बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी हर रोज़ विवादों को न्योता देते प्रतीत हो रहे हैं। अपनी कंपनी/कंपनियों में भ्रामक निवेश को लेकर घिरे गडकरी पर हर कोई रोड़ा ताने खड़ा है। लग रहा है इतना ही पर्याप्त नहीं था। नामी वकील महेश जेठमलानी ने दागी पार्टी अध्यक्ष के साथ काम करने से इनकार करते हुए राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया है और स्वामी विवेकानंद से डॉन दाऊद इब्राहिम की तुलना के बाद तो उन पर हर राजनीतिक पार्टी की भौंहें तन गई हैं।
कोई करप्ट है, तो उसके खिलाफ हर संभव कार्रवाई होनी चाहिए। इसमें दया की कोई गुंजाइश नहीं है। अपराधी के साथ अपराधियों जैसा ही व्यवहार होना चाहिए, फिर चाहे वह कोई भी हो। गडकरी अपने द्वारा प्रमोट की गई कंपनियों में लगी पूंजी को लेकर इन विवादों में हैं। किसी दूसरे सामान्य संदिग्ध की तरह ही उनके खिलाफ भी जांच होनी चाहिए और उन्हें कोई रियायत नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन, इससे अलग मैं कहना चाहूंगा कि स्वामी विवेकानंद और दाऊद को लेकर ताजा विवाद बेमतलब का है।
आखिर गडकरी ने ऐसा क्या कह दिया कि इतना हंगामा बरपा हुआ है? उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि अगर आप स्वामी विवेकानंद और दाऊद इब्राहिम के आईक्यू की तुलना करेंगे तो संभवत: समान पाएंगे, लेकिन देखिए कि दोनों ने इसका किस तरह से इस्तेमाल किया। एक राष्ट्र निर्माण और आध्यात्म के क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे, दूसरा अपराध की दुनिया का सरगना बना।
बताइए, इसमें गलत क्या है? हम राई को पहाड़ बनाने के आदी हो चुके हैं। क्या हम अपने बड़े-बुजुर्गों से यह सब सुनते हुए बड़े नहीं हुए हैं कि अपने दिमाग का सही जगह इस्तेमाल करो। नैतिक शिक्षा की हमारी किताबें भी हमें लगातार यही सिखाती रही हैं कि हमें अपने दिमाग का इस्तेमाल सृजन के काम में करना चाहिए न कि विध्वंस में। मैंने जो देखा और सुना, इसके आधार पर कह सकता हूं कि उन्होंने ऐसा कुछ भी असाधारण नहीं कहा जिससे इतना बड़ा विवाद खड़ा हो जाए। केवल इतना कहा जा सकता है कि राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में गडकरी असंयमित लगे, खासकर जब आप किसी शीर्ष राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष जैसे पद पर हों तो हर शब्द तोल-मोल कर बोलना चाहिए।
यह सही है कि गडकरी नेता हैं और चुनाव को देखते हुए जब देश का सियासी तापमान चरम पर है, तो उन्हें जुबान खोलने से पहले अति सतर्क रहने की जरूरत है। गडकरी की भाषा मजेदार है और अगर वह जनसामान्य होते तो लोग इस पर ध्यान नहीं देते, लेकिन दुर्भाग्य से उनके पास यह स्वतंत्रता नहीं है। उन्हें अपनी जुबान पर लगाम लगानी होगी। ज्यादा और गैरजरूरी बातों से जहां उनकी साख को बट्टा लगेगा, वहीं उनकी पार्टी को भी नुकसान पहुंचेगा, जो सत्ताधारियों को करप्शन के आरोपों पर बेनकाब करने में जुटी है।
बिना मतलब के विवाद को इतर रखकर बात करें तो मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि कहीं भी सफल होने के लिए होनहार होना जरूरी है। सफल लोगों पर आप नजर डालिए, भले ही वे भ्रष्ट क्यों न हों। अगर आप उनके गलत कामों को अलग करके केवल बुद्धिमता के स्तर पर देखेंगे तो समझ जाएंगे कि मैं क्या कह रहा हूं।
