सभी दर्दों से दूर जीवन व्यतीत करने वाले मेरे प्रिय मित्रो !! पेरासिटामोल भरा नमस्कार !!
पंजाबी के मशहूर गायक स्वर्गीय सुरजीत बिन्द्रखिया जी ने ये प्यारा सा द्विअर्थी गीत गाया था तो पूरे भारत में लोग मज़े ले - ले कर गाया और सुना करते थे !! इस गीत में एक मीठा सा " मज़ाक " था जो देवर - भाभी का चुलबुला प्रेम भी दर्शाता था !! आज मुझे ये गीत इसलिए याद आ गया क्योंकि हमारे नेता भारत की जनता को अपनी भाभी समझने लग गए हैं !! पुरानी कहावत भी है कि " माड़े दी जनानी यारो भाभी सभ दी "!!
पहले जनता को अपने गलत निर्णयों से परेशान करते हैं !फिर कहते हैं कि हमारे शासन में ज़रा सी भी हेराफेरी नहीं हुई है !! अगर कोई शिकायत आएगी तो हम जाँच करवा लेंगे !
जनता भी अपने दर्द को इस शेयर की तरह से बयान करती है कि ..."क्या पूछते हो ....दर्द कंहा होता है ?
इक जगह हो तो बताएं कि यंहा होता है !!!
इस देश में " आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी,असामाजिक तत्वों से असुरक्षा, लचर विदेश व शिक्षा नीति, असुरक्षित भारतीय सीमाएं, फटेहाल अफसरशाही और दीर्घ कालिक न्यायव्यवस्था जैसी अनगिनित व्यधायें फैली हुईं हैं ! जिनके सुधरने का कोई तरीका नज़र नहीं आ रहा !!
क्या होगा राम ही जाने !! क्योंकि सभी बड़े राजनितिक दलों के नेताओं ने अपनी पार्टियों के असूलों को त्याग कर केवल अपने हितो को साधना ही अपना ध्येय बना लिया है !! सभी पार्टियों के पदाधिकारी एक दुसरे के ना केवल संपर्क में रहते है बल्कि एक दुसरे की भरपूर मदद भी करते हैं !! छोटे कार्यकर्ताओं को तो ये इतना "उन्मादी " बना देते हैं कि वो आपस में कई सालों तक बोलते नहीं या चुनावों में एक दुसरे से लड़ पड़ते हैं !!
आज हालत यह है कि राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनते, उन्हें राजनीति के मध्य में आने का अवसर ही नहीं देते. वे कार्यकर्ताओं को स़िर्फ झंडा उठाने और दरी बिछाने के काम में इस्तेमाल करते हैं, बल्कि अब हालत यह है कि ये काम भी कार्यकर्ताओं से छीन लिए गए हैं और इन्हें ठेके पर कराया जा रहा है. कई पार्टियां तो मंच संचालन और अधिवेशनों की व्यवस्था भी इंवेंट कंपनियों को सौंप रही हैं और एक फाइव स्टार कल्चर के तहत सारे काम पूरे किए जा रहे हैं !!
राजनीतिक दल जब अस्तित्व में आए, तो उन्होंने चुनाव जीतने के लिए भाषा, जाति एवं धर्म का इस्तेमाल किया. परिणामस्वरूप देश में भाषा, जाति एवं धर्म के आधार पर भेदभाव होने लगा और कुछ ग्रुप बन गए. ये ग्रुप आर्थिक हितों के आधार पर कम और जातीय हितों के आधार पर ज़्यादा बने. धार्मिक प्रतीकों के आधार पर चुनाव जीतने की कोशिशें हुईं, लेकिन इस सारी प्रक्रिया में कहीं भी जनता नज़र नहीं आती. आख़िर में राजनीतिक दलों ने जाति, धर्म एवं भाषा से काम बनता न देखकर सीधे मतदाताओं को प्रलोभन देने का तरीका अपनाया. वे शराब और पैसा बड़ी संख्या में लोगों को उपलब्ध कराने लगे. धीरे-धीरे लोगों का एक हिस्सा, जो बूथ पर जाता है, वह इन लुभावने प्रलोभनों में आने लगा. इस तरह राजनीतिक दलों को वोट अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से इन प्रलोभनों के ज़रिए मिलने लगे, लेकिन धीरे-धीरे लोकतंत्र देश से दूर होने लगा.
