Wednesday, September 12, 2012


कोयले की गाथा ... एक वरिष्ठ पत्रकार की जुबानी


एक पत्रकार की हैसियत से मैं कहना चाहूंगा कि जबसे ये ‘कोल’गेट मसला (जो टूथपेस्ट से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गया है) हुआ है, तबसे लोग लगातार ये सवाल पूछ रहे हैं कि इसमें अब आगे क्या होगा? क्या जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं, वे पकड़े जाएंगे? क्या बड़े और ताकतवर नामों को 2जी की तरह जेल जाते देखा जाएगा, या सब कुछ आखिरकार दबा दिया जाएगा? लोग ऐसा इसलिए सोचते हैं क्योंकि जो कुछ भी शुरुआती जांच हुई है, उसमें बड़े राजनीतिक नाम सामने आए हैं और मेरे हिसाब से यहीं पर इस मसले और इस सरकार का सबसे बड़ा इम्तेहान है। 

किसने कब चिट्ठियां लिखीं, इसकी बहुत सारी डिटेल्स अब सामने आ चुकी हैं। भाजपा सीधे प्रधानमंत्री पर आरोप लगा रही है। हालांकि भाजपा के कुछ अपने लोगों के भी नाम सामने आए हैं, इसलिए कई लोगों को लगता है कि दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों के बीच यह मसला मैनेज हो जाएगा। बहरहाल, यह मामला अब आरोपों से आगे जांच की तरफ जा चुका है। 

शुरुआती जांच में कांग्रेस के एक सांसद व मंत्री विजय दर्डा और उनके भाई का नाम सामने आया है। लालू यादव के करीबी राजद नेता प्रेम गुप्ता के बेटे का नाम भी सामने आया है। आने वाले दिनों में कई और ऐसे अप्रत्याशित नाम सामने आ सकते हैं। लेकिन इन सबके बीच लोग चाहते हैं कि कोई दिखने वाली कार्रवाई हो यानी कि डिमॉन्स्ट्रेटिव एक्शन, न कि सिर्फ लीपापोती।

यहीं से शुरू होता है मेरा बड़ा सवाल। मेरा मानना है कि मुद्दा उठाने वाले और इस पर अपनी सफाई देने वाले दोनों की देश की जनता के प्रति बड़ी जिम्मेदारी बनती है। कांग्रेस अपनी बात पर कायम है कि नीति में कुछ गलत नहीं था और प्रधानमंत्री लगातार अपना बचाव कर रहे हैं। भाजपा इस पर अड़ी है कि प्रधानमंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिए और एक निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। 

संसद का मानसून सत्र खत्म हो चुका है और जो एक बहस इसमें खुलकर हो सकती थी, वो नहीं हो पाई। तमाम चिट्ठियां, मीटिंग के ब्यौरे और नीतियों से जुड़ी खबरें मीडिया में लगातार सूत्रों के हवाले से आ रही हैं और उन पर बहस हो रही है। यानी कि बहुत कुछ मसाला बाहर आ चुका है। अब हम ये कह सकते हैं कि ‘कैग’ की उठाई बातों के आधार से ये कहानी आगे बढ़ चुकी है।

सबसे पहले बात करते हैं जांच की, जो सीबीआई शुरू कर चुकी है। यह बहुत अहम है कि सच ढूंढ़ने में सीबीआई की जांच कैसी होती है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि जांच शुरुआत से ही गलत दिशा में है। भाजपा पहले से ही कहने लगी है कि सीबीआई की जांच निष्पक्ष नहीं होगी, क्योंकि वह प्रधानमंत्री के अधीन आती है। हालांकि मैंने अपने कार्यक्रम में भाजपा के नेताओं के साथ इस बिंदु को उठाया था कि जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में उनकी सरकार थी, तब सीबीआई छुट्टी पर तो नहीं चली गई थी। फिर इस सीबीआई से उन्हें इतनी प्रॉब्लम क्यों हो रही है? वे निष्पक्ष जांच आखिर चाहते कैसी हैं? 

