Wednesday, November 21, 2012

आखिर ये राम-नाम है क्या ?..........!! ( DR. PUNIT AGRWAL )


जिस नाम का भेद परमात्मा-स्वरुप सतगुरु से प्राप्त होता है, उस नाम से तुलसीदास जी का क्या तात्पर्य है, यह बहुत ही अहम् विषय है । आखिर ये राम-नाम है क्या ? यह नाम न तो किसी भी धर्म में आये अवतार विशेष का वर्णात्मक नाम नहीं हो सकता, क्योंकि तुलसीदास जी इस राम-नाम को सर्वोच्च सत्ता मानते हैं जिसने पूरी कायनात, सूर्य, चन्द्र आदि नक्षत्रों और अग्नि आदि तत्वों सहित समूची सृष्टि की उत्पत्ति की है । देवताओं में शिरोमणि माने जाने वाले ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी इसे सिर झुकाते हैं । तुलसीदास जी इस राम-नाम को परमात्मा का स्वरुप मान कर इसकी वन्दना करते हुए कहते हैं:

बंदऊँ नाम रघुबर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।। (भानु - सूर्य; हिमकर - चन्द्रमा )

भानु कृशानु मयंक को कारन रघुबर नाम ।
बिधि हरि शिरोमणि प्रणत सकल सुखधाम ।।

हिन्दू लोग क्यों आदमी के अंतिम सफ़र में जाते हुए क्यों बोलते हैं - "राम-नाम सत है, सत बोलो गत है" ? इसका अर्थ है सिर्फ राम-नाम ही इस कायनात में सत्य है, बाकी सब असत्य है, छलावा है, माया है जो नाशवान है । अगर हम इस सत्य के साथ जुड़ेंगे तो सतगति होगी अन्यथा मनुष्य जन्म व्यर्थ गया । क्या हमने इस पर विचार किया है ? यह वाक्य तो हर रोज़ हमें दोहराना चाहिए और उस पर अमल करना चाहिए । मरने के बाद यह वाक्य मुर्दे के कान में फूँकने से क्या लाभ ? अगर पूरी ज़िन्दगी माया से दोस्ती की तो क्या मरने के बाद राम-नाम सहारा देगा ? अगर जीते जी अनपढ़ रहे तो क्या मरने के बाद क्या एम ए, बी ए की डिग्री मिल जायेगी ?

तुलसीदास जी के अनुसार इस राम-नाम के नामी, अर्थात परमात्मा से एकता का सम्बन्ध है और परमात्मा नाम का ही अनुगमन करता है अर्थात नाम के पीछे चलता है । यही गुरु नानक का 'एक ओ सतनाम' है । यही आदि निरंजन, एकंकार और अकाल पुरुख है । दूसरे शब्दों में, जहां नाम प्रकट होता है, वहाँ प्रकट होता है; या यों कहें कि राम-नाम द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति होती है । इस बात को बताते हुए तुलसीदास जी कहते हैं:

समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर परभू अनुगामी ।। (मानस 1:20:1)

गुरु नानक जी राम-नाम की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं:

नानक निरमल नादु सबद धुनि सचु रामै नामि समाइदा ॥१७॥५॥१७॥ (SGGS 1038)

O Nanak, the immaculate sound current of the Naad, and the Music of the Shabad resound; one merges into the True Name of the Lord. ||17||5||17||
विदित है कि राम-नाम के शहंशाह गुरु नानक देव न केवल राम-नाम बल्कि नाद, शब्द, धुन, सच का एक ही अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं ।

गुरु नानक के अनुसार राम-नाम या शब्द या हुक्म एक परम चेतन, निराकार सत्ता से है । यह वह अकथ कथा है जिसको "ज़बान प्रकट नहीं कर सकती, कान सुन नहीं सकते, कलम लिख नहीं सकती और भाषा जिसका वर्णन नहीं कर सकती ।" यह इन्सानी मन-बुद्धि से परे की हकीकत है । यह हर प्रकार के द्वैत, हर तरह के परिवर्तन से परे का वह सच है जी सृष्टि की हर वस्तु और हर प्राणी में रमा हुआ है । सच्चे पातशाह गुरु नानक साहिब समझाते हैं कि शब्द के बिना हमारे अन्दर अन्धेरा ही अन्धेरा रहता है । जब हिमालय के सिद्ध गुरु साहिब से प्रश्न करते हैं कि भवसागर से पार कराने वाला शब्द कहाँ रहता है ? दस प्रकार की पवन में से वह किसके सहारे टिका हुआ है:

सु सबद का कहा वासु कथीअले जितु तरीऐ भवजलु संसारो ॥
त्रै सत अंगुल वाई कहीऐ तिसु कहु कवनु अधारो ॥ (SGGS 944)

Where is the Shabad said to dwell? What will carry us across the terrifying world-ocean? The breath, when exhaled, extends out ten finger lengths; what is the support of the breath?