अब अगर इस देश को अराजकता, हिंसा और अपराध से बचाना है, तो दोबारा हमें संविधान के मूल सिद्धांतों पर लौटना पड़ेगा, जहां संविधान यह कहता है कि लोगों का प्रतिनिधित्व संसद में होना चाहिए और जब लोगों का प्रतिनिधित्व लोगों के बीच से संसद में होगा, तो वह व्यक्ति अपने चुनाव क्षेत्र की बात भी रखेगा और साथ ही देश की बात भी लोकसभा में रखेगा. आज तो स्थिति यह है कि पार्टी जैसा सोचती है, वैसी बात ही लोकसभा में रखी जाती है. अब यह देश के लोगों द्वारा फैसला करने के लिए एक बड़ा मुद्दा है कि क्या देश को बदलने के लिए संविधान आधारित राज्य व्यवस्था होनी चाहिए या फिर देश को चलाने के लिए संविधान द्वारा सुझाए गए क़दमों के विपरीत मौजूदा पार्टियों वाला कोई सिस्टम होना चाहिए! सोचना लोगों को इसलिए भी है, क्योंकि आज जो व्यवस्था चल रही है, वह व्यवस्था संविधान ने नहीं बनाई है, बल्कि वह संविधान को धोखा देकर बनाई गई है.
संविधान की किताब देखने पर यह पता चलता है कि उसमें कहीं भी राजनीतिक दलों का ज़िक्र नहीं है. राजनीतिक दल तब कहां से आए, क्योंकि संविधान तो यह कहता है कि चुनाव आयोग होगा, जिसके दो काम होंगे. एक, उम्मीदवारों द्वारा भरे गए शपथ पत्र की जांच करना और दूसरा, निष्पक्ष चुनाव कराना. ऐसे में सवाल उठता है कि तब फिर ये राजनीतिक दल कहां से आ गए, क्योंकि अगर संविधान निर्माताओं के मन में राजनीतिक प्रणाली का राजनीतिक दलों वाला स्वरूप होता, तो वे संविधान में उसका सा़फ-सा़फ ज़िक्र करते. पर दरअसल, ऐसा नहीं था, क्योंकि संविधान का निर्माण गांधी जी की इच्छानुसार हुआ, जिसमें लोगों के प्रतिनिधियों के लोकसभा में जाने की बात कही गई.(Chauthi Duniya)
क्यों मित्रो !! आपका क्या कहना है ,इस विषय पर...??
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पीताम्बर दत्त शर्मा , (समाज - सेवी व लेखक )
हेल्प-लाईन-बिग-बाज़ार ,
सूरतगढ़ .( मो . 91-9414657511, 01509-222768 फेक्स .)
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इस देश में " आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी,असामाजिक तत्वों से असुरक्षा, लचर विदेश व शिक्षा नीति, असुरक्षित भारतीय सीमाएं, फटेहाल अफसरशाही और दीर्घ कालिक न्यायव्यवस्था जैसी अनगिनित व्यधायें फैली हुईं हैं ! जिनके सुधरने का कोई तरीका नज़र नहीं आ रहा !!
क्या होगा राम ही जाने !! क्योंकि सभी बड़े राजनितिक दलों के नेताओं ने अपनी पार्टियों के असूलों को त्याग कर केवल अपने हितो को साधना ही अपना ध्येय बना लिया है !! सभी पार्टियों के पदाधिकारी एक दुसरे के ना केवल संपर्क में रहते है बल्कि एक दुसरे की भरपूर मदद भी करते हैं !! छोटे कार्यकर्ताओं को तो ये इतना "उन्मादी " बना देते हैं कि वो आपस में कई सालों तक बोलते नहीं या चुनावों में एक दुसरे से लड़ पड़ते हैं !!
आज हालत यह है कि राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनते, उन्हें राजनीति के मध्य में आने का अवसर ही नहीं देते. वे कार्यकर्ताओं को स़िर्फ झंडा उठाने और दरी बिछाने के काम में इस्तेमाल करते हैं, बल्कि अब हालत यह है कि ये काम भी कार्यकर्ताओं से छीन लिए गए हैं और इन्हें ठेके पर कराया जा रहा है. कई पार्टियां तो मंच संचालन और अधिवेशनों की व्यवस्था भी इंवेंट कंपनियों को सौंप रही हैं और एक फाइव स्टार कल्चर के तहत सारे काम पूरे किए जा रहे हैं !!
