अपना पाँसा फेंका और मै झाँसा खा गया (कवि बनने की ओर अग्रसर, भाग्य-लेखानुसार). उस दिन टी.वी. पर रुखसाना सुल्तान को समाचार पढ़ते देख, उसका मुकाबला अपनी कविता से करने लगा. मन ने यही कहा- ऐ रुखसाना, यदि तुम समचार की पँक्तियाँ हो तो मेरी कविता एक महाकाव्य है! शाम होते-होते भाग्य और प्रबल हो गया और फलस्वरूप मै कुछ-कुछ कवियाने लगा. मूंछ के साथ पूंछ, लोटा के साथ सोटा और जूता के साथ कुत्ता जैसे काफिए बनाने के बाद पहली छोटी कविता बनी- “तू राजकुमारी है, मुझे इज्जत प्यारी है.” बहुत आनन्द आया- इसमे कविता के साथ यथार्थ भी था, इसलिए.
होली वाले दिन जो कविता ने जो कुछ किया, उसे शब्दों में ढालने की बेकार सी कोशिश ऐसे है- उन दिनों होली की हुडदंग बहुत आफत ढाने वाली होती थी. मेरे जैसे डरने वाले कुछ लोग (मेरी उम्र के लड़के नहीं) घर से बाहर निकलने से घबराते थे. मै तो बाकायदा अंदर से कुंडी लगाकर रेडियो सुन रहा था. दरवाजे पर थाप सुनी तो खोला और पाया कि मुंह पर मुखौटा पहने पहने कोई खड़ा है. इसके पहले कि पूछूं, आवाज आयी- “अरे, आज भी नखरे दिखायेगा कि अंदर आने को रास्ता देगा.” कविता ने यह बात कही भर थी, उत्तर सुनने के लिए प्रश्न नहीं किया था. अंदर आकार उसने सिटकिनी बंद कर मुझे एक थैला दिया और बोली- “ले, जल्दी से पहन ले जाकर बाथरूम में.” मुझे जैसे किसी पाश में बाँध लिया था किसी ने, मै कुछ बोले बगैर बाथरूम में गया और थैले में से सामान निकाला. साड़ी, ब्लाऊज, चूड़ी और टीका आदि देखकर मुझे हंसी आ गई, कविता ने अपने पहनने का सामान मुझे थमा दिया था. मै मुस्कुराता कविता के पास आया तो उसे देख सन्न रह गया! उसने टूटा-फूटा ही सही- कृष्ण का रूप धारण कर लिया था. बालों में ऊपर फंसे मोर-पंख, कानों में मोटे कुंडल और हाथ में थामी छोटी सी बांसुरी ही काफी थी, कविता ने अपने दूध-सिन्दूर के बदन पर जहां-तहां राख मलने का भी उपक्रम कर डाला था. मेरे मन में कितनी बिजलियां कड़कीं,कितने बायलर दहके, यही सब तो ठीक से नहीं लिख पाने की बात पहले ही कर चुका हूं. मैने उसके दिए राधा के कपड़े नहीं पहने तो क्या, कृष्ण-रूपि कविता को सामने देख मै इतना अधिक शरमा गया जितना असली राधा भी नहीं शरमाती. मुझे लकड़ी की तरह निश्चल खड़ा पाकर बोल उठी- “कपड़े तो तूने राधा के पहने नहीं, फिर शरमा क्यों रहा है उसकी तरह? मैंने किशन का भेस धर तो लिया है, हरकत भी करनी पड़ेगी अब, बोल?” मै क्या बोलता (राधा क्या बोलती?), उसने “होली रे आज बिरज में” कहते हुए मुझे अपनी बाहों में भर लिया और मेरे मुंह पर लगी धूल-मिट्टी और सारी गंदगी साफ़ कर दी. बोली, “मजा तो नहीं आया,लेकिन इससे आगे मेरे वश में नहीं. तू सोचियो कुछ... राधे राधे.” कह कर मेरे कुछ कहने से पहले ही बाहर निकल गई.
