Sunday, September 23, 2012

" चादर - चक्क " U.P.A. !!!! बेचारी- जनता !!??


जेपी वीपी तक के जनप्रयोग को बदल दिया मनमोहन ने

 पुण्यप्रसुन बाजपेयी
एक बार फिर आंकड़ों के सियासी खेल में राजनीतिक दलों की साख दांव पर है। भारतीय राजनीति के इतिहास में मौजूदा दौर अपनी तरह का नायाब वक्त है, जब एक साथ आधे दर्जन मंत्रियों के इस्तीफे के बाद सत्ता संभाले कांग्रेस खुश है। राहत में है। और उसे लगने लगा है कि पहली बार विपक्ष के वोट बैंक की उलझने उसे सत्ता से डिगा नहीं पायेंगी और आर्थिक नीतियों के विरोध के बावजूद मनमोहन सरकार न सिर्फ चलती रहेगी बल्कि आर्थिक सुधार की उड़ान में तेजी भी लायेगी। जाहिर है यह मौका आर्थिक नीतियों के विश्लेषण का नहीं है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था जिन वजहों से डांवाडोल है, संयोग से उन्हें थामे हाथ को ही विकल्प देने हैं। तो भविष्य की दिशा होगी क्या इसे इस बार सामाजिक-आर्थिक तौर से ज्यादा राजनीतिक तौर पर समझना जरुरी है क्योंकि पहली बार न सिर्फ विपक्ष बंटा खड़ा है बल्कि पहली बार सत्ता की सहुलियत भोग रहे राजनीतिक दल भी बंटे हैं।
पहली बार समाजवाद या लोहियावाद से लेकर राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े राजनीतिक दल भी आपस में लड़ते हुये खोखले दिखे। यानी असंभव सी परिस्थितियों को ससंद से बाहर सड़क की राजनीति में देखा गया। वामपंथी सीताराम येचुरी से गलबहियां करते भाजपा के मुरली मनोहर जोशी। वामपंथी ए बी वर्धन खुले दिल से टीएमसी नेता ममता की तारीफ करते हुये और सीपीएम नेता प्रकाश करात न्यूक्लियर डील में समाजवादी पार्टी से शिकस्त खाने के चार बरस बाद एक बार फिर मुलायम को महत्वपूर्ण और तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने वाले नेता के तौर पर मानते हुये। जाहिर है राजनीति का यह रंग यहीं नहीं रुकता बल्कि नवीन पटनायक, बालासाहेब ठाकरे और राजठाकरे ने भी रंग बदला और नीतीश कुमार भी बिहार के विशेष पैकेज के लिये पटरी से उतरते दिखे। सभी अपने अपने प्रभावित इलाकों की दुहाई देते हुये विपक्ष की भूमिका से इतर बिसात बिछाने लगे। तो क्या इस सात रंगी राजनीति में ममता बनर्जी सरीखी नेता की सियासत कही फिट बैठती नहीं है। साफ है संसदीय राजनीति की जोड़-तोड़ पहली नजर में तो यही संकेत देती हैं कि ममता बनर्जी जिस रास्ते चल पडी वह झटके की राजनीति है। और मौजूदा वक्त हलाल की राजनीति में भरोसा करता है। जहां नीतियां, विचारधारा या सिद्धांत मायने नहीं रखते हैं। शायद इसीलिये भाजपा भी समझ नहीं पायी कि आर्थिक नीतियों का विरोध करे या फिर साख की राजनीति करते हुये खुद को चुनाव की दिशा में ले जाये, जहां आम नागरिक साफ तौर पर देख सके कि कौन नेता है कौन कार्यकर्त्ता।
भाजपा उलझी रही तो मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार पर आरएसएस का हिन्दुत्व भारी पड़ गया। यानी राजनीति अगर मिल-जुल कर नही हो सकती है तो फिर विरोध कर खुद को राजनीतिक तौर पर दर्ज कराने से आगे बात जाती नहीं है। यानी परिस्थितियां ही ऐसी बनी हैं, जहां कोई एक दल अपने बूते सत्ता में आ नहीं सकता और सत्ता के लिये गठबंधन का पूरा समूह चाहिये और उसके बाद अगुवाई करने वाले चेहरे पर हर किसी की मोहर चाहिये। इस कडी में हर नेता के चेहरे को पढ़ना जरुरी है। मुलायम सिंह यादव का कद बडा इसलिये है क्योंकि उनके हक में फिलहाल उत्तर प्रदेश की सियासत है। जहां सबसे ज्यादा 80 लोकसभा की सीटे हैं। यानी उम्मीद कर सकते हैं कि मुलायम के पास सबसे ज्यादा मौका होगा, जब उनकी सीट किसी भी क्षत्रपों की तुलना में बढ़ जायें। लेकिन क्या वामपंथी और क्या ममता बनर्जी कोई भी मुलायम के पीछे खड़े होने को तैयार होंगे। दोनों धोखा खा चुके हैं तो अपना लीडर तो मुलायम को नहीं ही बनायेंगे। दूसरा चेहरा नीतीश कुमार है। जिन्हें बिहार