आतंक फैलाने वाले मास्टरमाइंड्स पर गौर कीजिए। उदाहरण के लिए न्यू यॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले की साजिश करने वालों की बात करते हैं। जिस चातुर्य से साजिश रची गई और फिर गुप्त रखते हुए इसे अंजाम गया, क्या कोई बुद्धू मास्टरमाइंड ऐसा कर सकता था? बिल्कुल नहीं। फर्क केवल इतना है कि जिसने भी यह साजिश रची उसने अपने दिमाग का इस्तेमाल निर्माँण के बजाय विध्वंस के लिए किया। उसके पास उन बहुत से लोगों से ज्यादा आईक्यू था, जिन्हें हम जानते हैं। लेकिन वह कभी भी हमारे सम्मान का हकदार नहीं होगा, जैसे कि दाऊद को हम कभी भी इज्जत की नजर से नहीं देखेंगे।
कोई करप्ट है, तो उसके खिलाफ हर संभव कार्रवाई होनी चाहिए। इसमें दया की कोई गुंजाइश नहीं है। अपराधी के साथ अपराधियों जैसा ही व्यवहार होना चाहिए, फिर चाहे वह कोई भी हो। गडकरी अपने द्वारा प्रमोट की गई कंपनियों में लगी पूंजी को लेकर इन विवादों में हैं। किसी दूसरे सामान्य संदिग्ध की तरह ही उनके खिलाफ भी जांच होनी चाहिए और उन्हें कोई रियायत नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन, इससे अलग मैं कहना चाहूंगा कि स्वामी विवेकानंद और दाऊद को लेकर ताजा विवाद बेमतलब का है।
आखिर गडकरी ने ऐसा क्या कह दिया कि इतना हंगामा बरपा हुआ है? उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि अगर आप स्वामी विवेकानंद और दाऊद इब्राहिम के आईक्यू की तुलना करेंगे तो संभवत: समान पाएंगे, लेकिन देखिए कि दोनों ने इसका किस तरह से इस्तेमाल किया। एक राष्ट्र निर्माण और आध्यात्म के क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे, दूसरा अपराध की दुनिया का सरगना बना।
बताइए, इसमें गलत क्या है? हम राई को पहाड़ बनाने के आदी हो चुके हैं। क्या हम अपने बड़े-बुजुर्गों से यह सब सुनते हुए बड़े नहीं हुए हैं कि अपने दिमाग का सही जगह इस्तेमाल करो। नैतिक शिक्षा की हमारी किताबें भी हमें लगातार यही सिखाती रही हैं कि हमें अपने दिमाग का इस्तेमाल सृजन के काम में करना चाहिए न कि विध्वंस में। मैंने जो देखा और सुना, इसके आधार पर कह सकता हूं कि उन्होंने ऐसा कुछ भी असाधारण नहीं कहा जिससे इतना बड़ा विवाद खड़ा हो जाए। केवल इतना कहा जा सकता है कि राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में गडकरी असंयमित लगे, खासकर जब आप किसी शीर्ष राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष जैसे पद पर हों तो हर शब्द तोल-मोल कर बोलना चाहिए।
यह सही है कि गडकरी नेता हैं और चुनाव को देखते हुए जब देश का सियासी तापमान चरम पर है, तो उन्हें जुबान खोलने से पहले अति सतर्क रहने की जरूरत है। गडकरी की भाषा मजेदार है और अगर वह जनसामान्य होते तो लोग इस पर ध्यान नहीं देते, लेकिन दुर्भाग्य से उनके पास यह स्वतंत्रता नहीं है। उन्हें अपनी जुबान पर लगाम लगानी होगी। ज्यादा और गैरजरूरी बातों से जहां उनकी साख को बट्टा लगेगा, वहीं उनकी पार्टी को भी नुकसान पहुंचेगा, जो सत्ताधारियों को करप्शन के आरोपों पर बेनकाब करने में जुटी है।
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Posted by PD SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh
आपके लेख से मुझे तो यह बात सही लग रही है कि हमारी देश की ज्यादातर मीडिया बिकाई हो गयी है जो ऐसे मसले पर बात का बतंगड बना कर खडी है जबकि इस बात पर बखेडा खडे वालों का आई क्यू भी पता लग गया है कि इनमें तो दिमाग नाम की चीज है ही नहीं?
ReplyDeleteआभार आपने बेहद साफ़ शब्दों में यह बात सबको समझा दी है, अब जिसमें आई क्यू होगा ही नहीं वो कैसे समझेगा?