परम दीनदयाल गुरु नानक साहिब फरमाते हैं कि शब्द या राम-नाम सर्वव्यापक है और हरेक के अपने अन्दर ही है । जिस ओर नज़र करें शब्द ही शब्द है । शब्द ऐसी 'अकल-कला' (अर्थात अक्रत्रिम कला) जो अपने सहारे आप खडी है, किसी दूसरे पर निर्भर नहीं है ।
सु सबद कउ निरंतरि वासु अलखं जह देखा तह सोई ॥
पवन का वासा सुंन निवासा अकल कला धर सोई ॥ (SGGS 944)


That Shabad dwells deep within the nucleus of all beings. God is invisible; wherever I look, there I see Him. The air is the dwelling place of the absolute Lord. He has all qualities.

नामी या परमात्मा अपने को नाम के रूप में ही व्यक्त करता है । परमात्मा के निर्गुण (निराकार) व सगुण (साकार) - दो रूप ही माने जाते हैं । राम-नाम परमात्मा के इन दोनों रूपों का सार है । परमात्मा का निर्गुण रूप और उसका सगुण (,मनुष्य या देह धारी सतगुरु) रूप - दोनों वास्तव में नाम से अभिन्न हैं । फिर भी तुलसीदास जी साधक की व्यवहारिक द्रष्टि राम-नाम को परमात्मा के निर्गुण और सगुण - दोनों रूपों से अधिक उपयोगी या महत्वपूर्ण बतलाते है; क्योंकि राम-नाम में परमात्मा की दोनों ही रूपों की अच्छाइयाँ विद्धमान हैं और साथ ही राम-नाम इन दोनों रूपों की त्रुटियों से रहित है । ऐसा क्यों ? बड़े ही ध्यान से समझने का विषय है । परमात्मा (निर्गुण और निराकार) अपने ही बनाये विधान के अनुसार अपने मूल स्वरुप (आदि निरंजन) में इस जड़ संसार में प्रकट नहीं हो सकता । इस प्रकार कहा जा सकता है कि परमात्मा के निर्गुण रूप में यह त्रुटि है, या यों कहें कि निर्गुण और निराकार परमात्मा हम संसारी जीवों की सीमित शक्ति के कारण हमारी पहुँच से बाहर है । परमात्मा अपने निगुण स्वरुप में अविनाशी है (अच्छाई), पर यह अगम और अगोचर, अर्थात हमारी पहुँच से बाहर है (त्रुटि), जबकि अपने सगुण (मनुष्य) रूप यह सुगम और इन्द्रिय-गोचर, अर्थात हमारी पहुँच के अन्दर है (अच्छाई), पर यह आम इन्सान की तरह नश्वर है (त्रुटि) । राम-नाम की विशेषता यह है कि वह परमात्मा के निर्गुण स्वरुप की तरह अविनाशी होते हुए उसके सगुण रूप के सामान हमारी पहुँच के अन्दर है, क्योंकि इसके बाहरी वर्णात्मक नाम को बोला या सूना जा सकता है और आन्तरिक धुनात्मक नाम को आन्तरिक प्रकाश और आन्तरिक शब्द के रूप में अन्दर देखा और सूना जा सकता है ।

अपनी इस विशेषता के कारण राम-नाम परमात्मा के निर्गुण और सगुण - दोनों रूप की विशेषता का बोध कराता है, इनके पारस्परिक सम्बन्ध या एकता को प्रकट करता है और साथ ही जीवों की मुक्ति का भी एकमात्र साधन सिद्ध होता है (जो बन्धन-ग्रस्त जीवों के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण है) । राम-नाम की विशेषता बताते हुए तुलसीदास जी इसकी तुलना एक कुशल दुभाषिये से करते हैं जो एक बिचौलिये का काम कर परमात्मा के निर्गुण और सगुण रूपों के बीच सम्बन्ध दिखलाता है और उनके यथार्थ स्वरुप का बोध कराता है, जैसा कि तुलसीदास जी कहते हैं:

अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ।। (मानस :1:20:4) (सुसाखी - उत्तम प्रमाण; प्रबोधक - बोध कराने वाला; दुभाषी - दुभाषिया )

यहाँ पर यह बात ध्यान देने कि ज़रुरत है कि जो नाम या राम-नाम चारों युगों और तीनों कालों में जीवों का उद्धार करनेवाला कहा गया है, वह त्रेता युग में उत्पन्न होनेवाले दशरथ-पुत्र श्री राम का वर्णात्मक नाम नहीं हो सकता; क्योंकि त्रेता युग से पहले सतयुग में राम का यह वर्णात्मक नाम प्रचलित नहीं था । इससे यह सिद्ध होता है कि राम-नाम से तुलसी जी का तात्पर्य उस सच्चे अविनाशी धुनात्मक नाम से है जो सभी वर्णात्मक नामों से परे है और अविनाशी परमात्मा का सार है । यदि राम-नाम से तात्पर्य दशरथ-पुत्र राम के केवल वर्णात्मक नाम से होता तो उसके गूढ़-रहस्य को प्राप्त करने के लिए परमात्मा स्वरुप सतगुरु की आवश्यकता नहीं होती ।

तुलसीदास जी ने इन दोनों भेदों को स्वीकार करते हुए उन्होनें 'श्रवणात्मक' शब्द का एक और भेद भी स्पष्ट किया है । 'श्रवणात्मक' नामक शब्द से उनका तात्पर्य बाहर की उन ध्वनियों से है जो किसी प्रकार के टंकार, गर्जन या बाहरी बाजे-गाजे से उत्पन्न होती है । इन्हें भी बाहरी वर्णों या अक्षरों में लिखा, पढ़ा या बोला नहीं जा सकता है, केवल श्रवण या कान से सुना जा सकता है । आन्तरिक धुनात्मक शब्द को बाहरी ध्वनियों से परे और भिन्न बतलाने के लिए तुलसीदास जी ने इस 'श्रवणात्मक" शब्द का अलग भेद बतलाया है । शब्द के इस तीन भेदों को बताकर तुलसीदास जी कहते हैं कि शब्द-भेद को अच्छी तरह न परखने के कारण लोग बाहरी शब्द या ध्वनि को ही सबकुछ मानकर केवल इसी में भूले रह जाते हैं । पर जब परमात्मा स्वरुप गुरु की कृपा से आन्तरिक शब्द-धुन या राम-नाम का भेद मिल जाता है तब जीव के अन्दर ज्ञान का सूरज प्रकाशित हो उठता है । इस तथ्य को समझाते हुए वे कहते हैं:

श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक वर्णात्मक विधि तीन ।
त्रिविध शब्द अनुभव अगम तुलसी कहहिं प्रवीन ।। (तुलसी सतसई 4:14) (तुलसी कहहिं प्रवीन - तुलसीदास जी कहते हैं कि ज्ञानीजनों का यह कहना है)

सन्त शिरोमणि गुरु नानक साहिब भी राम-नाम के दो गुण (ध्वनि और प्रकाश) के गुणों को स्वीकारते हुए कहते हैं:

अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिउ लिव लाई ॥ रहाउ ॥ (SGGS 638)

God's Light shines continually within the nucleus of my deepest self; I am lovingly attached to the Bani, the Word of the True Lord Master. ||Pause||

अंतरि जोति सबदु धुनि जागै सतिगुरु झगरु निबेरै ॥३॥ (SGGS 489)

One who has the Divine Light within his heart, and is awakened to the melody of the Word of the Shabad - the True Guru settles his conflicts. ||3||

सिंङी सुरति अनाहदि वाजै घटि घटि जोति तुमारी ॥४॥ (SGGS 907)

The horn of consciousness vibrates the unstruck sound current; Your Light illuminates each and every heart, Lord. ||4||