में चुनौती देने के लिये उनके अपने सहयोगी भाजपा हैं। हालांकि भाजपा उनके पीछे खड़ी हो सकती है लेकिन भाजपा के अलावा मुलायम और वामपंथी नीतीश कुमार के पीछे खड़े होने को क्यों तैयार होंगे। अगर हां तो फिर भाजपा के साथ खड़े होने पर जो लाभ नीतीश कुमार को मिलता है वह चुनाव के वक्त कैसे मिलेगा, अगर नीतीश गैर भाजपा खेमे में जाने को तैयार हो जायें। तीसरा चेहरा ममता बनर्जी का है। जाहिर है मनमोहन सरकार से बाहर होकर ममता ने अपना एक नया चेहरा गढ़ा है, जो बंगाल के पंचायत चुनाव से लेकर आम चुनाव तक में वामपंथियों से लेकर कांग्रेस तक को उनके सामने बौना बना रहा है। सत्ता में रहकर विरोध के स्वर को जिस तरह ममता ने हाईजैक किया उससे हर किसी झटका भी लगा और सियासी लाभ पाने की राजनीति में सेंध लगी। इसका लाभ भी ममता को जरुर मिलेगा। लेकिन क्या ममता के पीछ वामपंथी खड़े हो सकते हैं। या फिर ममता को आगे कर तीसरे मोर्चे का कोई भी चेहरा पीछे खड़ा हो सकता है।
निश्चित तौर पर यह असंभव है। और इन परिस्थितियों में वामपंथियों की अपनी हैसियत खासी कम है। यानी नयी परिस्थितियों में वामपंथी एक सहयोगी के तौर पर तो फिट है लेकिन अगुवायी करने की स्थिति में वह भी नहीं हैं। इसके अलावा अपनी अपनी राजनीति जमीन पर तीन चेहरे ऐसे हैं, जिनका कद आमचुनाव होने पर बढ़ेगा चाहे चुनाव 2014 में ही क्यों ना हो लेकिन इन तीन चेहरो को राष्ट्रीय तौर पर मान्यता देने की स्थिति में कैसे बाकि राजनीतिक दल आयेंगे यह अपने आप में सवाल है। उडीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता और आंध्रप्रदेश में जगन रेड्डी। इन तीनो की हैसियत भी आने वाले वक्त में आंकड़ों के लिहाज से बढ़ेगी ही। यानी बढ़ते आंकड़ों के बावजूद तीसरे मोर्चे को लेकर कोई एक सीधी लकीर खींचने की स्थिति में कोई नहीं है। और मौजूदा दौर की यही वह परिस्थितियां हैं, जहां कांग्रेस लाभालाभ में है। क्योंकि कांग्रेस जो भी कदम उठायेगी या मनमोहन सरकार जो भी कदम उठा रहे हैं, वह पहली बार उनके अपने सहयोगियो की राजनीति के खिलाफ जा रहा है। यानी नीतियों को लेकर सहयोगियों के साथ मनमोहन सरकार का कोई बंदर बांट नहीं है बल्कि सीधा टकराव है। सीधा विरोध है मगर साथ खड़े होकर है। यानी वोट बैंक को लेकर भी पहली बार कांग्रेस ने एक अलग रास्ता बनाना शुरु किया है, जहाँ किसान, आदिवासी, अल्पसंख्यक या दलितो को कोई नीति बनाने की बात नहीं है बल्कि राज्यो में बंटे क्षत्रपो की राजनीति को गवर्नेंस का आईना दिखाने की सियासत है। सीधे कहें तो कांग्रेस अब यह दिखाना बताना चाहती है कि सरकार चलाना भी महत्वपूर्ण है चाहे नीतियों को लेकर विरोध हो मगर आंकड़े साथ रहे। यानी राजनीतिक हुनरमंद होने की ऐसी तस्वीर पहली बार सरकार चलाते हुये कांग्रेस दिखा रही है, जहां हर कोई एक दूसरे की सियासत से टकरा रहा है मगर कांग्रेस सबसे अलग बिना किसी के वोट बैक पर हमला बोले मजे में है।
कहा जा सकता है कि यह कमाल देश के सीईओ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ही है कि उनकी गद्दी को बचाने वाले दो बडे राजनीतिक दल सपा और बसपा के आंकड़े उत्तर प्रदेश से निकले हैं। दोनो एक दूसरे के खिलाफ है लेकिन चैक एंड बैलेंस ऐसा है कि दोनो ही कांग्रेस की नीतियों को जनविरोधी मानकर भी एक साथ खड़े होकर राजनीतिक सत्ता की सहमति बनाकर मनमोहन सरकार के साथ खड़े हैं। यानी पहली बार ऐसी राजनीति ने दस्तक दे दी है, जहां ममता बनर्जी की साख भी मायने नहीं रखती है और मनमोहन सरकार के दौर के घोटाले भी। यहां समाजवादी सिद्धांत भी बेमानी और हिन्दुत्व राग भी बेमतलब का है। यानी जेपी से वीपी तक के राजनीतिक जनप्रयोग से मजबूत दिखने वाली संसदीय राजनीति की जड़ों को ही मनमोहन सिंह ने बदल दिया है और तमाम पार्टियां मुगालते में है कि वह जनता के साथ खडे होकर सत्ता में हैं।(ब्लॉग से साभार) 