मेरे जीवन मे होने वाली दुर्घटनाओं मे से- विधाता ने जो जबसे घातक लिखी थी, वह घटित हो गई. थाने मे एक नया थानेदार आया था- आजम खाँ. असली पठान था- गोरा-चिट्टा, लम्बा-रोबीला! वह न तो एक पैसे की रिश्वत लेता था, न ही अपराधियों से किसी किस्म की मुरौव्वत करता था. जहिर है, उसके घर का सारा राशन-पानी लाला जगमल की दूकान से ही आता था. एक दिन आजम खाँ के घर बासमति चावल भेजना था. बिजली न होने कारण लालाजी ने गलती से- चावल की बोरी में मिलाने के लिए बगल में रखा हुआ कंकड़ को ही पाँच किलो तौल कर भेज दिया. थानेदार आजम खाँ को कंकड़ों का पुलाव खाने का आइडिया पसन्द नहीं आया, उसने सदल-बल दूकान पर दबिश डाल दी. लाला जगमल मिलावट करने के जुर्म मे हवालात चले गए. दो दिन के बाद जमानत पर छूटे तो अपना वही पुराना लोटा उठाकर परिवार सहित कहीं और प्रस्थान कर गए- मेरी कविता की कलाई पकड़े!
भाग्य अपना चक्र पूरा कर चुका था- विश्राम लेते हुए मुझे पूर्ण-कालिक कवि बना डाला. अब कविता की जुदाई एक तरफ और जमाने की खुदाई दूसरी ओर. मेरा रो-रोकर बुरा हाल हो गया. मुँह से जो भी निकलता, तुकबन्दियों के रूप मे. जब मुँह बन्द होता तो मै अन्य आचरणों मे लग जाया करता. कभी टूथपेस्ट निकाल कर बड़े मनोयोग से चेहरे पर हल्की मालिश करने लगता अथवा कभी ‘आयोडेक्स’ या ‘बरनोल’ लगा कर ब्रश करने लग जाता. मुझे इस कलाप का पता भी नहीं चलता, अगर स्टॉक समाप्त नहीं हो जाता. मै केमिस्ट की दूकान पर गया और बोला कि टूथ-पेस्ट दे दो. उसने ‘कोलगेट’ की ट्यूब थमाई तो मै नाराज हो गया और झिड़क कर बोला- कमाल के दूकानदार हो! मैने चेहरे पर लगाने वाली क्रीम नहीं माँगी थी, यह क्या है? उसका खुला मुंह जब बहुत देर तक बन्द नहीं हुआ तो मैने उसके पागलपन पर माथा पीटते हुए उस पीली-पीली सी चीज के बारे मे बताया. अब उसके माथा पीटने का टर्न आ गया था, बोला- “बाबूजी, वह मलहम तो जले-कटे पर लगाया जाता है. वैसे, पैसा भी आपका और मुँह भी आपही का है, चाहे इसे खाइए या लगाइए- मेरा क्या? मेरे जैसे दूकानदार के लिए तो ग्राहक भगवान के समान है. मैने तो दूकान के साइनबोर्ड पर भी लिखवा रखा है- कस्टमर इज आलवेज राईट! हाँ, लगे हाथों एक ‘बम्पर ऑफर’ जरूर दे सकता हूँ- क्योंकि आपके केस में ‘एक्सपायरी डेट’ लागू नहीं होती है. आप तो जानते ही हैं कि आजकल बड़ी जगह आसानी से किराए पर नहीं मिलती. मेरा पीछे का गोदाम भरा पड़ा है, आपको अस्सी परसेन्ट तक डिस्काउन्ट दे दूंगा. मेरे गोदाम मे बहुत सारा माल मिल जाएगा- आयोडेक्स, बरनॉल, सेवलॉन, फिनायल लिक्विड और गोलियाँ आदि.” मैं सपकाया-सा उसका खिला चेहरा देखने लगा तो उसने तपाक से निकाल कर अपना विजिटिंग कार्ड मुझे थमा दिया, बोला “रखिये बाबूजी, आप जैसा कस्टमर तो आजकल ढूँढे से भी न मिले. आपका रात के बारह बजे भी स्वागत है.”