गुरु साहिब कह रहे हैं कि आन्तरिक मार्ग में राम-नाम की मधुर धुन और दिव्य ज्योति सबसे ऊँची मजिल पर पहुँचने के लिए साधक की सहायता करती है । जैसे अँधेरे में रास्ता भुला हुआ इन्सान कहीं दूर से आती हुई आवाज़ की मदद से अपनी दिशा कायम कर लेता है, उसी तरह राम-नाम साधक की आत्मा को अपने श्रोत की तरफ खींचता है । जिस प्रकार बाहर का प्रकाश रास्ते के गड्डों से बचाते हुए सफ़र तय करने में मदद करता है, उसी तरह राम-नाम की दिव्य ज्योत साधक को अनेक आन्तरिक रुकावटों से बचाता है । आदि-निरंजन के के सगुण रूप गुरु नानक साहिब कहते हैं:

पसरी किरणि जोति उजिआला ॥
करि करि देखै आपि दइआला ॥
अनहद रुण झुणकारु सदा धुनि निरभउ कै घरि वाइदा ॥९॥ (SGGS 1033)


The rays of Divine Light have spread out their brilliant radiance. Having created the creation, the Merciful Lord Himself gazes upon it. The sweet, melodious, unstruck sound current vibrates continuously in the home of the fearless Lord. ||9||

राम-नाम की दिव्य-ध्वनि उस परमपिता परमात्मा में से प्रकट होकर समस्त खण्डों और ब्रह्माण्डों की रचना करके, उसका आधार बनी हुई है । यदि यह कहें कि यह प्रभु रूहानियत का अथाह सागर है और आत्मा उस सागर की ही एक बूँद है तो राम-नाम उस समुद्र में से निकल रही एक ऐसी विशाल नदी है जो प्रभु रूपी समुद्र से निकल कर सारे निचले खण्डों और ब्रह्मांडों के जीवन का आधार है । रहमत के सागर गुरु नानक साहिब फरमाते हैं कि हम आत्मा को इस राम-नाम से जोड़कर संसार रूपी भवसागर को पार कर सकते हैं:

जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नै साणे ॥
सुरति सबदि भव सागरु तरीऐ नानक नामु वखाणे ॥ (SGGS 938)

The lotus flower floats untouched upon the surface of the water, and the duck swims through the stream;
with one's consciousness focused on the Word of the Shabad, one crosses over the terrifying world-ocean. O Nanak, chant the Naam, the Name of the Lord.

बाईबिल में भी इस राम-नाम की शक्ति को वर्ड (शब्द) कहा गया है । सेंट जॉन के अनुसार, "शुरू में शब्द था, शब्द परमात्मा के साथ था और शब्द ही परमेश्वर था ।" वेदों में इसको 'नाद' या 'आकाशवाणी' कहा गया है । मुसलमान सन्तों ने इसे 'क़लमा (शब्द)', 'निदाए आसमानी' (आकाशवाणी), 'बांगे-आसमानी' (आकाश की आवाज़), 'इस्मे-आज़म' (सबसे बड़ा नाम), या 'सुलतान-अल-अज़कार' (सुमिरनों का बादशाह) कहा है । सूफी फकीर शाह नियाज़ कहते हैं कि तू उस अनन्त और अनादि क़लाम को सुन, जिसका कोई आदि या अन्त नहीं है । वह क़लाम सुनकर तू जन्म-मरण की क़ैद से आज़ाद हो जाएगा:

बिश्नौ याक कलामे ला मकतूअ,
अज़ हदूसो फ़ना मर्फुअ ।

मौलाना रूम भी अपनी मसनवी में कहते हैं:

चरख रा दर ज़ेरे पा आर ए शुआज़,
बिश्नौ अज़ फरके फलक बांगे समाअ ।

इस राम-नाम का अनुभव करते हुए मौलाना रूम कहते हैं कि जब कई प्रकार की मीठी व् प्यारी राग-रागनियाँ सुनीं तो मुझे मन्दिर और मस्जिद दोनों ही काफिर (नास्तिक) लगे अर्थात मेरे लिए इस शब्द में लीन होना ही सच्चा धर्म बन गया और मुझे किसी तरह के बाहरी मन्दिर, मस्जिद और इनसे सम्बन्धित शरियत (कर्मकाण्ड) की ज़रुरत नहीं रही ।

नगमाहा नैन शुनीदम वा निदाहा वाफ़र ।
काअबा ओ बुतखाना बनज़दम शुद हर दो काफ़र ।।
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"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...