घोटालों से निपटने की अद्भुत कला


पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव अद्भुत विरासत छोड़ गए हैं। भले ही लोग भारत में आर्थिक सुधार का श्रेय वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देते हैं, लेकिन इसके असली शिल्पकार नरसिम्हा राव थे। इकनॉमिक टाइम्स के टी. के. अरुण ने एक बार कहा था , ‘डॉ मनमोहन सिंह को सुधार का श्रेय देना वैसे ही है, जैसे आप बुकर सम्मान के लिए अरुंधती रॉय के वर्ड प्रोसेसर को क्रेडिट दें।‘ राव इससे भी प्रभावकारी एक और विरासत छोड़ गए। संकट से निपटने की उनकी कला पर वर्तमान नेता फल-फूल रहे हैं लेकिन कभी भी इसका श्रेय उन्हें नहीं दिया।

हमारे समय के लोग जानते हैं कि राव इस खेल में कितने निपुण थे। आम धारणा थी कि अगर कोई बड़ा विवाद हो और सरकार उसमें घिर गई हो, तो तय था कि एक दूसरा बड़ा मुद्दा पहले मुद्दे से लोगों का ध्यान हटा देता था। अगर ऐसा नहीं होता, तो उसे इतनी खूबसूरती से दूसरा मोड़ दे दिया जाता ताकि सबका ध्यान बंट जाता। बहुत सारे लोगों को याद होगा कि वह हर्षद मेहता विवाद में अटैची में एक करोड़ रुपये लेने के आरोपी थे। बहस का मुद्दा यह होना चाहिए था कि उन्हें पैसे मिले या नहीं, अगले दिन ज्यादातर चर्चाएं इस बात पर केंद्रित थीं कि अटैची कितनी बड़ी थी? क्या एक आदमी इसे खींच सकता था? और कितने के नोट थे? भ्रष्टाचार का असल मुद्दा और क्या हर्षद मेहता राव से मिले थे, इन पर शायद ही चर्चाएं हो पाईं।

चारों ओर से घिरी वर्तमान यूपीए सरकार तृणमूल कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से प्रकट रूप से संकट में फंसी दिख रही है। लगता है कि यह सरकार अच्छी तरह से राव के नक्शेकदम पर चल रही है। आप इस सरकार के घोटालों की लिस्ट देखिए और आपको समझ में आ जाएगा कि इस सरकार ने राव से किसी मोर्चे पर तो बेहतर किया है। एक घोटाले के बाद दूसरा घोटाला हो जाता है और लोगों का ध्यान पहले घोटाले पर से हट जाता है। हाइपर-ऐक्टिव मीडिया भी आगे बढ़ जाता है, क्योंकि पहले वाला ‘विशाल घोटाला’ ठंडे बस्ते में चला जाता है।

यह व्यवस्था घोटाले के सूत्रधारों के लिए अच्छी तरह से काम करती है। नित नए घोटाले सामने आने से उन्हें सुस्ताने का वक्त मिल जाता है। घोटाले में फंसा व्यक्ति जानता है कि कोई नया घोटाला आते ही सबका ध्यान कुछ समय के लिए दूसरों पर चला जाता है और वह इस तरह सीना चौड़ा करके घूमता है जैसे कुछ हुआ ही न हो।