घर आकर मैने शीशे मे अपनी छवि निहारी. एक ओर की कलम गरदन के नीचे तक पहुँची हुई, दूसरे तरफ की थी ही नहीं! मूंछ का आधा हिस्सा फिल्मस्टार प्रदीप कुमार स्टाइल मे था, आधा राजकपूर कट मे! शेव करते समय शायद् कुछ दिनों से मैने शीशा देखना छोड़ दिया था- फलस्वरूप ठुड्डी से नीचे गदरन का पूरा हिस्सा बालों से ढका हुआ था. पूरी बाँह की शर्ट की बार्इं बाजू के बटन बन्द थे, दार्इं ओर वाली मोड़ कर ऊपर तक चढ़े हुए. चेहरे पर कहीं-कहीं सफेद सी परत चढ़ी दिख रही थी, जो टूथ-पेस्ट सूख जाने के कारण हुआ था. मुँह के अन्दर की दन्त-पँक्ति कहीं नीली तो कहीं पीली दिख रही थी, जो आयोडेक्स और बरनॉल के सदुपयोग का कु-फल था. शायद आस-पड़ोस के लोगों ने मुझे ला-ईलाज समझ कर कभी रोका-टोका नहीं, न ही कुछ बताया.
इसके बाद का कितना समय और कैसे बीता, न मुझे याद है- न घर वालों ने बताया. पूछने पर एक ही वाक्य कह कर बात समाप्त कर देते थे कि बस, यही समझ लो कि तुम्हें कोई बोध नहीं होता था!
बोध तो मुझे उस समय भी नहीं हुआ था जब पता चला था कि मेरी पत्नी की सौतेली माँ ने मेरा कवि होना जान कर ही उससे विवाह करवा दिया था. वर देखा-देखी के समय मेरी माँ ने अनमने मन से उन सुनहरे दिनों में पाँच हजार मांग लिया था तो विमाताश्री ने साढ़े सात हजार दिलवा दिए थे! यह दीगर बात है कि इस (कु) कृत्य पर विमाताश्री (मेरी सासू माँ) की चहूं-दिस जय-जय होने लगी कि सौतेली माँ हो तो ऐसी! सगी से भी बढ़ कर!! कहने की बात नहीं कि पाँच की जगह साढ़े सात देने/दिलवाने वाली सासूमाँ में दूरदर्शिता थी ही, सो उन्होंने हवा का का रूख पहचानने मे देर नहीं की और पँचायत का चुनाव लड़ने घोषणा कर दी. आगे क्या हुआ, बताने से क्या फायदा- अगर आपने अनुमान लगा लिया है तो! किन्तु यह अभी बता दूं कि अन्तिम साँस लेते समय भी- एक महिला के रूप में एक सरपँच ने प्राण त्यागे थे!