राजनीतिक दल जब अस्तित्व में आए, तो उन्होंने चुनाव जीतने के लिए भाषा, जाति एवं धर्म का इस्तेमाल किया. परिणामस्वरूप देश में भाषा, जाति एवं धर्म के आधार पर भेदभाव होने लगा और कुछ ग्रुप बन गए. ये ग्रुप आर्थिक हितों के आधार पर कम और जातीय हितों के आधार पर ज़्यादा बने. धार्मिक प्रतीकों के आधार पर चुनाव जीतने की कोशिशें हुईं, लेकिन इस सारी प्रक्रिया में कहीं भी जनता नज़र नहीं आती. आख़िर में राजनीतिक दलों ने जाति, धर्म एवं भाषा से काम बनता न देखकर सीधे मतदाताओं को प्रलोभन देने का तरीका अपनाया. वे शराब और पैसा बड़ी संख्या में लोगों को उपलब्ध कराने लगे. धीरे-धीरे लोगों का एक हिस्सा, जो बूथ पर जाता है, वह इन लुभावने प्रलोभनों में आने लगा. इस तरह राजनीतिक दलों को वोट अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से इन प्रलोभनों के ज़रिए मिलने लगे, लेकिन धीरे-धीरे लोकतंत्र देश से दूर होने लगा.
अब अगर इस देश को अराजकता, हिंसा और अपराध से बचाना है, तो दोबारा हमें संविधान के मूल सिद्धांतों पर लौटना पड़ेगा, जहां संविधान यह कहता है कि लोगों का प्रतिनिधित्व संसद में होना चाहिए और जब लोगों का प्रतिनिधित्व लोगों के बीच से संसद में होगा, तो वह व्यक्ति अपने चुनाव क्षेत्र की बात भी रखेगा और साथ ही देश की बात भी लोकसभा में रखेगा. आज तो स्थिति यह है कि पार्टी जैसा सोचती है, वैसी बात ही लोकसभा में रखी जाती है. अब यह देश के लोगों द्वारा फैसला करने के लिए एक बड़ा मुद्दा है कि क्या देश को बदलने के लिए संविधान आधारित राज्य व्यवस्था होनी चाहिए या फिर देश को चलाने के लिए संविधान द्वारा सुझाए गए क़दमों के विपरीत मौजूदा पार्टियों वाला कोई सिस्टम होना चाहिए! सोचना लोगों को इसलिए भी है, क्योंकि आज जो व्यवस्था चल रही है, वह व्यवस्था संविधान ने नहीं बनाई है, बल्कि वह संविधान को धोखा देकर बनाई गई है.
संविधान की किताब देखने पर यह पता चलता है कि उसमें कहीं भी राजनीतिक दलों का ज़िक्र नहीं है. राजनीतिक दल तब कहां से आए, क्योंकि संविधान तो यह कहता है कि चुनाव आयोग होगा, जिसके दो काम होंगे. एक, उम्मीदवारों द्वारा भरे गए शपथ पत्र की जांच करना और दूसरा, निष्पक्ष चुनाव कराना. ऐसे में सवाल उठता है कि तब फिर ये राजनीतिक दल कहां से आ गए, क्योंकि अगर संविधान निर्माताओं के मन में राजनीतिक प्रणाली का राजनीतिक दलों वाला स्वरूप होता, तो वे संविधान में उसका सा़फ-सा़फ ज़िक्र करते. पर दरअसल, ऐसा नहीं था, क्योंकि संविधान का निर्माण गांधी जी की इच्छानुसार हुआ, जिसमें लोगों के प्रतिनिधियों के लोकसभा में जाने की बात कही गई.(Chauthi Duniya)
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पीताम्बर दत्त शर्मा , (समाज - सेवी व लेखक )
हेल्प-लाईन-बिग-बाज़ार ,
सूरतगढ़ .( मो . 91-9414657511, 01509-222768 फेक्स .)
सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
dhanywaad ji !! kripya mera blog join kijiye !! aapka lekhan wala blog mila nahi is liye chitron wale blog par comment kar diya hai . mujhe bahut sundar lage aapke chitr or prernadaayi bhi .
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