इसे समझने के लिए यहां कुछ घोटालों का जिक्र कर रहा हूं। कैश फॉर वोट और हसन अली हवाला घोटाला 2008 में, मधु कोड़ा माइनिंग घोटाला और सुकना जमीन घोटाला 2009 में, कॉमनवेल्थ गेम्स और आदर्श हाउसिंग घोटाला 2010 में। इसरो-देवास डील, टाट्रा ट्रक घोटाला, कुख्यात 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला, दिल्ली एयरपोर्ट जमीन घोटाला, सुनियोजित तरीके से एयर इंडिया/ इंडियन एयरलाइंस की ‘हत्या’ और पूर्व आर्मी चीफ वीके सिंह के उम्र को लेकर विवाद और सीवीसी की नियुक्ति में गड़बड़ी को लेकर विवाद। यह लिस्ट बढ़ती ही जाएगी।

जो मैं कह रहा हूं, वह एक सरसरी निगाह डालने पर भी समझा जा सकता है। अलग-अलग घोटाले अलग-अलग समय पर हुए और अलग-अलग लोग इनमें ऐसे जुड़े पाए गए जैसे किसी नाटक के पात्र हों। काफी हद तक यही लगता है कि पिछले घोटाले से ध्यान हटाने, पीछा छुड़ाने के लिए अ��ला घोटाला सामने आया। हो सकता है कि मैं ओवर-रिऐक्ट कर रहा होऊं या फिर निराशावादी हो रहा होऊं, लेकिन यह सब इतना अफसोसजनक है कि हाल ही में तृणमूल कांग्रेस का सरकार से हाथ खींच लेने की धमकी देना भी कुछ फर्क पैदा करता नहीं दिखता। 

ये नेता लोगों को काफी ज्यादा बेवकूफ बनाते रहे हैं। जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूं, ऐसा लगता है कि हमारे नेता पुरातन काल में रह रहे हैं। वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि दुनिया काफी आगे बढ़ चुकी है और भोले-भाले भारतीयों को बेवकूफ बनाने की जो चालें सालोंसाल से चलते आ रहे हैं, वे अब पूरी तरह से नाकामयाब हैं। हां, यह हो सकता है कि मीडिया पुराने मामले को छोड़कर नए मामले को टीआरपी के चक्कर में भुनाने लगता हो, लेकिन विशालकाय सोशल मीडिया, जिसका आधार दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है और जो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बना बना रहा है, का असर कोई आई-गई बात नहीं है। इस सोशल मीडिया को इग्नोर नहीं किया जा सकता।

लगभग हरेक घोटाला डॉक्युमेंटेड है और जो कोई भी इसे पढ़ना/देखना चाहे, यह सभी के लिए उपलब्ध है। बस इतना ही नहीं, जैसे ही यह लगता है कि कोई घोटाला अपनी मौत मर रहा है, अचानक कोई न कोई उसके बारे में कुछ न कुछ जरूर छेड़ देता है और वह फिर से चर्चा के दायरे में आ जाता है। शुक्र है। और सिर्फ इसीलिए मीडिया की नजरों में आने से बच गए इनमें से कई घोटाले जागरूक सिटिजन जर्नलिस्ट्स की नजरों से नहीं बच पाते। वे सभी अपराधियों को याद दिलाते रहते हैं कि लोग अब पहले से कहीं ज्यादा जागरूक हैं, और न सिर्फ यह कि वे उनकी करनियां भूलेंगे नहीं,  बल्कि वे उनके कुकर्मों को उनके पास मौजूद प्लैटफॉर्म पर खूब दिखाएंगे-बताएंगे भी।

तो, जो लोग यह सोचते हैं कि वे मेरे देश को और निचोड़ते रहेंगे और बड़े आराम से निकल लेंगे, दोबारा सोचें!!



" 5th pillar corrouption killer " आपको रोजाना समसामयिक विषयों पर नयी सामग्री उपलब्ध कराता है !! जो मेरे और मेरे प्रिय मित्रों द्वारा लिखी गयी होती है ! जिसे आप हजारो
ं की संख्या में पढ़ते हैं, और सेंकडों की संख्या में शेयर व कोमेंट्स भी करते हैं !! मैं अपने सभी लेखक व पाठक मित्रों का दिल से आभार प्रकट करता हूँ !! धन्यवाद !! आपका आभारी :- पीताम्बर दत्त शर्मा ( संपर्क : 9414657511 ) priya mitrwar , saadar namaskaar !! rozana padhen , share karen or apne anmol comments bhi deven !! hmara apna blog , jiska naam hai :- " 5TH PILLAR CORROUPTION KILLER " iska link ye hai ...:-www.pitamberduttsharma.blogspot.com. sampark number :- 09414657511

No comments:

Post a Comment

"निराशा से आशा की ओर चल अब मन " ! पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विश्लेषक)

प्रिय पाठक मित्रो !                               सादर प्यार भरा नमस्कार !! ये 2020 का साल हमारे लिए बड़ा ही निराशाजनक और कष्टदायक साबित ह...