सासूमाँ की जीत का जश्न होना था, मुझे भी सपत्नीक आने का न्यौता मिला. जश्न की रात में सासूमाँ तनिक अदूरदर्शी हो चलीं और हमेशा बन्द रहने वाली आलमारी खुली छोड़ दी. अपनी नारी-सुलभ उत्कंठा का परिचय देते हुए श्रीमतिजी ने आलमारी में रखी डायरी देखी और पन्ना-दर-पन्ना चाट गर्इं. मैं गाढ़ी नींद में सोया सपने में दही-बड़े के तालाब मे तैर रहा था कि श्रीमतिजी ने आकर डायरी मेरे मुँह पर मार दी. नींद खुली तो श्रीमतिजी जलती आँखों से मुझे देखती बोलीं- “जाना तो आपके साथ भी नहीं चाहती लेकिन यहाँ तो एक पल भी ठहरना गवारा नहीं. उठिए, अभी-का-अभी चल दीजिए.” वह अपना सामान इकट्ठा करने लगीं तो किसी 'स्कैम' की आशंका से मैं सासूमाँ की डायरी पढ़ने लगा. लिखा था-
“आज मुझे अपने फैसले पर खुशी हो रही है. पँचायत के चुनाव में ऐसी सफलता मिलेगी, मैने सोचा भी नहीं था. न मैने पिताजी की पसन्द उस कवि से विवाह का विरोध किया होता और न उसके स्थान पर बूढ़े विदुर से विवाह कर इस घर मे आना लाख दर्जे अच्छा समझा होता. फिर कवि से विवाह करके क्या हाल होता है- यह देखने के लिए न मैने बिट्टो की शादी एक कवि से करवाई होती और और न ही उसके लिए लिए एक की जगह डेढ़ खर्च किया होता. तो कैसे मिलती इतनी जय-जयकार और कहाँ होता सपना पूरा...”
मैने धीरे से डायरी को बिस्तर पर रख दी और सासूमाँ को एक बार अदूरदर्शी समझ लेने की भूल के लिए मन-ही-मन क्षमा माँगी.
घर पर आते ही श्रीमतिजी औंधे मुँह बिस्तर पर गिर गई और रोने लगीं- “मुझे आज पता चल गया कि किस मीठी छुरी से मेरी माँ ने मेरा गला रेता है! अब आजीवन आपके साथ रहना पड़ेगा और एक से बढ़ कर एक अत्याचार...” आगे के शब्द उसने सुनाना नहीं चाहा या मैने अनसुना कर दिया- यह मुद्दा नहीं. जो भी हो, उस दिन के बाद मेरी पत्नी ने मायके जाना बन्द कर दिया. उधर जब मेरी सासूमाँ को पता चल गया कि भेद-भेद ना रहा तो हर त्यौहार पर एक के बदले दो-दो ग्रीटिंग-कार्ड भेजने लगीं. विवाह की बर्ष-गाँठ पर “सुखी एवं मँगलमय विवाहित जीवन की शुभकामना” वाला बहुत शानदार कार्ड भिजवाया जाने लगा.
इधर कई दिनों से सासूमाँ फोन किए जा रही थीं अपनी बेटी का कुशल-क्षेम पूछने के लिए. विवाह की दूसरी वर्ष-गाँठ पर बधाई का कार्ड मिलने के तीसरे दिन फोन आया था, तो मैने ही उठाया था. मेरी आवाज सुनते ही माताश्री ने कहा कि मुझे तुम्हारा हाल-चाल पूछ कर क्या करना, बेटी से बात कराओ. श्रीमतिजी से कहा तो उन्होंने बालाजी के दरबार मे पेश किसी ‘मुल्जिम’ की भाँति झूमते-लहराते हुए रिसीवर थामा. कुछ ही देर की बात-चीत में मुँह से झाग निकलने लगा और अस्फुट शब्द तार के इस पार ही रह गए, उस पार जा कर सासूमाँ तक नहीं पहुँचे.
श्रीमतिजी के उद्दम और प्रयास से ‘कम्यूनिकेशन’ के सभी दरवाजे एक-एक करके बन्द हो चुके हैं. पहले डाक और‘कुरियर’ वालों को मना किया ही जा चुका था, आज घर का आखिरी फोन कटवा दिया है. कभी काम ना आ सके, इस सोच के मारे पटक कर तोड़ा गया टेलीफोन, रिसीवर और तार- सभी फर्श पर टूट कर बिखरे पड़े हैं. आज कम्यूनिकेशन का अन्तिम सोर्स भी जाता रहा. यही सोचे जा रहा हूं कि मेरे कद्रदानों (यदि हैं) पर क्या बीतेगी? कैसे न्योतेंगे मुझे, कैसे सम्वाद होगा?
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