सरकार के लिए भी यह दिखाना बहुत जरूरी है कि सीबीआई सही जांच कर रही है और उस पर किसी को बचाने का आरोप नहीं लगे। लेकिन इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण सीबीआई की खुद की भूमिका है। वह आज भी देश की प्रमुख जांच एजेंसी है, जिसकी स्वायत्तता को लेकर एक साल पहले देश में बहस छिड़ी हुई थी। लोकपाल की बहस का एक बड़ा मुद्दा था कि सीबीआई किसी के नियंत्रण में न हो, ताकि उस पर राजनीतिक दबाव में काम करने के इल्जाम हमेशा के लिए खत्म हो जाएं। लोकपाल बिल का भविष्य अभी भी हालांकि अधर में है, लेकिन सीबीआई का बड़ा इम्तेहान एक बार फिर उसके सामने है। वह आखिरकार अपराधियों के खिलाफ क्या प्रकरण बनाकर अदालत के सामने पेश करती है, उस पर सबकी निगाहें होंगी।

दूसरी बड़ी बात मेरे हिसाब से सरकारी अफसरों को लेकर नजर आती है। नेताओं पर लग रहे आरोपों के साथ-साथ कई विशेषज्ञों का सवाल है कि इस जांच में वे अफसर कब सामने आएंगे, जिन पर फैसलों को जांचने-परखने की जिम्मेदारी है। अगर कंपनियां नई बनी थीं और इस काबिल नहीं थीं कि कोयले का काम कर सकें तो उनके बारे में मालूमात क्यों नहीं हुई और ये बातें अफसरों ने क्यों नहीं उजागर कीं? उनका क्या निहित स्वार्थ था? यहीं पर मामला आएगा स्क्रीनिंग कमेटी का। राज्यों की भूमिका का भी मामला आएगा, जिसको लेकर भाजपा के लिए सवाल हैं। सरकार कहती है कि फैसले राज्यों के प्रतिनिधित्व के साथ मिलकर लिए गए और इसमें हमारा अकेले का क्या दोष? 

खासतौर पर 2006 की स्थिति के बाद से स्क्रीनिंग कमेटी में क्या हुआ और इसके लिए कौन-कौन लोग जिम्मेदार हैं, ये जानना जरूरी है। यहां यह बताना दिलचस्प है कि कोयला मंत्रालय से जुड़े एक पूर्व अफसर ने कहा कि स्क्रीनिंग कमेटी के सिस्टम में कमी थी और पारदर्शिता नहीं थी। तो फिर क्या इसे अपने हिसाब से मैनिपुलेट किया जा रहा था? हाल ही में मेरे साथ एक इंटरव्यू में श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा कि अगर स्क्रीनिंग कमेटी या उसके सदस्यों की ओर से किसी तरह की खामियां रही हैं, तो उसकी जांच होनी चाहिए। यह एक अहम पहलू है। यानी कि जांच का एजेंडा बहुत सटीक होना चाहिए। 

शुरुआती जांच से साफ है कि लोगों ने कोयला उत्पादन के मकसद से कैप्टिव माइंस हासिल की, अपनी कंपनियों की वैल्यू यानी कि कीमत बढ़ाई और उसे खुले बाजार में इक्विटी के तरीके से बेचा। कोयले का उत्पादन तो हुआ नहीं, लेकिन उनके लिए पैसे का उत्पादन हो गया। अगर ये सोच थी तो फिर स्क्रीनिंग कमेटी में यह क्यों नहीं देखा गया कि जिसे भी ये कैप्टिव माइंस दी जा रही हैं, उसका मूल मकसद क्या है। एक और बात मैं आपको बताना चाहता हूं कि कोयले के निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए बिजली की जरूरत को आधार बनाया गया, क्योंकि तकरीबन ६७ फीसदी बिजली का उत्पादन कोयले के जरिए होता है। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि कोयला आपकी-हमारी जिंदगी में रोशनी के लिए कितना जरूरी है। 

हमारे देश में बिजली की भारी किल्लत है। अगर कोयले का मसला इतनी दिक्कतें पैदा कर रहा है तो सोचिए हमारे लिए बिजली की मुश्किलें क्या हो सकती हैं। क्या ये उन लोगों ने सोचा, जो अपनी गलतियों की वजह से हमें परेशान होने पर मजबूर करेंगे? प्रक्रिया में जिन खामियों की वजह से कोयले का मामला सामने आया, अगर ऐसी ही स्थिति आगे भी जारी रही तो नुकसान की भरपाई कौन करेगा? एक बार फिर देश की जनता..। केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) का गठन 1 अप्रैल 1963 को किया गया था। देश की यह प्रमुख जांच एजेंसी हमारी आधिकारिक इंटरपोल इकाई भी है।

लेखक टीवी एंकर एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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